पर्वतसेनानी शमशेर सिंह बिष्ट ने यह लेख उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के बीस वर्ष पूरे होने पर लिखा था. तब इसे नैनीताल समाचार ने छापा था. वहीं से इसे साभार लिया गया है. – सम्पादक Memoir of the Uttarakhand Movement 1994
बीस वर्ष कहते ही 1994 का उत्तराखंड आँखों के सामने घूमने लगता है.वह उत्तराखंड के जीवन का एक रोमांचक वर्ष था, क्योंकि उस साल उत्तराखंड राज्य आन्दोलन अपने चरम पर पहुँचा. यह एक सामान्य आन्दोलन नहीं था, वरन् उत्तराखंड में वर्षो से चले आन्दोलनों की श्रृंखला का सर्वोच्च शिखर था. सदियों से सतायी गई उत्तराखंड की जनता के गुस्से की सामूहिक अभिव्यक्ति थी. Memoir of the Uttarakhand Movement 1994
यह आन्दोलन किसी संगठन विशेष के नेतृत्व में चलना कठिन था, इसीलिए उत्तराखंड के अन्दर विभिन्न राजनैतिक सामाजिक, सांस्कृतिक, छात्र व कर्मचारी संगठनों ने अपने एक होने का प्रयास किया जो किसी सीमा तक सफल भी रहा. अल्मोड़ा में आन्दोलन को नेतृत्व देने के लिए ‘उत्तराखंड सर्वदलीय संघर्ष समिति’ का गठन किया, जिसका संयोजक वरिष्ठ पत्रकार पी. सी. जोशी को बनाया गया और मुझे प्रवक्ता. खींचतान से बचने के लिये अन्य कोई पद नहीं रखे गये. ‘सर्वदलीय संघर्ष समिति’ को ऐसी मान्यता मिली कि भाजपा व कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों तक ने अपनी महत्वाकांक्षा को पीछे छोड़ दिया और यह स्वीकार कर लिया कि राज्य आन्दोलन के सम्बन्ध में ‘सर्वदलीय संघर्ष समिति’ के निर्णय उन्हें मान्य होंगे. आने वाले दिनों में कचहरी में महीनों तक चले धरना व भूख हड़ताल कार्यक्रमों में ये राजनैतिक दल अपने झण्डे व डण्डे छोड़ कर शामिल हुए. Memoir of the Uttarakhand Movement 1994
त्रिशूल होटल में ‘सर्वदलीय संघर्ष समिति’ का जन्म हुआ और वहीं इसकी बैठकें हुआ करती थीं. त्रिशूल होटल के मालिक जगन्नाथ साह थे, जो जिला पंचायत अध्यक्ष के सहायक पद पर नौकरी करने के बाद रिटायर हुए थे. सेवावकाश के बाद वे त्रिशूल होटल का संचालन करने लगे. वे स्वयं तो अविवाहित थे, मगर समाज की सारी चिन्ताओं को उन्होंने अपने ऊपर ओढ़ रखा था. जमीन सम्बन्धी नियम-कानूनों की उन्हें अपार जानकारी थी. त्रिशूल होटल उत्तराखंड आन्दोलन का केन्द्र बना. राजनीतिक गतिविधियों की दृष्टि से अत्यन्त सक्रिय रहने वाले अल्मोड़ा नगर के सारे सचेत राजनैतिक कार्यकर्ता वहाँ जुटने लगे.‘सर्वदलीय संघर्ष समिति’ से न कभी जगन्नाथ साह जी ने किराया माँगा और न ही समिति की किराया देने की कोई हैसियत थी. आन्दोलन के बीस साल बाद अब जगन्नाथ साह जीवित नहीं हैं और त्रिशूल होटल को बहुत सारे लोग जानते भी नहीं. मगर राज्य आन्दोलन में इन दोनों की बड़ी भूमिका रही. त्रिशूल होटल और एम्बैसेडर होटल का जिक्र किये बगैर अल्मोड़ा के राजनैतिक इतिहास पर चर्चा नहीं की जा सकती. ये दोनों होटल अल्मोड़ा में राजनीति के केन्द्र रहे और अपनी मुफलिसी के दिनों में बड़े-बड़े राजनीतिक दिग्गज यहाँ शरण पाते रहे.
