कॉटेज नंबर सी 09, जिसमें अल्मोड़ा के आरंभिक दिनों में प्रवास का मौका मिला था, के अगल-बगल, आगे-पीछे की तरफ कुल जमा तेरह चौदह कॉटेज और भी थीं. जिनमें काफी कुछ आबाद थीं. ज्यादातर में हॉलिडे होम के कर्मचारी, उनके परिवार, गांव गिरांव से अल्मोड़ा जैसे महानगर में अपने भविष्य का शिल्प गढ़ने आये बच्चे और बाकी में हम जैसे सरकारी मुलाज़ि़म रहते थे.
हर कॉटेज के आगे एक मजबूत बिजली की केबल इस तरह से बांधी गयी थी कि हर परिवार अपने-अपने कपड़े सुखा सके. केबल में करैण्ट नहीं आता था. केबल पर सबका अपना अपना डिमार्केशन था. कब्जे की या अतिक्रमण की सख़्त मुमानियत थी. कब्जा करने के किसी भी प्रयास की सामूहिक, सामाजिक भर्त्सना, शाम के समय कब्जा करने वाले को दूर से सुना-सुना कर, हाथ चमका-चमका कर की जाती. कभी-कभी दण्डस्वरूप कब्जा करने वाले के कुछ वस्त्रों को इधर-उधर करके विरोध प्रदर्शन भी किया जाता. शाम को वस्त्रों का स्वामी याचक भाव से दर-दर की कुंडी खटकाता और अपने कपड़े की पहचान भी बताता.
मुझे भी सख्त हिदायत दी गयी थी. पूर्व के किसी कुख्यात अफसर की अफसरी के मानमर्दन की कहानी सुनाई गयी और उसके परिणाम में चार कमीज गायब किये जाने की कहानी सुनाकर डराया भी गया. एक दिन सबने मिलजुलकर तय किया किया कि सी 09 वाले को यानि मुझे, दो देवदार का इलाका आवंटित कर दिया जाये.
दो देवदार का इलाका वैसे सुनने में भारी भरकम शब्द लग रहा था पर वास्तव में वह दूर एक किनारे देवदार के दो पुराने लहीम शहीम पेड़ों से बंधी रस्सी थी, जिस पर बंदरों के डर से कोई कपड़ा सुखाने नहीं जाता था. प्रस्ताव चूंकि पूर्ण बहुमत से पास था तो अस्वीकार करने का कोई चारा नहीं था. पर हमारे पास इस प्रकार की समस्या का एक निदान था जिसका नाम था “न्यू लाइट लाउंड्री“.
उस पूरे कैंपस में मुझे मिलाकर कुल पांच पुरुष थे. छठे व्यक्ति को मुझे छोड़कर शेष चार पुरुषों ने पुरुष का दर्जा नहीं दिया था. उन चारों के मुताबिक वह पुरूष नहीं अपितु महापुरुष था. महापुरुष, महापुरुषों की आदत के मुताबिक बीड़ी, सिगरेट, गुटका, तंम्बाकू, सुर्ती, खैनी, ज़र्दा, पान, दिलबाग, बीयर, देशी, कच्ची, अंगे्रजी, हुक्का, अत्तर, अफीम किसी से भी परहेज नहीं करते थे. सबका सेवन सबके साथ, यह उनके महापुरूष होने का मूलमंत्र था. इसके अतिरिक्त वह दोस्ती पक्की खर्चा अपना अपना में रत्ती भर यकीन नहीं करते. बल्कि खर्चा तू कर बाकी मैं सम्हाल लूंगा में अटूट आस्था रखते.
कॉटेज के शेष चार पुरुष, सहकारी भाव से सायंकालीन संध्यावंदन कार्यक्रम का आयोजन चंदा करके करते, परंतु महापुरुष मान न मान मैं तेरा मेहमान बनकर मुख्य अतिथि पद पर कब्जा कर लेते और प्रसादी का एक बड़ा हिस्सा डकार कर चुनावी वादा करते कि पगार मिलने पर सबको पार्टी भाई की तरफ से. बेचारे अन्य पुरुष मन मसोस कर रह जाते .
