पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : आ चल के तुझे, मैं ले के चलूँ, इक ऐसे गगन के तले
छिपलाकोट का सबसे ऊँचा धवल शिखर. केदार कुंड के ऊपर नाजुरीकोट का शिखर. यहीं रहता है छिपला का राजा. कनार देवी का भाई. सदियों से यह मान्यता चली आ रही. इसे ठीक सामने से देखा तो लगा सच ही पहाड़ के देवता का निवास ऐसी ही जगह पर हो सकता है जिसकी ओर सब खिंचे चले आते हैं. यहां तक आने तक न अपने बदन की चिंता और न भूख-प्यास की. कभी भयावह शीत से ठिठुरना तो कभी ठंडी हवा के मदमस्त झोंके छियालेख के मैदानी से रास्तों पर हिलाते डुलाते आगे खिसखा दें बदन. कभी सूरज की किरणों के ताप के इतने करीब कि बदन झुलस जाए. उस पर हवा का वेग ऐसा कि शरीर को थपेड़ा मारे, हिला के रख दे खया बयाल की तरह.
(Najurikot Ghudday Kedardyoy Chipla Kedar)
कितने कोस चढ़ गये चट्टानों से गुजरते पथ पर जहाँ यहां आ पहुँचने के लिए इन शिलाओं को काट-काट, खुरच- तोड़ अगला कदम पार किया जाता है. यहां दिखती है सत्तर डिग्री की ढाल पर खड़ी चट्टान तो दूसरी तरफ गहरी गोह सी उजाड़ खाई. जमीन पर पड़े कदमों के वह निशान कि कहीं धरती पर उनकी लकीर सी बनी दिखती है जिससे पता चलता है कि यही होगा वो रस्ता-वो बाट याने वही रहगुजर जो आगे तक ले जायेगी पहुँचाएगी छिपला केदार तक. आगे तो बस हरियाली से भरी घास दिखती है कोई पद चिन्ह नहीं. विलुप्त है आगे बढ़ने के सिलसिले की कोई छाप. अब जानकार ही किसी चोटी को देख, चट्टान को पहचान, घांघल की मौजूदगी पा, वह संकेत बताता है कि उस शिखर पर पहुंचना है. खुद ही टटोलना है अनुमान से आगे बढ़ना है. खुद ब खुद ही बनेगा रास्ता, इन्हीं से होते इन्हें टापते, इन्हें लाँघते, आगे चलते अपनी राह खुद बनानी है. देखना है,पहचानना है उसी डगर को जहां होंगे घांघल, मिलेंगे वीरखम्ब. उस पथ को खोजना है जहां से अपने आहार की खोज करती बकरियां, भेड़ें- हुनकरा आगे चलते हैं पूरी मस्ती से. छिपला की जड़ में बसे गाँव जहां खेती पाती साग सब्जी फल मसाले सब जीवन निर्वाह के साधन दिखते हैं तो अवलम्ब है चरागाह और जंगल जहां भेड़ बकरी पशु विचरते हैं. उनकी रखवाली करते पहाड़ी कुत्ते उन्हें इधर-उधर भटकने नहीं देते. हाँ चढ़ाई भी है, ख़तरनाक भ्योल हैं खाइयाँ हैं उन्हीं चट्टानों पर जिनमें किसी तरह आगे बढ़ने के लिए दाएं या बायें उगी सख्त सी घास को पकड़ना होता है. फ़िसलने का भय है अचानक ही उभर गये तीखे ढाल से लुड़कना भी संभव है और नीचे दिख रही खाई को देख रिंगाई तो आनी ही है. सर ही क्या पूरा बदन चकरा जाता है इन भ्योलों से गुजरते कि और कुछ न देखो दाएं-बाएं, बस बढ़ते चलो.
सहारे हैं बहुत, आसरे भी मिलते हैं हर जगह. उडियार हैं कि जब थको तो उसकी शरण में सुस्ता लो. प्यास लगे तो कितने धारे हैं, छोटे-बड़े झरने हैं, कुंड हैं. प्यास भी बुझेगी, भूख भी खुलेगी और मन हो जायेगा बस एक ही जगह केंद्रित, कि जाना है उस वास तक जिसे मंजिल चुना है. यहीं पहुँच अपनी आस फलेगी. यहीं विराज गया है छिपला. अपने तक पहुँचने के लिए वह बदन को सबल कर देता है. कभी भ्योल में उतार खाई की तरफ ले जा तो कभी शिखर की ओर चढ़ा. सांस का वेग उसकी गति सब यही पथ नियंत्रित करता है.
(Najurikot Ghudday Kedardyoy Chipla Kedar)
स्वतः ही ध्यान केंद्रित होता है मन में बसा लिए “कूटस्थ चैतन्य” पर जो दोनों नेत्रों की दृष्टि से ऊपर है. हिम से भरी इन पहाड़ियों में वह शिखर, सबसे उच्च शिखर की ओर ही ध्यान जाता है, जो अपने स्वरूप से मुग्ध कर देता है. यह विश्वास घनी भूत होता जाता है कि यहां तो बस वह ही है जो आगे उस दुग्ध धवल चोटी की डगर पर बढ़ने का प्रलोभन देता, आकर्षित कर रहा. पग बढ़ रहे, डगर बन रही कई घुमावदार मोड़ों की ओर, बुग्याल की तरफ तो फिर पाषाणों की नगरी में. चलते-चलते अचानक ही पहुँच जाते हैं उस घाटी में जहां समतल मैदान है पांव धरने को मुलायम घास है. कितने-कितने रंग के पुष्प-बेल-लता जिनसे छन-छन कर बहती हवा अपने भीतर क्या कुछ सुवास घोले बदन के भीतर समा रही, स्फूर्ति भर रही और एकनिष्ठ कर दे रही आसमान को छूते उस शिखर की ओर, जो सबसे ऊँचा है.
घांघल पार हुआ तो आश्चर्य हो जाता है क्योंकि अब सामने समतल मैदान दिखता है. बड़ा सा-खूब बड़ा सा, आगे जहां तक नजर जाये वहां तक फैला, बरफ में डूबा अधिकांश और बाकी तप्पड़ों से झाँकती हरियाली. रेंजर साब ने बताया कि ये मैदान जहाँ हम अब आ गये हैं इतना बड़ा है कि यहां घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं. इसलिए इसका नाम पड़ा, “घुड़दाय”.
घोड़ों के दौड़ने लायक के इस मैदान में बर्फ जमी थी जो इस सुबह आसमान के खुलने पर पिघल रही थी और ठंड को और घनी भूत कर रही थी. उभरी हुई घास पर जमी बर्फ ने टीले जैसे बना दिए थे और उन पर पड़ती सूरज की गर्मी से धीमे धीमे पिघलती बर्फ नीचे की ओर जाते लुढ़कते जम गई थी.
नैनीताल में भी डीएसबी कॉलेज वाले और फिर चीना रेंज वाले स्टॉफ क्वार्टर की टिन की छत पर ऐसी बर्फ की खांकर जिसे हम लमलट्ठी कहते एक लम्बी कतार में क्रम में सुबह सबेरे दिखतीं और हम बच्चे नित्यानन्द उर्फ नितुआ से विनती करते कि वह डंडे से या स्टूल पर चढ़ हमारे लिए ये खूब सारी तोड़ दे.
हर बार वो पहले साफ मना कर देता कि ना हो साब की गाली खानी है क्या?
जब किसी भी तरह मतकाने से वह ना ना ही कहता तो फिर मैं ब्रह्मास्त्र छोड़ता – ठीक है अभी महेश दा से जा कहता हूं कि तू उनके सिगरेट के ठुड्डे बीन कर पीता है.
