आईपीसीसी अर्थात “इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज” की चिरप्रतीक्षित रपट के जारी होने से विश्व भर में जलवायु परिवर्तन के खतरों में कहीं बाढ़ के खतरे बढ़ने तो कई देशों के भयावह गर्मी से तपने के वर्ष वार विवरण के साथ अनुभवसिद्ध अवलोकन हैं. रपट में कहा गया है कि 1.1 डिग्री सेलसियस की ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति में पहले ही जैव विविधता पर घातक प्रहार कर चुकी है. पेड़-पौध, जीव- जंतु और समुद्री प्रजातियों का आधे से अधिक भाग विस्थापन को विवश हुआ है जिसमें वह उस अनुकूल परिवेश व परिस्थिति को खोज सकें जहां जीवित रहना संभव हो.
(Climate Change Report)
दुखद और त्रासद इस पटकथा में ऐसी चरम घटनाएं विद्यमान हैं जिनकी आवृति, तीव्रता और समय अवधि में लगातार वृद्धि होती जा रही है. इस सदी के उत्तरार्ध में ही दक्षिण और दक्षिण -पूर्व एशियाई मानसून दुर्बल पड़ गया है जिसका मुख्य कारण वायु प्रदूषण है. ऐसे में ग्रीष्म कालीन मानसून की बारिश में तेजी आ रही है. ऐसे ही कई अचीन्हे कारक प्रभावी बन रहे हैं. बाढ़-सूखा-अकाल-लू जैसी आपदा ने बड़े पैमाने पर धरती और समुद्र में निवास कर रहे जीव-जंतु-वनस्पति व प्राकृतिक सम्पदा को काल कलवित किया है. जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदार कुछ क्षतियां इतनी भारी हैं जिनकी पूर्ति हो पाना संभव ही नहीं. रपट में दो ऐसी प्रजातियों का भी जिक्र है जो जलवायु परिवर्तन के कारण विलुप्त ही हो गईं.
दो डिग्री सेलसियस या इससे अधिक ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य सुरक्षा के जोखिम और अधिक गंभीर हो गए हैं जिनसे कुपोषण और सूक्ष्मपोषक तत्वों की कमी हो जाती है. पोषण विहीन भोजन के ऐसे खतरे दक्षिणी एशिया, उप सहारा अफ्रीका, मध्य और दक्षिणी अमेरिका व छोटे द्वीपों के साथ पहाड़ी प्रदेशों में अधिक प्रभावी बन रहे हैं. अभी चक्रवात और तूफानों का कोप सहने वाले लोगों की सबसे अधिक संख्या एशिया महाद्वीप में आंकलित की गई है. वैसे भी भारत, बांग्लादेश, चीन और फिलिपिंन्स ने सबसे अधिक आपदा विस्थापन झेले हैं तो दक्षिण पूर्व और पूर्वी एशिया में चक्रवात, बाढ़ और आंधी से आंतरिक विस्थापन की जो स्थितियाँ बनादी वह कुल वैश्विक विस्थापन के 30% से अधिक रहीं हैं.
जलवायु संकट और इससे जुड़े प्रभावों के कारण एशिया में गंगा नदी, सिंधु, अमु दरिया और अन्य नदियों घाटियों को 2050 तक जल के गंभीर अभाव का सामना करना पड़ सकता है. हिमालय में हिमनद पिघलेंगे और पहाड़ी चट्टानों के पीछे पानी एकत्रित होगा. इससे ऐसी अस्थायी झील बन सकतीं हैं जो कभी भी अचानक शिलाओं के अपने तटबंधों को लाँघते -तोड़ते उपत्यका के निचले पहाड़ी प्रदेश में भारी कहर मचा सकती है. अपने अपार वेग के चलते तराई भाबर के मैदानी भाग में बाढ़ की भयावहता ला सकती है. दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन से आई रुक्षता से हिमालय के वनों में दावाग्नि के भड़कने और जंगल की आग की घटनाओं में भारी वृद्धि होगी.
