हाथ में गरम चहा का गिलास पकड़े और फिर गुनगुनाते पहाड़ी धुन का ये गीत आपने कभी न कभी सुना ही होगा “ओ! हो ठुल बौज्यू! कसिकै छुटण छू, अमल पड़ी गो चहा को पाणी. ओ! हो! ठुलबौज्यू!…”
(Tea Cultivation History Uttarakhand)
और ये ठुल बौज्यू वही अंग्रेज थे जो दो सौ साल पहले कुमाऊँ गढ़वाल की आबोहवा से यहाँ खिंचे चले आए. यहाँ रहने के साथ ही यहाँ कुछ खास बहुत कुछ हो सकने की गुंजाइश पर अमल करते रहे. इसी की बदौलत यह खोजबीन पक्की हुई कि चाय तो यहाँ अपने आप अपने प्राकृतिक स्वरूप में उगती ही आई है जिसमें महक भी है और रंग भी. अगर इसे कायदे से बागान लगा उगाया जाय तो बेहतरीन क्वालिटी के साथ ढेर मुनाफा भी होगा जिसे सुपर नार्मल प्रॉफिट कहा जाता है.
करीब दो सौ साल पूरे होने को हैं. ईस्ट इण्डिया कंपनी ने असम के पहाड़ी इलाकों में चीनी चाय के पौंधों से मिलता जुलता पौंधा एक स्कॉटिश जेन्टलमैन रोबर्ट ब्रॉस की मदद से सन 1823 में खोज निकाला था . एक ब्रिटिश लेखक थे बिशप हेबर, कहा जाता है कि चाय के रसिया भी थे और पहाड़ो के दीवाने भी . सन 1824 में उन्होंने लिखा कि कुमाऊँ के जंगलों में चाय की झाड़ियाँ उगती पाई गईं हैं पर इसका प्रयोग लोकल यानी स्थानीय निवासी नहीं के बराबर करते. तब शायद आद यानी अदरख और कालिमर्च वाला गरमागरम काढ़ा जिसमें तुलसी के पत्ते भी पड़े होते और जिसे मर्चवाणी कहा जाता, ठंड की थुरथुराट दूर करने का, तीस यानी प्यास बुझाने वाला पेय होता जिसके साथ गुड़ या मिश्री की टपुक ली जाती.
अब नैनीताल तक आ पहुंचे अंग्रेज और फिर बड़ुए यानी मकड़ी के जाले की तरह उनके कारबार फैलते ही रहे. इकोनॉमिक्स में यह कॉब-वेब थ्योरम के नाम से जानी जाती है और गहरे निहितार्थ हैं फिलहाल पहाड़ अंग्रेज और चाय के इस घालमेल में, बहुत सारी चीजों के साथ अंग्रेज उम्दा किसम की चाय के अमलची हुए. ऐसी चाय के दीवाने जो पीने में बिना कोई खरखराट किये, कड़वाहट लाये बगैर उनके कंठ के नीचे उतरे. उससे ऐसी मधुर सी सुवास आये कि नथुने फड़कने लगें. उबलते गरम पानी में पड़ते ही वह धीरे-धीरे रंग छोड़े. हल्का पीला निम्बू से रंग वाला तरल जिसमें चमक गहराई गहनता हो साथ ही मधुर मीठी परिपक़्व और तेज हो. ढकी हुई टी कोजी से मेहमानों के आगे नक्काशीदार कपों में ढले. जिसकी एक सुड़ुक यानि सिप लेते ही मेम साहिब की मुस्कान पहाड़ की रूमानी ठंड में सुरसराट पैदा कर दे. मक्खी मच्छर धूल लू से कहीं दूर पहाड़ की रोमांटिक वादियों में मेम साब चाय का कप थामे एक टक निहारें तो ‘सैणिले दिखे दन्त, बैगैले पाय अंत’ का पट जाने वाला क्लाइमेक्स आ जाये.
अंग्रेजों को चाहिए थी पीको फ्लावरी, विटोको स्पेशल. पर अभी तक सबसे बढ़िया चाय उगाने वाला देश चीन रहा. चीन के जिन प्रांतों में सबसे बढ़िया गुणवत्ता वाली चाय पैदा की जाती ठीक वैसी ही जलवायु कुमाऊँ और गढ़वाल के कई पहाड़ी भू भागों की भी रही. सो ब्रिटिश राज ने सुविचारित रणनीति के तहत चाय की खेती के महत्व को समझ इसके बागान लगाने की पहल कर दी.
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चाय के पक्के अमलची हुए अंग्रेज. जॉर्ज ऑरवेल एक नामी लेखक हुए जिन्होंने ये बताया कि जब पुर्तगाल की मिस कैथरीन की शादी ब्रिटेन के किंग चार्ल्स से हुई तो वह अपने साथ रोजाना चाय पीने के ट्रेडिशन को ले कर आयी. इसके बाद तो ब्रिटेन में चाय पीने का ऐसा दौर चला कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरब में स्थित अपनी राजकाज वाली जगहों से चाय का आयात ही शुरू कर दिया. ऑरवेल ने यह लेख 1946 में लिखा जिसमें इस बात पर खास तवज्जो दी गयी कि चाय ब्रिटेन में पिछले तीन सौ सालों से पी जा रही है बदस्तूर.