“अरे बीड़ी भी पीता है मैंने तो देखा. मैं तो अबी बप्पाजी से कहती हूं” छोटी बहिन सरिता जिसे सब बुआ कहते बोल पड़ी. वह बप्पाजी की सबसे चहेती थी.
“ना हो ना. अब्बी लाता हूं” कह वह आमा की लाठी ले आया और मैं एक छोटी बाल्टी जिसमें जमा हो गई लमलट्ठी. चुपके से रसोई से एक मुट्ठी चीनी ला मैंने उस बाल्टी में डाल दी और बाल्टी को हिला भी दिया. मीठी लमलट्ठी.
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बरफ जब भी पड़ती हम सब भाई-बहिनों को पकड़-पकड़ के ईजा, छोटी चाची और माया दी हमें सर से पांव तक गदोड़ देतीं. यानी इतने कपड़े पहना देतीं कि कहीं से भी ठंडी हवा न लगे. सिर में टोपी भी फिट होती जिनकी बुनाई खाली समय पर ईजा और माया दी के हाथ होती. इसकी एक्सपर्ट गंगा सिंह की घरवाली होती जो तरह तरह के ऊन के प्रयोग से फंदे डालती तो सीधी और उलटी बुनाई के सीप से ऐसे डिज़ाइन उभरते जिनके प्रति हम बच्चे आकर्षित होते. इन टोपियों को सर में सही आकार देने के बाद उनमें ऊन की मोटी पट्टी दोनों कानों के पास वाली जगह पर बुन दी जाती जिसे टोपी बन जाने पर गले के बीचों-बीच कसा जा सके. कोई अधबनी टोपी या स्वेटर वाली बुनाई की सीकियां जो और घरेलू काम के दौरान इधर-उधर पटकी दिखती पर मेरे प्रयोग भी चलते. बड़ा ध्यान लगा में सिलाईयों के बीच ऊन की लिपटा-लिपटी करता फँदे देता और कई लाइन बुन देता. फिर जब उकता जाता तो उसे वहीं पटक अपने दूसरे कामों में लग जाता. बाद में घर की सैणियों में किसी के मुँह से हमारे लिए हल्ला मचता कि सारी बुनाई खराब कर दी, जगह-जगह छेद कर दिए ऊन भी उलझा दिया. अब करेंगे नहीं तो सीखेंगे कैसे वाले भाव से हम एक कान से सुन दूसरे कान से इस कड़कड़ को बाहर निकाल देते.
बाहर पड़ी बरफ को खिड़की खोल देखते रहते. इंतज़ार करते कि कब धूप आए और पड़ गई इस बरफ के ऊपर जम गई खांकर वाली परत पिघल जाये. एक दिन की बात है कि सुब्बे-सुब्बे नौ भी न बजे होंगे कि पूरा तैयार हो सर पर टोप लगाए, ओबरकोट पहने काला चमकता जूता पहने कक्का जी घर से बाहर नीचे को जाने वाली सीढ़ी तक भी न पहुंचे थे कि बरफ की पट्टी पर फिसल गये. उनकी इस भतणम्म को देख मैं तो हंस पड़ा. पता नहीं था कि खिड़की में जहां से बाहर झाँक हम मजा ले रहे थे, महेश दा खड़ा है. ऐसा झन्नाटे दार झापड़ पड़ा कि मेरे तो कान में सूं-सूं जैसी आवाज आ गई और फिर महेश दा तेजी से बाहर गये और कक्का जी को सहारा दे वापस लाये.यहां तेजी से उतरने के फेर में रेंजर साब फिसल पड़े तो मन सालों पहले की घटना से जुड़ गया.
घुड़दाय की बरफीली रात में पाला पड़ने से बरफ की सफेद चादर सुबह के समय कड़ी व सख्त हो गई थी सिवाय उस ठिकाने के जहां हम रात भर भीषण ठण्ड से बचने के लिए सब छेद सुराख़ बंद किये बैठे थे. हमारा टेंट के ऊपर भी बरफ की परत थी. रेंजर साब ने शाम के बखत ही आदेश दे दिया था कि टेंट में सब कुछ छोप-छाप दो. हर सुराख हर छेद में हंतरों का बूजा लगा दो. टेंट काफी बड़ा था. लोग भी काफी. बाहर खान पिन हो चुकने के बाद लकड़ी के कोयले बड़ी परात और तसलों में रख भीतर टेंट में रख दिए थे जिनके ऊपर बड़ी कितली और डेग में बर्फ डाल रख दी गई जिससे प्यास लगने पर पानी मिल सके.
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पहली बार दीप ने रेंजर साब से चुहल की यह पूछ कर,कि और तो सारे इंतज़ाम बड़े सीप से हुए बनकोटी जी,अब बाहर जा हगने के बाद भेल कैसे धोई जाएगी.
“धोई नहीं रगड़ी जावेगी बरफ से”, उनका तुरत जवाब था.
घोड़ों के दौड़ने लायक इस बड़े मैदान “घुड़दाय” में बरफ का मोटा गद्दा बिछा था जो सूरज की गर्मी से अब पिघलने लगा था. सूर्योदय हुआ तो उसके बड़ी देर तक ठंड ही बनी रही फिर सूरज की किरणें भी ऐसा ताप छोड़ने लगीं कि तमाम कपड़े गदोड़ रखने पर बड़ी गर्मी महसूस होने लगी.
“आइये तो बाहर, देखिये ये बर्फ की चादर अब तेजी से पिघलने लगेगी. अपना कैमरा तैयार रखिये.”
मैंने तुरत ही दस्ताने उतारे और अपना बूट पहना. गले में कैमरा लटकाया और रेंजर साब के साथ टेंट से बाहर निकल आया. बाहर देखा भगवती बाबू लोटे से सूर्य देव को जलधार चढ़ा रहे थे. वह गाँधी आश्रम वाली धोती और बंडी पहने थे और कुछ टेढ़े से खड़े हो जलधार चढ़ाते मंत्र बुदबुदा रहे थे.
“जै हो अपने भगवत डिअर की, ठंड से कुड़कुड़ाए टेढ़ा हो गया है पर यम-नियम से हटेगा नहीं, अब ऐसे भक्त को ही तो छिपला की परियां अपने पाश में बांधेंगी. आओ हो भगवत ज्यू अब लुकुड़े डाल लो बदन में, कैसे टिटैयां लग रहे हो, नंगे बदन”.
संकरू के साथ आगे दल बहादुर था. दोनों बीड़ी की फूक में मस्त किसी बात पे हंसी ठट्ठा कर रहे थे. मैं भी उनकी ओर तेजी से बढ़ा कि एक क्लोजअप लूँ चुपके से. तभी रेंजर साब की आवाज सुनाई दी.
“इधर आओ हो देखो कैसे बरफ का आवरण हटते ही झाँक रहा ब्रह्म कमल”.
“आहा. कोंल कफ्फु “. संकरू की आवाज में भक्ति भाव छुपा था.
“हाँ, जोहार में ब्रह्म कमल को कोंल कफु ही कहा जाता है. नंदा माता को यही फूल चढ़ाते हैं और उसी अवसर पर तोड़ते हैं
कोंल कफ्फु या ब्रह्म कमल. वह फूल जो अभी बरफ के बीच से झाँकता हमें निहार रहा था. मोटे खुर्दरे कागज सी उसकी पत्तियां कुछ सफेद, थोड़ी हल्की हरी,कुछ मंद गुलाबी सी थीं जिस पर नसों सी धारियां उभरी थीं.तुरंत उसके पास बैठ मैंने उसकी फोटो ले डाली.
