उत्तराखंड में आज शराब अर्थव्यवस्था का सबसे मजबूत स्तंभ बन गयी है. शराब बंदी का नारा देकर सरकार बनाने वाली पार्टियां हर साल शराब से राजस्व में 10% की वृद्धि लक्षित कर रही हैं. अधिनियमन बनाकर शराब पीने के लिये माँडल शॉप बनाने जैसे विचार चल रहे हैं. शराब से राजस्व के लिये उत्तराखंड में जिलाधिकारी नियुक्त है. लेकिन एक समय ऐसा भी था जब शराब में डूब चुके इस क्षेत्र के लोग नशे के व्यसन से मुक्त थे.
1861 में कुमाऊं के सीनियर कमिश्नर गाइलस ने आबकारी प्रशासन की रिपोर्ट में लिखा है कि अभी भी पहाड़ी लोग नशे के व्यसन से मुक्त हैं. यद्यपि भोटिया बदरीनाथ के निचले इलाकों और मार्छा लोगों में यह स्थानीय पेय, जिसे उधर के लोग मार्छापाणी के नाम से जानते हैं, नशे के रूप में प्रयुक्त होता था.
1940 से 1950 के बीच तक भी संभ्रांत, निर्धन, मध्यवर्गीय घर में शराब देखने को नहीं मिलती थी. शराब को मानसिक गुलामी वाले तबके के लोगों का पेय माना जाता था. 1960 से गढ़वाल में टिंचरी के नाम से और कुमाऊँ में कच्ची शराब के नाम से शराब का विष फैलता गया. जिसका प्रभाव राज्य के सामाजिक ताने-बाने पर भी पड़ा.
एक राज्य जहां किसी के भी नशे में लिप्त न होने की रिपोर्ट दी जा रही थी वहां आज 52 फीसदी लोग रिकार्ड शराब पी रहे हैं. 17 से 40 आयु वर्ग के 40 प्रतिशत लोग शराब का सेवन कर रहे हैं. सरकार की शराब को लेकर किसी भी प्रकार की स्पष्ट नीति नहीं है. जिस शराब के सेवन को कम करने के प्रयास सरकार गिना रही है उसी शराब से सरकार ने पिछले वर्ष की तुलना में 25 प्रतिशत की वृद्धि के साथ वित्तीय वर्ष 2018-19 के पहले कुछ महीनों में 2650 करोड़ के सापेक्ष 1016.64 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त किया जा चुका है.
पहाड़ियों के लिए सूर्य अस्त पहाड़ी मस्त राष्ट्रीय स्तर पर प्रयुक्त होने वाली पंक्ति है, साधारण सी दिखने वाली इस पंक्ति के अपने कई गंभीर अर्थ और परिणाम हैं.
जिस कृषि को उत्तराखण्ड में अब तक की सरकारों ने कभी आय का साधन ही नहीं समझा उस कृषि पर ब्रिटिश लोगों का क्या नजरिया था उनके समय के लेखों में देखने को मिलता है.
उत्तराखंड में कृषि के संबंध में ट्रेल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि उत्तराखंड के निवासियों का जीवन भरा-पूरा है. उनके खेतों में मडुवा, गेंहू, चावल, जौ, तिलहन अदरक जैसी अनेक फसलें पैदा होती है. उनके जंगलों में अनेक जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं. अखरोट जैसे फल बहुतायत में मिलते हैं. लोग अपने हाथ से कागज़ बना लेते हैं. चट्टानों से अयस्क निकालकर तांबे के बर्तन और औजार बना लेते हैं. दूध, दही और शहद की बहार है. ये लोग ऊनी कपड़ा बनाकर पहनते हैं. अपनी उपज और अपनी बनाई चीजों का उपयोग कर बाकी मैदानों में जाकर बाजारों-मंडियों में बेचते हैं और मैदानों से गुड और कपास खरीदते हैं जबकि नमक तिब्बत से आयात करते हैं.
लेफ्टिनेट पिचर ने 1825 के अपने एक लेख में लिखा है कि कुमाऊं-गढ़वाल के किसान दुनिया के किसी भी भाग के किसानों की तुलना में अधिक खुशहाल हैं. वे अच्छे-पक्के मकानों में रहते हैं और सुंदर परिधान पहनते हैं.
कुमाऊं कमीश्नर रहे हैनरी रैमजे लिखते हैं कि नदी किनारों के खेतों में इतना अनाज उपजता है कि तिब्बत और भारत के मैदानों के बाजारों को निर्यात किया जाता है. मांस-मछली, शाक-सब्जी, फल-कंदमूल इन पहाड़ियों के आहार का हिस्सा हैं. इस दृष्टि से पहाड़ी किसान मैदान के कृषकों की तुलना में कहीं अधिक खुशहाल हैं.
-काफल ट्री डेस्क
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