दिवाली में जिस धान्य का सबसे ज्यादा प्रयोग होता है वह है धान. धान को शुभ माना जाता है. देवता को अक्षत वारने से ले पिठ्या लगाने कलश स्थापन, भूमि पूजन, संकल्प पूजन में इसका प्रयोग होता है. अखंड दीप के नीचे धान का आधार बनाकर दिये का संतुलन बनाया जाता है.चावलों से ही देवता के ध्वज या निशान वारे पूजे जाते हैं, घर की देली भी चावल और इससे बनी खील से पूजी जाती है. खीले बड़े जरुरी हैं शादी ब्याह में भी वधू सूपे में रख खील वर्ती है तो दूल्हा दुल्हन दोनों के मस्तक और मुख के श्रृंगार में चावल के बिश्वार के कुरङुले अलंकृत किए जाते हैं.
(Diwali in Uttarakhand)
बिलकुल दूध के रंग का धान दूध धान कहलाता है इसका चावल भी बहुत सफ़ेद होता है. धान की वह किस्म जिसके ऊपरी हिस्से में कालापन होता है उसे ‘कलठुणीया’ कहा जाता है. लोगों के नाम और जाति विशेष को ले भी धान के नाम पड़े जैसे दफौट स्थान व दफौटी जाति के नाम पर ‘डफौट’, ब्राह्मण के नाम पर बामनी, सेणियों के प्रचलित नामों के आधार पर चम्पा, बसंती, पार्वती, शकुंतला, मोतिया तो मर्दों में धरि, धर्मानंद के नाम पर धरिधान, श्याम गिरि इत्यादि.
पकवान बनाने में साल के धान का कुटा चावल खास है. इसका धान सिंचाई वाली और गैर सिंचाई वाली दोनों जगहों में होता है जिसे पनगल और उनगल कहा जाता है. ये सोर में खूब बोया जाता है. इससे कई व्यंजन बनते हैं जिनमें सै और च्यूडे खास हैं.
सै चावल को भिगाने के बाद सिल बट्टे में दरदरा पीस कर थोड़ा गीला पीसा जाता है. फिर इसमें दही और गुड़ या शक्कर मिला कर थोड़ी देर रख देते हैं. जरा सौंफ और छोटी हरी इलायची के दाने मिलाते हैं. अब कढ़ाई में थोड़े घी के साथ इस गाढ़े घोल को मध्यम आंच में भूनते हैं. साल के चावल से पकवान बनाने में कम घी लगता है. हल्का तला लगते ही पलटा देते हैं जब तक बादामी रंगत न आ जाए. सै को पन्यु से लगातार चलाते हुए काटते रहते हैं ताकि ये भुरभुरा और दाने दार हो जाए. ठंडा होने पर इसमें बताशे का चूरा और हरी इलायची के दाने दरदरा कर डाल देते हैं. सै और सिंगल के साथ ही जमाल धान के चावल से च्यूड़ भी बहुत स्वाद बनते हैं. सिंगल और पुए बनाने में दौण भी मिलाते हैं जिनसे ये खस्ते कुरकुरे और स्वाद हो जाते हैं.
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पहाड़ में हर पर्व त्यौहार और उत्सव में पुए और सिंगल खास तौर से बनाये ही जाते हैं. दिवाली और बग्वाली में इनका खास महत्व है. ये थोड़ा बासी होने पर और स्वाद वाले हो जाते हैं. सिंगल के मिश्रण को बनाना और सिंगल को सही आकार दे कर तलना काफी अंदाज और अनुभव का काम है. इसका कच्चा माल चावल ही है. चावलों को धो कर सबसे पहले सुखा लिया जाता है. फिर थोड़ा मोटा पीस कर अंदाज से दही मिलाते हैं. सिंगल को लोचदार और नरम बनाने के लिए केले का गूदा भी मसल कर मिलाते हैं. इस हाथ में चिपकने वाले मिश्रण में दैण भी मिलाया जाता है जो एक विशेष पेड़ की भूरी रंग की छाल होती है.
खेतों में यहाँ वहां उगी मूसली की जैसी एक सफ़ेद जड़ी भी मिलाते हैं जिनसे स्वाद भी बढ़ता है और खस्ता कुरकुरापन भी आ जाता है. अब थोड़ा दूध अंदाजे से मिलाते हैं ताकि आसानी से हाथ से गोल आकार में फिसल सके. इस मिश्रण में स्वादानुसार चीनी पहले ही मिला ली जाती है. अब इस मिश्रण की काफी मात्रा को हथेली में भर एक समान मोटाई में मध्यम आंच पर चढ़ी घी या वनस्पति तेल की कढ़ाई में गोलाकार डालते हैं. कम से कम गोल आकार में दो मोड़ तो आने ही चहिये. सिंगल और पुआ दिवाली में खास तौर से बनाये जाते हैं. सिंगल-दही और पहाड़ी ककड़ी व राई वाले रायते का विशेष मेल है.
