ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
बावरा अहेरी अज्ञेय की एक प्रसिद्ध काव्य-रचना है, जिसमें ‘बावरा अहेरी’ उपमान का प्रयोग सूर्य के लिए हुआ है. उगता हुआ सूर्य, सब पर अपनी स्वर्ण-रश्मियों का जाल फेंकता है. समभाव से. वह किसी से किसी भी तरह का भेद नहीं रखता. आखेटक तो कुछ चुनिंदा जीवों का ही आखेट करता है, लेकिन सूर्य तपने के बाद जब शाम को अपना जाल समेटता है, तो वह जड़-चेतन, स्थावर-जंगम आदि में किसी में भी कोई भेद नहीं रखता. समदृष्टि होकर सबका आखेट कर जाता है इसीलिए उसे बावरा अहेरी कहा गया है. खैर यह आलेख, काव्य न होकर, एक शिकार-कथा है. वह एक और जमाना था, जब शिकार पर पाबंदी नहीं थी. खूब शिकार खेला जाता था. आखेट के इन्हीं किस्सों को सहेजते हुए सर्वश्री श्रीराम शर्मा, वृंदावन लाल वर्मा, रुडयार्ड किपलिंग, जिम कॉर्बेट ने जमकर शिकार-साहित्य की रचना की.
तो इस कथा के नायक एक मँझोली हैसियत के फॉरेस्ट ऑफीसर थे. शिकार के जबरदस्त शौकीन. गाहे-बगाहे मनोरंजन के अवसर ढ़ूँढ़ते रहते थे. तो इसबार फिर से शिकार की योजना बनी. सभी सरंजाम किए गए. एकदम चौकस. हथियार-मचान-हाँका-अहेरी. जंगल पहुँचे, शिकार की टोह लेते रहे. इंतजार करते-करते शाम होने को आई, लेकिन मायूसी हाथ लगी. तो तय पाया गया कि, अब खाली हाथ तो लौटने से रहे. खाली हाथ लौटे तो शिकारी किस बात के. साख गिर जाएगी. अब खुद जंगल में उतरने में कोई बुराई नहीं. बड़ा शिकार न सही तो छोटा-मोटा ही सही. जो हाथ लगे, चलेगा. चीतल-साँभर-हिरण में से कोई भी चलेगा. वो भी नहीं तो कोई बात नहीं. जंगली मुर्गे-मुर्गाबियों से भी काम चला लेंगे. यह बात तय होते ही घेरे के लिए कई टोलियाँ बन गईं. ज्यादातर हँकवारे मातहत ही थे. इसलिए मेहनत और लगन से हाँके में लगे हुए थे. उन्होंने जंगल-जंगल, बूटा-बूटा सब छान मारा. शिकार का कहीं नामोनिशान नहीं. तत्पश्चात् समूचे जंगल को एकसाथ कवर करने की ठानी गई . कुछ सदि्च्छा और उत्कंठा से लगे हुए थे तो कुछ बेमन से. मातहती में रहते हुए हुक्मउदूली नहीं कर सकते. डिपार्टमेंट की बात थी. जैसे ही मातहत शिकार को देखते, साहब को बताने की सोचते. नंबर बढ़ाने का इससे अच्छा मौका कहाँ मिलता. लेकिन जब प्रारब्ध ही ऐसा हो, तो कोई क्या करे. जबतक साहब को इशारा करने की सोचते, तबतक शिकार एकदम से गायब. उसी रंग के पेड़ों-झुरमुटों में शिकार यकायक ओझल हो जाता. कुदरत ने कुदरती जीवन को गजब की नियामत बख्शी है. ऑटोमेटिक केमोफ्लैज़. साहब हरपाल चैतन्य थे. ऐसे मौकों पर तो आदमी ही नहीं वरन् उसकी समस्त इंद्रियाँ खुद-ब-खुद चौकन्नी होे जाती हैं.
