वरिष्ठ कथाकार व कवि गम्भीर सिंह पालनी पिछले 12 नवम्बर 2018 को हल्द्वानी में डॉ. प्रशान्त निगम के पास अपने स्वास्थ्य की जॉच के लिए पहुँचे. कालाढूँगी रोड स्थित ओपी दा के ओपी मेडिकोज में उनसे मुलाकात हो गई. देश की शिक्षा व्यवस्था पर मेंढक जैसी कालजयी कहानी लिखने वाले पालनी नैनीताल बैंक लि. से सीनियर मनैजर के पद से कुछ महीने पहले ही सेवानिवृत्त हुए हैं. पिछले लगभग पॉच वर्षों से देहरादून में रह रहे कथाकार पालनी जी का पुश्तैनी घर रुद्रपुर के पास काशीपुर रोड में स्थित दानपुर गॉव में है. वे मूल रुप से बागेश्वर जिले के रहने वाले हैं. पालनी जी की पूरी शिक्षा दानपुर व रुद्रपुर में हुई. वे कुमाऊँ विश्वविद्यालय में एमए ( हिन्दी ) में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर विश्वविद्यालय का गोल्ड मैडल प्राप्त करने वालों में रहे हैं.
पालनी जी तराई ( ऊधमसिंह नगर ) के सामाजिक व राजनैतिक परिवेश पर एक उपन्यास लिखने की योजना पर काम कर रहे हैं, जिसके लिए वे इन दिनों पुराने अखबारों व पत्र – पत्रिकाओें को खँगाल रहे हैं. चूँकि वे तराई में ही जन्मे और उनकी शिक्षा – दीक्षा भी तराई के ही सामाजिक परिवेश में हुई और उनकी बैंक की नौकरी का एक बड़ा हिस्सा भी तराई के विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करते हुए ही बीता इसलिए वे तराई को एक बेहतर ढंग से समझते और जानते हैं. तराई में 1980-90 के दशक में दिल दहला देने वाला आतंकवाद का दौर भी उन्होंने काफी नजदीक से देखा है और तराई में उसके पैर जमाने के सामाजिक व राजनैतिक कारणों से भी वे भली भॉति परिचित हैं. आज तराई के सबसे मुख्य शहर व ऊधमसिंह नगर जिले के मुख्यालय रुद्रपुर को उन्होंने एक कस्बे से महानगर में बदलते हुए अपनी ऑखों से देखा है.
तराई जिसे कभी मिनी हिन्दुस्तान कहा जाता था, आज अनेक तरह के सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक बदलाव के दौर से बहुत तेजी के साथ गुजर रहा है. आज वह उत्तराखण्ड के औद्योगिक विस्तार की एक महत्वपूर्ण कड़ी भी है तो विभिन्न तरह के अपराध भी तेजी के साथ वहॉ हो रहे हैं. दूसरी ओर तराई की युवा पीढ़ी भी बहुत तेजी के साथ नशे की गर्त में भी जा रही है. जो तराई कभी देश की हरित क्रान्ति की जनक रही, उस तराई में सोना उगलने वाली उपजाऊ जमीन हर रोज सीमेन्ट व कंक्रीट के जंगल में बदल रही है और कथित ” विकास ” की भेंट चढ़ रही है. जिससे यहॉ ही हवा भी अब प्रदूषण का शिकार होने लगी है. यहॉ का सामाजिक , आर्थिक व राजनैतिक ताना बाना तेजी के साथ अपनी सूरत – सीरत दोनों बदल रहा है.
तराई का तेजी से बदल रहा यही परिवेश पालनी जी के उपन्यास की पृष्ठभूमि होगी. वैसे तराई पर उपन्यास लिखने की पालनी जी की योजना बहुत पुरानी है पर बैंक की नौकरी के दौरान विभिन तरह के दबावों के कारण वे इसे मूर्तरुप नहीं दे पाए. सेवानिवृत्त होने के बाद वे अब अपनी योजना को धरातल में उतारने में जुट गए हैं. उपन्यास के कुछ ड्राफ्ट वे लिख भी चुके हैं.
