शरीर को स्वस्थ निरोगी बनाये रखने के लिए पहाड़ में व्रत उपवास की परंपरा रही. हर महिने कोई ना कोई पर्व होता ही. हर हफ्ते भी दिन वार के हिसाब से व्रत रखा जाता. इसके अलग अलग नियम होते. घर परिवार में इनका पालन किया जाता. अलग अलग व्रत में व्रत की अवधि में लिए पेय और लिए जा सकने वाले पदार्थ भी भिन्न भिन्न होते. व्रत के संपन्न होने और पारायण के बाद लिए जा सकने वाले भोज्य पदार्थ और इन्हें लेने का समय भी निश्चित होता. Religious Fasting in Uttarakhand
घर में श्राद्ध होने पर श्राद्ध कर्म से पहले दिन श्राद्ध करने वाले के द्वारा हबीक रखा जाता अर्थात वह निराहार रहता. सिर्फ एक ही समय अन्न ग्रहण करता. क्या खाना है और क्या नहीं यह भी नियत होता. पितर की आत्मा की शांति के लिए रहनसहन व आहार में कई निषेध होते. प्याज़ लहसुन का बिलकुल प्रयोग नहीं किया जाता. गर्म व उत्तेजक मसाले व शाक पात भी न खाये जाते. पालक, बैगन, टमाटर, कुमिल, चिचिंडा जैसे कई शाक पात नहीं खाये जाते. कई दालें भी नहीं बनाई जातीं जैसे मसूर, भट्ट. तामसी प्रकृति वाले मसाले भी प्रयोग न किये जाते.
दिनवार के हिसाब से हर व्रत के कुछ नियम होते. एकादशी के दिन भात नहीं खाया जाता. इसका व्रत करने वाले ज्यादातर फलाहार ही करते. अन्न के रूप में उगल को चक्की में पीस कर इसे छान लेते. इसे दूध या पानी में घोल गाढ़ा कर तवे पर उँगलियों से फैला लेते. थोड़ा घी भी पड़ता जिससे इसे मुलायम सेका जाता. आंच मध्यम ही रखते जिससे छोली रोटी कड़कड़ी न हो.उगल की रोटी के साथ आलू के गुटके खाये जाते जिनमें सेंधा नमक डाला जाता. समुद्र में अनेक जीव होते वहीं मरते खपते भी इसलिए समुद्री लूण को हीन माना जाता. इसके बदले चट्टानों से निकला नमक जो लाहोरी और सेंधा कहलाता को व्रत उपवास में लेते. इसी को फराल में भी डाला जाता.
पूस के महिने के इतवारों को रखे गए व्रतों में नमक का उपयोग नहीं किया जाता. इसी तरह मंगल वार के व्रत में भी खाने में नमक नहीं पड़ता. किसी भी मंगलवार चाहे कोई व्रत हो या नहीं शिकार खाना भी पूरी तरह वर्जित होता. बृहस्पति वार के बर्त में न नमक खाते और न हीं केला खाया जाता. शनिश्चर के बर्त में उर्द या मास की खिचड़ी बनती. पर इसमें लूण नहीं डालते. शनिवार के दिन कई लोग कडुआ तेल भी न खरीदते, न बदन पे चुपड़ते. तेल का दान किया जाता, और भी कई काली चीजों का दान होता जैसे उर्द की दाल, काला कम्बल इत्यादि. बाद बाद में शुक्रवार के दिन संतोषी माता का व्रत किया जाने लगा जिसमें माता को गुड़ और चने का भोग लगता. सादा भोजन खाते पर इसमें खट्टा अमचूर खटाई निम्बू चूक का उपयोग नहीं करते.
संकष्ट यानि गणेश संकष्ट चतुर्दशी के दिन काले भूरे तिलों को भून कर गुड़ का पाग मिला लड्डू बनाये जाते. इनका भोग लगता और तिल के लड्डू आसपड़ोस में बांटे भी जाते. भादों की सप्तमी -अष्ट्मी यानि सातों -आठों के व्रत में भी अनाज का प्रयोग वर्जित होता. केवल फलाहार किया जाता. कई जगह आग में पकाया सेका भूना कोई भी भोजन नहीं लिया जाता. जन्माष्टमी के दिन भी उगल, रामदाने, तालमखाने, पोस्त के व्यंजन बनते. इस दिन प्रसाद के रूप में गीली पंजीरी भी बनती या इसकी बर्फी बना ली जाती, जिसका उपयोग काफ़ी लम्बे समय तक किया जाना संभव होता. इस दिन हाथ में मेहंदी भी लगाई जाती. मजीठी भी जो अधिक खिला लाल रंग छोड़ती.
फागुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात महाशिवरात्रि मनती है. शिवरात्रि के दिन प्रातः काल से ही शिव मंदिर जा कर दुग्ध जल से शिव लिंग को स्नान करा, गंगाजल अर्पित करते चन्दन का लेप लगता. दही, शहद, सुगन्धित द्रव्य, फल फूल चढ़ते. शिवजी को बेलपत्र अर्पित किये जाते, धतूरे के पुष्प चढ़ाये जाते जो सफ़ेद, पीले और नीले जामुनी रंग के होते. धतूरे का फल भी अर्पित होता. बेर चढ़ाये जाते. पंडितों को दान दक्षिणा दी जाती. दूध में विधि पूर्वक भंग घोटा बना प्रसाद ग्रहण किया जाता. शिवजी को भाँग, धतूरा, आक प्रिय माना जाता. इन सबकी औषधीय उपयोगिता भी रहती, मस्ती भी छाती.कंदमूलों में तरुड़ का प्रयोग होता. नीचे पत्थर वाली जमीन में तरुड़ खोदे जाते. इन्हें उबाल कर खाया जाता तो छौंक -भूट के भी. पीले पड़े कद्दू की सब्जी विशेष होती. इसमें खट्टे मीठे का संयोग बनाने को गुड़ व चूक का भी प्रयोग होता. Religious Fasting in Uttarakhand
चैत शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नया संवत्सर शुरू होता. पंडित जी संवत्सर का नाम बताते. राशि के अनुसार वर्षफल का बखान होता. इस दिन व्रत रखा जाता. दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता. कुमारी कन्याओं को भोग लगता. नौ दिन तक नव दुर्गाओं के पूजन हवन विधिवत संपन्न होता. मिलजुल कर भंडारे का आयोजन होता.
जेठ मास की अमावस्या को सुहागन स्त्रियां अपने पति के दीर्घ जीवन की कामना से बट सावित्री का उपवास रखतीं. बट वृक्ष, पीपल, केले या आम के पेड़ की पूजा करती. पेड़ पर तीन बार रक्षा धागा लपेटा जाता. उस पर धूप अगरबत्ती जलाई जाती, पिठ्या अक्षत चन्दन रोली चढ़ाये जाते. आरती की जाती. संध्या काल पति को भोजन करा व्रत तोड़ा जाता. फराल खायी जाती. कुंवारी कन्याएं भी पति प्राप्ति हेतु उपवास रखती व अखंड सौभाग्य की कामना करतीं.
जेठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी का व्रत रखा जाता. इस दिन न तो जल ग्रहण किया जाता और न ही फलाहार. आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को हरिशयनी एकादशी का उपवास रखा जाता है. इस दिन से हरिबोधिनी एकादशी तक विष्णु भगवान क्षीर सागर में विश्राम करते हैं इस कारण इस अवधि में देव कार्य व मांगलिक काज संपन्न नहीं किये जाते. हरिबोधिनी या देवोत्थान एकादशी को विष्णु भगवान के जागने के बाद समस्त शुभ कार्य संपन्न होते.
प्रतिदिन सूर्योदय से पहले पीपल की पेड़ के नीचे दिया जलाया जाता व पेड़ की पूजा होती. शनिवार को पीपल पूजा का चलन रहा. पीपल को देवों का स्थान कहा गया. तैतरीय ब्राह्मण व ऐतरेय ब्राह्मण में पीपल को वनस्पतियों का राजा कहा गया.बरपंद में पीपल का दंड क्षत्रिय व बनियों के लिए उसी प्रकार तय होता जैसे अन्य के लिए पलाश का दंड. पीपल की समिधा का हवन शनि और बृहस्पति हेतु किये जाने वाले हवन में किया जाता रहा. झांका आने, उन्माद और हिस्टीरिया जैसे मानसिक रोगों की शांति के लिए भी पीपल की समिधा का उपयोग होता.
पीपल का फल ‘पिप्पल ‘कहलाया. यह सर्दी खांसी जुकाम में चूर्ण कर शहद के साथ घोंट कर चटाई जाती. शिशुओं की कई सामान्य बिमारियों में दूध में मिला कर पिलाते. अनुपान भेद से वैद्य पीपली चूर्ण, छाल, जड़ का प्रयोग पित्त, प्रमेह, बबासीर, पेट के रोग, फोड़े -फुंसी, कान के दर्द व प्रसूत की चिकित्सा में करते रहे. इसकी जड़ का चूर्ण बलवर्धक हुआ. पीपल के इन्हीं गुणों से इसके वृक्ष में देवताओं का निवास माना गया जिसकी सेवा करने से दुख कटते इसीलिए इसको जल से सींच, दिया जला पूजा जाता.