आईपीसीसी की छटी मूल्यांकन रपट की इस दूसरी किश्त में वैज्ञानिकों ने विश्व के विभिन्न महाद्वीपों में जलवायु परिवर्तन के विनाशक खतरों का आंकलन प्रस्तुत किया है. जलवायु परिवर्तन ने बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुँचाया है और इससे आम जन को मिलने वाली आपूर्ति श्रृंखलाएं कमजोर पड़ी हैं. भूस्खलन से पहाड़ी रस्ते अवरुद्ध होने पर राशन रसद की आपूर्ति बाधित होती रही है. साथ ही अब जंगल में रहने वाले जानवरों के हमले की घटनायें भी उनके इलाके के सीमित होने के कारण बढ़ गईं हैं. यह चेतावनी दी है कि एशिया के कई हिस्सों में जलवायु परिवर्तन से उपजे संकटों से जैव विविधता के साथ स्थानीय निवासियों के प्राकृतिक परिवेश को लगातार ह्रास की दशाओं से गुजरना पड़ा है. यह दशा पहाड़ी प्रदेशों के साथ नदी घाटी के इलाकों में देखी जा रही है तो साथ ही समुद्री व तटीय परिस्थितिकी तंत्र भी इससे बचा नहीं है.
गरीबी के विषम दुश्चक्र और आय की निरन्तर बढ़ती हुई असमानता के कारण दक्षिण एशिया जलवायु परिवर्तन से उपजे घातक प्रभावों को वहन कर रहा है. यहाँ कुपोषण की समस्याओं के साथ जलजनित संक्रामक रोगों की बारम्बारता बनी रहती है. जलवायु के अचीन्हे बदलाव यहाँ एलर्जी से जुडी बिमारियों के साथ न्यून जीवन स्तर पर निवास कर रहे निवासियों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डाल रहे हैं. रपट में स्पष्ट किया गया है कि बढ़ते हुए तापमान के साथ एशिया में सांस, संक्रामक रोग व मधुमेह बढ़ा है. अब बढ़ती हुई अचानक बारिश और ऊँचे तापमान से मलेरिया, डेंगू बुखार और डायरिया का खतरा चरम पर है. शिशु मृत्यु दर भी तेजी से बढ़ी है.
2022 की जलवायु परिवर्तन रपट के प्रभाव, अनुकूलता और इसकी संवेदनशीलता ऐसा विस्तृत ढांचा प्रदान करती है जिसके अंतर्गत दुनिया की आधी से अधिक आबादी वाले शहरों में इससे जनित जोखिम और इसके घातक प्रभाव पड़े हैं.14 से 26 फरवरी 2022 तक दो सप्ताह तक चले सत्रों में विभिन्न मुद्दों में होने वाले विचार विमर्श के बाद 195 देशों की सरकारों ने रपट की व्यापक सम्मति व सुझावों को स्वीकार किया.
जलवायु में होने वाले ये परिवर्तन अचानक होने वाली दशा नहीं थीं.इनके पीछे मानव द्वारा अधिकाधिक भौतिक उत्पादन प्राप्त करने की होड़ में प्रकृति दत्त संसाधनों का अधिकतम विदोहन रहा.प्रकृति के साथ हुई अनवरत छेड़ -छाड़ से धीरे- धीरे जो घातक प्रभाव उपजे उन्होंने अब एकबारगी ही घातक और अनिष्टकारी घटनाओं की श्रृंखलाओं को जन्म दिया है. विश्व के साथ भारत में भी करोड़ों लोग, भले ही वह महानगरों में निवास कर रहे हों या समुद्रतटीय प्रदेश में या हिमालय की उपत्यका में इसकी चपेट में आ कई प्रकार की आपदा के साथ स्वास्थ्य पर पड़ रहे घातक प्रभावों से ग्रस्त हैं. विश्व का आधे से अधिक इको तंत्र इसकी चपेट में आ गया है.
(Climate Change Report)
लैंगिक समानता के मुद्दे, मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट तथा कुपोषण के नुकसान के साथ प्रकृति की मार झेल रहे देशों के निर्धन निवासियों को जलवायु परिवर्तन से प्रभावित अतिरेक पूर्ण घटनाओं की दशा में “क्षतिपूर्ति” प्रदान करने के साथ ही “परंपरागत व घरेलू – आंचलिक तरीकों के प्रयोग” से दिख रही समस्याओं को सुलझाने व समाधान करने का विचार इस रपट में पहली बार सम्मिलित किया गया है.
