कालिदास ने हिमालय को देवतुल कहा है. पुराणों में देवलोक की कल्पना भी हिमालय के कैलाश-मानसरोवर पथ के मध्य कहीं की है. देवताओं के कोषाध्यक्ष, कुबेर की नगरी अलकापुरी भी कैलाश के निकट ही बताई गई है. यहीं पौराणिक नंदन बन भी है, जहां पारिजात वृक्षों के बन भी हैं पारिजात वृक्षों में भी समस्त कामनाओं की सम्पूर्ति करने वाले कल्पवृक्ष का स्थान सर्वोपरि माना है.
(Panyan Padam tree uttarakhand)
कालिदास ने अपने ललित काव्य मेघदूतम में निर्वासित यक्ष द्वारा मेघ को अपने गृहनगर का मार्ग समझाते हुए अलकापुरी के सौदर्य और संपन्नता का वर्णन किया है. इसी में कल्पवृक्ष के बारे में बताया गया है कि “अलकापुरी में पहनने के लिए रंगीन वस्त्र, नयन मे चंचलता लाने के लिए चटक मधु, शरीर सजाने के लिए पुष्प व कलिकाएं कई प्रकार के गहने, चरण कमलों को रंगने के लिए महावर. यह सब वनिता-पिन श्रृंगार समग्रियों को कल्पवृक्ष ही उत्पन्न करता है और कल्प वृक्ष केवल कल्पित है अथवा यथार्थ का विषय हो सकता है. किन्तु संसार में ऐसे रसों की कमी आज भी ऐसी अनेकों प्रजातियाँ आवश्य हैं. अनेक आवश्यकताओं की संपूर्ति करते हैं.
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में बड़ी तदात में च्यूरा नामक वृक्ष पाया जाता है. उसके फूलों से शहद (च्यूरा का गुड़) कच्चे फलों से दूध के समान तरल और पके फ़लों से घृत प्राप्त किया जाता है. शन के गुड़ से ’चटक मधु’ प्राप्त किया जाता है (जैसे महुजा से शराब) नैसर्गिक वृक्षों में हिमालय क्षेत्र का देवदारु वृक्ष है. नैसर्गिक वृक्षों में उत्तरकाशी जनपद में आज भी विश्व के सर्वोत्तम वन हैं. अल्मोड़ा जनपद में प्रसिद्ध जागेश्वर शिवधाम का समस्त क्षेत्र दारुक नाम (दारुक पट्टी) से जाना जाता है.
देवदारु से आच्छादित वन चंदन से सुगंधित होते हैं, सम्पूतिपूर्ण करते हैं. उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में जब इसकी विशाल फैली हुई शाखों पर हिम जम जाता है तो दूर से इसके वन ऐसे लगते हैं मानो हजारों तपस्वी श्वेत जाटा जूट बिखेर कर खड़े-खड़े तपस्या कर रहे हों तो कभी सुमित्रानंदन पंत, प्रसाद, श्रीधर पाठक आदि ने देवदारू दारू की सुंदरता के अनेक आयामों को कविताबद्ध किया है.
शशि शेखर शिव को इस वृक्ष की छाया के बीच समादिष्ट होना अत्यंत प्रिय है. कुमारसंभव काव्य में महाकवि कालिदास ने देवताओं द्वारा प्रेरित कामदेव के द्वारा शिव को काम विमोहित करने के लिए जब कैलाश पर्वत पर भेजा गया तो आसन्न मृत्यु कामदेव ने देवदारू वृक्ष के नीचे बनी हुई वेदिका पर व्याघ्र छाला बिछा कर बैठे हुए समाधि लिप्त शिव को देखा. महाकवि ने इस वृक्ष को न केवल योगियों की योग साधना के रूप में वर्णित किया है वरन इसकी सुगंधी को विरही हृदयों को राहत देने वाला भी बताया है.
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महाकवि का हिमालय और उसकी प्रकृति संबंधी की बारीकियों का ज्ञान अत्यंत विस्मयकारी है मेघदूत में निर्वासित विरही यक्ष अलकापुरी के प्रसिद्ध प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहता है. हे, मित्र में मेरी प्रिया से कहना कि अलकापुरी में देवदारू वृक्षों के हिम से मुंदे हुए पल्लवों को खोलती हुई व उसके फुटाव से बहती हुई सुगंधि लेकर हिमाचल की जो हवाएं दक्षिण की ओर आती हैं. मैं उनका यह समझकर आलिंगन करता हूं कि शायद यह पहले तुम्हारे अंगों का स्पर्श करके आ रही हैं (उत्तरमेघ-44). देवदारू वृक्षों की पत्तियों व फलों केप्रस्फुटन से निकलने वाली सुगंधी निकालकर वातावरण को सुगंधित करती रहती है. इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं. जिसे महाकवि ने उद्घाटित किया है.