फागुन में शुक्ल पक्ष की एकादशी ‘आमल की एकादशी’ कही जाती. इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा करते. धूप दीप जलाते और प्रसाद चढ़ाते. प्रसाद में फल, बताशा, गुड़ व कसार मुख्य होता. आटे को थोड़े घी में भून बादामी होने पर इसमें थोड़ी चीनी या गुड़ मिला दिया जाता. कार्तिक के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को ओंले के पेड़ की छाया में राधा-हरि की स्तुति और पूजा भजन का विधान रहा. आंवले के पेड़ के बारे में स्कंदपुराण में कहा गया कि जब सारा जग समुद्र के जल से भर गया, सब प्राणी समाप्त होने लगे तब ब्रह्मा जी ने परब्रह्म का जाप किया. भक्ति रस में डूब विराट के दर्शन को आतुर उनके नैनों से जल निकला. भक्ति भाव से आँखों से आंसू टपकने लगे इनकी बूंदें धरती पर पड़ीं. उन्हीं से आवंले का जन्म हुआ. कहा गया कि वृक्षों में सबसे पहले आंवला हुआ इसलिए इसे ‘आदिरोह’ कहा गया. Religious Fasting in Uttarakhand
चैत के महिने में शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी का वपन किया जाता है. पहाड़ में सब घरों के आगे तुलसी चौरा होता जिसे पत्थर या ईंटों को मिट्टी से चिन चबूतरानुमा बनाते तुलसी की पौंध लगाते और रोज जल डालते. शाम को दिया जला तुलसी की पूजा होती. सूतक नातक या अशौच काल में तुलसी को छूते नहीं. पदम पुराण में तुलसी के जन्म की कथा कही गई जिसके अनुसार तुलसी, वृंदा के शरीर के पसीने से उत्पन्न हुई. बाद में शंखचूण असुर से उसका विवाह हुआ. जब एक बार राग मोह से वह गणपति के सम्मुख गई तो गणपति ने क्रुद्ध हो उसे वृक्ष रूप होने का श्राप दे डाला. बाद में समुद्र मंथन पर जब अमृत निकला तो उसकी कुछ बूंदें धरती पर गिरी उसमें से तुलसी का पेड़ निकला जिसे ब्रह्मा जी ने विष्णु भगवान को दे दिया. विष्णु को तुलसी चढ़ती है. गणेश जी को नहीं.
भादों के शुक्ल पक्ष की अष्टमी दुर्वाष्टमी कही गई. दूब की जड़ें गहरे जाती और यह खूब फैलती. शीत छोड़ बरस भर हरी -भरी बनी रहती. दूब या दूर्वा के लिए पूजा भास्कर में मंत्र है, “विष्णवादि सर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा सदा. क्षीर सागर सम्भूते वंश वृद्धि करो भव.”मंत्र में कहा गया कि दूब क्षीर सागर से उपजी. इसलिए नाश न होने का गुण रखती है. यह सबकी प्रिय है, भले ही देव गुण वाले भाव हों या तामसिक. इसलिए यह सौभाग्य, संतति और सभी सुख देती है. घर परिवार में हो रहे हर मांगलिक काज में दूब का प्रयोग होता. इसे सफाई से तोड़ गिन कर ठया में भगवानों को अर्पित करते. गणेश जी की पूजा में इसका विशेष मह्त्व रहा. दूब का रस साधारण ज्वर, पीड़ व पेट दर्द में भी औषधि का काम करता. यह मूत्रल भी होती. इसलिए पेशाब सम्बन्धी बीमारी में इसका काढ़ा पिलाते. अन्य भेषज वनस्पतियों को लोम मना गया जबकि दूब उनका प्राण रस रही. ऋग्वेद में इसे मेघावर्धक तथा अथर्ववेद में शापदोषनाशक माना गया. चरक व सुश्रुत संहिता में दूर्वा को’सहस्त्रवीर्या’कहा गया. ज्वर, शोथ, प्रमेह, रक्तपित्त व शिरोरोग में इसके अनुभूत योग प्रयोग किये जाते रहे. ग्रहण के दिन भी गीले पदार्थों में दूब रख दी जाती.
कार्तिक मास की एकादशी को पशुओं का त्यार ‘सिंगोई ‘मनाया जाता. लोगबाग अपने गाय -बैलों को खूब नेहला धुला के उनके सींगों में लाल रंग लगाते. उन पर भांग , भीमल, रामबांस के रेशों या मडुए के तने से फूल बना उनको रंग देते और बेलों के सींगों पे बांध देते. जानवरों को गुड़ खिलाया जाता और चावल और मास की खिचड़ी. ऐसे ही कार्तिक मास
में ही दिवाली के बाद ‘गोधन -मोहरा’ मनाते जिसमें गैया, बल्द और भैंस की पीठ पे चावल के बिस्वार या कमेट से गोले बनाते.उन्हें पूरी खिलाते. असोज या आश्विन में ‘खतड़ुआ’ के दिन पालतू पशुओं को खूब घास खिलाते. आसपास खूब घास भी बिछाते. माना जाता कि अगर खतड़ुए के दिन पालतू जानवर भूखा रह गया तो साल भर भूखा ही रहेगा.
कर्म कांड व पूजा के कामों में कुश का भी प्रयोग होता. श्राद्ध रत्न में कहा गया कि कुश की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के द्वारा की गई. “कुशोसि कुशपुत्रोसि ब्रह्माणा निर्मितः पुरा “. सौ कुश की घास से एक कुश ब्रह्म बनाया जाता है. कलश स्थापन में कुश की ब्रम्हा का विशेष मह्त्व है. कुश का बना कुशासन सबसे पवित्र मना जाता है. Religious Fasting in Uttarakhand
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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