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बचपन की मधुर यादें लेकर दादी नानी का वो ज़माना अक्सर याद आ जाता है. दादी नानी के वो ज़माने बेपनाह ममता के ख़ज़ाने थे. यादों की नाव में सवार होकर जब भी उधर से गुजरो तो पीछे मुड़ मुड़कर वो तकना, मानो उस वक्त को एक बार और जी लेने की चाहत तड़प उठती है. यह वह वक्त था जब आधुनिकता की बयार बहुत ही मंद गति से चल रही थी. आज के बराबर न तो संसाधन थे न यातायात के साधन थे. कार तो छोड़िए, स्कूटर बाइक भी घरों में नहीं होते थे. इधर उधर आने जाने के लिए सार्वजनिक वाहनों का ही सहारा होता था. फिर भी भीड़ भाड़ आज की तरह ज्यादा नहीं थी. खासकर लोग शनिवार और मंगलवार को यात्रा करने से परहेज करते थे अतः इन दो दिनों में बसों में भीड़ कम होती थी.
(Memoir by Amrita Pandey)
दादी का साथ तो बचपन की छोटी उम्र तक ही रहा है. उनकी भी कई मधुर स्मृतियां जेहन में बसी हैं. अंग्रेजी के बड़े-बड़े शब्दों की स्पेलिंग उन्हें याद थीं. अपने समय की 8 पास थीं. मां आनंदी माई की भक्त थी और पाताल देवी स्थित आश्रम में अक्सर जाया करती थीं. बहुत सारे भजन उन्हें याद थे, जिन्हें अक्सर गुनगुनाया करतीं थीं. रामायण महाभारत समेत बहुत सारे सचित्र ग्रंथ उनके पास थे. जिनमें से स्वर्ग नरक वाले चित्र देखना मुझे बहुत भाता था.
नानी का साथ मैंने जी भर जिया है अभी कुछ वर्षों पहले तक. बचपन में नानी का घर मेरे घर से लगभग 3 किलोमीटर दूर था. हमारा घर पांडे खोला में और नानी का घर नरसिंह बाडी. पिता के साथ बाजार जाना और वहीं बाज़ार के पास स्थित नानी के घर पर मिलने जाना, फिर रात को वहीं रुक जाना. कभी-कभी दुविधा में पड़ जाना कि रुकूं या नहीं रुकूं. मां पापा की याद सताती. कोई 5-6 वर्ष की उम्र रही होगी तब. फिर मामा मौसी का कई तरह के प्रलोभन देना. मसलन, स्लीपिंग बैग में सुलाएंगे, जलेबी खिलाएंगे, आज आत्म विभोर कर देता है.
रात को सभी का समय से सो जाना और खर्राटों की आवाज़ के बीच मुझे नींद ना आना, आंखें मूंद कर लेटे रहना, किसी से कुछ नहीं कहना, न जाने कब फिर नींद आ जाती होगी. नानी का सुबह जल्दी जागकर अपने क्रियाकलापों में लग जाना, नहाना और कोई स्नान मंत्र गुनगुनाना, फिर दूब और फूल चुनकर लाना.
जागिए ब्रजराज कुमार नंद के दुलारे बहुत ही मधुर स्वर में गाना और भगवान को जगाना. घंटी की आवाज़ से भगवान के साथ-साथ गहन निद्रा में सोए सभी प्राणी जाग जाते थे. दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर सबका एक साथ बैठकर भारी भारी गिलासों में सुड़ुप-सुड़ुप कर चाय पीना और फिर एक स्वचालित मशीन की तरह अपने अपने कामों में लग जाना. सब के कार्य निर्धारित होते थे. मैं भी उन्हीं के साथ साथ ऊपर नीचे करती रहती थी. पटाल की छत वाला बड़ा सा तीन मंज़िला घर था. दरवाज़ों में वही नक्काशी जो पुराने घरों में दिखाई देती थी और अब बीते समय की बात होती जा रही है. कई बार ऊपर नीचे जाना होता था.
