पहाड़ की परम्परागत चिकित्सा पद्धति में आयुर्वेद प्रचलित रहा. लोक विश्वास के साथ ही जनमानस में ऐसी अनेक परम्पराएं पोषित होती रहीं जो कर्मकांड, तंत्र, ज्योतिष एवं आयुर्वेद से सम्बन्धित थीं. वर्तमान समय में भी भले ही गंभीर बीमारियों की चिकित्सा के लिए लोग एलोपेथी की शरण में जा रहे हों पर अपनी लोकहितकारी विशेषताओं के रहते लोग आयुर्वेद पर विश्वास करते रहे.
(Ayurved & Vaidya of Almora)
आयुर्वेद का प्रारंभिक चरण आयुर्वेदिक ग्रंथों की रचनाओं से समृद्ध रहा. पर्वतीय प्रदेश में भी राजा व नरेशों द्वारा आयुर्वेद के जानकार वैद्यों को राजाश्रय व उचित सम्मान प्रदान किया गया. ब्रिटिश काल में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में निरन्तर गिरावट आई और परंपरागत वैद्यकी देश के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गई. अँग्रेजी राज्य ने न तो इस देशी पद्धति को मान्यता दी और न ही वैद्यों को किसी प्रकार का प्रोत्साहन ही दिया पर गढ़वाल और कुमाऊँ हिमालयी वैद्यकी के जानकार परंपरागत वैद्य दूर ग्रामीण अंचलों में लोक मानस की सेवा लोकहित में करते रहे. इन वैद्यों में अधिकांश ब्राह्मण थे क्योंकि इनमें से सभी पुरोहित कार्य, कर्मकांड, ज्योतिष एवं जड़ी बूटी का ज्ञान रखते थे. वैदिक काल से संकलित जो ग्रन्थ आयुर्वेद एवं वैद्यकी ज्ञान से सम्बन्धित थे वह मूलतः संस्कृत में थीं इसलिए संस्कृत का ज्ञान रखने वाले ब्राह्मणों द्वारा इसे व्यवसाय व जीविका उपार्जन का स्त्रोत बनाना सुविधाजनक रहा. संस्कृत ग्रंथों की व्याख्या व टीकाऐं आवश्यक संशोधन व परिमर्जन के साथ तदन्तर हिंदी में भी उपलब्ध हुईं. ऐसी ही कई पांडुलिपियां पहले के समय के कागजों व भोजपत्रों में लिपिबद्ध कीं गईं.
उन्नीसवीं शताब्दी में मसूरी, देहरादून में जौनपुर-जौनसार व रवाईं एवं गढ़वाल के विभिन्न जनपदों के साथ कुमाऊँ में अनेक पारम्परिक वैद्य हुए. कुमाऊँ में जनपद अल्मोड़ा में उपराड़ा, गंगोलीहाट, जजूट, बरसायत, ताडीखेत, भटकोट गेवाड़ व दन्या ग्राम के मूल वाले अनेक कुशल वैद्य बहुत प्रसिद्ध हुए जिनमें वैद्यराज लोकरत्न पंत ‘गुमानी’, वैद्य गौरी दत्त पांडे, वैद्य रामदत्त पंत ‘कविराज’, वैद्य भोलादत्त पांडे, वैद्य अनूप सिंह, वैद्यराज श्री मोतीराम सनवाल, वैद्य श्री माधवानंद लोहनी एवं वैद्य श्री सीतावर पंत भले,परोपकारी व कुशल वैद्यों के रूप में प्रतिष्ठित हुए.
