नए-नए बछड़ों की जोड़ी को शुरू-शुरू में कंधों पर जुवा रखकर खेत में ख़ाली घुमाया जाता है. खुले वन में स्वच्छंद चरने, विचरण करने, कुलांचें भरने वाला बछड़ा समझ नहीं पाता कि उसे ज़बरदस्ती बाँधकर इस तरह क्यों घुमाया जा रहा है. घूमने में उसे कोई हर्ज नहीं मालूम होता पर बंधने में उसे अपनी आजादी छिन गई लगती है. पहले अकेले बछड़े को रस्सी से बाँधकर घुमाया जाता है. बाद में एक बार और बछड़े को उसके साथ खड़ाकर उसकी जोड़ी बना ली जाती है.
(Article Vidya Sagar Nautiyal)
हलिया बछड़ों को पहचानता है और निर्णय लेता है कि कौन बाएँ रहेगा किसको दाहिनी ओर रखा जाना ठीक होगा. तब उस जोड़ी के कंधों पर जुवा रखकर उसे साथ-साथ चलने का अभ्यास कराया जाता है. शुरू-शुरू में हलिया उन्हें मारता नहीं. लीक छोड़कर इधर-उधर भटक रहे किसी बछड़े को धीरे से पुचकारता है, लाठी नहीं चलाता . सोठी (किसी पेड़ की एक बारीक शाखा) को धीरे से उसकी पीठ पर छुआ भर देता है. ऐसे कि बछड़े को लगे कि हलिया सोठी से नहीं, खुद अपने हथेली के इशारे से उसे बाईं या दाहिनी ओर चलने को कह रहा हो.
बहुत अनमना लगता है बछड़े को जानवरों के झुंड से अलहदा कर दिया जाना. गाएँ-बिछयाएँ जंगल में घास चरने लगी हैं. दर-नजदीक वनों से उनकी घंटियों का आवाजें सुनाई दे रही हैं. बछड़े को बाँध दिया गया है और खेतों में घुमाया जा रहा है. उसके हिसाब से बेवजह घुमाया जा रहा है. अब बंधे -बंधे घूमने का उसे अभ्यास होने लगा है. बछड़ों को ऐसे ही साधा जाता है. तब एक दिन ख़ाली जुवे की जगह उसके कंधों पर हल रख दिया जाता है. उस दिन उसे हल लगाने का अभ्यास कराया जाता है. बछड़े के कंधों पर रखे हल का फल कठोर धरती को चीरता हुआ जमीन पर उसकी सतह से नीचे-नीचे आगे बढ़ने लगता है. हल खींचते हुए बछड़े की कुछ -कुछ समझ में आने लगता है कि उसे रस्से से बाँधकर इस तरह क्यों फिराया जाता था. आगे की जिंदगी कठोर होगी उसे आभास होने लगता है.
दो-चार सींव हल लगाकर बछड़े को हल से खोल दिया जाता है. बछड़ा बड़ा खुश होता है. लेकिन यह बात उसकी समझ में आने लगती है कि उसे आने वाले दिनों में यों ही दो-चार सींव खोदने मात्र से छुट्टी नहीं मिलने वाली है. यह पूरा खेत, यह लंबा-चौड़ा खेत उसे पूरा खोदना होगा, एक-एक सींव करके जोतना होगा. अब वह पूरी तरह समझ गया है कि गाय-बछियाओं में और उसमें क्या फर्क है. गाय-बछियाएँ वन में चर रही हैं, बछड़ा है कि अपना पूरा जोर लगाकर धरती को हल के फल से चीरने में लगा है. उसे सोठियों की मार सहने का भी अभ्यास होने लगा है सोठी जहाँ लगती है वहाँ दर्द होता है. उसे सहलाएगा कौन?
बाद में, कुछ ही दिनों के बाद एक ऐसा भी दिन उसकी जिंदगी में आता है जब खेत में ले जाए जाने से पेश्तर घर पर ही उसके मुख पर बारीक रस्सियों से बुना छींका बाँध दिया जाता है. हल लगाते वक़्त वह बाएँ-दाएँ घास के तिनकों की ओर या किसी उगी हुई फसल-वनस्पति की ओर न लपके. और लपक भी जाए तो उसे चर न सके. नुक़सान न पहुँचा सके. इस बात की पक्की व्यवस्था कर ली जाती है. उससे बाक़ायदा हल लगवाया जाता है. सुबह की अकड़ दोपहर होते-होते काफूर हो जाती है. पूरा खेत उसे जोतना होता है.
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खेत की जुताई करते-करते बछड़ा थक जाता है, थककर चकनाचूर हो जाता है. उस वक़्त उसकी तबियत करती है कि उसे खुला छोड़ दिया जाए. वह स्वच्छंद होकर घास चरना चाहता है, जी भर पानी पीकर अपनी प्यास बुझाना चाहता है. दोपहर में अपने थके हलिया के साथ उसके आगे-आगे घर लौटते बछड़े-बैलों के पाँव सीधे नहीं पड़ते. उन्हें घास की तलाश रहती है, उन्हें पानी की तलाश रहती है. उन्हें अपने खूटे पर पहुँचने की, खूटे पर आराम करने की इच्छा होती है.