संसार के सभी चर्यो में पचिन वृक्ष एवं लताओं का महत्व है. पौयूचार्म में बोधिवृक्ष (बट), ईलाई धर्म में ऑलिव (जैतून) एवं उपरीपतियां, ख्रिसमसट्री (देवदास या विलायतलेपाइन को दही) और वैदिक (हिन्दु) धर्म में कह देवदास, वर की पल, बेल, आंवला और कला तुलसी विशेष पवित्र एवं पूजनीय पादप माने गए हैं. एवं उत्तराखंड में भी उक्तवि पवित्र अतिरिक्त लोकजीवन में स्थानीय स्मार को पर्यावरण का पैतुराती कार्य का शगुनी का (शुभंकर) वृक्ष भानग जाता है. इसे गढ़वाल में पय्यां और कुमायूं में पदम कहते हैं.
उत्तराखण्ड में इन वृक्षों अतिरिक्त लोकजीवन में इस ’पैय्यां’ को शुभंकर पर्यावरण संतुलन कायम रखने वाला पीपल और तुलसी की भांति शगुनी (शुभंकर) व पवित्रतम वृक्ष माना गया है. इसे गढ़वाल में ’पय्यां’ और कुर्मांचल में ‘पदम’ जो पादप शब्द का अपभ्रंशत हो कहते हैं. पय्यां (पदम) चेरी प्रजाति का वृक्ष है. यह सिन्धु तल से 3000 फीट से 8000 फीट तक ऊंचाई में प्रायः, उत्तरी ढलान की पहाड़ियों आद्र चट्टानों में उत्पन्न होता है. इसके वृक्ष की ऊंचाई दस फिट से बीस फिट तक हो सकती है. चेरी, सेव नाशपाती आडू, खुबानी के वृक्षों लताओं समान शीतकाल में तन्द्रित होता है.
(Panyan Padam tree uttarakhand)
उत्तराखण्ड में वसन्त पंचमी के आने से पूर्व ही सर्वप्रथम शीतकाल की तन्द्रा से जागने वाला प्रथम वृक्ष पय्याँ ही है. दूर-2 तक पहाड़ियों व घाटियों में सर्वप्रथम छोटे-छोटे गुलाबी पुष्प गुच्छों को चटका कर यह नए-शिख तक फूलों से भर कर दूर से एक बड़ा गुलदस्ता बन कर ऋतुराज बसंत के आगमन का संदेश देता है. फिर इसमें को हरे रंग की चमकदार पत्तियों का धना वितान सा बन जाता है इसकी शाखा-प्रशाखा. हरे चेरी जैसे असंख्य गोल फलों के गुच्छों से लद जाती है. जो वर्षाकाल में चटक लाल रंग के हो के पाक जाते हैं. अब तो कथित हनतमका संदेश है.
गुच्छा करशगुनी पय्याँ को न्योतना अनिवार्य था. गढ़वाल में हर घर कि खोली मुख्य द्वार लकड़ी या पत्थर के पटाव पर विघनेश्वर गणेश की मूर्ति खुदी होती है जिसे खोली का गणेश कहते हैं. हर शुभकार्य में सर्वप्रथम खोली के गणेश की पूजा की जाती है. गढ़वाल-कुमायूं में सम्पूर्ण चैत्र मास में गाँव कि कन्याओं द्वारा पय्यां, फ़्यूंली, बुरांश के ताजे पुष्प हर घर की खोली (द्वार) में पौ फटते विखेरने की प्रथा है. जिसे फूलकंडी कहा जाता है. हर विहान नाव संवत सर के लिए शुभ माना जाता है. फुलकंडी के इस पारिश्रमिक के रूप में बैशाखी के दिन हर परिवार अपनी सामर्थ्य के अनुसार ग्राम कन्माओं को रुपए-पैसे, पकवान और मिष्ठान खिला कर प्रसन्न किया जाता है. इस में पैच्या के फूलों का विशेष महत्व है. उसके पश्चात देवताओं की डालि पय्यां (पदम) को न्योता जाता है.