(Memoir by Amrita Pandey)
बैठक घर पहली मंज़िल में था और रसोई तीसरी मंज़िल में. मुश्किल तब आ जाती थी जब मुझे किसी थाली में 4-5 चाय के गिलास रखकर मेहमानों के पास ले जाने को कह दिया जाता था. सीढ़ियों से उतरते छोटे-छोटे हाथ ऐसे कांपते थे जैसे पुरानी फिल्मों में जब लड़के के घरवाले लड़की को देखने आते थे तो चाय लाते हुए लड़की के हाथ कांपते हुए दिखाए जाते थे.
नानाजी स्व. भैरव दत्त तिवारी बहुत ही कर्मठ और इमानदार इंसान थे. अपने लंबे सेवाकाल में 1 दिन भी छुट्टी ना लेने का रिकॉर्ड उनके नाम था और तत्कालीन राज्यपाल से इस संबन्ध में प्रमाण पत्र भी उन्हें दिया गया था. हमें इंतज़ार था कि नानाजी कब हमें पैसे दें और हम जलेबी लेने जाएं. 10 पैसे में दो-चार छोटी-छोटी जलेबियां शायद तब मिल जाती थीं.
सुबह नाश्ते की परंपरा नहीं थी. शायद वही दस बजे के आसपास खाना बनता था. दादी नानी की रसोई कदम रखने का मतलब, मानो कोई यज्ञ भंग कर दिया हो .
एक घटना मुझे आज भी याद आती है. एक बार रसोई के बाहर कटोरेदान में रखी रात की कुछ रोटियां गाय के बर्तन में डालने को मुझसे कहा गया लेकिन मैंने रसोई के अंदर घुस कर उसी वक्त बनी ताज़ी बहुत सारी रोटियां गाय के बर्तन में डाल दी थीं. उस दिन फिर नानी ने सुबह खाना भी नहीं खाया था. इस बात का मुझे आज भी अफसोस होता है. परंतु तब छ: सात वर्ष की उम्र में ऐसी समझ थी ही नहीं. खाने में दाल चावल, रोटी सब्ज़ी, पुदीने की चटनी और अक्सर रायता भी होता था. इन सब में दाल विशेष होती थी. नानी के हाथ की पहाड़ी दाल या डुबके खाने के लिए हम हर रविवार तीन किलोमीटर पैदल चलकर नरसिंह बाड़ी जाते थे.
(Memoir by Amrita Pandey)
आज इस सब को याद करके आंसू का एक नन्हा सा कतरा आंखों से अचानक बाहर आ गया. अपनी दादी नानी को स्नेह के लिए कभी शुक्रिया भी नहीं कहा. उनके बनाए खाने की कभी अपने मुंह से तारीफ़ भी नहीं की. कुछ कहने की इच्छा अगर मन में आई भी तो संकोच बस कहा नहीं गया. आज लगता है कि अनुभव और ज्ञान का खज़ाना होती थीं हमारी दादी नानी. उनसे बहुत कुछ सीखना था, कहना सुनना था. यह सच है एक उम्र के बाद उस उम्र की बात याद आती हैं. किससे बहुत हैं यादें भी बहुत सारी. धीरे-धीरे स्मृति पटल पर उतरती हैं और उस ब्लैक एंड वाइट ज़माने की घुंघली पड़ी तस्वीरों को रंग कर नए कलेवर में प्रस्तुत करती हैं. बीता हुआ वक्त वापस नहीं आता, उसकी मधुर यादों के सहारे ही हम जीना सीखते हैं. यादें जीने का बहुत बड़ा संबल होती हैं.
मूलरूप से अल्मोड़ा की रहने वाली अमृता पांडे वर्तमान में हल्द्वानी में रहती हैं. 20 वर्षों तक राजकीय कन्या इंटर कॉलेज, राजकीय पॉलिटेक्निक और आर्मी पब्लिक स्कूल अल्मोड़ा में अध्यापन कर चुकी अमृता पांडे को 2022 में उत्तराखंड साहित्य गौरव सम्मान शैलेश मटियानी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
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2 Comments
Rajkumar Chopra
Lovely and rare expressions.
Rajkumar Chopra
Lovely and rare expressions by Amrita ji.