वहीं गढ़वाल में देहरादून जनपद के स्वाधीनता संग्राम सेनानी वैद्य मिल्की राम अग्रवाल, ग्राम लखवाड़, चकराता, जौनसार बाबर, चम्बा के आयुर्वेदाचार्य जगदीश मैठाणी, आयुर्वेदाचार्य मोहन लील उनियाल, जौनपुर के बाल मुकुंद सेमवाल, पतिदत्त वैद्य, विद्या दत्त वैद्य, चंद्रवदनी के तुगेश्वर दत्त, गडवाणी दत्त सेमल्टी, चमोली जनपद के रमेश चंद्र गौड़, लोकानंद लखेड़ा, बिशन दत्त सती, डिम्मर ग्राम के पंडित ईश्वरी दत्त डिमरी, श्रीनगर के दिगम्बर बहुगुणा पंडित विद्यादत्त थपलियाल, मंगल देव ध्यानी, भरोसाराम कपटियाल, रुद्रप्रयाग के चैतराम, पीताम्बर दत्त थपलियाल, पाती राम काला, राधा कृष्ण किमोठी, भागवत प्रसाद सेमवाल, देवप्रयाग के भगवती प्रसाद, बडियार गढ़ के धर्मानंद टिहरी गढ़वाल के मुंशीराम बडोनी, पौड़ी के भागवत भागवत प्रसाद सेमवाल का नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है.
भले ही शासन की उदासीनता और लोगों के तुरंत आराम वाली मनोदशा ने आयुर्वेद के विकल्प के रूप में एलोपैथी को उच्च प्रतिमान दिया पर अभी भी लोग समग्र रूप में अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए आयुर्वेद पर ही विश्वास बनाए हुए हैं. पहाड़ में वैद्यकी लम्बे समय तक यजमानी प्रथा पर आधारित रही थी जिसके आधार पर जो गाँव जिन वैद्यों के पास थे वहां के परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी यजमानी चलती थी. गाँव-गाँव जा कर अपने मरीजों की चिकित्सा करने से वैद्य अनुभव सिद्ध अवलोकन से ज्ञान अर्जित करते थे,अधिकांश वैद्य नाड़ी व ज्योतिष ज्ञान रखते थे.
ज्योतिष और आयुर्वेद से सम्बन्धित अनेक पाण्डुलिपियों में अनेक रोगों की चिकित्सा का उल्लेख प्राप्त होता है.गढ़वाली संस्कृति में ज्योतिष का उपयोग महत्वपूर्ण है जिसका उपयोग जन्म से ले कर मृत्यु तक के कर्मकांडों में हुआ दिखता है. उपचार के साथ तंत्र-मंत्र व ज्योतिष का भी प्रयोग होता था. इससे रोगी मनोवैज्ञानिक रूप से भी ठीक होते थे. प्रायः वैद्यों द्वारा अपने स्वानुभूत नुस्खे गुप्त रखे जाते. आज भी दुर्गम क्षेत्रों के निवासी आधुनिक चिकित्सा के परिचित होते हुए भी पारम्परिक वैद्यों के ईलाज व घरेलू नुसखों पर पूर्ण विश्वास रखते हैं.
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हिमालयी लोक पारम्परिक चिकित्सा में पहाड़ी क्षेत्रों के वैद्य महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते थे. यह धर्म और परोपकार की भावना को ध्यान में रख किया जाता था. परिवार के वरिष्ट सदस्यों से वैद्यकी का ज्ञान प्राप्त करने के साथ कुशल वैद्यों के संरक्षण में रह गुरु-शिष्य परम्परा के निर्वाह के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं. आयुर्वेद का लोक मानस में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरण हुआ.
कुमाऊँ में वैद्यकी परंपरा के नक्षत्रों में वैद्यराज लोकरत्न पंत ‘गुमानी’ रहे. आचार्य भास्करनन्द लोहनी, ज्योतिषा चार्य के अनुसार उनका जन्म 11 मार्च 1791 को हुआ. इनकी माता का नाम श्रीमती देवमंजरी थी व पिता जी पंडित देवनिधि पंत नेपाल नरेश के राजवैद्य थे. दादाजी पंडित पुरषोत्तम पंत चंद राजाओं के वैद्य रहे. घर में लोकरत्न को प्यार दुलार से गुमानी नाम से पुकारा जाता था. बचपन में वह अपने दादा के साथ रहे तो उसके बाद अपने चचा पंडित राधाकृष्ण वैद्यराज के साथ रह उन्होंने शिक्षा प्राप्त की. फिर वह परमहंस परिव्राजकाचार्य के गुरुकुल में गए. क्लोन के पंडित हरि दत्त ज्योतिर्विद से उनकी दीक्षा संपन्न हुई.