त्रिशूल होटल में बैठकें आरम्भ हुईं तो सरकार पर दबाव बढ़ा और गुप्तचर विभाग भी सक्रिय हो गया. इसीलिए साह जी ने एक उपस्थिति रजिस्टर रख दिया, ताकि हर आने वाले व्यक्ति की हाजिरी लग सके.
14 अगस्त को ‘सर्वदलीय संघर्ष समित’ द्वारा गिरफ्तारी का आह्वान किया गया था. आन्दोलन में सम्मिलित लगभग सभी लोगों ने अपनी गिरफ्तारी दिखायी. एक हवलदार ने रजिस्टर में दर्ज कर गिरफ्तारी की रस्म पूरी कर ली. इसी गिरफ्तारी का सबसे बड़ा लाभ कांग्रेस व भाजपा कार्यकर्ताओं को मिला, क्योंकि इससे गोविन्द सिंह कुंजवाल से लेकर प्रकाश जोशी, नंदन सिंह कपकोटी आदि सभी राज्य आन्दोलनकारी बन गये.
सत्तर और अस्सी के दशक में अल्मोड़ा को केन्द्र में रख कर जनान्दोलनों की एक बड़ी ताकत बनी ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ से निकले दो हिस्से अब दो परस्पर विपरीत दिशाओं में जाने लगे थे. एक राज्य आन्दोलन का पूरा समर्थन कर रही थी तो दूसरी विचारधारा खुल कर उत्तराखंड राज्य का विरोध कर रही थी. मायावती व मुलायम सिंह के संयुक्त शासन ने उत्तराखंड आन्दोलन को भी जातीय आधार पर विभाजित कर दिया था. पौड़़ी से शुरू हुए छात्र आन्दोलन ने भले ही 27 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने का विरोध किया था, लेकिन उत्तराखंड राज्य आन्दोलन कुल मिला कर आरक्षण के विरोध में नहीं था. मगर समाजवादी पार्टी व बहुजन समाजवादी ने धुँआधार प्रचार कर पूरे देश में इस आरक्षण विरोधी आन्दोलन के रूप में प्रसिद्ध कर दिया. जबकि मुलायम सिंह के शासनकाल में बनी कौशिक समिति की रपट आज भी उत्तराखंड राज्य के लिए सबसे प्रामाणिक दस्तावेज है.
तो इस दुष्प्रचार ने संघर्ष वाहिनी के दूसरे हिस्से को भी राज्य आन्दोलन का विरोधी बना दिया. जब राज्य आन्दोलन अपने चरम पर था, अल्मोड़ा में आमने-सामने दो-दो जलूस निकला करते थे. एक उत्तराखंड राज्य सर्मथकों का तो दूसरा विरोधियों का. सन् 1994 के सितंबर में जिस वक्त नंदा देवी का डोला उठ रहा था तो उसी वक्त पूर्व सैनिक संगठन ने भी उत्तराखंड राज्य के पक्ष में एक जलूस निकाला था. ज्यों ही यह जलूस लाला बाजार पहुँचा, न जाने कैसे यह अफवाह चल गयी राजपुरा के पास एक फौजी की दुकान राज्य विरोधी तत्वों ने लूट ली है. आन्दोलनकारियों का जलूस लाला बाजार से राजपुरा की ओर मुड़ गया. वहाँ दोनों पक्ष आमने-सामने आ गये. तत्कालीन जिलाधिकारी से बात की तो उन्होंने कहा कि स्थिति बहुत तनावपूर्ण है. कभी भी गोली चलानी पड़ सकती है. आप लोग अगर शांति का प्रयास करना चाहते हैं तो आपको एक मौका दिया जा सकता है. इसके बाद पी.सी. जोशी व मैं दोनों जलूसों के बीच में जाकर खड़े हो गये.जबर्दस्त उत्तेजना थी और कहीं से भी चिंगारी भड़क कर आग लगा सकती थी. उत्तराखंड आन्दोलनकारियों, जिनके साथ वास्तव में हम थे, ने हमें जम कर कोसा. कहने लगे कि आप जैसे डरपोक लीडर उत्तराखंड में कहीं नहीं हैं. विरोधी पक्ष के लोगों के साथ भी हमारे बेहद करीबी सम्बन्ध थे. हमने उनसे हाथ जोड़कर वापस चले जाने को कहा. धीरे-धीरे वातावरण में गर्मी कम हुई, तनाव घटा और अन्त में पूरी भीड़ वापस चली गई. घर लौटते हुए रास्ते भर हमने आन्दोलनकारियों की गालियाँ झेलीं.