इस रपट में अनुकूलता सामंजस्य के लिए ‘जलवायु विधान ‘ व ‘न्याय व अपक्षपात ‘ को स्वीकार किया गया है.जलवायु संगति के मुद्दे को विश्व के विकसित देशों के सामने रखने की पहल भारत करता रहा है. इसमें वह पक्ष शामिल हैं जो विकासशील देशों द्वारा विकास के लिए उपलब्ध कार्बन धारकता का उचित शेयर प्राप्त करने की मांग से सम्बंधित हैं. भारत द्वारा आईपीसीसी द्वारा निर्गत प्रस्ताव का समर्थन करते हुए इसे राष्ट्र की अखंडता , जलवायु के प्रति न्याय व विपरीत प्रभाव डालने वाले अनिष्ट कारी उपभोग को न्यून करने की महत्वपूर्ण भूमिका को सराहा गया. विकसित देशों से यह भी पूछा गया कि वह हानिकारक उत्सर्जन को कम करने के साथ ही विकासशील देशों के द्वारा सुधार के लिए प्रस्तावित प्राविधि को लागू करने में क्या सहयोग देंगे.
यह रपट प्रस्तावित तकनीक को अपनाने,स्थानीय परिस्थितियों के साथ अनुकूलता स्थापित करते हुए जोखिम व घातक प्रभावों को शांत करने के लिए कार्यरत रहने का उत्साह भरती है. विकासशील देशों को इसकी रणनीति के अनुसार प्रस्तावित उपायों को लागू करने और इसके निमित्त तय किये कार्यों के निष्पादन हेतु वित्त जुटाने की प्रभावी पहल करनी होगी. समायोजन की तमाम कमियों व सीमाओं के चलते वातावरण व जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ते रहे जिससे देशों की धारक क्षमता क्षति ग्रस्त हुई व इसके विपरीत प्रभावों ने निवासियों के जीवन स्तर को निरन्तर गिराया.. अब भारत ने भी जलवायु अनुकूल विकास के पथ को गंभीरता से अपनाने की नीति को स्वीकार किया है जिसके संकेत 2022 की आर्थिक समीक्षा व बजट में विस्तार से दिए गए हैं.
संयुक्त राष्ट्र की इस संस्था आईपीसीसी को जलवायु परिवर्तन के विज्ञान का आंकलन करने के लिए वर्ष 1988 में स्थापित किया गया था. तब से यह विभिन्न देशों की सरकारों को विश्व का तापमान बढ़ने के खतरों से सचेत करता है व इसके निदान के विकल्प सुझाता है. ऐसे कि वह अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर उचित नीतियाँ बना सकें. संस्था की पहली मूल्यांकन रपट 1992 में प्रकाशित हुई. अब 2022 में बर्लिन से इस रपट में 34,000 से अधिक सन्दर्भों के हवाले से 127 ऐसे वैश्विक व क्षेत्रीय जोखिम घटकों को सूची बद्ध किया गया है. यह खेत -खलिहान-खाद्यान्न ,जल,वनाग्नि ,स्वास्थ्य के साथ मानव विकास के कई कारकों तथा परिवहन की प्रणाली और फ़्लोरा-फोन की लुप्त होती प्रजातियों को वर्तमान कालखंड (2021-2040) मध्य अवधि (20410-2060) व दीर्घ समय काल (2100 तक) तक प्रभावित करते रहेंगे. भारत सहित 67 देशों के 270 वैज्ञानिकों के आपसी सहयोग से प्राप्त 62,416 सुझाव व सम्मतियों के परीक्षण, निरीक्षण व मूल्यांकन से रपट का संकलन किया गया.
2021 अगस्त में मूल्यांकन सम्बन्धी दूसरी रपट जिसे “मानवता के लिए कोड रेड “की संज्ञा दी गई में स्पष्ट रूप से यह संकेत दिया गया था कि 1850 से 1900 के पूर्व औद्योगिक स्तर के सापेक्ष अगले 20 वर्षों में विश्व का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेलसियस बढ़ता जा रहा है. ग्लासगो, यू. के (कॉप 26) में यूनाइटेड नेशन्स की जलवायु संगोष्ठी में विश्व के प्रमुख नेताओं ने यह शपथ ली थी कि वह कार्बन तटस्थ दशा को बनाए रखने का सार्थक प्रयास करेंगे पर उनके द्वारा की गईं सहमति, किये गए वादे और कार्य योजनाएं धरातल पर इतनी प्रभावी न बन पाईं जिससे कि तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर तक ही बनाया रखा जा सके. विगत दशकों में चक्रवाती तूफान व मानसून की घटनायें बढ़ती गईं. यह पाया गया कि जैसे -जैसे शहरीकरण बढ़ा मौसम का चक्र भी असमायोजित होते रहा. गर्मी पहले से अधिक होने लगी और वर्षा अनियंत्रित हो गई. बढ़ती हुई गर्मी से मानसून प्रभावित हुए .