हमारे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे डॉ गिरीश चंद्र पांडे. वो भी चाय के शौकीन, पूरे बतरस, लाजवाब गुरु. हमें ग्रोथ एंड डेवलपमेंट पढ़ाते. हास परिहास से लबालब उनकी जुबान जब विषय पर बोलना शुरू करती तो उसमें अपने आसपास से उठाये उदाहरण होते. अब सिद्धांत हो नीति या समस्याएं और इनमें सबसे बढ़ समस्याओं को सुलझाने का मार्ग. इतनी सरल सीधी बात में समेट कठिन से कठिन ग्रोथ मॉडल समझा देते कि फंडा मेन्टल स्पष्ट हो जाएँ और व्यंग की, सेटायर की जो चाबुक पड़ती उससे किसी भी योजना-परियोजना की चीर-फाड़ करनी बहुत ही आसान हो जाती.
सो उन्हीं की टोन में खुलासा हुआ कि ब्रिटेन में लोग बिना दूध की चाय नहीं पीते. उनकी चाय में दूध का होना बहुत ही जरूरी हुआ. अब खाली दूध मिला दिया वाली बात भी नहीं हुई. कायदा हुआ, तरीका हुआ तमीज हुई. दूध को चाय में मिलाने का अपना अलग ही ढंग हुआ. पानी को एक अलग बर्तन में उबाला जाये. फिर उसमें चाय की पत्ती डाल ढक दिया जाय. अब जरूरी नहीं कि हर बखत बोन चाइना के कप हों हीं. और हों भी तो ये नाजुक कप गर्म उबलते दूध को सहन नहीं कर सकते. ऐसे में सादे दूध को पहले कप में डाला जाता और फिर इसमें उबले पानी में अपनी रंगत छोड़ गयी कायदे से छनी चाय पोर की जाती यानि मिलायी जाती. दूध को पहले से कप में डालने की एक वजह एक दम गरम चाय को थोड़ा ठंडा करना भी होता. गलत तरीके से मिलाया गया दूध चाय के ऊपर मलाई तैयार कर देता सो राज काज चलाने आये अंग्रेज इस तरह की चाय को ट्रेडिशन के खिलाफ मानते. चाय में पड़ने वाला दूध सामाजिकता की जानकारी भी देता है बल. वहां के मानव विज्ञानियों ने यह साफ़ बताया. ब्लैक टी वर्किंग क्लास के लिए होती अगर इसमें दूध और शक़्कर मिला दी जाये तो इसे बिल्डर्स टी कहते. चीनी के साथ चाय को पीना तो लोअर क्लास का इशारा होता.
खानपान और हाइजीन में साफ़ सफाई के ढपिल यानि अडजस्टेबल, गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों को ये बिलकुल पसंद न था कि कोई चाय की पत्तियों को हाथ भी लगाए. तब उन्होंने धातु की छोटी छोटी डिब्बियों में चाय भर दी. इनको उबले पानी वाले कप में डाला जाता और चाय तैयार हो जाती. पर चाय पीते समय उस डिब्बी को निकलना बड़ा झंझट का काम था. अब उनके कुछ खानसामाओं ने दिमाग लगाया. उन्होंने कागज के पैकेट में चाय की पत्ती भरी और उसे गोंद से चिपका दिया. इस ढर्रे से अब गरम पानी में डालते ही कागज और गोंद गले तो चाय का टेस्ट ही बिगड़ जाये. फिर कहीं जा कर लेडीज का दिमाग लगा जिन्होंने सूती कपडे की छोटी-छोटी थैलियों में चाय भर उन्हें सुई घागे से सिल दिया. यहीं से हुआ टी बैग्स का अविष्कार जो लेडी रोबेट्रा सी लॉओन और मिस मेरी मार्कलेन से हो पड़ा. कई साल बाद विलियम हारमनसोंन ने कागज के टी बैग बना डाले.
अब एक गीत सुना होगा आपूं सब लोगनेल मतलब आप सब ने. लिखा गाया संगीत से सजाया डॉ भूपेन हज़ारिका ने. पूरे आसाम का लोक संगीत जानना हो तो बिनाका गीत माला और झुमरी तल्लैया छुटमलपुर की पेशकश से हट डॉक्टर हजारिका को सुनो. क्या लिखा और क्या गा गए :
“एक कली दो पत्तियांनाजुक नाजुक उँगलियाँ, तोड़ रही है कौन? ये एक कली दो पत्तियाँ! रतनपुर बगीचे में”
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अब जितनी प्रसिद्ध है ये कविता उससे कहीं ज्यादा प्रसिद्ध बन गया वह पेय को जो दो पत्तियों और एक कली के संयोजन से बना. चाय के बागान की वो अद्भुत जादुई दुनिया जिसमें पूरी तरह समा गयी होती है. जैसे पहाड़ियां गुनगुना रहीं हों. नरम नाजुक कलियों को अपनी पीठ पर बंधे डोके में डालती महिलाएं मुस्कुरा रहीं हों उनकी मुस्कराहट से उनकी ख़ुशी के बीच चाय के बागानों में सूरज की किरणों की ऊष्मा से सिकुड़ी सिमटी पत्तियां जाग जा रहीं हों. ये नरम नाजुक पत्तियां कभी घने बादलों से घिरी रहतीं ठण्डी हवा से सिमटती थरथरातीं और फिर मंद मंद बारिश में धुलती. सरसराती हवा से फिर बादल छंट जाते चाय की कोंपल सूरज की गर्मी से फिर इठलाती बलखाती चुनीजाती.एक कली दो पत्तियों के मोहिनी इंद्रजाल से कोई न बच पाया.