“आगे आओ यहां, जरा संभल के आना हाँ, तिरछे-तिरछे आना और कदम धीरे रखना नहीं तो घप्प होगी “
“हाँ “
अपनी पिछली यात्राओं में और गढ़वाल के कई शिखरों की पदयात्रा में मैंने कई ऊँची पहाडियों में ब्रह्म कमल उगते देखे थे. सबसे पहले ब्रह्मकमल देखे थे घांघरिया से ऊपर चढ़ हेमकुण्ड साहिब पहुँच के जहाँ सुबह के समय खूब बड़ी झील पूरी जमी हुई दिखी. यहां लक्ष्मण मंदिर भी है छोटा सा. दिन दोपहर में जब नीले पानी की झील के पल्ले तरफ की पहाड़ी पर चढ़े तो आगे ब्रह्म कमल खिले दिखे बेहिसाब. इनकी पौध काफी लम्बी थी हाथ के दो बालिस्त बराबर तो थी ही. कितने सारे नन्हे -छोटे और पूरी तरह विकसित ब्रह्म कमल जिनके आस पास, इनारे किनारे और भी बड़े आकर्षक पौधे लगे हुए थे.
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अब छिपला की पहाड़ी में इन छोटे ब्रह्मकमलों को देख इन्हें खट से तोड़ने का मन न हुआ. अभी तो यह और बड़े होंगे, सुवास बिखेरेंगे. इनको देखते हम चलते रहे.करीब एक कोस चलते रहने के बाद हम एक चम्मच से आकार वाले कुंड के समीप पहुँच गये. दल बहादुर जो मेरे बगल में चल रहा था और बीच बीच में मेरी बांह पकड़ मुझे रड़ने – फिसलने से रोक ले रहा था बोल पड़ा,”यही हुआ हजुरो, “केदार दौ “.
मेरे ठीक पीछे रेंजर साब थे जिन्होंने बताया कि “केदार दौ” की ऊंचाई समुद्र सतह से तेरह हजार पांच सौ फीट की ऊंचाई पर है. चट्टानों से घिरा, उनके बीच नीले दिखते जल से भरा कुंड जिसमें हवा के वेग से लहरें मचल रही थीं. कुछ अद्भुत तो था इस जल राशि में, जिसने नजर पड़ते ही मोहित कर दिया.
यहां तक पहुँचते, भले ही रास्ता बड़ा मनोरम व सीधा सपाट था पर चलते चलते सांसों का वेग बढ़ गया था. बार -बार हाँफना पड़ रहा था. ऐसा लग रहा था कि नाक से खींची सांस गले तक आ वहीं अटक जा रही. मुँह से सांस लेनी पड़ रही थी. सारा ध्यान बस अपनी सांस को बनाए रखने पर जा रहा था. यह महसूस हो रहा था कि शरीर बिल्कुल हल्का पड़ गया है. चलते-चलते बर्फीले पहाड़ के नए चेहरे नए रूप दिख रहे थे, जिन पर मन अटक जा रहा था. उस विस्तृत हिम श्रृंखला के कई चित्र आँखों से तैरते सम्मोहित कर रहे थे और कई आकार बना रहे थे जैसे साक्षात शिव वहां विभिन्न मुद्राओं में विराजे हों और अगले पर्वत पर आ अपनी मुद्रा बदल दे रहे हों.
मेरे करीब दल बहादुर है. मुझसे और पास आ बैठने का इशारा कर रहा है. छोटी सी चपटी शिला है. मैं उसके करीब आ चिकने से उस काले पत्थर पर बैठ जा रहा हूं. नजर बस सामने है. चमकती श्वेत चोटियां हैं, जैसे इन्हें दूध से स्नान कराया गया हो. घर में हर बड़ी पूजा में गणेश जी को स्नान कराते हैं दूध से फिर जल से, नीराजलम. पार्थिव पूजा हो या शिव की कोई भी पूजा या शिवार्चन शिव के लिंग को दूध से स्नान कराते हैं. यहां बैठे मुझे लग रहा है कि दूध से नहाई चोटियां मेरे सामने हैं. घर में तिकोनी पीठ का आकार लिए दंडोज में जैसे देवताओं की भिन्न भिन्न मूर्तियां स्थापित कर रखी जातीं हैं वैसे ही हिमालय की यह पीठ है जिसकी हर चोटी में कोई न कोई देवी-देवता विराजमान है, तैतिस कोटि देवी-देव बस यहीं हैं.
यहां लोक विश्वास है कि छिपला केदार शिव की अन्वार या उसका स्वरूप नहीं हुआ वह तो कनार की देवी का भाई हुआ.. कनार बरम से चौदह-पंद्रह मील की पैदल दूरी पार कर आने वाला हुआ. इसी कनार के साथ जुड़े मेतली और जारा जिबली गाँव के ऊपर बसी ठहरी छिपला केदार की चोटी. उधर भारत के सीमावर्ती धारचूला में धौली नदी के जलागम में बसे गाँव रांथी, जुम्मा, खेत, खेला व स्याँकुरी के साथ गोरीफाट में बसे मवासियों का लोक देवता हुआ छिपला केदार. दल बहादुर की आवाज सुनाई देती है.
“यहीं आतीं हैं हजुरो जात. नीचे के गावों से, बड़ी दूर-दूर से, काली पार नेपाल से भी. हर तीसरे साल होने वाली हुई यात्रा. पूरा विधि विधान हुआ पूजा का, यात्रा का. सब तैयारी करनी हुई. अब अलग-अलग गावों से लोग आने वाले हुए. सबके यहां पहुँचने का टेम फरक-फरक हुआ”.
भादों के महिने में अलग-अलग गावों के लोग यहां तक पहुँचने वाले चार पथों से जात ले कर छिपला केदार पहुँचते हैं. कुंड में स्नान के बाद विधि पूर्वक पूजा होती है. जनेऊ संस्कार भी होता है”.
“एक गाँव का सब लोग-बैग आया और यहां डेरा डाला. पूजा पाती हुआ. पूजा कराने पंडितज्यू भी साथ लाया. पूजा पाती सामान, चीर, वस्त्र, धूप दीप के साथ यहां ढोक दी. भेट चढ़ाई. अब साबजी, हर किसी को कोई न कोई कष्ट हुआ,विपदा आने वाली हुई. ये देबता हर किसी की सुन लेता. अब रीति रिवाज तो अपणी जाग में ठीक ही हुए, करने ही हुए पर यहां ज्यादा कुच्छ करने की जरुरत ही नहीं हुई. बस हाथ जोड़ देने हुए. शरणागत हो जाना हुआ, वो सब समझ जाता. सबकी सुन लेता, सबकी फाम करता”. हाथ जोड़े देवता के आगे दल बहादुर नतमस्तक था.
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मैं दलबहादुर की श्रद्धा और विश्वास से भरी बात व संतोष से भरे चेहरे को देखे था कि कुण्डल दा बताने लगे कि इस केदार और आस-पास दूर तक के लोग बस भूखे पेट, नंगे पांव चल यहां आते हैं. नीचे के गाँव के लोगों में यहां आने के पहले दिन एका-बखत रखने की रीत हुई. जब सही पैट हुआ तो उस दिन बिना अन्न खाये आने का चलन हुआ. वो नीचे भैमण से इत्ती चढ़ाई चढ़नी हुई. यहां आए पूजा पाती की और वापस भैमण उतर गये.उधर कनार और आस पास बहुत सारे गावों से लोग चलते हैं और भैमण पहुँच जूता चप्पल सब उतार देते हैं. चमड़े की कोई चीज जैसे बटुआ, पेटी भी इधर नहीं आती. कई लोग तो भैमण से आगे पानी भी नहीं पीते. बस केदार कुंड पहुँच ही अपने ईष्ट के ध्यान में डूब जाना हुआ.