(Climate Change Report)
एशिया के शहरों में अहमदाबाद को अधिक तापमान झेलने का जोखिम “शहरी गर्मी द्वीप प्रभाव “के कारण झेलना पड़ता है. वहीँ समुद्र का तापमान तेजी से बढ़ रहा है जिससे मुंबई में वर्षा और समुद्र के स्तर में वृद्धि के चलते जोखिम बढ़े हैं. रपट में स्पष्ट किया है कि इन जोखिमों से समायोजन के लिए अहमदाबाद ने कुछ संस्थागत नीतियों को अपनाने की ओर प्रयास किया है पर मुंबई में ऐसे कोई प्रयास नहीं दिखाई देते.
भारत के लिए जलवायु परिवर्तन के खतरे तेजी से बढ़े हैं. रपट में कहा गया है कि यदि उत्सर्जन को नियंत्रित भी कर लिया जाय तब भी इस शताब्दी के अंत तक देश के उत्तरी और समुद्र तटीय इलाकों में ‘वेट -बल्ब ‘तापमान जो गर्मी और आद्रता को एक साथ मापता है, 31 डिग्री से अधिक ही बना रहेगा.
अनियोजित शहरीकरण से न केवल आवागमन बल्कि कूड़े करकट व इसके निस्तारण की समस्याओँ का सामना करना पड़ रहा है. इससे उठने वाली हानिकारक गैस व इनको जलाने पर ऐरोसोल गर्मी के साथ पर्यावरण पर घातक प्रभाव डाल रहे हैं. सड़कों पर अनवरत चलने वाला यातायात प्रदूषण के स्तर को बढ़ाता गया है. मल्टी स्टोरी बिल्डिंग व अनियंत्रित आवास बनने में प्रयुक्त निर्माण सामग्री से री रेडिएशन का संकट पैदा हो चुका है. विकिरण को अवशोषित करने के बाद फिर से विकिरण करने के इस सिलसिले से रात का न्यूनतम तापमान बढ़ने लगा है. यातायात के दिन -रात चलने से प्रदूषण में तो वृद्धि हुई ही है साथ में निजी कार, मोटर साइकिल व स्कूटी की संख्या भी तेजी से बढ़ी है.खेती भी यांत्रिक होती जा रही है. उन्नत उपभोग हेतु प्रयोग किये गए उपकरण और एक समय के बाद खराब हो जाने पर इनका कूड़ा अलग समस्या पैदा करता है. नगरों -महानगरों में कूड़े के निस्तारण की वैज्ञानिक विधियों का अभाव है. जहां कहीं कूड़े के ढेर जमा होते हैं तो उनमें से आने वाली दुर्गन्ध व उनमें लगाई जाने वाली आग वायु को विषाक्त करती रही है.इन सबके साथ शहरों के समीप की कृषि भूमि पर निर्माण व औद्योगिक गतिविधियां बढ़ते जा रहीं हैं.
जलवायु परिवर्तन से खाद्य सुरक्षा पर भारी संकट आते दिखते हैँ. अगर तापमान वृद्धि की सीमा 1 से 4 डिग्री सेलसियस रहती है तो धान का उत्पादन 10 से 30% एवम मक्के का उत्पादन 25 से 70% तक गिर सकता है. भारत जैसी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के लिए यह बड़ा संकट है जो जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए अभी बहुत कमजोर बनी हुई है.