तभी कहा गया कि पहाड़ में पानी के बाद अगर कुछ पिया गया तो वो यही है एक कली और दो पत्ती का मेल यानि कि चाय जिसे पहाड़ में फेमस कर गए अंग्रेज और पहाड़ी इसे कहने लगे चहा. माना गया कि ये पत्ती पहाड़ में ही उगी. चीन के पहाड़ में. पांच हजार साल पहले. तब वहां का सम्राट था शेन नुग्न. अपने को हैंडसम बनाये रखने के लिए रोज बिना नागा सुबह सबेरे गरम पानी पीने की आदत हुई उसकी. एक दिन उसके गरम पानी के गिलास में हवा से उड़ती कुछ पत्तियां आयीं और गिर पड़ीं. अब इस गिलास के पानी की रंगत ही बदल गयी और पानी से खुसबू भी आने लगी. सम्राट ने उस गिलास के गरम पानी को पिया तो उन्हें स्वाद तो भाया ही गजब की ताजगी भी महसूस हुई. फॉरेन उसने कारिंदे दौड़ाये. आखिर उसके ऐयार ढूंढ ही लाये एक कली दो पत्तियां. फौरन पब्लिक हेल्थ के मद्देनजर मुनादी हुई कि सारी जनता इस एक कली दो पत्ती के पेय को पिए.
‘सांक घाट बज्यूंण जै यो खोज यो खबरबात फैल गे’
मंगल बेला में सम्राट के मुहं से निकला वचन दसों दिशाओं में फ़ैल गया. चीन की पहाड़ी की ये पत्ती उस पर सम्राट का हुकुम और सबसे बड़ी बात तो ये कि सेहत के लिए बड़ी मुफीद. अब वो चीनी ही हुए सेहत और ताकत के लिए तो पता नहीं जड़- कंजड़ क्या- क्या खा जाएँ. चीन के बगल में हुआ हुँण देश. यानि तिब्बत. वहां के हुणिये भिक्षुओं ने भी इसे पी डाला और ये चिताया कि इसे पीने के बाद बदन में बनी रहे ताकत, नींद भी न आये और ध्यान भी खूब लगा रहे. पंचमकार वाले हुए ये, बुद्ध को मानने वाले.बुद्ध के भगत अपने महावीर भी हुए. ये वही ज्ञानी ध्यानी गुरु हुए जिन्होंने जैन धर्म चलाया. जैन धर्म को इस्टैब्लिश करने से पहले वो बस बौद्ध साधु सन्यासियों हठयोगियों की ही संगत में रहते थे. जिससे उन्हें चाय के पत्तियों के पेय को पी उसके गुणों की भली जांच हो गयी. फिर जब वो असम में आ वहां के घटाटोप जंगलों में ध्यान में मगन रहे तो उन्होंने पाया कि इन पहाड़ियों में तो ठीक वैसे ही झाड़ अपने आप उग पड़े है जिनकी पत्ती का पेय तिब्बत वाले साधु महात्मा उन्हें पिलाते थे. कहते हैं कि महावीर असम के जंगलों में पूरे सात साल रहे. जहाँ वो अक्सर चाय की पत्ती ही चबा लेते. इससे बिना और कुछ खाये भी उनका खूब ध्यान लगता. चेले उन्हें खुश रखने को चाय बना पिलाते. उनके सारे चेले अनुयायी भी इसका सेवन कर स्वस्थ प्रसन्न होते और हर किसी को इसके लाभ बताख़ु शी का मंत्र देते. अब बौद्ध भिक्षुओं के जरिये चाय असम में आम जनता तक फैली. यह हुआ चाय का ‘विस्तार प्रभाव’ जिसे स्प्रेड इफ़ेक्ट कहते हैं. इस कथा के जरिये बात साफ़ हो गई कि बौद्ध भिक्षुओं के जरिये जनता के बीच चाय के रहस्यमयी गुण पहुंचे. चीनी चाय का निखालिस पानी पीते यानि उसमें चीनी दूध मिलाने का झंझट नहीं पालते.