लोहाघाट में हर तीसरे माह में हो जाने वाला धान है बडपासो. इसे तिमासा कहते हैं. ये लाल रंग का धान है. इसे भून कर ओखल में कूट कर चूय्डे बनाये जाते हैं जो बड़े कुरमुरे होते हैं और जितना चबाओ उतना स्वाद देते हैं. जमाल धान के चावल से भी च्यूड़े बनाते हैं. लोहाघाट में ही पनगल का प्रसिद्ध धान है कत्यूर जिसका कुटा चावल पर्व त्योहारों में विशेष रूप से खाया जाता है. इसका भात मीठा और खाने में गुलगुला खूब स्वाद वाला होता है. जब कत्यूर धान की बाली पकती है तब भी इसकी खुशबू फैलती है.
ऐसे ही गंगोलीहाट के पाताल भुवनेश्वर इलाके में उपरांऊ इलाकों में चमयाड़ धान होता है जिसका चावल लाल होता है. इसका भात भी थोड़ा गीला और खूब स्वाद होता है.ऐसे ही धान की इक किस्म लाल नौल है इसका चावल भी लाली लिए होता है. बैजनाथ इलाके में इसे ‘लाल नौलि’कहा गया. इसका तना भी लाल होता है. अल्मोड़ा के सुनौला मटेला में इसके बोये जाने की परंपरा रही. थापचिनी भी पूरे कुमाऊं में होता रहा. इसका चावल कूटने में टूटता ज्यादा है पर पकाने में फूलता ज्यादा है.बलुआकोट धारचूला के इलाके में छोटी छोटी क्यारियों में च्यूड़े और सिरोले बनाने के लिए विशेष किस्म का धान उगाया जाता रहा जिसे च्यूड़ा धान कहा गया.
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बिना सुखाये हुए ताजे धान या पानी में भिगाये धानों को भून कर और गरम गरम ही ऊखल में कूट कर च्यूड बग्वाली या भैयादूज के लिए जरूर ही बनाये जाते हैं जिन्हें शुभ आशीष के साथ सर पर च्यांपा जाता व वारा जाता है.ऊखल में कूटने के बाद सूपे में फटका के धान की भूसी निकल जाती है और लाल भूरे रंग के चपटे च्यूड़ साफ हो जाते हैं. च्यूडों को जितना चबाओ उतने स्वाद लगते हैं. तिल और अखरोट के साथ इनका मेल बहुत स्वाद और पुष्टिकारक होता है. कच्चे धानों को भारी तले की कढ़ाई में अच्छी तरह भूनने के बाद ठंडा हो जाने पर ऊखल में कूट कर सूपे से साफ सूफ कर लेते हैं तब इन्हें सिरौल कहते हैं. ये भी साबुत ही खूब चबा के खाये जाते हैं.
खास किस्म के सूखे हुए धान जिन्हें जमाई धान कहा जाता है को भून कर खील बनाई जाती है जिन्हें महालक्ष्मी के दिन बताशे, खिलोने और मिठाई के साथ देवी को अर्पित करते हैं. ताजे गन्ने से लक्ष्मी की अनुकृति बनाई जाती है.
महालक्ष्मी के दिन तक घरों को लीप पोत साफ सुथरा कर लिया जाता है. गोबर और चिकनी पीली मिट्टी से घर आँगन के फर्श की लिपाई होती रही है. दीवारों की पुताई के लिए कमेट और खड़िया का उपयोग होता रहा है. घर की देली व घर में मंदिर के कमरे के फर्श में विशेष रूप से गेरू पोत कर उसमें चावल के बिश्वार से हाथ से ऐपण दिये जाते हैं. ऐपण घर के दरवाजे से ले कर हर कमरे गोठ भकार भंडार रसोई आदि सभी जगह दिए जाते हैं.सभी इच्छित स्थानों में लीपे गेरू के सूख जाने पर दोनों हाथों की मुट्ठी बंद कर नीचे वाले भाग को बिस्वार के घोल में डुबा जमीन में गेरू के ऊपर टेक देते हैं फिर इसमें पांचो उँगलियों के चिन्ह की ठुपुक लगा दी जाती है.दाएं और बाएँ दोनों हाथों से बने पौ के बीच बिस्वार के घोल से गोल रुपये सा वृत्त बना देते हैं. बाहर से भीतर तक बिस्वार से बनाये गए ये पौ घर के भीतर प्रवेश कर रही लक्ष्मी के द्योतक होते हैं.
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यह विश्वास होता है कि महालक्ष्मी इन ऐपणों में उकेरे पौ के रस्ते ही घर में प्रवेश करती है. ऐपण घर आँगन के साथ देवता की ठया, भंडार, तिजोरी, अलमारी, बक्से में दिए जाते हैं. इन स्थानों में तेल के दिए व मोम बत्ती भी संध्या काल में पूजा के मुहूर्त समय में जलाई जातीं हैं. महालक्ष्मी की पूजा में में पुराने कलदार चांदी के सिक्के, विक्टोरिया वाले चांदी के रुपये भी रखे जाते हैं.