अब आप देख ही रहे कितनी दुर्गम चढ़ाई हुई तो फिर धार ही धार. रास्ता-बाट ऐसा कि आज एक जाग से जा रहे तो दूसरे बखत उसकी फाम ही नहीं लगती. इतनी बात तो मेरी समझ में आ गई कि ऊँचे पहाड़ों की ये चढ़ाई हर किसी को अपनी सांसों पर नियंत्रण करना सिखा देती है. कई बार तो सांस ली ही नहीं जा पाती. यहां की बिल्कुल साफ हवा नथुनों से भीतर प्रवेश करने से साफ इंकार कर देती है. चक्कर से आते हैं जिसे रिंगाई कहते हैं. प्यास से गला अलग सूखता है. मुंह से हवा लेनी पड़ती है. बारह तेरह हजार फुट की इस ऊंचाई में हाड़ कंपाने वाली ठंड है. हौला आने यानी कोहरा घिरने पर सारे बदन में पहले थरथराहट हो जाती है, लगता कि छोटी नन्ही चीटियाँ सी रेंग चुनचुनाट कर रही हैं. पैरों पर, पिण्डलियों पर, पीठ पर और कपाल तक जा पहुँची हैं. पौ फटने के बाद थोड़ी ही देर में उसी पहर सूरज का ऐसा ताप जैसे वह यह जता देना चाह रहा हो कि जब इतने नजदीक हो मेरे तो लो थोड़ी गरमी भी सहो. शाम के समय यही सूरज अपनी लाल-पीली रंगत लिए पूरी वादी को उजाले से भर कर हिम श्रृंखलाओं को सुनहली रंगत दे अस्त होता है. ऐसे मन में बस जाने वाले दृश्य अद्भुत हैं यहां. अचानक ही अपने लपेटे में लेती है यहां की बर्षा. देखते ही देखते पूरी पहाड़ी आगे बढ़ते मेघोँ को रुक जाने का निमंत्रण देती है जो पूरी वादी में पसर जाते हैं और कभी शुरू हो जाती है झुमझुमी जिसमें टहलने का अलग ही मजा है, चुपके से बेआवाज आती है ये और धीमे-धीमे भिगा जाती है. इस वीराने में चुप्पी भरी धीमी गति में बंधी वह सुरसुराट जिससे हो गुजर जाना बड़ा सुकून देता है बस भिगा खूब जाती है ये झुमझुमी.
अचानक ही मौसम बदल जाता है. दूर बर्फ से ढकी चोटियों पर तड़ित चमकता है. गड़गड़ाहट और फिर पास आती महसूस होती है. आसमान की ओर देखो तो काले गुच्छे वाले घने बादल. तीन ओर से बर्फ के ऊँचे पर्वतों पर बादल ठहर जाते हैं. अब आगे जाएं तो जाएं कहाँ? सो बरस पड़े लगातार. दूर तक फैली वादी जो कुछ देर पहले बर्फ से ढकी पड़ी थी उसे इस मूसला धार बारिश ने अलग ही रंगत दे दी है.
मंदिर की ओर जाते एक जत्था दिखाई देने लगा है. आगे लाल सफेद निसान लिए दो लोग हैं. सबसे पीछे कुछ काले निसान भी लहरा रहे हैं. सुबह सबेरे ही, भोर में ग्रामवासी दर्शनों के लिए आ जाते हैं. दर्शन कर पूजा पाती सम्पन्न होती है. फिर वापस भैमण उतरना है और वहां से अपनी तोक अपने गाँव. इसलिए जल्दबाजी भी बनी रहती है. सबसे बड़ी परीक्षा तो मौसम लेने वाला हुआ.
सोबन बताता है कि जो मवासे कनार गाँव और उसके आसपास से भैमण होते हुए आए हैं वह वापस भैमण लौट रात में वहीं रुक जाएंगे. अपने गाँव के लिए दूसरे दिन लौटेंगे. दूसरी तरफ जो लोग मदकोट और शेराघाट से आए हैं वह पहले चेरती ग्वार तक आएंगे और फिर ऊपर चढ़ेंगे. उनकी वापसी भी इसी रास्ते होगी. अब हुआ धारचूला और पनार जैसी जगहों से आने वालों का रास्ता तो वह पहले तवा घाट आते हैं जहां से ऊपर खेला, रांथी और जुम्मा होते हुए काफी लम्बी दूरी चढ़ कर बरम कुंड आता है.वापसी का रास्ता बस इसी रास्ते की लौटा फेरी है यानी बरम कुंड तक चढ़ फिर यहीं से नीचे लौट जाना है.
(Najurikot Ghudday Kedardyoy Chipla Kedar)
यह सबसे भिन्न देवस्थल है जहां यह स्थान यह जगह और यह परिवेश महत्वपूर्ण है. यहां कोई दिखावा नहीं और न ही कोई भव्य आयोजन. बस इस स्थान पर कुछ प्रतीकात्मक वस्तुएँ हैं. हिम से ढकी पर्वतश्रेणी व इस स्थान पर उपस्थित शिलाओं की ओर देख हाथ जोड़ देने हैं, नतमस्तक हो जाना है. यहां प्रकृति के विराट स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं. यह रूप भी पल-प्रतिपल बदलता हुआ लगता है.
एक चौरस सी शिला में रेंजर साब बैठे हुए हैं. बड़ी देर से यहां की साफ हवा के साथ गुग्गुल और चंदन की धीमी खुशबू महक रही है. देख रहा हूं,धोती पहने भगवती बाबू अपने हाथ में जलती धूप को ठीक सामने के शिला खंडो के पास लगा रहे हैं. उनके पीछे पीछे सोबन भी लगा है. मैंने कैमरा बस आंख में लगा रखा है और उंगली सही फ्रेम की प्रतीक्षा कर रही है जो कुछ कहे. मेरी ये आदत है कि मैं लोगों की फोटो उन्हें बिना बताये खींचता रहता हूं. इससे उनके चेहरे के भाव बस बिल्कुल नार्मल रहते हैं.