प्रोफेसर गिरीश पांडे जी ने आगे समझाना शुरू किया कि पहाड़ में चाय को लाने वाले अँग्रेजी राज ने चाय बागान को फैलाना मुनाफे को बटोरने का मुकम्मल मौका समझा और दूरदर्शिता यह रखी कि चाय बागान तो बनें ही साथ में जो भी बंजर जमीन है उसका भी उद्धार हो. वह भी उपयोगी बन जाये.यानी चित भी मेरी और पट भी, जो श्रृंखला प्रभाव यानि लिंकेज इफ़ेक्ट है जिसमें आम हिंदुस्तानी की तरह अगर-मगर, किन्तु-परन्तु की शंका करने की गुंजाइश नहीं. चाय बागान बनाने के लिए सबसे पहले तो उन्होंने आवश्यक न्यूनतम प्रयास यानी ‘क्रिटिकल मिनिमम इफर्ट थ्योरी’ का प्रयोग किया जिसके लिए बहुत भारी विनियोग की जरुरत भी नहीं पड़ती.बस कुछ मीटिंग-सिटिंग कर कागजी घोड़े दौड़ा कर बड़े आका के हुक्म की तामील करनी होती. इसमें सबसे पहला काम रहता इलाके पर कब्जा. दूसरा अपने खास लोगों को उत्पादन की सुविधा. तीसरा सरकारी अमले की मदद से आगम व उत्पादन की चौकसी और फिर व्यापार भले ही वह घरेलू हो या विदेश को निर्यात. इससे कर व प्रशुल्क भी जुटता. कुछ समय बाद इन्हें निजी क्षेत्र के हाथ सौंप दिया जाता. उसके बाद असंतुलित विकास की थ्योरी पर अमल होता. यानी कंपनी अब उस धंधे में हाथ डालती जिसकी बाजार मांग बढ़ती दिख रही हो और जिसमें मुनाफा चोखा मिले. चाय का गिलास अब खाली हो चूका था सो उसे टेबल में रख प्रोफेसर पांडे का स्वर कुछ निस्वास भरा हो गया पर क़्वीड़ जारी रही. अब एक समय ऐसा भी आया जब चाय के मुकाबले पहाड़ के फल ज्यादा रसीले हो गए सो कारबार भी सिमटा तब तक इतने नये बागान अन्य प्रदेशों में बेहतर और कारगर तकनीक के साथ लग चुके थे कि कुमाऊँ और गढ़वाल की चाय को खरीदना समृद्ध उपभोगता के ही बूते का रह गया. फिर तो हर डाने काने तक कितने किसम की चाय लसपस हो पहाड़ पहुँच गयी, हर गांव कसबे में मिजात पा गयी.
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चाय पहले सामान्य उपभोग की वस्तु न थी. इसकी तो आदत पाड़ी गई मतलब धीरे-धीरे इसको पीने की आदत डाली गई. कुछ कस्बों, शहरों में जहां भीड़ भाड़ ज्यादा होती, मेलों पर्व त्योहारों में चूल्हे पर चढ़ी दिखती भाप उगलती कितली और पिला दी जाती फ़ौकट में. आसान सा तरीका समझा दिया बनाने का और चाय की पुड़िया भी थमा दी कि अब खुद भी बना के देखो. अगली कई बार फिर फौकट मिलती. पर उसके बाद न जाने कितने गुणों का बखान करता वह फौकटिया गायब हो गया. पर इतना एहसान वह लोग बागों पर कर गया कि चाय की पुड़िया रख गया गल्ले की दुकान पर. जो छोटी बड़ी थीं एक डबल वाली, एकन्नी वाली, चवन्नी वाली.
अंग्रेजों का राज पहाड़ में कुमाऊं तक फैला तो 1823 के बंदोबस्त के हिसाब से यहाँ के गांवों की हदबंदी तय की गयी. अंग्रेज दक्षिण भारत और सात बहनों वाली पूर्वोत्तर की पहाड़ियों और सेरों में बड़े पैमाने पर चाय के बागान लगाने का एक्सपेरिमेंट कर चुके थे. तब वहां का गवर्नर था लार्ड विलियम बैंटिक. उसने 1834 में ही वहां के जंगलों में अपने आप उग रही चाय की झाड़ियों की इन्वेंटरी करा दी थी. एक साल बाद ही असम के जंगलों से चाय की पत्ती बटोर इसके थैले-बोरे इंग्लैंड में महारानी के तखत तक 10 जनवरी 1835 को सेवा में हाजिर कर दिए. यानी 1835 को चाय की पहली खेप इंग्लैंड पहुंची. अभी तक ब्रिटेन के चाय लोलुप सिर्फ चीन की चाय ही सुड़कते थे. चीनी चाय की कीमत भी भारी प्रॉफिट मार्जिन लगा वसूलते थे क्योंकि उनकी मोनोपोली यानि एकाधिकार था. मोनोपोली में ये जो एकाधिकारी होता है वो ‘प्राइस मेकर’ होता है. अल्प काल में भी वह अपने लाभों को अधिकतम करने की जुगत भिड़ाता है. कभी नुकसान की गुंजाईश की नौबत नहीं आने देता. बाई चांस कभी ऐसा होने का खतरा पड़े तो उसकी बस यही कोशिश होती है कि वह अपनी अल्पकाल की हानि को न्यूनतम रक्खे. ऐसा करने में वो सफल भी होता है. दीर्घ काल में तो उसका दीर्घ कालीन औसत लागत वक्र होता ही न्यूनतम है. अब किसी से कोई प्रतियोगिता तो उसे करनी है नहीं इसलिए वह अपने उत्पादन या प्लांट के आकार में कोई छेड़खानी नहीं करता. उसकी निगाह रहती है बस बाजार मांग पर.
