शिब जू का प्यारा महीना हुआ सावन और इसी सावन की पून्यूं यानि पूर्णिमा के दिन पहाड़ में मनाई जाती है, ” जन्यो पून्यूं”. इस दिन नई जनेऊ धारण की जाती है. जनेऊ बनाने और पहिनने के पूरे नियम हैं, विधान हैं. पहले के ज़माने में जो ऋषि मुनि यानि ज्ञानी-ध्यानी होते थे वह आम और खास तक अपने उपदेशों को पहुँचाने की पूर्णाहुति के लिए सावन की पूर्णिमा का दिन ही चुनते थे. साथ ही अपने जजमानों के साथ असरदार लोगों जैसे कि ठुल सैब,राज सैब के हाथों में रक्षा सूत्र बांधते थे.
(Jnyo Punyu Rakshabandhan Tradition Uttarakhand)
अब मान्यता हुई कि रक्षासूत्र के बाँधने से तीनों देव अर्थात त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ तीनों देवियां सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती प्रसन्न होती हैं. सुपात्र पर कृपा बरसातीं हैं. कहा गया कि ब्रह्मा जी के वरद हस्त से मिलती है कीर्ति तो विष्णु भगवान हर संकट से बचाते हैं, रक्षा करते हैं.शिव जी तो हुए भोले भंडारी जो संसार के तमाम दुर्गुणों से बचाने में सक्षम हैं. त्रिदेवियों में सरस्वती माता प्रदान करतीं हैं बुद्धि तो लक्ष्मी मां संपत्ति व धन तथा दुर्गा माता देतीं हैं शक्ति, साहस और बल.
रक्षा सूत्र बंधन के इसी मुहूर्त में ऋषि तर्पण भी संपन्न किया जाता है. बस भद्रा दोष नहीं होना चाहिए. परिकल्पना है कि जब कर्क, सिँह, कुम्भ और मीन राशि के चन्द्रमा में भद्रा हो तो इसका निवास मनुष्य लोक में होता है. इसका परिहार किया जाता है. शनिवार की भद्रा को “वृश्चिकी भद्रा” कहा जाता है. यह सबसे अधिक कष्टकारी व अशुभ मानी जाती है. ऐसे ही कन्या, तुला धनु एवं मकर राशि के चन्द्रमा में भद्रा का निवास पाताल में माना जाता है. मात्र मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक राशि के चंद्र में भद्रा का निवास स्वर्ग में परिकल्पित किया जाता है.
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रक्षा सूत्र का धारण भद्रा से मुक्त मुहूर्त में करते हैं. इसका उद्देश्य अपने विकारों के निवारण तथा दिन प्रतिदिन के कार्य व्यवहार में श्रेष्टता प्राप्त करने का होता है. इसे “नारियल पूर्णिमा” या “श्रावणी” भी कहते हैं. महाराष्ट्र में श्रावणी को नदी या समुद्र तट पर जा जनेऊ या यज्ञोपवीत बदला जाता है. साथ ही देवी लक्ष्मी के पिता समुद्र की पूजा अर्चना की जाती है.कहा जाता है कि देव और दानवों के मध्य हुए भीषण युद्ध में जब देवताओं का मनोबल गिरने लगा तब मार्गदर्शन के लिए वह इन्द्र देव के पास पहुंचे. उनकी भयभीत दशा देख कर देवराज की पत्नी इन्द्राणी ने उन्हें ऊर्जामय बनाने व बल का संचार करने के लिए सबको रक्षा सूत्र बांध दिया.
कथा है कि राजा बलि के अति आत्म विश्वास व अभिमान की परीक्षा श्रावण पूर्णिमा के ही दिन विष्णु भगवान ने वामन अवतार ले कर की. तभी ब्राह्मण अपने जजमानों को रक्षा सूत्र पहनाते इस मंत्र को पढ़ते हैं:
‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महा बलः
तेन त्वामनु बन्धामि मा चल मा चल.’