13 सितंबर 1994 को भी कचहरी में दो जलूस आमने-सामने चल रहे थे. उत्तराखंड राज्य सर्मथकों की संख्या अधिक होने के कारण नारों की गर्जना अधिक थी. मुलायम व मायावती के खिलाफ व्यक्तिगत नारे भी लग रहे थे. यह टकराव चल ही रहा था कि पुलिस का एक सिपाही जो स्वयं भी यादव था, एकाएक उत्तेजना में आ गया. उसने उत्तराखंड राज्य सर्मथकों की तरफ बंदूक तान दी. अगर मैने झपट कर उससे बन्दूक छीनने में एक सेकेंड की भी देर कर दी होती तो शायद उसकी बन्दूक से गोली चल जाती और कोई बड़ा हादसा हो जाता. इस घटना की तुलना 30 सितंबर को अल्मोड़ा के स्टेडियम में हुई उस विशाल सभा से करें, जिसमें पूर्व राज्यपाल बी.डी. पाण्डे राज्य आन्दोलन के पक्ष में बोलने के लिये आये थे. पूरे फील्ड में नरमुण्ड ही नरमुण्ड दिखाई दे रहे थे, मगर सभा इतनी शालीन और अनुशासित रही कि सर्वत्र उसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा.
कुछ तत्व तो लगातार आन्दोलन में उत्तेजना पैदा करने का प्रयास करते रहे. अल्मोड़ा में एक वर्ग है, जो हर सत्ताधारी दल, चाहे वह कांग्रेस हो अथवा भाजपा, से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखता है. अपनी पत्रकारिता से हमेशा इनका गुणगान करता है और सरकारों से जम कर लाभ उठाता है. ‘गंगा गये तो गंगादास, जमुना गये तो जमुनादास’ वाला यह वर्ग उन दिनों सर्वदलीय संघर्ष समिति में फूट डालने में लगा था. इन लोगों ने अफवाह फैला दी कि शमशेर बिष्ट के नैनीताल में रहने वाले प्राध्यापक मित्र ने वहाँ पब्लिक स्कूल खुलवाने के लिए अभिभावकों के साथ बकरा काटा और राज्य आन्दोलन को धक्का पहुँचाया. यह अफवाह बहुत ज्यादा फैली तो मुझे भरी सभा में घोषणा करनी पड़ी कि यदि मेरे उस मित्र ने ऐसा किया होगा तो मैं सार्वजनिक जीवन से अवकाश ले लूँगा. मेरे पास कोई प्रमाण तो थे नहीं. वह मोबाइल का जमाना भी नहीं था कि फटाफट फोन कर पता कर लेता. बस बीस साल की उसकी दोस्ती और आन्दोलनों में रहने का उसका निष्कलंक इतिहास था. बाद में यह अफवाह झूठी भी साबित हो गई. मेरा भी अनुभव बढ़ा कि आन्दोलनों में कितने धैर्य और विश्वास की जरूरत होती है.