चीन की चाय का एकाधिकार और ब्रिटेन से बढ़ती जा रही चाय की मांग ने बस चीनी चाय की वल्ले वल्ले कर दी. उसका मुनाफा भी बेहिसाब बढ़ा. ब्रिटेन में हर घर को चाय चाहिए थी और चीन ने चाय पर मोनोपोली को ऐसा रेगुलेट किया कि उसके सुपर प्रॉफिट पर आंच न आये. चीन अपनी चाय की कीमत दुनिया के अलग लोकेशन और रीजन में अलग अलग कर देता. वह ब्रिटेन के उपभोक्ता के अलग अलग सेगमेंट की पावर को देख कीमत तय करता . उसे यूरोप की ठंडी जलवायु में मांग के बढ़े रहने का भी फायदा होता. कुल मिला चीन चाय की बिक्री में मल्टीप्लान्ट मॉनोपोली से अपना ढेर मुनाफा हासिल कर रहा था और ब्रिटेन के लिए चीन से आयात करना मज़बूरी थी. क्योंकि अन्य जगह से मिलने वाली चाय की मात्रा ऊंट के मुंह में जीरे के साथ घटिया और कड़वी भी होती.इधर अंग्रेज भी व्यापारी हुए. ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले ही चाय में चीन के रहस्य को जानने के लिए अपने ऐयार वहां भेजने शुरू कर दिए थे. फिर चाय की पौध और बागान में काम करने वाले मजदूरों को भारत के ठंडे इलाकों में ला चाय की खेती भी शुरू कर दी थी. असली खेती तो तब फैली जब असम के जंगल में अपने आप हो रही चाय उन्हें मिली और इसकी खेती उन्हें फल गयी. बाद में अंग्रेजों ने चीन से व्यापारिक समझौता किया जिसकी मदद से चाय के बागान लगे और पहाड़ों में उगी भारतीय चाय का रुतबा पूरी दुनिया में फैलने लगा.
कुमाऊं गढ़वाल में चाय की खेती के लिए अंग्रेजों के हाथ में पहाड़ की जमीनें आ जाएँ इससे पहले ही ऐसी जुगत लगा लोग-बागों का दिमाग फेरा गया कि सबको यह विश्वास हो गया कि गोरी चमड़ी के हाथ पड़ते ही ये जमीनें झुंगर-मडुए की जगह सीधे डबल छनकाएंगी. चवन्नी-अठन्नी-रुपे का ढेर लगेगा. यहाँ के लोग-बाग तो इस झांसे में आ गए बस यह नहीं समझ पाए कि आखिर में उनकी इकन्नी-दुवन्नी भी पोंड में बदल महारानी के तख़्त की ओर जाती चलेगी. पहाड़ की खूबसूरत जमीन के साथ अंग्रेज ये भी चाहते थे कि उनके हाथ उपजाऊ खेत लगें. 1823 के बंदोबस्त से वह खुश न थे और बिना सरकारी हुकुम के अंग्रेज प्राइवेट प्रॉपर्टी ले भी नहीं सकते थे. तब डॉ. रॉयल नामक एक यूरोपियन वनस्पति शास्त्री ने 1827 में सरकार से यह गुजारिश की कि कुमाऊं की वो जमीन जिस पर खेती नहीं होती उसे चाय के बागान लगाने के लिए अंग्रेजों को दे दिया जाये. लगे हाथ 1828 से शुरू हो 1837 तक की अवधि में सिलसिलेवार यह कानून भी बना लिया गया कि अंग्रेज लोग यहाँ निजी संपत्ति खरीद सकते हैं.
डॉ रॉयल सरकारी वानस्पतिक उद्यान सहारनपुर में अधीक्षक के पद पर तैनात थे. उन्हें पूरा यकीन था कि कुमाऊँ गढ़वाल की नम आबोहवा में बढ़िया लम्बी पत्ती वाली चाय उगेगी और इसका टेस्ट भी बेहतरीन होगा. जाहिर है कि इसकी बिक्री भी खूब होगी. इस आशय के मसविदे को 1827 में उन्होंने ईस्ट इण्डिया कंपनी को भेज दिया था. फिर १८३४ में उन्होंने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक को यह सुझाव दिया कि पहाड़ में चाय के बागान लगाने का काम शुरू किया जाये. बेंटिक ने तुरंत एक समिति बनाई जिसके विशेषज्ञ सर्वप्रथम उन इलाकों को चुनते जहां चाय के बागान लगाये जाते. दूसरा यहाँ की आबोहवा के अनुकूल चाय की पौध मंगाने की व्यवस्था होती और तीसरे क्रम में चीनी चाय के विशेषज्ञ चुने जाने थे जिनकी सलाह से ही उत्पादन के हर चरण की निगरानी करवाई जाती.
कुमाऊँ के कमिशनर जॉर्ज विलियम ट्रेल ने जून 1834 में इस कार्ययोजना को संपन्न करने वाली समिति को सरकार की तरफ से हर मदद दिए जाने का भरोसा दिलाया. ट्रेल ने कुमाऊँ प्रांतीय बटालियन के पूर्व सेनानायक सर कॉलहन को बताया कि प्रारम्भ में चाय के बागानों की नर्सरी हवालबाग और भीमताल के इलाके में लगायी जाय. इसी बीच कुमाऊँ, गढ़वाल और सिरमौर के पहाड़ी इलाकों में चाय के बागान लगाने की विस्तृत संभावनाओं पर इंग्लैंड के हाउस ऑफ़ कॉमन में चाय के पारखी और प्रवर्तक डॉ वॉलिक अपना पक्ष रख चुके थे.