महकमों में कुछ मातहत ऐसे भी होते हैं, जो ऐसे मौकों पर परम सक्रिय हो उठते हैं. इस श्रेणी के कारिंदे हाँके में सुपर स्पेशलिस्ट की भूमिका निभा रहे थे. अकस्मात् साहब को जंगली मुर्गों की बड़ी सी डार दिखी. जबतक साहब मोर्चा सँभालते, तबतक वह डार घने झुरमुटों में ओझल हो गई. पलक झपकने का समय लगा होगा. साहब निशाना साधे ठगे से रह गए. तभी झाड़ियों में हल्की सी हलचल हुई. इस बार साहब चूकना नहीं चाहते थे. बस यूँ समझ लीजिए कि पहले से ही मँसूबा बाँधे बैठे थे. धीमी सी हरकत होते ही वे फायर झोंक बैठे. निशाना था तो शब्दभेदी, लेकिन निकला अचूक. झाडियों के पीछे धड़ाम से गिरने की आवाज़ आई. फिर जोरों की चीख. आवाज मुर्गे की न होकर मनुष्य की निकली. शिकारी भौचक्के से रह गए. कहीं श्रवन कुमार-किंदम ऋषि टाइप का मामला न बन पड़ा हो. शाप-वाप से तब तक आम हिंदुस्तानी बहुत भय खाता था. सरकारी मुलाजिम कुछ ज्यादा ही. साहब ने आवाज की दिशा में दौड़ लगा दी, तो हँकवारे कहाँ पीछे रहने वाले थे. नजदीक जाकर देखा. कोई ऋषि-विषि नहीं था, उनका मातहत ही था. मुछाड़िया गार्ड, जो एकदम मूर्च्छित पड़ा हुआ था. उनके हमराह ने घायल को टटोलकर बताया, “साब! दोनों पैरों में छर्रे पड़े हैं. खून बह रहा है.” आननफानन में घायल को डंडी पर लिटाया गया. मौके पर ‘फर्स्ट एड’ दी गई. खून बहना बंद हो तो आगे की कार्रवाई हो. साहब को गुस्सा तो बहुत आया, “ये वहाँ गया क्यूँ. वो भी मेरी अनुमति और सहमति के बगैर. इसकी ये मजाल.”
उधर उत्तरदाता धराशाई पड़ा हुआ था. फिर साहब कुछ सोचकर बोले, “ये आखिर वहाँ कर क्या रहा था.”
इस सवाल का भी कहीं से कोई जवाब नहीं आया. अन्य लोग घाव के ऊपर-नीचे के प्वॉइंट्स को कसकर बाँधे दे रहे थे. कैसे भी हो रक्तस्राव रुके. घायल की गति देखकर, अब साहब को भय सताने लगा, लेकिन ऐन मौके पर उन्होंने उसे जज्ब कर लिया. हथियार डाल दिए तो बात हाथ से निकल सकती है. मातहतों के सामने कमजोरी जाहिर नहीं होनी चाहिए, कंट्रोल ढ़ीला होने लगता है.
इस तरह से शिकार का प्रोग्राम धराशायी हो चुका था. जख्मी मातहत को टाँगकर वापसी हुई. वापसी में हल्के स्वरों में बातचीत जारी थी. इस बातचीत से उन्हें अंदाजा लगा कि, वह एकदम आज्ञाकारी टाइप का मुलाजिम है और कोई भी आदेश मिलने पर हुक्म बजाने को परम सक्रिय हो उठता है. लगभग जान की बाजी लगा देता है. शायद इसीलिए हाँका करने में पूरी गहराई से उतर गया. जैसे ही उसने जंगली मुर्गों की डार देखी, टेकनिकली उसका एक्टिव होना स्वाभाविक था. वह चुपचाप, हौले से उनके पीछे झाड़ी में घुस गया. तनिक सा मौका हाथ लगा था. शायद उसी में दिव्य स्तर का प्रदर्शन दिखाना चाहता था. शिकार तो तेजी से निकल गया, लेकिन हाँकाकर्त्ता ज्यादा शिद्दत से उतर गया. यही पर चूक हुई.
यह डेवलपमेंट सुनकर उनकी चेतना जाग्रत हो उठी. उन्हें जोरों का डर सताने लगा. शिकार की मनाही तो नहीं थी, लेकिन इनसान पर फायर झोंकने की तो सख्त मनाही थी. सात साल के लिए ‘जमा’ होने की पूरी सुविधा थी. ‘निपट जाता’ तो सुविधा स्वतः बढ़ जाती. घोर मुश्किल आन पड़ी थी. तभी उनका एक खास आदमी उनसे सटकर चलने लगा. उसने फुसफुसाते हुए उन्हें एकदम दुनियादारी वाली सलाह दी. उनके कान में मुँह खोंसकर वह बोला, “गुप्त इलाज कराना पड़ेगा, साब. सब ठीक हो जाएगा. डॉक्टर गुप्ता ठीक रहेगा.”