गुमानी उपराड़ा ग्राम के मूल निवासी हुए. उपराड़ा बेरीनाग से गंगोलीहाट जाने वाले मोटर मार्ग पर दशाईँ थल से लगभग एक किलोमीटर नीचे है. उपराड़ा के वैद्य प्रसिद्ध माने जाते रहे,और यहाँ से बाहर जा कर उन्होंने आयुर्वेद में खूब नाम कमाया. नई पीढ़ी में भी कई उपराड़ा के पंत ऍमबीबीएस कर डॉक्टर व सर्जन बने.लखनऊ में बस गए और बरसायत पिथौरागढ़ के श्री मोहन चंद्र पंत के अनुसार लगभग तीस पीढ़ी पहले बद्रीनाथ भगवान के दर्शन करने महाराष्ट्र के हिंबरा इलाके से पंडित जयदेव पंत आए थे. चौदहवीं शताब्दी से आए ये महाराष्ट्र के पंत वंशज कुमाऊँ में बसने लगे और इन्हें हिमाड़ के पंत कहा गया. इनमें अधिकांश गंगोलीहाट के समीपस्त गाँवों वर्षायत, जजूट व उपराड़ा में बसे. श्री मोहन चंद्र पंत ने पंत राठ की वंशावलियों का संकलन किया तथा ‘पुरुख’ नामक ग्रन्थ की रचना की. पुरुख में जिन वंशावलियों का वर्णन है उनके अनुसार जयदेव पंत की अठारहवीं पीढ़ी में लोकरत्न पंत गुमानी हुए.
कुमाऊँ के इतिहास पर कई सन्दर्भ ग्रन्थ रचे श्री यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ का कहना है कि गुमानी, राजा गुमान सिंह देव की राज सभा में वैद्य थे. इसी कारण उनका नाम गुमानी पड़ा. गुमानी नाम भी वैद्य के स्वाभिमानी नाम का प्रतीक है पर उनके कथन को अनेक इतिहासकार सही नहीं मानते. उनके अनुसार गुमानी नाम तो राजा गुमान सिंह देव से भेंट होने से पूर्व ही लोकप्रिय हो चुका था.
अपने परिवार की समृद्ध वैद्यक परंपरा के साथ गुमानी ने चौबीस वर्षों तक विद्या अध्ययन किया तदुपरांत उन्होंने आयुर्वेद पर गहन अनुसन्धान किया, विभिन्न जड़ी बूटियों के गुण एवं उपयोग के साथ रस तंत्र सार के प्रयोग में दक्षता प्राप्त की. देश के अनेक स्थानों में घूमे. गुमानी के दो विवाह हुए थे. पहला विवाह तो उनके विद्यार्थी रहते ही हो चुका था तो दूसरा विवाह उन्होंने अपनी मां के अनुरोध पर छत्तीस वर्ष की आयु में किया. इनके दो पुत्र हुए जिनका नाम राम दत्त एवं गंगा दत्त था. इन दोनों भाइयों की एक बहिन भी थी जो घर भर की लाडली बनी.
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वैद्यराज लोकराज गुमानी के महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘ज्ञानभेषज्यमंजरी ‘में इस तथ्य को अनुभवसिद्ध अवलोकन से स्पष्ट किया गया है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए वैद्य राज ने पहले तो शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने की चिकित्सा का प्राविधान किया एवं उसके बाद मानसिक आरोग्य हेतु उपचार विधियां बतलाईं. ज्ञान भेषज्य मंजरी में अस्सी श्लोक हैं. इनमें बहुत सरलता से यह स्पष्ट किया गया कि उत्तम आचरण, भक्ति एवं ज्ञान का समन्वय जहां मानसिक असंतुलन का निराकरण करते हैं वहीँ आयुर्वेदिक पद्धति की उपचार पद्धति से शारीरिक कष्ट व व्याधियां दूर हो जातीं हैं.