बच्चों के हाथ में रक्षा सूत्र बांधते निम्न मंत्र पढ़ा जाता है :
‘यावत गंगा कुरुक्षेत्रे यावततिष्ठति मेदिनी,
यावत राम कथा लोके,
तावत जीवेद बालकः / बालिकाः’
पहाड़ में श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा ‘उपकर्म’ व ‘रक्षासूत्र’ बंधन का पर्व व त्यौहार है. द्विज वर्ग उपवास रखते हैं और स्थानीय जल स्त्रोत, नौले, नदियों के संगम या नदी में वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ स्नान करते हैं. गाँव में किसी शिव मंदिर देवालय या प्रबंध करने में सक्षम व्यक्ति के घर में लोग इकठ्ठा होते हैं और ऋषि तर्पण किया जाता है. पितृ तर्पण व अन्य अनुष्ठान भी किए जाते हैं. वेद मन्त्रों का सस्वर पाठ होता है. सभी जगह से आई जनेऊ व रक्षा धागों की प्रतिष्ठा की जाती है. स्नान ध्यान व प्रतिष्ठा के उपरांत उचित मुहूर्त में जनेऊ बदली जाती है. साल भर के उपयोग के लिए यज्ञोपवीतों को मंत्र प्रतिष्ठित कर संभाल दिया जाता है. गाँव में पंडित, पुरोहित गुरू व परिवार के बड़े बूढ़े द्वारा कलावा बांधा जाता है. बहनों द्वारा भाई के हाथ में राखी के धागे बांधे जाते हैं. पंडित लोग अपने अपने यजमानों के घर जा उन्हें जनेऊ देते व रक्षा सूत्र बांधते हैं.
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जनेऊ संस्कार “व्रत बंध” है जिसका निहितार्थ है, स्वयं को एक संकल्प में बांधना. बालक को गुरू के पास ले जाने की क्रिया इसी उपनयन संस्कार में निहित रही अर्थात,’उप नाम समीप नयन ‘.सामान्य लिखने पढ़ने की अवस्था के बाद बालक ज्ञानार्जन हेतु सुयोग्य बने तब उसका उपनयन संस्कार किया जाता है.
संकल्पना यह रही कि इस कर्म से उसका व्यवहार संयमित हो, वह स्वाध्याय में समर्थ रहे. बालक की वय ग्यारह या बारह वर्ष की होने पर इसे संपन्न कराते हैं. उपनयन संस्कार में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी जाती है. संस्कार में अक्षत , पिठ्या, रोली, चन्दन, दूब, कुश, पीली सरसों, पान-सुपारी, फल मिठाई, धूप-अगरबत्ती, पंचमेवा, दूध, दही, घी, कपास का सूत, रुई, , दूब, जौ – तिल, हवन सामग्री, समिधा, गन्ना, पय्याँ, फूल, माउ के पत्ते, तिमिल के पात का विधिवत प्रयोग होता है.
ये मान्यता प्रभावी रही कि, जिससे शरीरादि सुशोभित हों उन्हें एवम अन्य गुणों को धारण करना संस्कार है. इनसे शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होती है. “पुरुषार्थ -चतुष्ट्य” अर्थात धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष कि प्राप्ति होती है. कहा गया कि जन्मजात तो सभी शूद्र पैदा होते हैं, ‘जन्मना जायते शूद्रः’. ये तो संस्कार हैं जो मानव को द्विज कहलाने का पात्र बनाते है. इनमें यज्ञोपवीत संस्कार ही द्विज के रूप में रूपांतरित करने में सक्षम व समर्थ है. “व्रत बंध” में ही बटुक पहली बार जनेऊ धारण करता है. हर वर्ष रक्षा बंधन उपाकर्म पर सामवेदियों को छोड़ कर पुरानी जनेऊ प्रवाहित कर नई जनेऊ धारण की जाती है. पुरानी जनेऊ उतारने में निम्न श्लोक उच्चारित किया जाता है :
“एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वम् धारितं मया
जीर्ण त्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुख”.
नई जनेऊ धारण करने पर लिपटी हुई जनेऊ को सावधानी से खोल कर बाएँ कंधे पर दाहिनी भुजा के नीचे निम्न श्लोक के उच्चारण के साथ धारण किया जाता है :
“यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेयर्तत्सहजं पुरस्तात
आयुष्यमग्र प्रतिमुञ्च शुभ्रम यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः”.