आननफानन में कस्बे में उस प्राइवेट नर्सिंग होम को खोजा गया. अंधेरा होते ही ‘मरीज’ को भर्ती किया गया. राहत की बात यह थी कि इलाज शुरू होते ही मरीज को होश आ गया. ‘जमाने को भनक न लगे’ इसलिए मरीज को सख्त निगरानी में रखा गया. कोई बाहरी आदमी न मिलने पाए, इस बात की खास ऐहतियात बरती जाने लगी. इन परिस्थितियों में साहब के सुर खुद-ब-खुद बदले हुए थे. मरीज के लिए तीनों टाइम, खुद घर से बना खाना पहुँचाते. डॉक्टर से परामर्श करते. तीन-चार दिन बीत गए. लंचटाइम में मरीज ने अपने साहब से छुट्टी की दरियाफ्त की. साहब अपनापन लाते हुए बोले, “कैसी बात करते हो यार. तुम ड्यूटी पर ही तो हो. छुट्टी बचाकर रखनी चाहिए. गाढ़े वक्त में काम आती हैं.”
छुट्टी मंजूर करना उनके हाथ की बात थी. वे उसे ड्यूटी पर दिखाते रहे. पूरी मिजाजपुर्सी भी करते रहे. ताकि, बात आई-गई हो जाए. जैसे भी हो उसकी नौकरी चलती रहे, अव्वल तो अपनी नौकरी बची रहे.
जल्दी रिकवरी हो तो इस झंझट से पिण्ड छूटे, सोचकर साहब पूरे मनोयोग से उसकी सेवा-टहल में लगे रहे. मरीज बेड पर शेषशायी मुद्रा में लेटा रहता, साहब अपने हाथों से उसे चम्मच से सूप पिलाते. धीरे-धीरे उसकी हालत में सुधार होने लगा. घाव भरते देर न लगी. जब वह बिलकुल चंगा हो गया तो डॉक्टर ने उससे डिस्चार्ज होने को डिस्कस किया.
इधर इस नवीन जीवन शैली से मरीज के विचारों में तेजी से बदलाव आ चुका था. शायद अब उसका मन वहीं रमने लगा. खाने-ठहरने का चौकस इंतजाम. मिठाई-मेवे-फल. आराम और ठाठ दोनों एकसाथ. इनसान को और क्या चाहिए. ठीक होने पर तो फिर से खटना पड़ेगा. वही जंगल-जंगल का धूल-धक्कड़ वाला रुटीन. इतनी जल्दी लौटने को उसका मन नहीं माना, तो उसने साफ मना कर दिया. डॉक्टर से बोला, “अभी तो बहुत कमजोरी महसूस हो रही है. पूरी तरह ठीक हो जाऊँ, तब सोचेंगे.”
डॉक्टर ने कहा, “अभी तुम आराम करो. उनके आते ही बात करता हूँ.” थोड़ी देर बाद साहब आए. डॉक्टर के केबिन में गए. हेल्थ बुलेटिन देखा. चर्चा की. डॉक्टर ने उन्हें मरीज के मन में आ रहे कुविचारों से अवगत करा दिया. सबकुछ तो फिट था. वे वार्ड मे गए और मरीज को उसकी फिटनेस का ब्योरा बताने लगे. इस पर मरीज एकाएक तेवर में आ गया. तीमारदार से बोला, “साब, आप जानते ही हो. मैं एकदम सच्चा आदमी हूँ. सीधा हूँ, लेकिन समझता सबकुछ हूँ.” साहब समझ गए कि, इसने मौके को हाथोंहाथ लपक लिया है. इसलिए उनकी पूँछ पर पैर धरने की बात कर रहा है. इनडायरेक्टली ही सही. अतः ‘कुछ दिन और सही’ सोचकर, उन्होंने इस ‘सेवा का पुण्य बटोरने’ की निश्चय किया. दिन बीत रहे थे. हालांकि कभी-कभी उनका मन घूँसेबाजी करने को हुआ, लेकिन मन मसोसकर रह गए. ‘कहीं सचमुच, सबकुछ न उगल दे.’ फिर उन्होंने खुद को दिलासा दिया- ‘एनज्वॉय कर रहा है, करने दो.’