उल्लेखनीय है कि पालनी जी का मूल गॉव बागेश्वर जिले के पालनी कोट के सेज बड़ेत के पट्टी तल्ला कत्यूर में है. जहॉ से 1950 में उनके पिता आनन्द सिंह पालनी व माता कमला पालनी तत्कालीन नैनीताल जिले ( अब ऊधमसिंह नगर जिला ) की तराई में रुद्रपुर के गॉव दानपुर में आकर बस गए थे. वे तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री गोविन्द बल्लभ पंत के ” तराई बसाओ ” अभियान के तहत बागेश्वर जिले के अपने मूल गॉव से दानपुर में आकर बसे थे. यहीं 14 अप्रैल 1958 को उनका जन्म हुआ. कुमाऊँ विश्वविद्यालय से एमए हिन्दी में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पर रहने वाले पालनी की पहली कहानी नवम्बर 1978 में मुंशी प्रेमचंद के पुत्र श्रीपत राय के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका कहानी में प्रकाशित हुई थी.
वर्तमान साहित्य पत्रिका के 1991 में प्रकाशित कहानी – महाविशेषांक में गम्भीर सिंह पालनी की लम्बी कहानी मेंढक प्रकाशित हुई थी. जो तब हिन्दी कथासंसार में बहुत चर्चित हुई थी. वर्तमान साहित्य के इस महाविशेषांक के अतिथि सम्पादक कथाकार रविन्द्र कालिया थे. इंडिया टूडे के सन् 2007 में प्रकाशित विशेषांक में मेंढक कहानी को पिछले 20 वर्षों की श्रेष्ठ कहानियों की सूची में शामिल किया गया था. एक तरह से कहें तो मेंढक कहानी ने पालनी को हिन्दी कथा संसार में स्थापित कर दिया. यह कहानी हमारे देश की शिक्षा प्रणाली के विद्रूप चेहरे को सामने रखती है. कहानी में दिखलाया गया है कि हमारे देश के गॉव, कस्बों व शहरों में अभिभावकों की ओर से बच्चों पर साइंस की पढ़ाई करने का बहुत दबाव रहता है. बहुत सारे बच्चे डॉक्टर बनने का सपना लेकर साइंस विषय ले लेते हैं, लेकिन ग्रेजुएशन तक पहुँचने से पहले ही उनके सुनहरे सपने कई कारणों से बिखरने लगते हैं और वे जीवन के दूसरे क्षेत्रों में जाने को विवश होते हैं.
मेंढक इसी त्रासदी की कहानी है. बाल्यावस्था, किशोरावस्था और युवावस्था से गुजरते हुए देश के बहुत सारे विद्यार्थियों को यह पता ही नहीं होता कि आगे करना क्या है ? उनके लिए कौन सा क्षेत्र बेहतर होगा ? जब समय निकल जाता है तो तब एकाएक घटी किसी घटना के बाद स्मृतियों के बियावान में विचरते हुए उन सब गतिविधियों की निस्सारता समझ में आती है जो उन वर्षों में ” मेंढकों ” की तरह कूदते – फॉदते – भटकते हुए की गई होती हैं. जिन्हें पता ही नहीं होता कि जाना कहॉ है ?
प्रख्यात आलोचक सुधीश पचौरी ने ” मेंढक ” पर अपनी टिप्पणी में कहा था कि यह एक ” होरी जांटल ” कहानी है. जीवन के बहुत सारे बेसुरे और लगभग सार्वजनिक अनुभव का ब्यौरा देती हुई.कहानी का कथानक इतना पतला है कि दिखता ही नहीं.वह एक संस्मरण की तरह जन्म लेता है. जब कोई दोस्तों के बीच अफसोस के साथ बैठता है और उस अबूझ पहेली को पकड़ना चाहता है , जिसे जीवन कहते हैं. यह एक नई तरह की त्रासद कहानी है. भारतीय यथार्थ में साइंस का थोपा बिरवा क्या – क्या गुल खिलाता है , ” मेंढक ” उसी की कहानी है. हमारी शिक्षा नीति पर इससे विस्फोटक दस्तावेज सम्भव नहीं.
पालनी की कहानी ” चॉदनी चन्दन सदृश ही हम क्यों लिखें ? ” कहानी को साहित्य जगत की चर्चित पत्रिका ” हंस ” को ” प्रेमचंद सम्मान ” भी मिल चुका है. इनके ” मेंढक ” कहानी संग्रह को मध्य प्रदेश का प्रसिद्ध ” अम्बिका प्रसाद दिव्य सम्मान ” भी मिल चुका है.
पालनी की अब तक चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. जिनमें ” मेंढक ” कहानी संग्रह , ” मेंढक तथा अन्य कहानियॉ “, ” चॉदनी चन्दन सदृश ही हम क्यों लिखें ?”, कहानी संग्रह , ” नागकन्या के किले में ” कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.
पालनी जी का तराई की पृष्ठभूमि लिखा जा रहा उपन्यास शीघ्र ही पाठकों के सामने आए इन्हीं शुभकामनाओं के साथ !
जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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