यज्ञोपवीत धारण कर ग्यारह आवृति गायत्री मंत्र का विधान है. जनेऊ को बनाने की विस्तृत विधि है. इसके बड़े जतन हैं नियम हैं. सबसे पहले कपास को तीन दिन धूप में सुखा रुई निकाल उसे साफ किया जाता था. फिर बनती थी रूई की पोनी जिसे तकुए पे काता जाता. इसके लिए घुटना करीब नब्बे डिग्री में मोड़ दायीं जाँघ को ऊपर उठाते उस पर तकली या तकुआ घुमाते और बाएँ हाथ पर रुई की डोर हवा में ऊपर उठाये पंडित जू धागा बनाते दिख जाते. अब जो ये धागा तैयार होता इसे जनेऊ की नाप में लेते.तीन सूत्रों को साथ ले हथेली खोल कर चार उँगलियों पर पूरे छियानब्बे बार लपेट देते.इस छियानब्बे की संख्या में बत्तीस तो हुईं विद्याएं, जिनमें चार हुए वेद, फिर चार उपवेद, छः अंग, छः दर्शन, तीन सूत्र ग्रन्थ और नौ हुए अरण्यक. बाकी चौसंठ हुईं कलाएं जिनमें ललित कलाएं हैं, जीवनउपयोगी कलाएं हैं और वास्तु निर्माण भी. तीन सूत्रों में जो सूत्र बंटा होता उसे ले जमीन में बैठ कर अपने पैरों के आसन फैला दोनों मुड़े हुए घुटनों में लपेट कर तीन सामान हिस्सों में बांटा जाता है. अब सूत्र के दोनों सिरों में पांच ग्रंथियां दी जाती हैं जिसमें पहली ग्रंथि ब्रह्मा जी की प्रतीक तो शेष चार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का बोध करातीं हैं. समग्रता में इन्हें पञ्च कर्मों, पञ्च महाभूतों, पञ्च यज्ञों एवं पञ्च ज्ञानेन्द्रियों का भी सूचक माना जाता है.
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इस प्रकार पहले तीन सूत्रों का जनेऊ तैयार होता है. इसे व्यापक प्रतीकों का आधार दिया गया है. सर्वप्रथम ब्रह्मा, विष्णु व महेश, दूसरा तीन प्रकार के ऋण अर्थात देवऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण, तीसरा शक्तियां यथा आदि दैविक, आदि भौतिक एवं आध्यात्मिक, चौथा तीन गुण, सतोगुण, रजोगुण एवम तमोगुण, पांचवां गायत्री के तीन चरणों व जीवन की तीन अवस्थाओं यानि ब्रम्हचर्य, गृहस्थ व वानप्रस्थ का प्रतीक माना जाता है. सन्यास लेने पर जनेऊ उतारने की परिपाटी बनी.
जनेऊ के तीन सूत्रों को मोड़ कर अंगूठे व कनिष्टिका के मध्य मोड़ लघु आकार दे हल्दी से रंग देते हैं. जनेऊ को बनाते तीन सूत्रों को एक जोड़ा बनता है जब दोनों को जोड़ दें तब यह छः सूत्र की बन जाती है. ऐसे में एक सूत्र में तीन धागे मिल कर अट्ठारह सूत्रों का जनेऊ छः सूत्रों का बन जाता है. छः सूत्रों में तीन सूत्र स्वयं के तथा तीन अर्धांगिनी के निमित्त होते हैं.जन्म मरण, अशौच व मृत शरीर को स्पर्श करने में जनेऊ बदलने का नियम है. अब मर्यादा मान्यता का विधान तो ये भी रहा कि जनेऊ बनाने वाला तीन दिन पूर्व से ब्रह्मचर्य का पालन करे. एका समय आहार, फलाहार ग्रहण करे और कपास को कातने से ग्रंथि डालने तक गायत्री मंत्र का उच्चारण करे.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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