समय तेजी से गुजरता चला गया. परिवर्तन उससे भी तेजी से हुए. शिकार-तीमारदार दोनों रिटायर हो चुके थे. उस घटना को हुए दशकों बीत चुके थे. जंगल और जीव-जंतुओं की सुरक्षा के लिए नये कानून आए, जो वक्त-जरूरत के हिसाब से दिन-ब-दिन सख्त होते गए. साहब का बेटा सरकारी महकमे में मुलाजिम बना. उनसे भी बड़ा अफसर. भरा-पूरा समृद्ध परिवार. कुछ दिनों से वह महसूस कर रहा था कि, शहर की जिंदगी एकरस होती जा रही है. अतः उसने कुछ दिन छुट्टी लेकर तफरीह करने की सोची. इस नेक इरादे से वह छुट्टी लेकर पहाड़ों की तरफ चल दिया, अपने पैतृक गाँव. पहलेपहल तो उसे गाँव में बड़ा अच्छा लगा. नई जगह, नयी दिनचर्या. हरे-भरे जंगल. सीधा- साधा जीवन. जल्दी ही उसे महसूस हुआ कि गाँव में सबकुछ तो अच्छे से कट जाता है, लेकिन दोपहरी नहीं कटती. बल्कि कटने का नाम ही नहीं ले रही है. इस छुट्टी को स्पेशल बनाने के इरादे से उसने कुछ करने की ठानी. हरे-भरे जंगल उसे खूब आकर्षित करते थे. सो उसने शिकार करने की ठानी. जेनेटिक्स में यह शौक उसमें खास तरह से उभरकर आया था. हालांकि अब तक कानून बहुत सख्त हो चुके थे, लेकिन शौक तो शौक. उसने चोरी-छिपे शिकार की योजना बनाई. मोहल्ले के कुछ नौजवानों को उसने हाँके के लिए तैयार किया और अगली दोपहर, वह जंगल में उतर पड़ा. उसके साथ नवयुवकों की अच्छी-खासी टोली थी. वे हाँके को लेकर उद्वेलित हो रहे थे. शिकार, वो भी चोरी-चोरी. यही अदा, शिकार के रोमांच को दोगुना किये जा रही थी. हँकवारे टोलियों में बँट गए और पूरे उत्साह से हाँके में जुट गए. उन्हें शिकारी भैय्या जी को थोड़ा सा इशारा भर करना था. शिकारी, एडवांस राइफल लिए, टेलीस्कोपिक लेंस से निशाना साधे बैठा था. एक हसरत उसके मन में जोरों से जोर मार रही थी, टारगेट सामने आए तो धाँय. किफायत से फायर करने का मनसूबा था. संक्षेप में, एक ही वार में काम तमाम करने की योजना थी.
हँकवारे ज्यादा ही जोशोखरोश में थे, जिससे यकायक उस वीराने में चहल-पहल बढ़ गई. जंगल में कई मृग दिखे- चंचल, उछलते-कूदते, धमाचौकड़ी मचाते हुए. इनसान की मौजूदगी से चौकन्ने से. पलभर के लिए दिखते, तेजी से ओझल हो जाते. जबतक वे शिकारी को बताते, तबतक झाड़ियों में अदृश्य. तो मृग काफी देर तक उस दल से आँखमिचौली खेलते रहे. फुर्ती और होशियारी से अपना बचाव करने में सफल भी रहे. टोह लेते-लेते शाम उतरने को हो आई. तभी हँकवारों को एक ‘घुरड़’ दिखाई दिया. वह कहीं से दौड़ता हुआ उनके बीच आ गया.
अफरातफरी के फेर में पड़ गया लगता था. उन्होंने उसे चौतरफा घेरते हुए शिकारी की ओर ठेलने की भरसक कोशिश की. डरा-सहमा घुरड़, निशाने तक धीमे-धीमे गया, लेकिन ऐन मौके पर वह चौकड़ी भरता हुआ सरपट भागा और ओझल हो गया. वह इतनी तेजी से गायब हुआ कि, शिकारी और हाँका-दल एक-दूसरे का मुँह देखते रह गए. घुरड़ की एक खूबी यह बताई जाती है कि वह ऊँची चट्टानों पर भी तेजी से भागता है.
