’प्राणो वा अन्नः’ अन्न ही प्राण है, यह वेदोक्त बात है. अन्न को ब्रह्म का स्वरूप भी कहा गया है, अन्न को देवता तुल्य माना गया है, जो हमारे शरीर का पोषण करता है. कुदरत ने मानव शरीर की संरचना इस प्रकार की है कि अन्य जीवों की तुलना में नवजात बालक खाना आदि सब कुछ स्वयं नहीं सीखता और न उसके सारे अवयव जन्म के समय से ही सब कुछ खाने के लिए सक्षम होते हैं. ताउम्र अन्न के सहारे जीवित रहने वाला इन्सान पैदा ह्रोने के कुछ माह तक अन्न पचाने की न तो क्षमता रखता है और न दांतों के अभाव में उन्हें खाने की कुव्वत. नवजात मानव शिशु की पाचन क्रिया लगभग 5-6 माह बाद ही धीरे धीरे विकसित होती है और जल्दी से जल्दी इसी उम्र के बाद शिशु के दांत आने की शुरूआत होती है. दांत आना स्वयं कुदरत का संकेत है कि अब अन्न पचाने की क्षमता उसमें आने लगी है. इसीलिए सोलह संस्कारों के अन्तर्गत अन्नप्राशन संस्कार का विधान भी पांचवे महीने से प्रारम्भ होता है.
(Annaprashan in Uttarakhand)
ऐसी मान्यता है कि नवजात कन्या का अन्न प्राशन विषम माह (पाचवें, सातवें व नौंवे महीने में) जब कि नवजात बालक का अन्नप्राशन सम माह (छठे, आठवें व दसवें महीने में) किया जाता है. लड़कियों का लड़कों से एक महीने पहले इसलिए कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियां ज्यादा चुस्त दुरूस्त व उनका शारीरिक व मानसिक विकास ज्यादा तीव्र गति से होता है. शायद यही इसके पीछे कारण रहा होगा, वरना दोनों के अन्नप्राशन के समय में अन्तर का कोई धार्मिक प्रयोजन नजर नहीं आता.
अन्नप्राशन संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है. अन्न का अभिप्राय तो अनाज से है ही प्राशन का अर्थ होता है – भोजन कराना. अन्नप्राशन यों तो सोलह संस्कारों के अन्तर्गत आने के कारण हर हिन्दू परिवारों में करने का विधान है, लेकिन देश, काल व परिस्थिति के संस्कार की रस्मों में आंशिक भेद हो सकता है. दक्षिण भारत में जहां यह अनुष्ठान मन्दिरों में होता है, वहीं उत्तर भारत में घरों में ही किये जाने की परम्परा है. देश के हर भाग में इस रस्म का नाम भले अलग हो, लेकिन उद्देश्य एक ही है, प्रथम बार शिशु को अन्न चखाना. केरल में इसे चूरूनू, बंगाल में मुखेभात, गढ़वाल में भातखुलाई और कुमाऊॅ में पाशिणी कहते हैं.
जन्म के पांचवे या छठे महीने में इस संस्कार का आयोजन किसी पर्व के मौके पर ही प्रायः किया जाता है यथा- बसंत पंचमी, उत्तरायणी, वैशाखी यानि बिखौती अथवा हरेले पर्व पर. लेकिन अपनी सुविधानुसार किसी भी दिन शुभमूहूत्र्त निकालकर भी किया जा सकता है. त्योहार पर ही अन्नप्राशन किया जाय, ऐसी कोई बाध्यता नहीं है.
नवजात के नामकरण के समय पुरोहित द्वारा उसका पीले वस्त्र पर नाम रोली से लिखा जाता है, उसे सहेजकर सुरक्षित रखा जाता है और अन्नप्राशन यानि अनपाशिनी के समय उसी पीत वस्त्र से उसके लिए पीत परिधान बनाया जाता है. यदि आप चाहें तो षोडशोपचार तथा रक्षाविधान आदि करके भी अनुष्ठान सम्पन्न कर सकते हैं, लेकिन सामान्यतया इस कर्म में पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती. घर में अन्न से बने विविध पकवान बनाये जाते हैं, जिनमें पायस यानि चावल से बनी हुई खीर मुख्य रूप से होती हैं. बालक अथवा बालिका को पीत परिधान पहनाकर मां अपने गोद में लेती हैं.
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शिशु को अन्न चखाने के लिए चांदी की कटोरी व चांदी की चम्मच का प्रयोग किया जाता है. चांदी औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ इसे एन्टीवैक्टीरियल भी माना जाता है, जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है. यह भी माना जाता है कि चांदी के बर्तन में खाना जल्दी खराब नहीं होता. आयुर्वेद में तो चांदी भस्म औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है. इसलिए चांदी के कटोरे व चम्मच से शिशु को खिलाना किसी शानो-शौकत का दिखावा नहीं बल्कि उसके स्वास्थ्य के लिहाज से अनुकूल माना जाता है.
शिशु को जिन पात्रों में खिलाया जाता है, उसमें रोली से स्वस्तिक आदि बनाकर गन्धाक्षत एवं पुष्पादि से उनकी पूजा की जाती है. यदि आप पुरोहित बुलाकर अनुष्ठान सम्पन्न कर रहे हैं तो पायस को हव्य रूप में अग्नि को समर्पित कर शेष बचे हव्य को शिशु को खिलाया जाता है. परम्परा है कि शिशु के भोजन का पहला ग्रास, जिसमें पायस ही मुख्य रूप से होती है, उसके मामा द्वारा खिलायी जाती है. इसके बाद बारी-बारी से परिवार के मुखिया से शुरू कर घर का हर सदस्य बच्चे का मुंह जूठा करने का उपक्रम करते हैं. इसी प्रकार हाथ के बजाय चम्मच का उपयोग किये जाने के पीछे भी स्वच्छता ही मुख्य कारण है.
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अन्न खिलाने के बाद उसके चारों ओर विभिन्न वस्तुऐं यथा- पैन, किताब, वाद्ययंत्र, खिलौने, यंत्रादि, वस्त्रादि, आदि जितने प्रकार की वस्तुऐं उपलब्ध हों, रखी दी जाती हैं. वर्तमान में तो मोबाइल व लैपटॉप आदि भी रखे जा रहे हैं. 5-6 माह का शिशु बैठने की सामर्थ्य नहीं रखता, इसलिए पेट के बल लिटाकर उसके सामने वस्तुऐं इस तरह रखी जाती हैं कि आसानी से वह उन्हें छू सकें. लेकिन इतना अबोध शिशु वस्तुऐं छूने की भी इतनी समझ नहीं रखता, फिर भी सबसे पास पड़ी, जिस वस्तु का वह स्पर्श करता है, ऐसा मान लिया जाता है कि वह उसी क्षेत्र में कामयाबी हासिल करेगा. यह बात अलग है कि अधिकांश मां-बाप विद्वान व शिक्षित बनने की ललक से पैन अथवा पुस्तक ही उसके करीब रखते हैं.
ऐसी भी मान्यता है कि जब तक शिशु अन्न ग्रहण नहीं करता, तब तक पूर्व जन्म की सारी बातें उसे याद रहती हैं. इस संस्कार के उपरान्त ही उसे धीरे-धीरे सुपाच्य भोजन खिलाने का अभ्यास करवाया जाता है.
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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