पय्यां (पदम) बृकसह का धूप दीप नौविद्य व रोली अक्षत द्वारा पूजन करके व रंगीन धागे को उसके ताने पर लपेट कर न्योता जाता था. न्योतने की राश्म के बाद ईष्ट मित्रों व संबंधियों को न्योता जाता था. लोग कि शुभकार्य के समय गाए जाने वाले मंगल गीतों से स्पष्ट होता है, पुरोहित से प्रार्थना की जाती थी कि वे सर्वप्रथम खोली गणेश की पूजा और पय्यां को न्योतना न भूलें.
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विवाह संस्कार, यज्ञों पावित, मुंडन आदि में ही नहीं वरन शिल्पकार लोगों के निरंकार देवता के पूजन के समय भी सर्वप्रथम पय्यां को न्योतने की रस्म दीप, नैवैद्य व रोली उसके तने पर राखी बांध कर पूरी की जाती थी. तुलादान संस्कार में तुलादण्ड पय्यां (पदम) की राखी बांधकर ही बनाया जाता था. पय्यां को तने से काटना व उसकी लकड़ी को जलाना अशुभ माना जाता रहा है. आज कथित आधुनिकता की हवा में मान्यताओं की उपेक्षा हो रही है. लेकिन इस खूबसूरत परंपरा को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है.
गढ़वाली लोक गीतों में पय्यां (पदम) को “द्यबतों की डाली “ या रागुती गणी’ कहकर पुकारा गया है. आज भी चैत माल भर चांदनी रातों में ग्रामीण महिलाएं ग्राम-चैक या मंदिर के प्रांगण में गोल घेरे में नाचते हुए थड़िया गीत गाती हैं.
देवतों की डालि,तैं डालि पय्यां न्यूति
सगुण्या डालि तैं डालि पय्यां न्यूति
अर्थात यह पय्यां देवताओं का वृक्ष है. शगुन पय्यां (शुभंकर) वृक्ष है, इसको न्योत दो फिर पय्यां की पौध रोपने व उसके फलने-फूलने वर्णन है..
द्यवताओं की डालि स्या डालि पय्यां जामी
दुपत्ती ह्वे ग्याया , स्या डालि पय्यां जामी
भरपत्ति ह्वे ग्याया , स्या डालि पय्यां जामी
फूलवती(फलवती) ह्वे ग्याया , स्या डालि पय्यां जामी
देखो! यह देवताओं का पय्यां जमने लगा है देहले यह पहिले दुपत्ती हुआ फिर चैपत्ती और फिर पतियों से भर गया है और फिर फूलों से अब तो यह फलों से लद गया है. इस पवित्र वृक्ष पय्यां का जीवन सफल रहा है. मात्रत्व का प्रतीक वृक्ष. शीत काल के अंत और बसंत के आगमन से पूर्व गढ़वाल में ‘झुमैलों’ नामक खुदेड़ गीत (विवाहित स्त्रियों को अपने मायके की याद दिलाने वाला करूण गीत) घाटियों गूंजने लगता है.
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दिन-रात परिश्रम करती कोई पर्वतीय नारी किसी ऊंचे पहाड़ पर घास लकड़ी काटते हुए जब ऊंचाई से नीचे घाटी में देखती है तो सर्वप्रथम गुलाबी पुष्प-गुच्छों से लक-दक पय्यां पर उसकी नजर पड़ती है. जो ऋतु परिवर्तन का प्रतीक और वह ‘झुमैलों’ लंबी आलाप वाला कारुणिक गीत गा कर गिरिवन को गुंजायमान कर देती है.
आई गेनी ऋतु बौड़ी दाईं जैसों फेरो, हे झुमैलो
उँदा देशी उँदु जाला ऊबा देशी ऊबो हे झुमैलो
फूले पय्यां फ्यूलाड़ि फूलली बुरांशी, हे झुमैलो
उं ऊंचा कैलासू ब्वे फ़ूलइ रई-मासी हे झुमैलो
मेरी माजी हूंदि ब् मौतुड़ा बुलांदी. हे झुमैलो
अर्थात- ऋतुएं खलिहानों में होने वाली दाँय के फेरों के समान फिर लौट आई हैं. अब ऊपर के देशवासी (भूटिया व्यापारी) ऊपर और नीचे के देशवासी नीचे को चल पड़े हैं. चूंकि पय्यां फूल गया है देखा-देखी अब फ़्यूली और बुरांश भी फूल गए हैं ऊंचे-अच्छे पर्वतों पर राई-मासी फूलने लगी होगी. मां होती तो मुझे भी मैत बुलाती. अर्थात यह देववृक्ष पय्यां अब जमने लगा है. पहिले दुपत्ती हुआ फिर चैपत्ती हुआ. और अब पत्तियों से भर गया है. फिर फूलों से और फिर फलों से लद गया पवित्र वृक्ष पय्यां का जीवन सफल रहा है यह व वसन्त में आगमन से पूर्व गढ़वाल में झूमैलों नामक खुदेड़ गीत’ (विवाहित स्थियो को अपने मायके की याद दिलाने वाला करुण गीत) गाया जाता है.