सामने एक खड़ी चट्टान थी और उसकी चोटी पर घना झुरमुट. शिकारी पछतावे की मुद्रा में था और घुरड़ के भागने की दिशा में निराशा भरी नजरों से देख रहा था. तभी उसने उस झुरमुट में कोई हलचल महसूस की. उसने लेंस पर आँख गड़ाई और गौर से देखा. फिर साँस थामकर देखा तो झाड़ियों में एक चतुष्पद दिखाई पड़ा. रंग मटमैला था. शायद घुरड़ ही था. हौले-हौले चल रहा था. यह देखकर शिकारी का हृदय जोरों से उछला और शरीर उत्तेजना से भर गया. उसने फिर एकबार अच्छी तरह से देखा और ट्रिगर दबा दिया. उधर से जोर की चीख सुनाई दी. इनसानी आवाज थी. यह सुनकर शिकारी पर घबराहट और बदहवासी छाने लगी. सहसा वह धड़ाम से गिरा और तत्काल मूर्च्छा को प्राप्त हुआ. दृश्य किसी बड़े चित्रकार के अंकित करने था.
हाँकने वालोँ नें आवाज की दिशा में दौड़ लगा दी. वे रेंगते हुए झाड़ियों में घुसे. नजदीक जाकर देखा तो वह एक हाँकेवाला नौजवान निकला, जो मूर्च्छित पड़ा हुआ था. मटमैले रंग की स्वेटर और पैंट पहने हुआ था. उसकी पैंट खून से सनी हुई थी. जैसे-तैसे दोनों को लादकर मेनरोड तक पहुँचाया गया.
फिर वही हुआ अर्थात् गोपनीय इलाज-प्राइवेट नर्सिंग होम.
उधर गाँव में एक बड़ा खतरा मँडराने लगा. फुसफुसाहट होने लगी. विरोधी पार्टी में तो जोरशोर से कवायद चलने लगी थी. स्थिति उस हद तक जा पहुँची, जिसे सियासी जबान में ‘क्राइसिस’ कहा जाता है.
दरअसल लड़के का पिता मशहूर किस्म का आदमी था. अगर वह अपनी पे आ जाता तो मामला मशहूर होने में देर न थी. शिकारी की नौकरी पे बन आती. ‘डबल क्राइम का मामला बनता था. शिकारी के कुछ हितैषी जानते थे कि यह नौबत जरूर आएगी. अतः वह दुश्मनों के हाथ पड़े, उससे पहले उन्होंने बड़ी तत्परता और कुशलता दिखाई. उन्होंने उसे हाथोंहाथ लिया और एक निर्जन गेस्ट हाउस में टिका दिया.
घायल का इलाज चल निकला. गोली उसकी रान को चीरते हुए, कलाई को छूकर निकली थी. दो घाव थे. घाव सिल दिए गए. घाव भरने तक आराम करना निहायत जरूरी बताया गया.
उधर ‘वह’ निर्जन गेस्ट हाउस में क्या करता. पीकर तबीयत बहलाने लगा. कैपेसिटी भी अच्छी-खासी थी. उसे अतिथि-गृह से बाहर न निकलने दिया जाता. वह शत्रुओं के हाथ पड़ जाता तो कहर बरपा देता. ‘परेशानियां मेरी उनसे न कहना, सुनेंगे अगर तो ज्यादा परेशान करेंगे’ टाइप का शुद्ध मामला था.
तो वह अपना ‘गम गलत’ करता रहा. ‘गम गलत’ करने के मामले में तो वह मशहूर था ही. इधर वह ‘मशहूर ब्रांड्स’ से नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. देने में अगर कुछ मिनट की देरी हो जाती तो एकदम भड़क उठता- “नहीं लाते, तो मैं जाता हूँ. फिर मत कहना…” शिकारी ने जमीन पर घुटने टेककर और सीने पर हाथ रखकर उससे क्षमा याचना की. गद्य और पद्य में एकसाथ खुशामद की, “आगे से ऐसी गलती नहीं होगी. मैं खुद लेकर आऊँगा और अपने हाथों से आपकी सेवा में हाजिर करुँगा.” उधर लड़का स्वस्थ हो चला था. ऐहतियात के तौर पर डिस्चार्ज नहीं किया जा रहा था.
इन दिनों ऐसा लगने लगा, मानों अतिथि-गृह वासी का जीवन में और कोई ध्येय नहीं रह गया है. ज्यादा भावुक होते ही उसकी ‘ब्रैंड-च्वाइस’ बढ़ जाती. कभी-कभी कोई विदेशी ब्रांड ऐसी भी आ जाती, जिससे हाल ही में उसका ऐलीवेशन हुआ हो, तो वह एकदम से होश में आ जाता. चीखता, “मैं अपनी पे आ गया तो फिर देखना. नाक भी रगड़ोगे, तब भी नहीं मानूँगा.”