वैद्यराज लोकरत्न पंत ‘गुमानी’ के समृद्ध साहित्य को सबसे पहले 1894 में ‘गुमानी नीति’ के शीर्षक से श्री रेवादत्त उप्रेती ने अल्मोड़ा से प्रकाशित करवाया. उनका दूसरा संकलन ‘गुमानी कवि द्वारा रचित संस्कृत एवं भाषा काव्य’ १८९७ में इटावा से प्रकाशित हुआ जिसके संपादक रामजे इंटर कॉलेज में संस्कृत के प्रवक्ता श्री देवी दत्त पांडे थे. तदन्तर पूरे सौ वर्षों के बाद उनकी सभी उपलब्ध रचनाओं को 1997 में ‘गुमानी ग्रंथावली के नाम से श्री कैलाश चंद्र लोहनी ने टनकपुर से प्रकाशित करवाया. कमल कुमार पांडे ने गुमानी के साहित्य पर शोध कार्य किया जिसमें उन्होंने उनकी कृति “श्री रामसहस्त्रपृदंडक” पर विस्तृत विवेचना की .कुमाऊँ विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की अध्यक्ष डॉ किरण टंडन ने लोकरत्न पंत ‘गुमानी’ रचनावली की रचनाओं को अनुवाद सहित सम्पादित किया.
गुमानी के द्वारा लिखित साहित्य आध्यात्मिक सम्पदा के साथ हिन्दू धर्म एवं देवी देवताओं के विषद आख्यानों से परिपूर्ण होने के साथ आयुर्वेद के समस्त पक्षों पर आधारित रहे जो उनके विषद ज्ञान एवं अनुभव सिद्ध अवलोकन पर पुष्ट निष्कर्षों के प्रमाण देते है.
गुमानी की मुख्य रचनाओं में रामनामपंच पंचाशिका, रामविषय विज्ञप्ति सार,राम महिमा वर्णन, राम सहस्त्र गण दंडक, राम महिमन, राम विषय भक्ति विज्ञप्ति सार, नीति शतक शतोपदेश, गंगा शतक, तत्त्वबोधिनी पंच पंचाशिका, जगन्नाथाष्टक, कृष्णा ष्टक, चित्रपदावली व ज्ञानभेषज्य मंजरी, तिथि निर्णय,आचारनिर्णय, अशौच निर्णय मुख्य हैं. वह कांगड़ा, अलवर व नहान के नरेशों के द्वारा सम्मानित हुए तथा उन्होंने नहान के भूदीश फतेह प्रकाश पर तीन सर्ग का काव्य लिखा इसी क्रम में पटियाला नरेश कर्ण सिंह पर पांच सर्ग का व अलवर नरेश बचे सिंह पर पांच सर्ग का काव्य रचा.
कुमाऊँ के वैद्य गौरी दत्त पांडे ‘गौर्दा ‘के नाम से जाने जाते रहे. इनका जन्म देहरादून में सम्वत 1929,अगस्त 1872 को हुआ. गौर्दा का मूल ग्राम पाटिया के समीप त्यूनरा रहा जो अल्मोड़ा शहर से करीब बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इनके परिवार में वैद्यकी परंपरा से की जाती रही. इनके पिताजी श्री जमुनादत्त कुशल वैद्य रहे तो पितामह श्री विश्ववेश्वेर देहरादून में गुरु श्री राम राय एवं राजा लाल सिंह के दरबार में वरिष्ठ वैद्य नियुक्त रहे.अपने परिवार की परंपरा को नियमित करते हुए गौर्दा ने अल्मोड़ा के लाला बाजार में ‘संजीवन चिकित्सालय ‘ खोला जिसे उनके बाद उनके पुत्र हेमंत कुमार पाण्डे वैद्यशास्त्री व फिर प्रपौत्रों द्वारा चलाया गया. गौर्दा का देहावसान 67 वर्ष की अवस्था में हुआ वैद्यकी में कुशल होने के साथ साथ वह कुमाउनी भाषा में काव्य भी रचते रहे.वह गायक, वादक, रामलीला में सक्रीय भाग लेने वाले मुंहफट और विनोदी स्वाभाव के थे. उन्होंने समाज में फैले पाखंड और नकलची संस्कृतिका प्रबल विरोध किया.