“आइये, यहां बैठिये. आराम से”. रेंजर साब ने बड़े अपनत्व से मुझे अपने पास बैठा लिया और कहा,”बस देखिये और सोचिये. कल्पना कीजिए कि बर्फ से ढकी इन चोटियों में, यहां की दुर्लभ वनस्पति में, उसे पोषण दे रही इस धरती में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली शक्ति विराजमान है. इसी से सब यहां खिंचे चले आते हैं. बर्फ से ढका यह प्रदेश जहां पहुँचने के कोई निर्दिष्ट पथ नहीं, रुकने की विश्राम की कोई सुविधा नहीं, सब रास्ते खोल देता है. कभी संकेत देता है कि जो सबसे बड़ी चोटी है वही अधिष्टात्री है इस स्थल की यहां सब इसी के द्वारा सृजित है, निर्मित है. यह अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए जगत के जीवों के सब शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती है. यह जीवन दायिनी है और ये अपने आस पास फैली दुनिया, हर संसाधन, हर पदार्थ, हर लता, हर पत्ते, हर अंकुर, हर कोंपल में समाई हुई है. इसमें निहित है वह प्रकाशवान ज्योति जिससे अज्ञान व अंधकार का नाश हो जाता है. यहां पहुँच यही अनुभव करना है कि इस शक्ति के वास स्थल में पहुँच हमें यह बोध हो कि ऊर्जा से भरी उसकी तरंग हमारे भीतर प्रवेश कर गई है. सब अपनी-अपनी इच्छाएं संजोए इसी स्थल पर आने का संजोग बनाती हैं. लोग जुटते हैं तो आयोजन अपने आप होने लगता है. हिम से ढके इन पाषाणों की ओर देख हाथ जोड़ देने हैं. घुटने मोड़ कर बैठ जाना है. यहीं बैठ कर लगने लगता है कि ये जो हिम से ढका इलाका है वह अपनी इतनी शीत के बावजूद हमें इस लायक बना रहा कि हमारी सांस चल रही, आगे और कुछ करने की आस भी यहां आ पल – प्रतिपल जुटती जाती है.एक चीर बांध दो तो दुबारा आकर प्रणाम करने शरणागत होने खुट्टी जै करने करने की आस फिर बंध जाती है. नए काम के वास्ते उचेण रख दो तो सच्ची में वो सपड़ ही जाता है”.
“न जाने कब से यहां आते रहे अपने ढोर ढंकरों के साथ, अपने काम काज व्यापार की सारी रीत निभाते. पुरखों ने जो बताया उसी पर चलने की रीत बनी. सयानों के साथ, बड़े बूढों के साथ ठुल बौज्यू के साथ, कका ताऊ बाज्यू के साथ उतना चढ़ते गये जितने की सार पड़ी और फिर एक दिन सब रस्ते खोल दिए इसने, अपने दरबार में बिठा दिया”. पूजा पाती कर पास ही चुपचाप बैठे भगवती बाबू बोले.
आश्चर्य की बात तो हुई ही महाराज कि दस बारह हजार फीट की ऊंचाई पर चढ़ जहाँ कोई सांसारिक सुविधा नहीं, आ जाने के लिए कोई रास्ता कोई पगडंडी बस अंदाज लगा तय हो जाने वाली हुई ये यात्रा. प्यास लगे तो हर जगह पानी के सोत, नौले, धारे भी इस ऊंचाई पर कहाँ हुए? एक ही आसरा हुआ कि वह है जो बुला रहा खींच रहा अपनी ओर. वह जब बुलाता है तो दम भी देता है ताकत भी डाल देता है बदन में. दिमाग में बस उसी का सुर रहता है. वही पार करा देता है, चढ़ा देता है अपनी ठौर. यही हुआ हमारा ठाकुर जी, हमारा दयाप्ता, हमारा न्योला. हमारा सब कुछ. अब चाहे शिब ज्यू कहो या कनार देवी का भाई. सर इसी पर झुकता है.
(Najurikot Ghudday Kedardyoy Chipla Kedar)
जात के आयोजन में बहुत तैयारी की जाती रहीं हैं. दयाप्ता के निसान या उसके ध्वज और पताका के साथ भैमण, बरम कुंड और चैरती ग्वार तक ढोल-नगाड़े व दमाऊ बजाते आते हैं. कनार के साथ जुम्मा, रांथी, खेला, पलपला से किसम-किसम के ढोल ले चले आते हैं गाँव से लोग. सवर्ण लोग भी ढोल बजाते हैं. जो ढोल बड़ा होता है उसे ‘दैन दमोँ’ कहते हैं इनके आकार का माप ‘धन्या’ से किया जाता है जो ढोल में लगी धातु यथा ताँबे के अर्ध वृत से आँकी जाती है. धन्या का मतलब हुआ ढाई तो ढोल का आकार छह धन्या से बीसी याने बीस धन्या तक के होते हैं. दैन दमों यानी बड़े ढोल को यहां के थार, जड़ाऊ व सराऊ की खाल से मढे होते हैं तो छोटा ढोल या बौ दमो में काकड़ या भेड़ की खाल मढ़ी होती है. साथ ही बजती है तुतुरी-भोंकोर यानी मोटी सीधी तुरही के अनोखे निनाद और बड़े बड़े झाँझर की झम्म के साथ सारी राठ व लोगों के अलग अलग गाँवो से आए समूह कई कई दिन की पैदल यात्रा कर, नानतिनों को अपनी गोद में पकड़े, थोड़ी बड़े बच्चों को काने में यानी कंधे में बैठा, बड़े बूढ़ो को सहारा दिए, पीठ में साजो सामान का डोका लादे बस यहां खिंचे चले आते हैं. धारचूला के रांथी, जुम्मा, से ले कर कनार होते जारा जिबली के मवासे आपस में मिलजुल जो नाच, गीत संगीत का उत्सव अलग अलग आयोजनों में करते हैं उसे ‘छाल काटण’ कहते हैं.
देबता के आण-बाणों को जरूर पूजा जाता है, यही देबता के गण हुए. यहां आ साफ सुथरे कपड़े पहने जाते हैं. अपने घर से चलते पूजा की रीत को पूरा करते देबता के नाम का उचेण रखा जाता है. आपने आब देब का ध्यान कर उसे हाथ जोड़ भूमिया व स्थानीय देब को भेंट चढ़ाई जाती है. पूरा ध्यान रखा जाता है कि कोई कमी-बेशी न रह जाये.
आपने गौं-घर से आगे केदार दौ तक तो बस बर्त कर और नंगे पांव ही कदम आगे बढ़ाने हैं और पूजा कर उसी दिन उतर भी जाना है. केदार दौ पहुँच कर सबसे पहले इतनी ऊँची जगह की कड़कड़ाती ठंड के बावजूद स्नान होता है. स्नान के बाद ही पूजा अर्चना की सीधी-सादी रस्म पूरी की जाती है. छिपला के लिए लाये गये निसान और ध्वज पताका केदार दौ के किनारे लगा दिए जाते हैं. यहां जनेऊ संस्कार भी संपन्न किया जाता है. जिसके लिए सर मुंडाया जाता है और चुटिया छोड़ी जाती है. चुटिया में गांठ पाड़ने की रीत हुई.
दल बहादुर बताता है कि यहां भेंट देने, चढ़ावा चढ़ाने पर बहुत जोर है. वाह्य पूजा में सोने के गहने चढ़ाते उसने कई बार खुद देखा है. चांदी के भी सिक्के, आभूषण और सिक्के चढ़ते हैं. भारत के सिक्के तो चढ़ते ही हैं साथ ही नेपाली श्रद्धालु नेपाली सिक्के भी अर्पित करते हैं. सिक्कों में ढेपू, एकन्नी, दुवन्नी, चवन्नी, अठन्नी, रुपया सभी रहते हैं. पीतल की छोटी-बड़ी घंटियां चढ़ती हैं तो चांदी के छत्र भी. लोहे के कई त्रिशूल भी यहां बर्फ में गढ़े दिखाई देते हैं. और भी न जाने क्या क्या चीज बस्त जो सदियों से वहाँ भेंट रूप में दी जा रही और बर्फ में समाती जा रही, यह तो बस केदार ही जाने. उसे क्या परवाह कि कौन क्या चढ़ा रहा. वो तो बस चुम्बक हुआ महाराज जो उसका अपना होने का भाव लिए भक्तों को अपनी ओर खींच अपनी लीला दिखा रहा.