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जलवायु परिवर्तन की समस्याएं चिरकालिक असंतुलन की दशाओं को प्रदर्शित कर रहीं है. इनके समाधान के लिए जो विकल्प मौजूद हैं उनमें घरेलू और परंपरागत उपायों की सार्थकता को भी इस रपट में विशेष प्राथमिकता दी गई है. स्थानीय रूप से अंचल विशेष में जिन उपायों को अपनाया जाता रहा है वह प्रकृति की धारक क्षमता और उसके अवलम्बन क्षेत्र को बनाए बचाए रखने हेतु नयी संभावनाओं की रूपरेखा भी सामने रखती है. भारत में हिमालयी इलाके के प्रदेशों में अपने परंपरागत ज्ञान और स्थानीय तरीकों से ऐसी मध्यवर्ती तकनीक उपलब्ध रही है जो इलाके विशेष की अधिकांश समस्याओं को सुलझाने में सहायक रही है पर देश की मैक्रो विकास नीतियों के चयन में इन्हें प्राथमिकता क्रम में नहीं रखा गया. रपट में भारत में अपनायी जा रही ऐसी कई प्राविधियों का जिक्र किया गया है जिन्हें अपना कर सूरत, इंदौर और भुवनेश्वर जैसे शहरों में जलवायु अनुकूलन किसी सीमा तक किया गया.
जीवाष्म ईंधन मानवता के सुनहरे भविष्य को अवरुद्ध कर रहे हैं, यह कहना है यू एन सेक्रेटरी जनरल एंटोनियो गुटर्स का और इन पर निर्भरता को तोड़े बिना कई समस्याओं से मुक्ति पायी जानी संभव नहीं है. जलवायु के अचानक बदलने और इसमें दिखाई देने वाले विवर्तन से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर आईपीसीसी ने अपनी रपट में पहली बार स्पष्ट संकेत किया है कि मानसिक स्वास्थ्य की दशाएं इससे गहन रूप से श्रृंखला बद्ध हैं.
यह रपट ऐसे समय में सामने आई है जब रूस और यूक्रेन के मध्य युद्ध की दशाएं विद्यमान है. हालांकि वर्तमान ऊर्जा संकट और इसके प्रभावों के बारे में इस रपट में कोई विस्तार नहीं दिया गया है, पर यह स्पष्ट रूप से यह संकेत तो देती ही है कि ग्लोबल वार्मिंग से किस प्रकार संसाधनों के उपयोग पर विपरीत रूप से प्रभाव पड़ा है जो विभिन्न स्तरों पर अब संसाधनों की गतिशीलता व आवंटन को प्रभावित कर रही है. यह ऐसे संकेत भी देतीं हैं कि जीवाष्म ईंधन पर निर्भरता और इनकी आपूर्ति का किसी भी विपरीत व आपात स्थिति में अवरुद्ध होना उच्च उपभोग पर आश्रित अर्थव्यवस्था के साथ स्वयं स्फूर्ति की दिशा में बढ़ रहे देशों के सामने गहन संकट गतिरोध पैदा करने के बड़े कारण बन जाते हैं. संयोगवश इस रपट की अप्रूवल प्रक्रिया में रूस व यूक्रेन के प्रतिनिधि मौजूद थे. आश्चर्य की बात तो यह भी कि यूक्रेन का प्रतिनिधि रपट की अंतिम स्वीकृति के समय बंकर से निकल कर शामिल हुआ.
जीवाश्म ईंधन अपनी समाप्ति की ओर हैं और ऐसे समय में इसके विकल्पों को अपनाने पर सुविचार प्रबंध से किया गया निर्णय ही समाधान का एकमात्र विकल्प है. जीवाश्म ईंधनों का इस अंतिम काल में प्रयोग बंद करने की अपील करते हुए गुटेरेस ने कहा कि उन्होंने अपने समय में कई वैज्ञानिक रपट देखी हैं पर आज प्रस्तुत की जा रही यह रपट मानव द्वारा भोगी जा रही वेदना का ज्वलंत चित्रण है. इसके साथ ही इस दुर्भाग्यपूर्ण दशा को बताने का संकेत भी है कि अभी तक जलवायु परिवर्तन में हो रही अवनति के निवारण के लिए सार्थक नेतृत्व का भारी अभाव भी रहा है.