महापुरुष के उत्पीड़न की शिकार जनता, एक दिन दफ्तर से लौटने के वक्त अपनी कॉटेज के बाहर घूमती मिली. पहली बार किसी ने वहां “दाज्यू प्रणाम“ करके पुकारा तो चौंकना स्वाभाविक था. संक्षिप्त से रस्मी परिचय के बाद एक पुरुष ने “आपको एक कष्ट देना चाहते हैं“ कहकर मुद्दे पर सीधे कूदने की कोशिश की और बाद की बात को सीधा सीधा कहा. पूरी बात कुल मिलाकर एक प्रस्ताव थी और दूसरे भाव में एक सामूहिक मांग थी. प्रस्ताव यह था कि “आप प्रतिदिन संध्यावंदन कार्यक्रम में मुख्य अतिथि का पद स्थायी रूप से स्वीकार कर लें जिससे महापुरुष का तख्तापलट किया जा सके और यदि आने में कोई संकोच हो तो आप आर्मी वाली या ठेके से थोड़ी रियायती दरों पर . . . बाकी तो आप समझदार हैं ही”.
अपनी समझदारी पर न हमें कोई शुब्हा था, न उन चार महापुरुषों को, जो फिलहाल किसी लाचार अंतर्राष्ट्रीय संगठन की तरह अमेरिका के सामने खड़े थे.
संगठित दल का प्रस्ताव नंबर दो और प्रस्ताव नंबर एक मौके पर ही अपनी शर्तों पर आंशिक रूप से संशोधित किया गया जिसे “होय होय“ के उद्घोष के साथ स्वीकार भी किया गया. नवीन संशोधित मान्य प्रस्ताव कुछ इस प्रकार था कि “महीने में सिर्फ दस दिन ही मुख्य अतिथि का कार्यभार स्वीकार किया जायेगा. शेष अवधि में आप और आपका काम, अपना काम कैसे भी चला सकते हैं दूसरा पूरी महीने में सिर्फ आधा पेटी यानी कुल छः बोतल का इंतजा़म कराया जायेगा, वह भी निःशुल्क नहीं बल्कि विशेष ग्राहकों वाली दर पर”
प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित होते ही पांचों महाजन पांच अलग अलग रास्तों पर सांध्यकालीन सत्र के गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने के लिये प्रस्थान कर गये.
असल में सामूहिक संध्यावंदन कार्यक्रम का स्थान पूर्व निर्धारित था- कमी बस लाल परी की थी सो अब उसका भी इंतज़ाम हो चुका था- यह थी सी 07 नंबर की कॉटेज जिसमें उत्तरप्रदेश के निवासी मगर अल्मोड़ा में तैनात पशु चिकित्सक रहा करते थे, जो महीने में अधिकतम दस या पंद्रह दिन रहते. शेष दस दिन वह अपने घर और बचे खुचे दिनों में अपने स्थानांतरण के लिये देहरादून में. ऐसा वह पिछले दस सालों से कर रहे थे पर हर बार सफलता बस छूकर गुजर जाती.
पूर्व प्रस्तावित कार्यक्रमानुसार चूंकि सभापति के पद की शोभा मुझे बढ़ानी थी सो सांविधानिक बाध्यताओं के चलते मदिरा का इंतज़ाम मेरे हिस्से में आया. ठोस की जिम्मेदारी दो अन्य लोगों के जिम्मे और बर्तनों की जिम्मेदारी शेष अन्य दो लोगों के सिर पर थी. कुल मिलाकर पांच लोग थे, महापुरुष के सामूहिक बहिष्कार का संकल्प दुहराया जा चुका था, मंसूबे बिल्कुल साफ थे. अब क्रान्ति की कमान अपेक्षाकृत युवा हाथों में थी जो दल के अनुसार अधिक पढ़ा-लिखा और कम सफेद बालों वाला था. दल को अपना ऐजेण्डा सफल होता दिख रहा था, क्रान्ति जगरमगर झिलमिलाती दिख रही थी, बिल्कुल चायनीज लड़ियों की तरह. बस बटन दबाने की देर भर थी. पर दल ने अब तक मंच पर एकदूजे का हाथ पकड़कर तस्वीर नहीं खिंचाई थी.
नियत समय पर हमारे दरवाजे पर दस्तक हुयी. हम द्रव्य पदार्थ को, जो कि इंग्लैण्ड के पास के एक मुल्क के देहात का बारह साल पुराना उत्पाद था को कपड़ों में छुपाकर बाहर निकले तो प्रथम पुरुष – जो कि बाहर बाट जोह रहा था – की आंखें अंधेरे में चमक उठीं.