अल्मोड़ा में सन 1822 से पौंध संग्रह कर्ता के पद पर कार्य कर रहे मिस्टर बिल्किवॉर्थ और सरकारी वानस्पतिक उद्यान के सुप्रिटेंडेंट डॉ फाल्कनर पहले ही कुमाऊँ और गढ़वाल के चाय बागान व नर्सरी के लिए कई स्थानों का चयन कर चुके थे. 1834 में राजपुर और मसूरी के बीच झरीपानी को चाय बागान व नर्सरी लगाने सम्बन्धी प्रशिक्षणों के लिए सबसे अनुकूल जगह बताया गया. दिसम्बर 1835 में कलकत्ता से चाय के दो हजार पौंधे मंगाए गए जिन्हें अल्मोड़ा में लक्ष्मेश्वर और भीमताल में भरतपुर की नर्सरी में लगाया गया. इसी साल टिहरी गढ़वाल में चाय के बागान लगाने के लिए पौंध शाला बनाई गई.
सन 1837 तक यह आदेश पारित हो चुका था कि भारत में ब्रिटिश नागरिक निजी संपत्ति के धारक हो सकते हैं इसलिए यहाँ के पहाड़ों में ऊँचाई पर स्थित टीले अंग्रेजों को दिए जाने की शुरुवात हुई. इनमें ऐसे कई स्थान व ऊँचे टीले थे जहां स्थानीय चाय खुद बखुद भी पैदा होती रही थी. 1838 में ही फॉरच्यून नामके एक काबिल अफसर को चीन के दौरे में भेजा गया जिसका मकसद यह था कि वह चाय की झाड़ी उगाने से ले कर उसे तरोताजा रख पैकेट बंद होने तक के पूरे सिलसिले को समझ ले. अधिकारी होशियार था सब कुछ समझ बूझ वापस आया तो चाय के बारे में जानकार कुछ चीनी कारीगर भी अपने साथ ले आया. इनकी निगरानी में ही पहाड़ में पहले पहल चाय की नर्सरी लगायी गई.
अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में सबसे पहले 1841 में चाय का बगीचा बना जिसमें तीन हजार आठ सौ चालीस चाय की पौंध लगी.यह बगीचा डॉ फाल्कनर ने लगाया था जो गढ़वाल में भी चाय बागान लगाने की तैयारी कर चुके थे. उन्होंने दस चीनी कामगार और चाय की खेती के औजार का इंतजाम भी एक साल के भीतर कर लिया था. 1841 में ही अल्मोड़ा के हवालबाग में चाय का बगीचा बन चुका जिसके कर्ता-धर्ता मेजर कार्बेट थे. हालांकि बाद में इस बगीचे को पहले सरकार ने व फिर लाला अमर नाथ साह जी ने खरीद लिया.
डॉ फॉल्कनर ने चाय की जिस वैरायटी को अल्मोड़ा में पहले पहल उगाने में सफलता पाई वह चाय के गुणी जनों की नजर में असम की चाय से भी कहीं बढ़ कर पाई गई. लक्षमेश्वर अल्मोड़ा में उगी इस चाय की खुशबू और रंग रंगत इंग्लैंड में बहुत पसंद की गई और इसको चीन से मंगाई गई ‘उलांग’ चाय की टक्कर का माना गया. डॉ फॉल्कनर के बाद चाय के विकास की जिम्मेदारी डॉ डब्ल्यू जेमिसन को दी गई. 1843 में अपने कुमाऊँ दौरे में उन्होंने यहाँ उगी चाय की क्वालिटी को अच्छी गुणवत्ता के क्रम में रखा व चाय बागानों की दशा को बहुत अच्छी स्थिति में बढ़ता पाया. इसी साल कैप्टन हडलस्टन ने पौड़ी और गडोलिया में चाय के बागान लगाने की शुरुवात की.
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1830 से 1856 की समय अवधि में ब्रिटेन के कई संपन्न परिवार पहाड़ आए. चाय की खेती को सरकार का समर्थन मिला. इसके विकास के लिए प्रोत्साहन मिलते और भेंट स्वरुप कई जगह माफ़ी की जमीन भी दी गई. ऐसा सुनहरा अवसर देख कई ब्रिटिश नागरिक कुमाऊँ में अल्मोड़ा,रानीखेत, दूनागिरी, कौसानी, बिनसर, जलना, लोहाघाट, एबट माउंट, रामगढ़, मुक्तेश्वर, घोड़ाखाल व भवाली जैसी जगहों पर सपरिवार आ बसे. ब्रिटिश सरकार द्वारा चाय व उद्यान के विकास को जारी संतुलित विकास की नीति से पहले भी 1828 तक नैनीताल जिले में ब्रिटिश नागरिकों ने पांच स्थानों में चाय की खेती करना शुरू भी कर दिया था. इनमें रामगढ़ में मिस्टर डेरियाज, भवाली में मिस्टर न्यूटन और मिस्टर मुलियन, घोड़ाखाल में जनरल व्हीलर व भीमताल में मिस्टर जोंन्स के बागान मुख्य थे. ब्रिटिश शासन में आरम्भ से ही चाय व फल के बागान विकसित करने की पहल हेतु अंग्रेजों को पहाड़ों के उपजाऊ ऊँचे टीले दिए जाने शुरू कर दिए गए. बाद में ब्रिटिश परिवारों को चाय बागान के लिए जो भूमि आवंटित की गई उसे ‘फ्री सैंपल स्टेट’ कहा गया. अल्मोड़ा जिले में रानीखेत धोबीघाट से चौबटिया के इलाके में चाय का बड़ा बगीचा ट्रूप परिवार के द्वारा लगाया गया. आस-पास के लोगों ने इसे ‘चहाबगिच’ के नाम से प्रसिद्ध कर दिया. सन 1930 तक अल्मोड़ा जिले का सबसे बड़ा चाय का बागान 506 एकड़ क्षेत्रफल में फैला मल्ला कत्यूर का उद्यान था और दूसरा कौसानी का जो 396 एकड़ इलाके तक फैला था.