केदार दौ यानी जल से भरे हुए इस कुंड के एक तरफ हरियाली भरी पड़ी है जिसमें थोड़ी फांस जैसी लचीली सी घास उगी है. दूसरी ओर कुंड के दूसरे ओर घांगल हैं पत्थर हैं छोटे बड़े तिरछे, नुकीले तो शिलाएं भी पसरी हैं. हम सब भी स्नान के लिए अपने लुकुड़े-कपड़े उतरने लगे. यात्रा पर चले सोलह सत्रह दिन हो गये पर कपड़ों को पूरी तरह से बदलने की जरुरत ही महसूस नहीं हुई. इस पूरी यात्रा में अपनी गर्मी से इन्होने हमें सुरक्षित रखा है. इतनी ठंड से बचने के लिए बहुत मोटे व अधिक कपड़े पहनना ठीक नहीं होता बल्कि मुलायम से सूती और ऊनी कपड़े एक के बाद एक पहने जाते हैं. जैकेट के भीतर तिब्बती या पहाड़ी भेड़ के ऊन से बना स्वेटर और ऐसे ही ऊन का मफलर, सर पर गरम टोपी भी. अब यहां स्नान करने के लिए जब ये कपड़े खोले जा रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि ठंड की कई लहरें बारी बारी से बदन को छू रही हैं और थोड़ी देर में न जाने ये क्या-क्या जमा दें.
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“बहुत अरड़ हो गई हो ददा “. सोबन बोला तो दल बहादुर बोला,”बस फटाफट सब लुकुड़े खोल और एक डुबकी लगा कुंड पन, ज्यादा देर का काम नहीं ये”.
ये सुन इस पर अमल करने मैं भी खटाखट कुंड के किनारे पहुँच गया.
वहां से नहा के निकले लोगों के बदन का कंपन, कुड़कुड़ाट देखा तो मन हुआ कि उँगलियों में पानी की थोड़ी बूंदे ले बदन पर छिड़क लूँ यानी कउवा स्नान कर लूँ. पर नहीं स्नान तो करना ही है. पता तो लगेगा की इस ऊंचाई पर बरफ के पानी को सहन करने की बदन में ताकत है भी या नहीं. इस ठंडे जल में जाने से ज्यादा कपड़े खोलने में हो रहा अलजियाट था.
सोबन मेरे देखते देखते घुटने घुटने पानी में उतर गया. हाथ की उँगलियों से नाक के नथुने बंद किये और ले घपाक एक डुबकी मार फरक आया किनारे पर खड़े दल बहादुर ने उसके थुरथुराते बदन को सहारा दिया और बोला,”य ss, ऐशि जाम कर राखी आंग में मेद. तब्बे खूब अरड लागों”.
कुंड के किनारे के गोल-चपटे पाथरों पर थुर थुर कांपते पैरों को धरता सोबन मेरे बगल से होता आगे बढ़ा.
“ओss ईजा हो बबा ss.. बाब्बा होss” उसकी लड़खड़ाती आवाज सुन मेरा धैर्य और कमजोर पड़ गया.
सामने कुछ दूरी पर दीप कैमरा पकड़े कुछ सोचने की मुद्रा में गुम सा दिखा. अचानक ही मैंने अपने जगन उस्ताद को याद किया जिन्होंने राजभवन जाती सड़क पर चार्ली बाबू की आटा चक्की के पास बने स्विमिंग स्टैंड पर खड़ा कर मेरी कमर में रस्सी बांध मुझे नैनीताल की झील में धक्का दे दिया था और बोले थे तैरना तो जनम लेते ही आ जाता है जरुरत है बस डर पर काबू करने की. जगन उस्ताद. कुंड में पहली डुबकी. लो तुम्हारे नाम उस्ताद. सब सुन्न हो चला है. दूसरी डुबकी तेरे नाम ओ चीना रेंज की चोटी ओ लड़िया कांटा. कुछ ऐंठ गया है बाकी तो बस हजार कई हजार सुई सी बुड़ रहीं हैं. तीसरी डुबकी अबकी बार तो पूरी मुंडी भी घुप्प कर दी है. जै हो. केदार द्योsss
किनारे आने में गोल पत्थर पर पड़े पांव ने चिताया कि काई सी फिसलन है मैंने तो पानी में हाथ डाल सहारा खोजा और आगे सरका. सर पर बदन पर जो धूप पड़ रही थी उसने जैसे मुझे समझाया कि बस आ ऐसे ही सरक आगे तब तक जब तक किनारे पर उतारे अपने कपड़ों तक न पहुंचे. दल बहादुर ने सहारा दिया और मेरे बदन को पतले तौलिए से रगड़ दिया. आपने तो खूब डुबकी मार दी गुरूजी, हर किसी के बस की नहीं ये बात.
भीतर तक पसरी ठंड को सूरज की बढ़ती ऊष्मा सोखने लगी थी. ऐसा लग रहा था कि उसकी रश्मियां बड़ी तेजी से त्वचा को भेद हड्डियों तक जा पहुंची है. बहुत देर तक मैं धूप स्नान करता रहा. मौसम भले ही ठंडा था, चारों ओर पिघलती हिम सूरज के ताप को सोख रही थी पर बदन के भीतर इन किरणों ने कुछ अनोखा संतुलन रच दिया था.
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ताजगी से भर उठा था बदन. जब से छिपला की चढ़ाई चढ़नी शुरू की तब से आज ही सर्वांग स्नान हुआ था. धीरे धीरे कई कपड़े पहन लेने के बाद भी ठंड की लहर रह रह कर हाड़ कंपा रही थी.
अब होनी थी परिक्रमा इस पूरे कुंड की जिसके बड़े हिस्से में बर्फ जमी थी और सर पर घाम होने के बावजूद ठिठुरन कम नहीं हुई थी. पांव नंगे थे और जहां बर्फ नहीं थी घास मिट्टी दिख रही थी उस पर पांव धरने में बड़ी सावधानी रखनी पड़ रही थी क्योंकि घास मिट्टी की वह परत जमी हुई थी. आगे बढ़ने पर ऐसा लगता था की पैर की खाल ठंडी जमी परत पर चिपक गई हो. तलवे का हिस्सा जमीन से जुड़ गया है और उठने से इंकार कर रहा है. यह थी विचित्र सी गति और लय के साथ होने वाली प्रदक्षिणा. पंडित का आदेश होता है शिव की डेढ़ प्रदक्षिणा. यहां चाल इतनी सुस्त व थमी बँधी है कि आगे बढ़ एक चक्कर पूरा लगाने में ही इतनी ठंड के बावजूद पसीना चू रहा.
जस तस प्रदक्षिणा होती है. धूप कपूर बत्ती जला भेंट चढ़ाने का क्रम जारी है. अपनी भेंट चढ़ा मैं और दीप एक कोने में बैठ गये हैं. भगवती बाबू पाठ कर रहे हैं. रेंजर साब उनके बगल में बस शांत बैठे हैं.
दल बहादुर बता रहा है कि अलग-अलग तोक अलग अलग गावों से आए लोग अपनी भेंट अर्पित कर रहे और ढोक दे रहे. अलग-अलग जगहों में जो चढ़ावा अर्पित था उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की चीज-बस्त दिखीं. बड़े-बड़े नक्काशी किये बर्तन थे. धातु के पत्र थे. दल बहादुर ने बताया कि इनकी लिपि देखिये इनका डिज़ाइन देखिये सबमें तिब्बती अनवार है.