और रात में वे सोते हैं तो उन्हें अहसास होता है कि कल, रात खुलने से पहले. झुसमुसे में उनके मुख पर फिर से छींका बाँध दिया जाना है और उन्हें जोत दिया जाना है. हलिया धूप के तेज होने से पहले खेत के काफ़ी बड़े हिस्से को जोत देना चाहता है. धूप हलिया को भी परेशान करती है. लेकिन हल लगाए बगैर, जमीन को सींव दर सींव पूरा जोते बगैर चैन नहीं मिल सकता, छुट्टी नहीं मिल सकती. इनसानों को जिंदा रहने के लिए, ढोर डंगर के जीवित रहने के लिए ज़रूरी है कि हलिया और उसके बैल धरती पर हल लगाने का काम पूरा करें.
दुनिया के चलते रहने के लिए जरूरी है कि खेतों से साल दर साल, फसल धान-गेहूँ की बालें उपजती रहें, दूसरे अनाजों की बालें उगती रहें जिन्हें खाकर इनसान जिंदा रहते हैं और उनसे डंठल पत्तियाँ भी मिलती रहें जिन्हें खाकर इनसान के पालतू पशु जिंदा रहते हैं. ज़रूरी है कि खेतों में हल चलता रहे. हल नहीं चलेगा तो दुनिया में भूख पैदा हो जाएगी. जबरदस्त भूख. और सब कुछ ठप्प हो जाएगा. दुनिया का चाल-चलन ठप्प हो जाएगा. हल नहीं चलेगा तो पिरथी उलट जाएगी. हल का सीव दर सींव खींचा जाना, धरती के गर्भ को चीरते जाना ज़रूरी है. उस काम में कोई भी जुटे- कम उम्र के हलिया लड़के या बूढ़े कमजोर लोग, बैल हों या बछड़े हों या बूढ़े टाँगे हों जो कठोर धरती पर हल खींचने में अपनी ताक़त लगाकर अपनी देह को मिटा दें- यह कोई सवाल नहीं. कोई खींचे, पर उस हल को, धरती की गहराइयों में दबे उसके नुकीले, सख़्त फल को सीव दर सींव खींचता रहे यह ज़रूरी है.
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और यह भी जरूरी है कि जो भी हलिया उन बैलों को हाँक रहा है जोड़ी बैल को बाएँ-दाएँ जोड़ने के बाद वह हल की गूंठ अपने हाथ से पकड़ ले. पकड़ ले और अपनी पूरी ताक़त के साथ उसे दबाता रहे. इतने ज़ोर के साथ कि हल का फल धरती के गर्भ के अंदर दबा रहे, डूबा रहे, छिटके नहीं, ऊपर न चला आए. दूसरे हाथ से वह बैलों की रस्सी भी थामे . रस्सी, जिसके इशारे से वह बैलों का हाँकता है. जरूरत पर रोकता है, ज़रूरत पर घुमाता है. कभी बाएँ, कभी दाएँ, कभी उल्टे. और जब रस्सी की ढील या उसकी खींच से बैल हलिया का इशारा न समझे या थककर जिद करने लगे और लीक छोड़कर चलने लगे तब हलिया सोठी के ज़ोर से उन्हें जबरदस्ती अपनी मर्जी के मुताबिक़ चला सके-हल के लगाए जाने की जरूरत होती है कि ऐसा भी हो.
(Article Vidya Sagar Nautiyal)
यह लेख विद्यासागर नौटियाल की कहानी कुँवारीधार बोलेगी का हिस्सा है.
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29 सितंबर 1933 में जन्मे नौटियाल जी का जीवन साहित्य और राजनीति का अनूठा संगम रहा. वे प्रगतिशील लेखकों की उस विरल पीढी से ताल्लुक रखते थे जिसने वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये कला से कभी समझौता नहीं किया.हेमिंग्वे को अपना कथा गुरू मानने वाले नौटियाल जी 1950 के आस-पास कहानी के क्षेत्र में आये और शुरूआत में ही भैंस का कट्या जैसी कहानी लिखकर हिन्दी कहानी को एक नयी जमीन दी.शुरआती दौर की कहानियां लिखने के साथ ही वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गये और फिर एक लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया में अलक्षित रहे. उनकी शुरूआअती कहानियां लगभग तीस वर्षों बाद 1984 में टिहरी की कहानियां नाम से संकलित होकर पाठकों के सामने आयीं.नौटियालजी की साहित्यिक यात्रा इस मायने में भी विलक्षण है कि लगभग चार दशकों के लम्बे हाइबरनेशन के बाद वे साहित्य में फिर से सक्रिय हुए! इस बीच वे तत्कालीन उत्तर-प्रदेश विधान-सभा में विधायक भी रहे. विधायक रह्ते हुए उन्होंने जिस तरह से अपने क्षेत्र को जाना उसका विवरण एक अद्भुत आख्यान भीम अकेला के रूप में दर्ज किया जिसे विधागत युक्तियों का अतिक्रमण करने वाली अनूठी रचना के रूप में याद किया जायेगा.लेखन की दूसरी पारी की शुरूआत में दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था ,“ मुझे लिखने की हडबडी नहीं है”.आश्चर्य होता है कि जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं जिसमें कहानी संग्रह ,उपन्यास,संस्मरण,निबन्ध और समीक्षाएं शामिल हैं.यह सब लिखते हुए वे निरन्तर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहे.देहरादून के किसी भी साहित्यिक -सामाजिक कार्य-क्रम में उनकी मौजूदगी हमेशा सुख देती थी-वे वक्त पर पहुंचने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में थे-प्राय: वे सबसे पहले पहुंचने वालों में होते.उनकी विनम्रता और वैचारिक असहमतियों को दर्ज करने की कठोरता का सामंजस्य चकित करता था.
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वे एक प्रयोगशील कथाकार थे. सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनके यहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा. [नवीन नैथानी का लिखा यह परिचय लिखो यहाँ वहां से साभार]
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