दूसरी ओर गढ़वाल के पौड़ी और गडोलिया मे कैप्टन हडलस्टन के द्वारा चाय के बागान 1843 में बनाये जा चुके थे. इनकी देख रेख के लिए हर महिने दस रुपये हर महिने का खर्चा तय किया गया. सन 1844 में एक सरकारी चाय बागान की स्थापना कौलागीर में की गई जो 400 एकड़ का था. सन 1854 में 76 एकड़ भूमि पर नब्बे हजार से अधिक और पौंधे लगाये गए. 1849 में एक और चाय जिसे कांगड़ा चाय कहा गया चाय बागानों के अधीक्षक डॉ जेम्सन द्वारा पहाड़ की जलवायु और यहाँ की मिट्टी के अनुकूल पायी गयी. यह हरी और काली दो किसम की होती जिसमें काली चाय में स्वाद के साथ मीठी सी सुगंध होती तो हरी चाय में सुगन्धित लकड़ी सी महक.
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार कुमाऊँ में वर्ष 1845 में 375 पोंड चाय का उत्पादन हुआ था जिससे बीस हजार रूपये से अधिक का मुनाफा हुआ. इससे पूर्व 1843 में कुमाऊँ में 190 पोंड चाय उत्पादित हुई थी चाय उत्पादन में अच्छी प्रगति होने से यह आगम वृद्धि का बेहतर स्त्रोत बनने लगी.कुमाऊँ में चाय बागानों के क्षेत्रफल में लगातार वृद्धि देखी गई. 1859 में चाय की खेती 166 एकड़ में होती थी जो 1880 तक 3342एकड़ तक हो गई थी. 1880 तक मल्ला कत्यूर में 506 एकड़, कौसानी में 390 एकड़ तथा देहरादून टी कंपनी के १२०० एकड़ के बड़े बागान भी विकसित हो गए थे कुमाऊँ मण्डल में बेड़ीनाग, सानी उडियार, कौसानी चौकोड़ी, डोल, छीड़ा पानी, गौला पालड़ी, जलना, बिनसर लोध, स्याहीदेवी, झलतोला, ओढ़ा, डुमलोट, वज्यूला, ग्वालदम व लोहाघाट में चाय बागान लगे जिनमें लोध, कौसानी और बेड़ीनाग की चाय की गुणवत्ता के लिहाज से बहुत उच्च कोटि की थी.
1864 में हिल नामक एक अंग्रेज ने बेड़ीनाग की आबोहवा को चाय बागान के लिए अव्वल दर्जे का महसूस करते हुए ब्रिटिश सरकार से बागान लगाने की अनुमति मांगी. सरकार को यह प्रस्ताव पसंद आया और 200 एकड़ जमीन के लिए स्वीकृति मिली. जिससे भट्टीगांव, ढनौली, खितौली, बना और सांगड में जमीन का आवंटन किया गया. हिल ने बेड़ीनाग और चौकोड़ी में चाय के बागान लगाए. तदन्तर मेजर आर ब्लेयर को चौकोड़ी और बेरीनाग चाय बागान की देखरेख का चार्ज सौंपा गया. तब कुछ समय चाय उत्पादन मंदा चल रहा था. ऐसे में जॉर्ज बिलियत ने टी स्टेट को खरीद लिया. फिर 1916 में उन्होंने इसे प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट को बेच दिया. जिम कॉर्बेट बहुमुखी प्रतिभा संपन्न और पक्के घुमक्कड़ थे. चाय बगीचे की अच्छी देखरेख कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा उन्होंने स्थानीय निवासी श्री मुरलीधर पंत को टी स्टेट सौंप दिया. अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप न चला पाने से उन्होंने भी इसे बेच सही हाथों को सौंप दिया. अब टी स्टेट श्री दान सिंह बिष्ट मालदार की थी. पैदावार काफी अधिक होने से यहाँ की चाय विदेशों में भी निर्यात की गई.बेड़ीनाग और चौकोड़ी में चाय प्रोसेसिंग के कारखाने भी लगे. ये चाय दार्जिलिंग की टक्कर की थी. स्पेशल पिको फ्लावरी ,पिको स्पेशल ब्रांड और विटको स्पेशल की प्रोसेसिंग मशीनों से की जाती थी. इस पूरे इलाके के पांच सौ से अधिक निवासियों को काम पर रखा गया. साथ ही चाय से जुडी अन्य सहायक क्रियाओं से अप्रत्यक्ष रोजगार भी स्थानीय निवासियों को मिला. निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देने की सरकारी नीति के चलते कई बागान बेचे भी गए जिनमें चौकोड़ी और बेरीनाग के बागान ठाकुर देव सिंह बिष्ट द्वारा खरीदे गए थे. 1940 से 1965 के समय बेड़ीनाग में चाय का सर्वाधिक उत्पादन हुआ.