भेंट में आभूषण दिखे, बड़े भारी, गले के, कान के, सुते धागुले, खूब वजनी. ज्यादातर चांदी के. कुछ मिश्रित धातुओं के पीतल के, कांसे के. सिक्के भी बहुत थे. विक्टोरिया के सिक्कों की कई मालाऐं और नेपाली सिक्कों की माला. ऐसे ही धातु की बनी छड़ जिन पर मूठ थी. दूर से सब बदरंग लग रही थी. ऊन पर अलग-अलग किस्म के डिज़ाइन थे. कुछ डिज़ाइन तो बिल्कुल ड्रेगन से थे. चढ़ाई गई चीजों में घंटी, गिलास, बर्तन, घड़ियाँ. सब बड़ी विविधता से भरी चीजें. इन्हें देख सहज ही यह आभास हो रहा था कि कितनी दूर से और सांस्कृतिक रूप से एकरूपता रखने वाली जगहों से लोग बाग आ अपनी आस्था को प्रकट करते छिपला को, साक्षात हिमवंत को यहां के शिव स्वरूप को सर्वस्व शक्ति समझ अपनी भक्ति को सरल तरीके से इन भेटों के द्वारा प्रकट करते रहे. प्रसाद के रूप में यहां उग रहे कोंल कफ्फु-ब्रह्मकमल को असीक मान धारण कर असीम ऊर्जा पा गये.
यही आकर्षण है छिपला केदार का. अद्भुत सम्मोहन से रची बसी यहां की धरती जिसमें कितने तरह की भिन्नता- विविधता है. यहां तक आ पहुँचने में यह समरस हो कितने रूप दिखा चुकी है. कितनी बार तो बदन इतना शिथिल हो गया कि लगा कि बस अब अगली सांस खींचना संभव नहीं. सब कुछ अटका हुआ सा. अकड़ गया सा. यहीं पर गिर रहा हूं. चक्कर आ रहा है बस ढुलक जाने की कसर है. ऊपर जो आसमान की छत है और नीचे जो खुरदरी जमीन उनके बीच टंगे हल्के से पड़ते जा रहे बदन को हवा का एक तेज झोंका कहीं दूर तक उड़ा ले जायेगा, सब कुछ तो डोल रहा. आकाश-पाताल एक हो रहा. कुछ सोचने समझने का बल अब शेष नहीं. देख ली हिम से ढकी चोटियों की खूबसूरती और साथ ही एहसास हो गया की वहीं इसके तल पर जमे हिमनद के रौखड़ कितने बदसूरत हैं. उनके मध्य से रिस्ती हिमानी हैं. शांत ठहरी हुई. कितनी जल धाराएं होंगी इसके अंतस में जो चट्टानों के भीतर अवशोषित हो अचानक ही घनी वनस्पति के प्रतिफल के रूप में सामने धुंधला रही हैं. आउट ऑफ फोकस. अब कैसे गड्ड मड्ड दृष्टि में हरियाली पसर गई है. झुनझुनी सी बरखा. सारा ताप हर ले रही है. तन बदन भीग उठा है. फिर निश्वास, सब कुछ ठहर गया है. अचानक जीवंत होती प्राण वायु पोर -पोर में समाई नमी को सोखने लगी है. इसी सोच में मन डोल रहा है कि मैं यहां पहुँच गया.
बचपन से ही फितूर था ना कि उस ऊँची चोटी पर चढ़ देखूंगा उससे आगे के और ऊँचे शिखर को. और आज मैं यहां हूं छिपला केदार पर, छिपला कोट की इस वादी पर पसरा हुआ हूं. देख रहा हूं ऐसा विस्तृत हिमालय जो इससे पहले कभी देखा न था. इसने हिमालय की मेरी कल्पना को शांत कर दिया है. दुग्ध धवल सफेदी के भीतर और उजलापन. इसे देखे जा रहा हूं. पलकें मुंदते चली जा रही हैं. अधमुंदी पलक के भीतर भी ये सफेदी पसर रही है. उसी शुभ्र हिमालय का आयना बंद पलकों के भीतर भी पसर गया है.
छिपला में केदार का वास है यही सुनते आया. इस समूचे हिमालय में वही विराजे हैं.यह हिमालय असीम है अदम्य है जब से लोगों ने इसे देखा होगा तब से उनकी कल्पना को पंख लगे होंगे. कितने लोगों ने आपने परिवार, कुनबे, राठ, समूह की परिकल्पना से यहां विविध संस्कृतियों का पोषण किया होगा. इनमें से कई तो इसी की शरण में बस गये तब आदि समुदायों की प्रभावस्थली बन इसने आपने गर्भ में छिपी संपदा से उनका भरण पोषण किया होगा. एक प्राकृतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत का पोषण ऐसे ही संभव हुआ होगा.
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वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि यह हिमालय अभी अपने विस्तार की प्रक्रिया में है तो युगों से अनेक मानव समाज और संस्कृतियाँ यहां एक दूसरे में आत्मसात होती रहीं. भौगोलिक रूप से कितना दुरूह कितना विलग कितना मनोहारी जिससे जनित पावनता व इससे संबंधित अनेक जनश्रुतियों, लोक विश्वास व मिथकों के चलते यहां शैव -शाक्त – वैष्णव परंपरा की छाप उभरी तो वहीं नंदा देवी पर्वत शिखर, मातृ सत्तात्मक परम्परा व सामाजिक सांस्कृतिक यथार्थ एक जीवंत परंपरा के साथ विद्यमान हैं. यहां के पर्वत शिखरों, नदी घाटियों, दर्रों, धारों, गावों व परिवार के अपने अपने लोक देवता स्थापित हुए. यह देवता यहां के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन से संबंधित हैं अनगिनत तीर्थ मन इसी कल्पना को साकार करने में रमा है. यही होगा शिव का स्वरूप जो भयावह चढ़ाई में भी चुंबकीय आकर्षण से अपनी तरफ ऊपर की ओर खींचता जाता है तो एकदम हरे भरे आकर्षक बुग्यालों में अपनी पदचाप सुनाई देती है. हवाओं का शोर है तो गरजते बादल कब झुमझुमी बारिश से मूसलाधार तड़ातड़ में बदल बदन में तड़ित सी कम्प कर दे. अद्भुत रोमांच है सब. मध्य हिमालय की जितनी छवियां अभी तक देख पाया उनमें पर्वत के हर शिखर, नदी-घाटी, धार, दर्रों, गावों, तोक और बसासत के अपने अपने लोक देवता हैं, अपने रक्षक हैं चाहे वह थल केदार की चोटी हो या छिपला केदार. सारे देवता उस इलाके विशेष के समाज के धागों, रीति रिवाज,खान-पान के तरीकों, गीत-संगीत के साथ जीवन निर्वाह के उपक्रमों, फसल के निराई-गुड़ाई-कटाई के उल्लास पर उत्सव के प्रतीक बनते हैं चाहे वह भूमिया हों, भैरों, छुरमल, गंगनाथ, ग्वेल, बोठा, निरंकार हों. नागराजा सेम-मुखेम, पोखू, दानू, कालछिन, हरु, चान, बगड़वाल, सुमेश्वर, पांडव हों और या फिर शेड़कुड़िया व महान महासू हों. अब आज छिपला के द्वार पहुँच गये, छिपला केदार ज्यू के विराट स्वरूप को देख लिया हिम से ढके इस छिपलाकोट की असीम विस्तार लेती परबत श्रृंखला में जहाँ पहुँच रोमांच सा हो गया. मन लग गया है,बंध गया है इस अपार महिमा में. रह रह बदन में कम्प हो रहा है.