(Panyan Padam tree uttarakhand)
दिन-रात परिश्रमरत कोई पहाड़ी नारी किजी ऊंचे पहाड पर घास-लकड़ी काटते हुए जब अचानक नीचे घाटी में देखती है सर्वप्रथम गुलाबी से लक-दक पय्यां पर उसकी नजर पड़ती है. जो ऋतु परिवर्तन का प्रतीक है. लम्बी आलाप वाला गीत झुमैलो गीत गा कर शांत घाटी को गुंजायमान कर देती है.
गढ़वाल में विवाह के अवसर पर गए जाने वाले मानगल गीत वैदिक रिचाओं की भांति सारगर्भित होते हैं वधू पक्ष का मंगलगीत तब प्रारंभ होता है जब विवाह वेदिका तायार हो जाती है. अब अग्नि को निमंत्रित किया जाता है.
ऐ जादि अगनी, एजा अगनी तू मात्र लोका हे…
माँगल छंद में कहा गया है. कि हे अग्नि अब समय आ गया है. कि तू स्वर्ग लोक से मेरे मात्र लोक में आ जा. हे ब्रम्हा जी (ब्राहमण) इस अग्नि का भली भांति पूजन कीजए क्योंकि मेरे (वधू) इनसे (वर) विवाह बंधन की साक्षी होगी. मंगलीक गीतों में आगे कहा गया है. हे अग्नि तू इस मात्र लोक में इस विवाह वेदिका पर प्रगट हो जा क्योंकि
केला कुलाई की बेदी सजीं छा बेदी सजीं छा
पय्यां पाती लावा बेदी सजीं छा… हे
अर्थात केले और देवदारू (चीड़) का बंधनवार सजाया जा चुका है अब शुभंकर पय्यां की पत्तियों को लाओ ताकि यह संस्कार सफल और शुभ हो सके.
पय्यां के तने से काटना अथवा जलाना उत्तराखंड में अशुभ माना जाता है. इसकी न्योताई न केवल सावर्ण ही को बल्कि उत्तराखंड के शिल्पकारों के मुख्य देवता निरंकार की पूजा के समय भी अनिवार्य है. पय्यां पाती (पय्यां के पल्लव) को सर पर धरण कर यात्रा पर निकालना शुभ माना गया है.
हिंदुओं के समस्त पवित्र वृक्ष इस भान्यता को प्राप्त हुए हैं. किसी किसी गुण के कारण ही मान्यता को प्राप्त हुए हैं. इनमे पंचांग (फल, फूल, मूल, पट्टी अथवा छाल) औषधीय गुण हैं इसके पके हुए फल गहरे लाल चमकदार लेकिन स्वाद में कसैले तिक्त होते हैं और हजारों तन प्रति वर्ष बर्बाद होते हैं. इनका कोई भी औषधि विश्लेषण समभावता आज तक नहीं हुआ है.
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स्थानीय जनता इसके गुणों से पर्चित है. जहां तक प्रतीत होता है. पय्यां (पदम) चेरी की जंगली प्रजाति है. जैसे नाशपाती की जंगली प्रजाति मेहल है. जिसमे नाशपाती की कलम कर बढ़िया नाक नाशपाती तय्यार की जाती है. सरकार द्वारा अनेक जड़ी-बूटियों और वृक्षों के औषधीय गुणों पर शोध किया जा रहा है.
अतः उत्तराखंड के लोक जीवन में अत्यंत सम्मानित इस देव वृक्ष के फल, फूल, मूल, पट्टी अथवा छाल का विश्लेषण किया जाना आवशयकता है. क्योंकि लोग पय्यां (पदम) के गुणों को इस प्रकार भूल गए हैं जैसे गुदड़ी में लाल भुला दिए जाते हैं. देवदार तो विश्वविख्यात है ही.
भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’
भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ का यह पुराना लेख काफल ट्री को उनके पुत्र जागेश्वर जोशी से प्राप्त हुआ है.
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