अल्मोड़ा के बद्रेश्वर में 19-20 नवंबर 1932 को होने वाला कुर्मांचल सम्मलेन समाज सुधर की दिशा में एक सराहनीय पहल थी. इस सम्मलेन में प्राचीन कुरीतियों को दूर करने व सभी वर्ग के लोगों को एक करने का प्रयास किया गया था. इस सम्मलेन में गौर्दा का सक्रिय सहयोग रहा. वह अत्यंत विनोदी स्वाभाव के व्यक्ति थे स्वतंत्रता को स्वछंदता का पर्याय मन कर चलने वाले कुटुंब पर व्यंग करते हुए उन्होंने लिखा, ‘स्वतंत्रता की लहरें फैली ज्वे च्याल काबू नै ब्वारी’
भूमि की नापजोख करने वाले पटवारियों पर उनका कटाक्ष था- पटवारि गौं मैं हिटि फिरि आला ,नजर पैमैस उँ करि करि ल्याला. रड़ियो पड़ियो टूट फुटो बगियो छ जो गाड़ में. रौल कागज में उस उसै ,रैययत गई चुल भाड़ में…
एलोपैथी पर तंज कस्ते हुए उन्होंने लिखा : बिस्वास अंग्रेजि औषध में छ ,लागि रै बरांडी खपाड़न में. जाड़मुड़ में धरी क्या छ कौंनी हींग फटकीरी हराइन में.
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गौर्दा की रचनाओं पर ‘छोड़ो गुलामी ख़िताब ‘पुस्तक में चारु चंद्र पाण्डे लिखते हैं कि गौर्दा ने अपने काव्य में अपना परिचय बड़ी विनम्रता से दिया है.अपने को कवि कहने में भी वे लजाये हैं :
गौर्दा भै खस -भाषी का, भगनौली कवि राज.
आपूं थै कवि कूंण में ,वी ऊँछौ बड़ि लाज..
अर्थात गौर्दा तो गँवारू भाषा के भगनौल (कुमाउँनी लोकगीत विशेष) गाने वालों में शुमार है, स्वयं को कवि कहने में उसे लज़्ज़ा का अनुभव होता है. यद्यपि उन्होंने अपने लिए लिखा ‘गौरीदत्त जस कविता करण लगा, काव्य विनोद बिगाड़न में (गौरीदत्त जैसे लोग भी कविता करने लगे -केवल काव्य -सौंदर्य को नष्ट करने हेतु)किन्तु उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही गई और उनकी रचनाएँ कुमाऊं की जनता का कंठहार बन गईं. अल्मोड़े के विद्वत समाज ने इस महाकवि का सार्वजानिक अभिनन्दन किया और अपनी शृद्धा के प्रतीक स्वरुप उन्हें 1934 में स्वर्ण पदक अर्पित किया.
आयुर्वेद के कुशल जानकर होने के साथ स्वाधीनता संग्राम सेनानी और समाजसेवा में हमेशा अग्रणी वैद्य राज श्री भोला दत्त पाण्डे थे. इनका जन्म अल्मोड़ा, ताड़ीखेत के ग्राम पथुली में सन 1908 को हुआ. ये परिवार भी वंश परंपरा से वैद्यकी में खूब नाम कमाया था. भोला दत्त जी ने भी अपने विद्वान आयुर्वेदाचार्य पिता से आयुर्वेद की विविध विधाओं की शिक्षा ग्रहण की तथा आचार्य चरक व सुश्रुत के आयुर्वेद के विशद विवेचन में निपुणता प्राप्त की. अष्टांग आयुर्वेद व आयुर्वेद के अन्य जटिल पक्षों का भी शास्त्रोक्त ज्ञान अर्जित किया. स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित हो इन्होने बम्बई, असम व कराची तक दौरा किया, असहयोग आंदोलन में सक्रिय रहते हुए कांग्रेस दल में शामिल हुए. रानीखेत कांग्रेस कमेटी का मंत्रिपद 1931 में संभाला. 1948 में वैद्यराज द्वारा अल्मोड़ा में अखिल भारतीय वैद्य सम्मलेन का आयोजन किया जिसमें पावर्त्य औषधि तंत्र पर विशेष उपलब्धि का उल्लेख करते हुए लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री अनंत शयनम अयंगर द्वारा वैद्यराज भोला दत्त पाण्डे को आयुर्वेद बृहस्पति का सम्मान और स्वर्णपदक से सम्मानित किया गया.