उधर लड़का छुट्टी की जिद करने लगा, लेकिन उसके पिता का ‘रखरखाव’ काफी महँगा पड़ रहा था. न सँभालते तो ‘बहुत महँगा पड़ सकता था. डिस्चार्ज हो जाने के बाद भी डेढ़-दो महीने तक ‘शिकारी’ ने उन्हें अपने घर मेहमान बनाए रखा. मेहमाननवाजी से ही उनका हित सुरक्षित रह सकता था.
जब वे विदा हुए तो उसने दरियादिली में आकर अस्पताल के पर्चे उन्हें थमा दिए. ताकि वक्त -जरूरत काम आए. किसी हितैषी ने उसी शाम उन्हें चेताया तो वो अगले ही दिन वापस माँगने गए. पहले तो उसने आनाकानी की, लेकिन फिर न जाने क्या सोचकर वापस कर दिए.
समय बीतने के साथ मामला ठंडा पड़ चुका था. एक दिन शिकारी के अभिन्न मित्र ने उसे उस घटना का स्मरण दिलाया. तो शिकारी ने कहा, “उसे घटना नहीं, दुर्घटना कहो. मैं अब उसे दुःस्वप्न समझकर भूल जाना चाहता हूँ. उसकी याद मत दिलाओ प्लीज.”
दोस्त ने इसरार करके पूछा, “यार, मेरा तुमसे बस एक सवाल है. तुमने दंडकवन में क्या सोचकर मारीच पर फायर झोंका. कुछ आगा-पीछा तो सोचा होता. कम-से-कम रामायण से तो कुछ सबक लिया होता, कि…”
प्रश्न सुनकर वह गंभीर हो गया. फिर, कुछ सोचकर बोला, “उस दिन भगवान ने बचा लिया. कसम से, जब मैने लेंस से देखा, तो वह चारों हाथ-पैर से चल रहा था. कपड़ें उसके मृग के रंग के ही थे. वहाँ इनसान के होने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता . मैं तो मर्मस्थल का निशाना ले रहा था. तभी मुझे कुछ धुँधला सा दिखा और….” वर्षो तक ‘मशहूर पिता’ को इलाज के पर्चे लौटाने का मलाल बना रहा. जब वह ‘मूड’ में रहता तो सिसकारी भरकर कहता, “आज मेरे पास वो कागज होते तो…कसम से… बात कुछ और होती.”
बुरे ग्रहों की छाया को लेकर उनके ज्योतिषी ने कालगणना की. ठीक छत्तीस बरस बाद, दूसरी पीढ़ी में इसी परिवार पर ‘मायामृग’ की पुनरावृत्ति हुई है . पंडित जी का कहना था, “योगिनी दशा का चक्र पूरे छत्तीस बरस का होता है. एक चक्र पूरा होने पर, जातक उसी भाग्य को पुनःप्राप्त कर लेता है.”
“इस हिसाब से तो यह ‘रोमांच’ पिता के साथ ‘रिपीट’ होना चाहिए था.” के प्रश्न पर पंडित जी बोले, “परिवार पर दोबारा विपदा आई कि नहीं.”
खैर तबसे वह परिवार आचार-विचार में ‘श्रमण धर्म’ को मानने लगा और उसके प्रभाव में आकर लगभग शाकाहारी हो गया.
कई बार ऐसा होता है कि, हम जिसकी आशा करते हैं, वैसा तो कतई नहीं होता. कुछ घटनाएँ चौंकाती हैं, तो कुछ चमत्कृत भी कर जाती हैं.
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1 Comments
Anonymous
रयाल साहब की लेखनी का कोई जवाब नहीं यह लेख भी एक उदाहरण ही है क्योंकि बचपन से अब तक आखेट और शिकारियों पर पढ़ी गई सैकड़ों कहानियों में केवल शिकारी के शिकार करने के तौर तरीकों का रहस्यमय तरीके से वर्णन हुआ करता था । लेकिन यह पहली मानव जनित घटना को रयाल जी के बेहतरीन शब्द सुमन से इस लेख के माध्यम से यह बताया है कि, शिकारी भी शिकार हो सकता है, और आखेटक का भी आखेट हो सकता है और यह कहानी बड़ी ही दिलचस्प है हम आशा करते हैं कि काफल ट्री ऐसे लेखकों से जुड़े रहने का हमें अवसर प्रदान कराता रहेगा।