प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा होती है जिसमें चकमक वाले सफ़ेद पत्थर पर गोबर का अलंकरण कर गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बना श्री कृष्ण द्वारा गोवर्धन को उठा लिए जाने के प्रतीक की स्मृति की जाती है. त्यौहार वाले दिन दाल -भात, पूरी -रायता साग खीर बनते हैं. गोबर्धन के दिन पशुधन की पूजा होती है. उन्हें नेहला धुला कर, मालिश कर टीका लगाते हैं. उनके गोठ में धूप दीप जलाते हैं.. फूल माला चढ़ाते हैं. घर में पाले पशुओं के बदन में चावल के बिश्वार से गोल गोल ठप्पे लगाते हैं. बैलों के सींगो में तेल चुपड़ा जाता है. साथ ही उनके सींगो में रंग बिरंगे नए फुनगे लटकाये जाते हैं.गले में गोल दानों वाली माला पहनाई जाती है, नई पीतल ताँबे वाली टुनटुन करती घंटी भी.
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फिर आती है बग्वाली. ये यम द्वितीया है.मान्यता है कि यमराज भी इस दिन अपनी बहन यमुना के यहाँ टीका लगाने आए थे. यमुना ने अपने भाई का स्वागत किया पूजा की और गन्धाक्षत किया. यमराज अपनी बहिन के सेवा सत्कार से बहुत खुश हुए और वर मांगने को कहा. यमुना ने कहा की अब से प्रत्येक वर्ष यम द्वितीया भाई -बहिन के प्रेम के पर्व के रूप में मनाई जाए. तभी से भाई अपनी बहिनों के घर जाते हैं. बहिनें उनका आदर सत्कार कर पिठ्या अक्षत लगातीं, सुस्वादु भोजन करातीं हैं. भाई उन्हें भेंट स्वरूप वस्त्र व धन भेंट करते हैं.
इस दिन च्यूड़ों का विशेष महत्व है. बालिकाएं कन्याएँ दूब से तेल लगा पिठ्या अक्षत लगा अपने परिवारजनों सम्बन्धियों व सभी के सिरों को च्यूड़ों से पूजतीं हैं. मस्तक से ले कर नीचे चरण तक दोनों हाथ की उँगलियों में च्यूड़े ले वारे जाते हैं. सर पर च्यूड़े रखने को च्यूड़े चांपना कहा जाता है. सभी बड़ों के पिठ्या अक्षत कर च्यूड़े धरने के बाद कन्याओं को दक्षिणा मिलती है. यम द्वितीया के सायंकाल चन्द्रमा के दर्शन कर उस पर च्यूड़े चढ़ा उसकी आरती उतारी जाती है. बग्वाली के दिन घर के सभी सदस्यों को च्यूड़े चढ़ाए जाते. बुजुर्गों के द्वारा आशीर्वाद दिया जाता है, ‘जी रये, जागी रये, यो दिना, यो मास भेटनें रये.’
मिट्टी के दीयों को संध्या काल में जलाने का क्रम हरिबोधिनी एकादशी तक चलता है. एकादशी के दिन घर द्वार के ऊपर या अगल बगल लक्ष्मी नारायण के चित्र बनाये जाते हैं. दिन भर इस दिन उपवास रखा जाता है. घर के मुख्य स्थानों और पूजा घर में पौ दिए जाते हैं. गढ़वाल में कार्तिक पूर्णिमा को गंगा जी व जमुना जी में स्नान होता है. उत्तरकाशी, टिहरी और देवप्रयाग में संगम पर स्नान एवं पूजन किया जाता है. सुदूरवर्ती गाँव में दीपावली में ग्रामवासी लकड़ियों का बंडल बना उसे बेल में बांध फिर जला कर घुमाते हैं. इसे ‘भैला’ कहा जाता है. साथ ही ढोल के साथ नृत्य किया जाता है. अगले दिन बैल या ‘बलिराज’ की पूजा की जाती है और इस दिन उसे खेत में जोता नहीं जाता. टिहरी गढ़वाल की धनोल्टी तहसील और उत्तरकाशी के कुछ गावों के साथ रवाईं जौनपुर में मार्गशीर्ष में दीपावली मनाई जाती है. तब शरद ऋतु या ह्यूंद के लिए कौणी, झिंगोरा, चिणा, कोदा, लाल धान आदि की कटाई सफाई कर ली जाती है तथा घरेलू पशुओं के लिए पर्याप्त घास के लूटे लगा लिए जाते हैं. मार्गशीर्ष की दिवाली में नृत्य व सामूहिक गान की परिपाटी है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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