कुशल व जानकर वैद्य के साथ साथ भावप्रवण कवि के रूप में श्री राम दत्त पंत ‘कविराज ‘ का नाम उल्लेखनीय रहा. इनका जन्म रानीखेत में हुआ तथा इन्होने अपनी आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से प्राप्त की. आयुर्वेद के उच्च अध्ययन के लिए रामदत्तजी कलकत्ता गए. वहां से अनुभव प्राप्त कर वापस रानीखेत आए और कुशल वैद्य के रूप में अपनी धाक जमाई. उन्हें साहित्य के अध्ययन की अभिरुचि थी और उन्होंने विविध समसामयिक विषयों पर कविताओं की रचना की. उन्होंने अपना छापा खाना ‘ए. वी. प्रेस’ के नाम से खोला. रानीखेत में संपन्न सांस्कृतिक गतिविधियों में वह उत्साह से भाग ले कर युवा वर्ग के लिए प्रेरणा के स्त्रोत रहे.
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आयुर्वेद की महत्वपूर्ण विधा नाड़ी शास्त्र में अपनी कुशलता से वैद्यकी में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करने वाले वैद्यराज श्री मोती राम सनवाल थे. उनके बारे में यह प्रसिद्ध था की वह नाड़ी देख कर ही अनेक असाध्य बीमारियों का पता लगा लेते थे. इनका जन्म अल्मोड़ा में सन १९०१ में हुआ. इनके पिताजी का नाम श्री प्राणनाथ सनवाल था जो अपने समय के बेहतरीन व सिद्ध वैद्यों में एक रहे.अपने पिता जी से रस तंत्र सार के सूत्रों को प्राप्त करने के साथ ही श्री मोती राम जी ने हरिद्वार से भेषज सम्बन्धी परंपरागत ज्ञान का प्रशिक्षण प्राप्त किया. मंत्रोचार द्वाराकई प्रकार की शिथिलता दूर करने व दाँत दर्द को झाड़ने का उनको विशेषज्ञ माना जाता था. वह बहुत लोकप्रिय वैद्य रहे और पहाड़ के साथ ही मैदान में भी अपने मरीजों को देखने के लिए खूब भ्रमण करते रहे .वह यूनाइटेड प्रोविन्स के बोर्ड ऑफ़ इंडियन मेडिसिन्स, लखनऊ में पंजीकृत थे. मरीजों की व्याधि की सही पहचान के लिए जहां उन्होंने नाड़ी विज्ञान और मन्त्रोंपचार में दक्षता हासिल की. वहीं उपचार के लिए शुद्ध और ताजी जड़ी बूटियों की प्राप्ति के लिए वह इनके प्राप्ति स्त्रोतों तक स्वयं जाते और जड़ी बूटियों की मुख्य मंडियों से संपर्क बनाए रखते.
आयुर्वेदिक औषधियों का शास्त्रोक्त उत्पादन करने के लिए वह आयुर्वेदिक संहिताओं के साथ स्वानुभूत योगों का भी प्रयोग करते थे. अल्मोड़ा में उन्होंने त्रिपुरसुन्दरी देवी के पास जगदीश फार्मेसी खोली. जिन औषधियों का उन्होंने स्वयं उत्पादन किया उनमें ‘शिशु कल्याण बूटी’ अत्यंत प्रभावकारी व लोकप्रिय रही जो शिशुओं की सामान्य समस्त दुर्बलताओं का निवारण करती थी. पथरी और पीलिया के साथ त्वचा की बीमारियों व पथरी गलाने के उनके योग भी प्रभावकारी रहे. लूकोरिया और सुजाक उपदंश के लिए ‘ मूत्रकसंजतक’ एवं स्वप्नदोष व दुर्बलता के लिए ‘स्वप्नदोष हर बटी’ काफी लोकप्रिय व असरकारक रहीं. उनकी स्वनिर्मित औषधियों की गुणवत्ता को देखते हुए इन्हें सरकारी चिकित्सालयों में भी मंगाया जाता था.. वैद्य मोती राम सनवाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्हें अध्यापन कार्य अत्यंत प्रिय था जिसके लिए वह रामसे स्कूल अल्मोड़ा में अध्यापक भी रहे.पर वैद्यकी पेशे की व्यस्तता से इसे वह नियमित न कर पाए.सामाजिक कार्यों में संलग्न रहने की अपनी मनोवृति से उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कार्य किए तथा अल्मोड़ा नगरपालिका परिषद के सदस्य भी थे. सन 1993 में 92 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हुआ.