2-3 अक्टूबर 1994 का जिक्र किये बगैर उत्तराखंड राज्य आन्दोलन की बात अधूरी ही रह जायेगी. दिल्ली में होने वाले इस प्रदर्शन के लिए ‘सर्वदलीय संघर्ष समिति’ ने दो गाड़ी मालिकों, रघुनाथ सिंह चौहान व नारायण सिंह सिराड़ी से गाडि़याँ ले लीं. तनाव को ध्यान में रखकर यह निर्णय लिया गया की महिलाएँ दिल्ली प्रदर्शन में नही जायेंगी. मेरे साथ प्रमुख रूप से षष्ठी दत्त जोशी व अमीनुर्रहमान थे. बड़े नेता कारों से दिल्ली चले गये थे. यह समझने की बात है कि यदि जिम्मेदार लोग जन सामान्य के साथ बसों में दिल्ली गये होते तो न आगे चल कर अफरातफरी नहीं फैलती और न मुजफ्फरपुर कांड झेलना पड़ता. भवाली पहुँचते ही अधिकांश आन्दोलनकारी शराब की दुकान ढूँढने लगे. सरूर में आने पर इनके मुँह से मुलायम सिंह व मायावती के लिये गालियाँ निकलने लगीं. इसी बात का डर था. उ.प्र. का इलाका आ गया. इन शराबियों के कारण कहीं कोई घपला न हो जाये, इस बात की चिन्ता लगी. बिलासपुर के पास हमें ही नहीं, कुमाऊँ से आनी वाली सारी गाडि़यों को रोक दिया गया. यह संयोग था कि उस समय ड्यूटी पर एस.डी.एम. राजेन्द्र लाल साह थे. उनसे आगे जाने की अनुमति माँगी तो उन्होंने अल्मोड़ा के जिलाधिकारी से बात करवा दी. बात ऐसी बनी कि हमारी बस को नहीं, सारी बसों को आगे जाने की अनुमति मिल गई. लेकिन आगे मुरादाबाद से पहले पुडगाँव में भारी पुलिस ने फिर रोक लिया. इस वक्त तक बसों में शराबियों की संख्या भी काफी हो गई थी. एक तरफ पुलिस से जूझना था तो दूसरी ओर शराबी आन्दोलनकारियों को भी समझाते-पुचकारते, मारते-पीटते नियंत्रण में रखना था. अन्त में वहाँ मौजूद एक इंस्पेक्टर पुण्डीर को विश्वास में लेकर समझाया कि हमको तुम हिरासत में ले लो, परन्तु फाटक खोल दो क्योंकि शराब में धुत होकर अनियंत्रित हो चुके ये लोग जबर्दस्ती फाटक तोड़ डालेंगे तो हालात बिगड़ जायेंगे.कोई भी घटना हो सकती है.पुलिस को बात समझ में आ गई.एक और बड़ी दुर्घटना टली. लेकिन गाजियाबाद में कुछ शराबी आन्दोलनकारी छत पर चढ़ कर गालीगलौज करने लगे. किसी ने उत्तेजित हो कर उनमें से एक को सरिया मार दी. वह बुरी तरह घायल हो गया. फिर कई घण्टे उसकी मलहम-पट्टी के लिये भटकना पड़ा. इसीलिये दिल्ली पहुँचते-पहुँचते सुबह के दस बज गये.
तब तक वहाँ पुलिस का दमन आरम्भ हो गया था. सारी भीड़ तितर बितर हो गयी थी. शाम को मुझे और अमीनुर्रहमान को नैनीताल से आयी एक ऐसी बस में लौटना पड़ा, जिसमें सिर्फ महिलायें थीं, कोई पुरुष नहीं था. कितने गैर जिम्मेदार रहे होंगे बगैर संरक्षण के सिर्फ महिलाओं को प्रदर्शन के लिये भेज देने वाले लोग? 3 अक्टूबर को नैनीताल में महिलाओं को सुरक्षित उनके घर तक पहुँचाने से चिन्ता खत्म हुई. मगर तब तक रामपुर तिराहे में हुई लोमहर्षक घटना के विवरण मिलने शुरू हो गये थे. नैनीताल में भी जबर्दस्त उत्तेजना पैदा हो गई. मल्लीताल से आये एक बहुत बड़े जलूस, जिसमें मुख्यतः छात्र व युवा थे, का पुलिस से टकराव होने बाद पुलिस ने जबर्दस्त दमन किया. चिडि़याघर जाने वाले रास्ते पर एक घरेलू नौकर प्रतापसिंह की रैपिड एक्शन फोर्स ने एकदम सामने से गोली मार कर हत्या कर दी. उन दिनों नैनीताल में ‘सांध्यकालीन उत्तराखंड बुलेटिन’ कर रहे गिरदा, राजीव व शेखर बहुत ज्यादा चिन्तित थे. जिस तरह गोलियाँ चल रही थीं, अगर हम लोग भाग कर अशोक होटल में न छिप जाते तो हो सकता था कि हममें भी कोई गोली का शिकार हो जाता.