1847 में गढ़वाल में 18 एकड़ इलाके में चाय के बागान थे. यहाँ ग्वालदम में सबसे बड़ा चाय का बागान चौदह किलोमीटर के विस्तृत क्षेत्र में था. 1850 में चाय बागानों की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने गढ़वाल में एक चीनी चाय विशेषज्ञ ऐसाई वांग की सेवाएं प्राप्त कीं. पौड़ी गढ़वाल में एक चीनी काश्तकार डी ए चौफ़िन ने पौड़ी के समीप चाय की फैक्ट्री लगायी गई.गढ़वाल में अलकनंदा जलागम क्षेत्र में चाय की खेती आरम्भ होने से उत्पादन काफी बढ़ा. 1859 तक गढ़वाल में चाय बागानों का क्षेत्र बढ़ कर 350 एकड़ हो गया था. 1880 तक यहाँ 10,937एकड़ इलाके में 63 चाय के बागान फैल चुके थे. वालटन के लेख स्पष्ट करते हैं कि 1897 तक संयुक्त गढ़वाल के क्षेत्र में 25 क्विंटल से अधिक चाय का उत्पादन बढ़ा. कुल उत्पादन 17,10,000 पोंड तक बढ़ चुका था.
1884 में काठगोदाम और बरेली के बीच रेल सेवा की भी शुरुवात हो चुकी थी जिससे पहाड़ में उत्पादित परंपरागत कृषि व उद्यान पदार्थों को बाहर भेजने में सुविधा बढ़ी. ब्रिटिश नागरिकों ने रामगढ़ भीमताल,घोड़ाखाल, व भवाली में न्यूटन व मुलियन के जो बागान लगाये थे उनमें चाय के उत्पादन में कुछ कमी देखी जाने लगी थी इसका कारण यह था कि पहाड़ में होने वाले फलों के बागान अब उत्पादन करने लगे थे. बाजार में भी फलों की अधिक मांग थी और इनकी कीमत भी अच्छी मिल रही थी. फल उत्पादन में चाय बागान की तुलना में अधिक मुनाफा देख चाय बागान पर किए विनियोग की धनराशि कम होने लगी. 1867 में देहरादून के पास का कौलगीर का सरकारी बागान जो 400 एकड़ क्षेत्र तक फैला था, सिरमौर के राजा को बेच दिया गया. अब सरकार यह चाहती थी कि चाय बागानों का विकास निजी क्षेत्र में हो. भारत तिब्बत व्यापार में भी कुमाऊँ की चाय बढ़िया होने कारण तिब्बत में बहुत ही ऊँचे मार्जिन पर बेची जाती थी पर यह मुनाफा तिब्बती व्यापारी के पास जाता था इस कारण कुमाऊँ की चाय को पश्चिमी तिब्बत निर्यात करने में सरकार ने अधिक प्रतिमान नहीं दिया.
सन 1900 की शुरुवात तक डिप्टी कमिश्नर ऑफिस की पत्रावलियां यह दर्शाने लगीं थीं की चाय के बागानों में अब चाय का उत्पादन गिरते हुए पैमाने पर होने लगा है. इसका सबसे बड़ा कारण तो यह था कि अब फल उद्यान अधिक प्रतिफल देने लगे थे. 1860 के दशक में चौबटिया, रानीखेत में सरकारी उद्यान सुव्यवस्थित व वाणिज्यिक कुशलता से उत्पादन योग्य हो चला था जहाँ सेव विशिष्ट उत्पादन रहा. अन्य पहाड़ी स्थानों में आड़ू, प्लम, दाड़िम अनार, संतरा, माल्टा, खुबानी, चेरी, अखरोट, बादाम, हैजलनट, चेस्ट्नेट, चिलगोजा, स्ट्रॉबेरी व चेरी की आवक बढ़ी. रामगढ, मुक्तेश्वर, घोड़ाखाल, जलना हरसिल में अंग्रेजों ने फलोद्यान को प्राथमिकता दी. पहाड़ में शीतोष्ण फलों की खेती की सफलता और इनके बढ़ते मुनाफे से चाय बागानों की ओर रुझान कम होता गया. चाय बागान कुप्रबंधन के शिकार हुए और 1949 तक चाय का उत्पादन नगण्य ही रह गया सिर्फ चौकोड़ी, बेड़ीनाग और चीरा पानी के ही चाय बागान बचे रह गए. ऐसी हुई अंग्रेजों के ज़माने की चाय की फसक पराव.
(Tea Cultivation History Uttarakhand)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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