जहाँ तक नज़र जाये वहाँ तक असीम विस्तार दिखाती छिपला केदार की श्रृंखला में सब मौन निर्विकार बैठे दिखे. लगा कि अपने अपने बूते की समाधि में सब आत्मलीन हैं. बस रेंजर साहिब वनकोटी जी की जोर जोर से मुँह से सांस लेने, उसे रोक लेने और फिर मुँह से ही वेग के साथ बाहर फूक देने की ध्वनि सुनाई दे रही थी.
होंsssग स्वः sss
हों ss ग स्व sss.
मैं वनकोटी जी के चेहरे उनकी मुख मुद्रा को देखता रह गया. अर्ध निमीलित उनके नयन धीरे धीरे खुले. “लगा न कि यही आनंद है अनोखा जो पहले कभी महसूस नहीं हुआ. क्यों लगा ना?” उन्होंने पूछा.
“हाँ. मुझे तो बदन में सारे आंग में झुरझुरी सी महसूस हो रही. कुछ कम्प सा भी महसूस हो रहा है. रह रह कर लग रहा कि रीढ़ में कहीं कोई नस दब रही…”
“नस दब नहीं रही मालिको!नस तो खुल रही. कभी लगेगा कि बदन सुन्न हो गया तो अगली ही सांस करंट सी दौड़ेगी पूरे आंग में और सारी अटक-बटक, रोग-विपदा यहां की हवा ये बयाल अपने साथ उड़ा ले जाएगी. यहां ऐसे ही झटके लगाता है अपना केदार, अपना छिपला मालिको! सब अजब सा चिताई देता है”. अचानक ही दल बहादुर की आवाज सुनाई दी.
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“मैं तो हुआ ही पूरा कुनबा राजद्रोह की लपेट में ले लिया था उस श्री 5 वाले राजपरिवार ने. प्रहरियों का दल पीछे पड़ गया. कुनबे के कई सयाने मार अंग-भंग कर भनका दिए थे हजुरो. ये छिपला की किरपा रही कि किसी तरह बच बचा पूरी राठ बैतड़ी पार हुई. काली के वार पहुंचे अड़किनी के ठीक नीचे, पूरा सुसाट -भुभाट कर बहती है काली जहां. ऐसा वेग कि लपेटे में ले और भंवर में छटकाए. वहाँ हुआ गणमेश्वर. वहीं विराजा दयोताल.बस दयोताल पहुँच पांव थमे. कोई मंदिर नहीं वहां बस कुंड हुआ. सब भेट पूजा डबल उसी कुंड में डल जाने वाले हुए देबता के वास्ते. थके हारे सब जन अब उसी की छाया में भैट गये. अमूस की काली रात हुई वो. बगल में काली का सुसाट-भुभाट. रात पड़ी पहले पहर देबता का जागर लगा. सफेद धोती लगाए हाथ में चांदी के कड़े पैरे धामी के आंग गंणमेश्वर आया. उसके पैर तो बस जमीन से चिपके पर आंग डोले लहराये विकराल हुआ वो. वहां जग रही धूनी में उसका बदन उसका मुख दप दप दमके. सामने पड़ी परात से उठाये चामल हमारे ही सर पड़े. माने पूछ हमारी ही पड़ी. बोला देबता यहीं बस काली पार. यही भेटा घर कुनबा. घर के सयाने ले जा छिपला के द्वार. लगा वहाँ पूजा, दे उसे निसान. ले देता हूं चैत तक की मियाद. जा फिर आना मेरी भेंट ले.
बस महाराज तब से हमारे सयाने हो गए छिपला के भगत. ईष्ट हो गया ये हमारा”. बोलते बोलते दल बहादुर छलछला उठा. उसके हाथ नमस्कार की मुद्रा में सामने की बर्फ़ीली चोटियों की तरफ हो गए.
“तभी तो कहते हैं दल बहादुर कि विश्वास और भक्ति से प्रीत उपजती है. यही प्रीत यही प्रेम ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी ताकत है. इसी प्रीत का भाव वो सबसे बड़ी फ्रीक्वेँसी है जिसे हम प्रेषित कर सकते हैं, बाँट सकते हैं. मजा तो यही है कि हम अपने भीतर उठ रही, दिमाग में मचल रही इस धारा को इस लहर को वैसे ही बाँट दें अपने आस पास जैसे खूबसूरत फूलों से टकरा हवा सुगंध बिखेर देती है चारों ओर. नदी की धारा जहाँ कहीं भी प्रवाहित होती है शीतल भी करती है प्यास भी बुझाती है. यहां धरा की हर चीज छिपला के सौंदर्य उसके चुम्बक से हमें खींच रही शांत कर रही. यह एहसास हो रहा कि उसने हमें अपने मोह पाश में बांध लिया है हमारे सपने पूरे कर दिए हैं”. बनकोटी जी की आवाज सीधे मन को छेड़ कुछ और एकाग्र कर गई.
ऊर्ध्व रेता से लगे वह. जब हर श्वास नाभि से ऊपर चढ़ कूटस्थ चैतन्य का पथ ले बस यही परिक्रमा करे.
“हां, आइंस्टीन ने कहा था…” दीप की आवाज सुनाई दी. ” कोई भी आदमी अपने आप से यह सवाल पूछ सकता है. यह जरुरी सवाल जिसका जवाब सिर्फ हां है कि क्या यह ब्रह्माण्ड मित्रता पूर्ण है? और हां बहुत सारी उलझनों से रास्ता निकालने वाला है”.
(Najurikot Ghudday Kedardyoy Chipla Kedar)
सच ही लगी ये बात. यहां तक का सफर पूरा करने में बदन खूब थका था. आमा जब थक के पस्त पड़ जाती तो कहती, “आंगsक लोथ निकल गो नतिया”. कितने-कितने मील नंगे पांव पैदल चढ़ डाने काने पार कर जब वह मिट्टी के आंगन में पट्ट पड़ जाती तो मुझे उसकी हालत पर बड़ा तरस आता. जब हमारी ईजा का जन्म हुआ तो उसके दो साल बाद ही नाना गुजर गए, आमा ने तब से चप्पल नहीं पहनी. उसके पांव देखता मैं गौर से जिसकी नीचे की खाल इतनी सख्त हो गई की हाथ फेरते बिल्कुल टायर का सोल लगती. बड़े से ब्याले में कडुआ तेल डाल उसमें मौन वाला मोम पिघला मैं कई बार उसके तलुओं में लगा देता. थक के चूर पड़ी आमा के मुख से किसम किसम के नौराट पिराट होते. उसकी मोटी भरी-भरी बंद आँखों से आँसू की बूंद ढुलकती. ऑंखें मूंदे ही वह टटोल टाटोल मेरे सर पर हाथ फेरती, अशीस देती, तेर भल है जो नतिया तेरि अटक बटक मेर ख्वार पड़ जै. भोलनाथजू किरपा रै. खूब ठुल बढिये. थकाई से पस्त आमा अब खुर्राटे भरने लगती. छिपला की इस सरहद पर आमा की बड़ी याद आ गई अब नब्बे पार कर गई है आमा. परके साल ही गाँव जा मिल आया था. अब बात बात में भूल जाती है. अभी रोटी खायेगी फिर कहेगी मेर दगड खाले हां र्रवाट. मैं खिलूल तुकें रस भात. यो ब्वारी त खाण दिन है भुल जां. इतु भूक लाग रै के बतूँ. टपकी ले बनुल तेर लिजी. खुमानी ले टिपुंल.फिर तु मैकें थल केदार ली जाले.ऊ लिगोछि मैं के सोर पन.रिश्तेदारी भै वाँ. पाभें में, बिषाड़ पन. लि जूँल आमा, जरूर लि जूँल.मैं वैइं त रूँ. तुकें लि जूँल.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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