महफिल सजायी गयी. हर चीज के ऊपर एक अद्भुत प्रोफेशनलिज्म दिखायी दे रहा था. एक-एक चीज क़रीने से सजाकर रखी गयी थी. मेजपोश के ऊपर एक प्लास्टिक के फूलवाला गुलदस्ता भी पोंछ-पाछ कर रखा गया था, उसमें रूम फ्रेशनर भी थोक के भाव डाला गया था. कुल मिलाकर माहौल एकदम सुवासित और क्रांतिकारी था. सलाद की प्लेट में सलाद करीने से सजाया गया था. सारा इंतजा़म फिटफौर था.
सामिष और निरामिष दोनों प्रकार के चखने की व्यवस्था थी. दल के कार्यकर्ता अपने नये अध्यक्ष को पाकर अतिउत्साह में थे. ऐसा मेरा मानना था, जो कि भूल थी.
असल में दल के उत्साह के कारण का पता बाद में चला, कि दल रामपुर उत्तरप्रदेश की किसी डिस्टलरी में बनने वाली वोदका और अपने काशीपुर में भरी जाने वाली रम का शौकीन था. स्कॉच व्हिस्की का तो नाम भर सुना था. आज दर्शन हुये हैं, यह किसी शुभ शगुन से कम न था. दल का अच्छे दिनों वाले नारे में विश्वास और पुख्ता हो चला था. हवा में स्कॉटलैंड से लेकर मुन्स्यारी तक के मसालों और प्राकृतिक जड़ी बूटियों की महक तैर रही थी. अत्तर भी किसी कोने से जोर मार रही थी. सब अपने अपने सामाजिक खोल से बाहर आकर मूल, ठोस, प्राकृत स्वरूप के दर्शन में मग्न थे, कुल मिलाकर सामाजिक परिवेश एकदम सौहार्द्रतापूर्ण और वर्गसंघर्ष, जातीयता से परे काव्यात्मक, पूर्ण क्रान्तिकारी हो चला था. किसी कुमांयूनी प्रेमगीत के बोल फूट चुके थे, जो धीरे-धीरे अपने स्तर से हटकर मनुष्य की मूल पशुवृत्तियों पर टूट पड़ रहे थे कि तभी दरवाजे पर लगा कि किसी ने कुल्हाड़ी का भरपूर वार किसा हो. बोतल लगभग दो तिहायी खत्म हो चुकी थी. सब परम टुन्नावस्था को प्राप्त हो चुके थे सो सबको अपने अपने नशे के हिसाब से अलग अलग आवाज सुनाई पडी़. आवाज दोबारा आयी. अबकी बार आवाज दो तरह से आयी. आवाज के साथ सम्मान की अतिशयोक्तिपूर्ण कुछ स्थानीय वाक्य भी कानों पर गिर रहे थे. यह पहापुरूष का आगमन था.
महापरुष, डंडा लिये बाहर था और जोर-जोर से किन्हीं अज्ञात लुटेरों को गालियां दे रहा था जो अल्मोड़ा की शराब की दुकानों से ओवररेट कराकर अल्मोड़ा को लूटने आये थे. महापुरुष का स्थिति बिल्कुल अस्वाभाविक नहीं थी. उसकी अध्यक्ष की कुर्सी छिन चुकी थी. महापुरुष अब उस फूफा की तरह हो चुका था जो नये जीजा के प्रादुर्भाव के साथ आउटडेटेड करार दिया जाता है.
महापुरुष को अंदर खींच लिया गया, चार पुरुषों ने गर्दन दबोचकर उनके दो कानों पर एक-एक जोड़ी मुंह चिपका दिये थे और अंधरे में कुछ गजबज होने लगी. इस कार्यवाही को देख कर अध्यक्ष का चिंतित होना स्वाभाविक था, मगर तभी एक ठंडी आह के साथ जोर का स्वर महापुरुष के मुंह से निकला “ठीक है“.
अब एक गिलास और बढ़ चुका था. महापुरुष अब स्कॉच पी रहे थे. क्रान्ति और संघर्ष का रास्ता छोड़़ दिया गया था. महापुरुष अब संरक्षक मंडल का हिस्सा बन चुके थे. सब मौज में थे सब टुन्न थे. सब अल्मोड़े में थे पर सब अल्मोड़े के ऊपर बहुत ऊपर उड़ रहे थे.
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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2 Comments
Keshav bhatt
वाह! क्या खूब अंदाज से चित्रण किया गया है।
Bhuwan Chandra Sati
Very nice
Thanks