जीवाष्म ईंधन न केवल जलवायु में दिखाई देने वाले परिवर्तनों का कारण बन गए हैं बल्कि इनसे ऐसे कई संकट उत्पन्न हो गए हैं जिन्हें विश्व भर में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से भोगा जा रहा है. रुस से ही लगभग 40% प्राकृतिक गैस का निर्यात यूरोपियन देशों को होता है. युद्ध की स्थिति में जीवाष्म ईंधन की निर्भरता ने अलग संकट खड़े कर दिए हैं. युद्ध प्रदूषण का एक बड़ा कारक है. जितने भी विस्फोटक और हथियार इसमें प्रयोग किये जाते हैं उनसे ऐरोसोल व हानिकारक गैस वायुमंडल को विषाक्त करते हैं. सुपरसोनिक व जंगी विमान भी खूब प्रदूषण फैलाते हैं. युद्ध के समय विकास व जलवायु सम्बन्धी योजनाओं में लगने वाली पूंजी भी युद्ध की तरफ आवंटित कर दी जाती है जिससे वृद्धि की दर व पर्यावरण की दशा विपरीत होने लगती है.इस संकट से बचने के लिए भी अब वैकल्पिक उपायों की खोज जरुरी है.विश्व भर में लोग जलवायु परिवर्तन के संकट से ग्रस्त हैं हीं,वहीं जीवाश्म ईंधन अब इस विश्व में समाप्ति के कगार पर हैं. अर्थव्यवस्था अब इनका अधिक लम्बे समय तक उपयोग नहीं कर पायेगी. इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि वैकल्पिक संसाधन की ओर सुविचारित हस्तान्तरण की दिशा में बढ़ा जाये.ऐसे ही विकल्प की खोज से न केवल ऊर्जा प्राप्ति की सुरक्षा मिलेगी और विश्व भर में इसकी पहुँच होने के साथ यह अवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हरित रोजगार के अवसर भी प्रदान करेगी.
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भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन की दशा एवं दिशा के व्यवहारिक व नीतिगत निर्णय लिए हैं. सौर और पवन ऊर्जा पर अधिक निर्भर रह, कोयले के प्रयोग को कम करने की दिशा में अग्रसर रहना जरुरी माना जा रहा है.बैटरी चलित वाहनों को अधिक प्रतिमान देने की आवश्यकता महसूस की जा चुकी है और आरंभिक चरणों में ऐसे वाहन बाजार में आ चुके हैं. शहरी इलाकों में हरित पट्टी का विस्तार तथा वन क्षेत्र को संरक्षित व संवर्धित करने को गुणवत्ता पूर्ण कार्य योजनाओं को लागू करना भी जरुरी है जो बिना जन सहयोग व भागीदारी के संभव नहीं.
शहर हों या ग्राम निर्माण सम्बन्धी हर योजना में जब तक उस क्षेत्र विशेष की धारक क्षमता को ध्यान में नहीं रखा जायेगा पर्यावरण पर ऐसी अनियंत्रित गतिविधियों के घातक प्रभाव पड़ते रहेंगे. भारत के हर नगर महानगर में आज प्रदूषण की समस्या विकट हो चली है. साथ ही मुख्य धार्मिक स्थान और पर्यटन स्थल भी कूड़े कचरे के अम्बारों से लदे दिखाई देते हैं. जलवायु पर निर्भर आजीविका भी सिमट रही है.छोटे और सीमांत जोत वाले किसान, पशुपालक, वन उपज से जुड़े लोग, मछली पकड़ने वाले समुदाय व अन्य कम धंधों में लगे जन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं क्योंकि निर्धनता व आय वितरण की विषमताओं के साथ शासन की दुर्बल व विलंबित कार्य प्रणाली बुनियादी सेवाओं और संसाधनों के वितरण तक लोगों की पहुँच सीमित कर दे रही है. फ्लोरा- फोना की कई प्रजातियां विलुप्ति की ओर तेजी से बढ़ रहीं हैं.परिवेश और वातावरण में हो रहे इन अचीन्हे परिवर्तनों का प्रभाव लोक कल्याण के लिए रची उस सभ्यता पर पड़ना स्वाभाविक है जिसे वृद्धि, विकास प्रगति और आधुनिकीकरण की दिशा देने वाली प्रक्रिया में मानव जाति संलग्न है.