4 अक्टूबर को वापस अल्मोड़ा पहुँचा तो वहाँ भी वैसा ही तनाव मिला. घर के पास बस से उतरा तो युवकों की एक टोली वन विभाग के दफ्तर को आग लगाने के लिये जाती दिखी. उनके साथ खींचतान हुई. जलती मशाल उनसे छीनी. फिर आन्दोलनकारियों के साथ आकाशवाणी गये. वहाँ पर भी वाद विवाद कर मामला शांत किया. उस वक्त उन आन्दोलनकारियों में कुछ छात्र नेता हुआ करते थे, जो बाद में प्रदेश के बहुत बड़े नेता बने. ये ही छात्र नेता पेट्रोल लेकर कचहरी में आग लगाने भी आ गये. उस वक्त कचहरी के धरनास्थल पर पी.सी. जोशी और मैं ही थे. हमने उन छात्र नेताओं को बहुत समझाया कि कचहरी जल भी जायेगी तो क्या होगा, आन्दोलन कमजोर ही तो होगा. वे लोग हमें डरपोक कहने लगे. तब हमें सख्त हो कर कहना पड़ा कि अगर जलाना है तो पहले हम पर पेट्रोल डालो फिर कचहरी में आग लगाओ. जर्बदस्त नाराजगी के बाद अन्ततः छात्र नेता मान गये. मगर ऐसे तत्वों की हम पर नाराजगी बनी रही. उन दिनों लोग हमारी मजाक बनाते थे कि ऐसे आन्दोलन में भी शान्ति चाहते हो तो अल्मोड़ा आ जाओ.
यह भी याद दिलाना चाहता हूँ कि बस की छत पर गालीगलौज करने वाले जिस युवक को गाजियाबाद में सरिया मारी गयी थी, वही सरकारी तौर अल्मोड़ा जनपद में सबसे पहले राज्य आन्दोलनकारी घोषित हुआ. उसे सरकारी नौकरी मिल गयी. जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन आन्दोलन में लगाया, वे आज भी आन्दोलनकारी घोषित होने को तरस रहे हैं.
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1 Comments
मोहम्मद नाज़िम अंसारी
शमशेर दा जैसे नेता अब उत्तराखंड में पैदा होने बंद हो चुके हैं। वह स्वयं में एक आंदोलन थे क्योंकि जल,जंगल ज़मीन से लेकर हर राजनीतिक ,सामाजिक मुद्दे के लिए वे संघर्षरत रहे ,उन्हें कायर कहने /समझने वालों के लिए मैं अपने छात्र-जीवन की उस घटना का ज़िक्र कर रहा हूँ जिसने पहली बार शमशेर दा से मेरा परिचय कराया। संघटक महाविद्यालय ,अल्मोड़ा का आपातकाल के बाद पहला छात्र-संघ चुनाव था। मैं बी ० ए ० प्रथम वर्ष का छात्र था और कक्षा प्रतिनिधि जैसे मामूली पद का प्रत्याशी भी था। शाम का अँधेरा हो चुका था मतगणना जारी थी। हम सभी छात्र हॉल में चल रही इस प्रक्रिया को अंग्रेज़ी विभाग के सामने की दीवार के रोशनदान से देख रहे थे। अध्यक्ष पद की घोषणा होते ही गोली चलने की अवाज़ के साथ अफरा-तफरी और भय का माहौल हो गया। मैं भी बहुत डर गया था और मैंने अब कभी छात्र-राजनीति में हिस्सा न लेने का निर्णय लिया। चुनाव परिणाम आने के बाद जुलूस कॉलेज से निकल कर बाज़ार से गुज़रता था लेकिन इस घटना के कारण उस शाम जुलूस नहीं निकल सका। जो प्रत्याशी हारा था वह हॉस्टल का छात्र था और गुंडा प्रवृति का भी था। तब कॉलेज का एक ही मुख्य गेट था जिससे प्रवेश करते ही कैंटीन भवन और हॉस्टल भवन पड़ते थे और जुलूस के यहाँ से गुज़रने पर किसी अनहोनी की आशंका थी। दूसरे दिन शमशेर दा को इस विजय-जुलूस का नेतृत्व करने के लिए बुलाया गया (शमशेर दा उस समय महाविद्यालय के छात्र नहीं थे (1977 ) लेकिन एक दमदार,निडर भूतपूर्व छात्र -संघ अध्यक्ष थे और चिपको आंदोलन के अग्रणी नेता थे ) और उनके नेतृत्व में यह जुलूस बिना किसी बाधा के निकला। इस समय ही पहली बार उन्हें देखा यह पता नहीं था कि वे अपने ही मोहल्ले (थाना बाज़ार ) के रहने वाले है।