ताकुला,अल्मोड़ा में सन 1904 को जन्मे माधवानंद लोहनी तीव्र बुद्धि, अध्यवसाय व वनस्पति विज्ञान के प्रति अभिरुचि से कुशल एवं परोपकारी वैद्य रहे इन्होने आयुर्वेद की विधिवत शिक्षा राजकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय पीलीभीत से प्राप्त की. उन्होंने चौबीस वर्ष तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में नौकरी की जिससे त्यागपत्र दे अंततः उन्होंने 1954 में ‘माधव औषधालय’ हल्द्वानी में आरम्भ किया. आयुर्वेद शास्त्र के वह गहरे जानकार रहे व कई गंभीर व असाध्य बिमारियों में उनके द्वारा स्वयं की बनाई औषधि तुरंत फायदा पहुंचाती थीं.
वैद्यकी के साथ सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय व जागरूक रहे सेनानियों में आयुर्वेदाचार्य अनूप सिंह का नाम उल्लेखनीय रहा. अनूप सिंह जिला अल्मोड़ा में रानीखेत की गेवाड़ पट्टी में भटकोट गांव के निवासी थे. इन्होने अपनी मिलनसार प्रवृति व मृदु व्यवहार से समूची गेवाड़ घाटी में आयुर्वेद की प्रतिष्ठा और जड़ीबूटियों से स्वस्थ व सबल बने रहने की लहर फ़ैलाने में अपना अमूल्य योगदान दिया. अनूप सिंह के पिताजी भी वैद्य रहे. स्वाधीनता संग्राम में इन्होने विभिन्न आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की तथा बापू के आदर्शों पर चल ग्रामस्वराज्य के विचार को व्यावहारिक बनाने के लिए काफी प्रयास किये. सादगी भरा जीवन जीते हुए लोक हित से सम्बंधित अनेक कार्यों जैसे कि साफ़ सफाई, परिवार स्तर में स्वावलम्बन हेतु अन्न, साग-सब्जी, मसाले व दुग्ध उत्पादन पर जोर दिया. व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में संलग्न रहने पर इन्हें डेढ़ साल की कड़ी कैद की सजा हुई व तीन सौ रूपये का अर्थदंड भी सुनाया गया.स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने पर 1942 में वैद्य अनूप सिंह को सात साल के कठोर कारावास की सजा हुई साथ में पचास रुपये का अर्थ दंड भी लगा. उन्होंने स्वाभिमान वश अर्थ दंड नहीं दिया और देश के लिए एक और साल की सजा भुगती.वैद्य अनूप सिंह पूरी गेवाड़ घाटी में जन चेतना की लहर फैलाने में सफल रहे लोगों को उनकी दोटूक व स्पष्ट बात पसंद आती थी.
स्वाधीनता संग्राम में अपना सर्वस्व निछावर करने की भावना से ओतप्रोत व गाँधी जी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित बहुविध प्रतिभा के धनी वैद्य सीतावर पंत रहे. उनके सरल सहज प्रेम से भरे व्यवहार को आज भी नैनीताल और हल्द्वानी के उनके परिचित अपने दिल से लगाए हुए हैं. सीतावर पंत जी का जन्म अल्मोड़ा जिले के दन्या ग्राम में वर्ष 1900 में हुआ. उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से आयुर्वेदिक शास्त्राचार्य की उपाधि प्राप्त की. छात्र जीवन से ही वह अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत करने लगे और देश के मूर्धन्य नेताओं के विचारों को जान अपने स्तर पर खूब सक्रिय रहे. धीरे धीरे उनका एक सबल व्यक्तित्व बना. वह सुदर्शन व्यक्तित्व के लम्बे आकर्षक थे.उनकी उपस्थिति गरिमामय थी. स्वाधीनता संग्राम में उनकी सक्रिय हिस्सेदारी लगातार बढ़ती गयी. वह ब्रिटिश दमन के भुक्त भोगी रहे और अनेकों बार उन्हें जेल हुई. बाद में उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ली संयुक्त उत्तर प्रान्त में वह मूर्धन्य नेता पंडित गोविन्द बल्लभ पंत के निकट सानिध्य में रहे. स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत पंडित सीतावर पंत उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने. वह नैनीताल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अध्यक्ष रहे.
