गुज़रे दिनों की मशहूर अभिनेत्री आशा पारेख की मां का नाम सलमा था, सलमा इब्राहीम लाखड़ावाला. बच्चूभाई मोतीलाल पारेख से शादी करके वो सुधा हो गयी थी. बहुत हंगामा हुआ था दोनों के परिवार में. लेकिन मोहब्बत किसी भी किस्म की ऊंच-नीच को नहीं मानती.
मज़हब की दीवारें भी कोई मायने नहीं रखतीं. ज़बरदस्त विरोध के बावजूद दोनों ने कोर्ट में विवाह किया. बच्चूभाई को परिवार और व्यापार से बेदखल कर दिया गया.
उन दिनों गांधी जी ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन छेड़ रखा था. आशा की मां सलमा आज़ादी की दीवानी थी. एक बार जुलूस को पुलिस ने रोक लिया. लेकिन आज़ादी के मतवाले न माने. तब धर-पकड़ हुई. सलमा गिरफ़्तार होते होते बचीं. उस समय आशा उनके पेट में थी.
यदि वो गिरफ्तार हो जातीं तो आशा का जन्म जेल में हुआ होता. कुछ दिन बाद आशा का जन्म हुआ. वो 02 अक्टूबर 1942 का दिन था. महात्मा गांधी का जन्म दिन.
आशा की नानी अस्मा ने बच्ची का नाम ज़ुलेखा रखने की सलाह दी. लेकिन पंडितों ने कुंडली में नाम का पहला अक्षर निकाला – क या ग. तय हुआ कि बच्ची का नाम कृष्णा रखा जाए. किसी ने सुझाव दिया कृष्णा नहीं गंगूबाई ठीक होगा. जितने मुंह उतने नाम. आख़िरी फैसला मां-बाप पर छोड़ दिया गया. उन्होंने नाम दिया आशा.
आशा बड़ी हुई. फिल्मालय के शशधर मुख़र्जी ने पहला ब्रेक दिया – दिल देके देखो. दिलीप कुमार के मित्र थे शशधर. एक दिन दिलीप कुमार सेट पर आये. उन्हें आशा बहुत अच्छी लगी. जैसे कोई परी उतर आई हो आसमान से. शशधर ने बताया कि ये फ़िल्म की नयी हीरोइन है – आशा.
दिलीप कुमार बोले – आशा परी. बहुत नाम कमाएगी.
जाने क्यों शशधर नहीं माने. उन्होंने सोचा. मज़ाक किया है युसूफ ने. अगर शशधर गंभीर हो गए होते तो आशा का नाम आशा परी होता लेकिन नियति में उसे आशा पारेख के नाम से ही मशहूर होना लिखा था.
आशा पारेख ने नासिर हुसैन की फिल्म ‘दिल देके देखो’ (1959) से अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की थी. दोनों ने ‘तीसरी मंजिल’ और ‘कारवां’ समेत सात फिल्मों में साथ काम किया है.
बाद में 1992 में उन्हें द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया. आशा पारेख 1959 से 1973 के मध्य सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक थीं .अभिनेत्री होने के साथ निर्माता और निर्देशक भी हैं. उनका हमेशा ही फिल्म इंडस्ट्री में अच्छा खासा दखल रहा.
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