यह स्वीकार करने में अब कोई संदेह नहीं कि आने वाले दो दशकों में 1.5 डिग्री सेलसियस तापमान की वृद्धि के साथ कई अपरिहार्य जलवायु के खतरों का सामना करना होगा. जिसमें जैव विविधता के नुकसान का संकट और बढ़ेगा. लगातार और तीव्र चरम घटनाओं ने संवेदनशील प्रजातियों के साथ पारिस्थितिकी तंत्र को चरम बिंदुओं या “टिपिंग पॉइंट्स की ओर ठेल दिया है जहां समायोजन एवम अनुकूलन की क्षमता शेष नहीं रह जाती. ऐसे प्रमाण हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने पर विश्व की नौ प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा बढ़ने लगता है साथ ही जिन क्षेत्रों में जैव विविधता ज्यादा है वहाँ यह संकट दस गुना हो जायेगा.रपट में “वेट-बल्ब “तापमान का उल्लेख है जो सामान्य व्यक्ति के लिए 31 डिग्री से अधिक बढ़ना चिंता जनक है. रपट में चेतावनी है कि यदि उत्सर्जन ऐसी ही रफ़्तार से बढ़ता गया तो भारत के अधिकांश बड़े शहर 35 डिग्री सेलसियस के “वेट -बल्ब” ताप तक पहुँच जायेंगे.
एशिया में काफी ज्यादा ऊर्जा का उपभोग करने वाले 13 विकासशील देशों में से 11 के सामने ऊर्जा का विकराल संकट उपस्थित होगा. ऐसे जलवायु इलाके जहां वनस्पति पनपती है व जिनमें भारत, नेपाल और चीन मुख्य हैँ तापमान की वृद्धि से ऊपरी इलाकों की ओर स्थानांतरित हो जायेंगे. यही नहीं भारत के तटीय शहरों में मुंबई, चेन्नई, गोवा, विशाखापट्टनम के साथ ही उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों में समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण निचले इलाके जलमग्न हो जाएंगे. अभी भी समुद्र के 0.8 डिग्री गरम हो जाने से चक्रवातों की आवृति बढ़ गई है तथा वह अधिक उग्र हो कर बार -बार आने लगे हैं. देश के मैदानी इलाकों में गर्मी में जानलेवा गर्मी और सर्दी में कड़ाके की ठंड जैसी चरम मौसमी दशाएं दिखाई देने लगीं हैं. वर्षा काल में थोड़े समय की घनघोर वर्षा से बाढ़ जैसी स्थितियाँ पैदा हो जातीं हैं.
हिमालय की उपत्यकाओं में बसे शहर कस्बे व ग्राम हिमनदों के पिघलने व खिसकने से आपदा की कई घटनाओं का सामना कर रहे हैं ऐसे असमायोजनों को दूर करने में सरकारों को प्रभावी कदम उठाने होंगे. जरुरी हो जाता है कि 30 से 50% के बीच भूमि का संरक्षण प्रभावी व न्याय संगत तरीके से किया जाये जिससे प्रकृति की रक्षा हो सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि अपनी जमीन और खेती पर निर्भर रह जीवनयापन संभव है.इस रपट में स्पष्ट किया गया है कि सीमित प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन, वनों की बेहिसाब कटाई, पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण व विनाश के साथ बढ़ते हुए प्रदूषण ने विनाशकारी संकट उत्पन्न किये हैं जिससे प्रकृति, समुदायों और व्यक्तियों की क्षमताओं पर भी विपरीत व अवसादकारी प्रभाव पड़े हैं.
आईपीसीसी कि यह रपट विश्व स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में तीव्र, गहन और निरन्तर कमी लाने के प्रयास सुझाती है. यह सभी देशों के सामने उस अवसर का लाभ उठाने का तरीका सुझाती है जिससे अपने देश में हो रहे उत्सर्जन पर अंकुश लगाया जाये. इस रपट में जलवायु प्रणलियों के विज्ञान के साथ उपलब्ध संसाधनों और जनसमूहों पर पड़ रहे मौसमी व चक्रीय प्रभावों को स्थापित किया गया है. समस्या के समाधान के विकल्प सुझाए गए हैं. रपट एक अंतर्निहित एटलस के साथ संयोजित है जिसके द्वारा नीति निर्धारक अपने क्षेत्र विशेष हेतु अनुकूलतम समायोजन करने वाली नीति का चुनाव कर सकते हैं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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