आयुर्वेदिक चिकित्सा में उनका योगदान समस्त क्षेत्र के लिए लोकहितकारी रहा. उन्हें प्रयोगों में रूचि थी. उन्होंने आयुर्वेद के विभिन्न पक्षों का अध्ययन बहुत गहनता से किया था. वह अनुपान भेद के आधार पर हर रोगी का नुस्खा स्वयं तैयार करते. परंपरागत विधियों में समयानुसार परिवर्तन एवं संशोधन करते हुए उन्होंने आसव, अरिष्ट, रस एवं भस्म निर्माण में कुशलता प्राप्त की. उनके आसव व अरिष्ट के साथ च्यवनप्राश बहुत लोकप्रिय भी हुए और बाजार की अपेक्षा इनका मूल्य भी कम होता था. सन 1925 में उन्होंने नैनीताल में तथा अगले ही वर्ष हल्द्वानी में कैलाश आयुर्वेदिक औषधालय खोला. रोग के लक्षण पहचानने की उनकी विशेषता व हर मरीज के लिए पृथक नुस्खे के संयोग से उनकी लोकप्रियता में वृद्धि होती रही. कैलाश आयुर्वेदिक फार्मेसी केवल आयुर्वेद की दुकान न थी यहाँ शहर के समृद्ध हों या सामान्य जन सामाजिक सरोकारों से जुड़ने का सन्देश व ऊर्जा भी पाते थे.
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बच्चों को भी यहाँ आना बहुत पसंद था क्योंकि यहाँ उनका मनपसंद अनारदाना चूर्ण मिलता था. पंडित सीतावर पंत जी की व्यस्तता में उनके सुपुत्र फार्मेसी के समस्त कार्यों को देखते थे. वह बहुत आशावादी सरल और कुशल व्यवहार के थे. उनके बैठे होने पर कभी फार्मेसी खाली नहीं रहती थी. कैलाश आयुर्वेदिक फार्मेसी में पंडित पीताम्बर पंत बहुमुखी प्रतिभा के बड़े ऊर्जावान पारखी वैद्य रहे. गंभीर स्थिति में वह शहर के किसी भी कोने में मरीज हो तुरंत पहुँच जाते. वह यहाँ के फॅमिली डॉक्टर होते और मरीज का पूरा इतिहास उन्हें याद होता. उनके आने से ही रोगी ठीक होने का अनुभव करता और बाकी रोग उन पुड़ियाओं और कागज का लेबल लगी भीतर रंगदार दवा भरी शीशियों से जिनका प्रयोग किया जाता. मरीज के घर से अगर कोई किशोर या बच्चा दवा लेने गया है तो उसे प्रेम से अनारदाना चूर्ण खिलाया जाता तो कभी चटपटी बटी. वैद्य पंडित पीताम्बर पंत अपने व्यवहार और ज्ञान से सबका दिल जीत लेते.
पंडित सीतावर पंत ने स्वानुभूत परीक्षण पर खरी उतरी औषधियों के नुस्खों को लिखित रूप से भी प्रस्तुत किया. उनके द्वारा लिखी गयी ‘समस्त रोग प्रमेह यमम’ पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें प्रमेह के लक्षणों को परंपरागत व प्रसिद्ध वैद्यों के सूक्तों व उनकी टीका के साथ वर्णित किया गया है. इसके दूसरे भाग में विभिन्न रोगों की विस्तृत चर्चा है. जिसमें मधुमेह, स्वप्नदोष सुजाक व गनोरिया जैसी बिमारियों पैर विवेचन है जिनके नाम से ही रोगी भयभीत हो जाते रहे. मूत्र परीक्षा एवं मूत्र रोगों के निदान पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है. पुस्तक के निष्कर्ष प्रमेह के निवारण से सम्बंधित हैं. जिनमें हिमालय में पायी जाने वाली भेषजों के संयोग से बनी औषधि के गुण धर्म विस्तार से बताये गए हैं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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