उत्तराखंड में होने वाली दालों में खरीफ में भट्ट, मास या उड़द, राजमा या फ्रासबीन,गहत, गरूँस, रेंस, मटर व बाकुला मुख्य हैं. इनमें बाकुले की सब्जी पेट के लिए अच्छी मानी जाती, इसके गूदे सुखा के अन्य दालों में भी डाले जाते. Pulses in Uttarakhand
रेंस की भी मिक्स दाल बनती. गरूँस की तासीर गरम होती. गहत भी जाड़ों के लिए सबसे ज्यादा गरम मानी जाती. इसे नियमित लेने पर पथरी भी गलती व मूत्र रोगों की झसक नहीं होती. भूरी काली रंग वाली गहत सबसे स्वाद होती. इसमें गंडेरी या गेठी मिला कर स्वाद गजब हो जाता व दाल का छरछरापन भी ख़तम हो जाता. घी से जम्बू गंद्रेणी का छौंक भी दिया जाता.
ऐसे ही भट्ट की महिमा तो अपार ही हुई. इसे भून के भी चबाते. कहा गया, ‘भट्ट भुटी चट्ट.’ तो लोहे की कढ़ाई में धीमी आंच पे इन्हें भून के चटचटाने पे थोड़ा आटा दाल फिर खूब पका पहाड़ की बड़ी फेमस रेसेपी तैयार होती जो चुड़कानी हुई.
जानकार इसमें मडुए का आटा डाल कर भी बनाते और थोड़े तिमुर के बीज भी पड़ते. लाल साबुत खुस्याणी भी. अमख्वैङ और चूक की चटनी और गरमागरम गीला भात इसके असली दगड़िया होते.
भट्ट भिगा कर सिल में पीस डुबके और जौला भी बनते. पिनालू के कोमल पात और डंठल के भीतर के गूदे में पिसे भट्ट मिला पपटोल बनाये जाते तो गड़ेरी के साथ गहत के भी बनते.
राजमा भी पहाड़ में अलग-अलग रंग व स्वाद वाली होती जो जल्दी ही गल भी जाती. मुनस्यारी की राजमा चितकबरी होती तो धारचूला की लाल रंगवाली जो पकाने में खूब लाली छोड़ती.
कुमाऊं गढ़वाल के हर पहाड़ी इलाके की सीमी अलग-अलग होती स्वाद में. उत्तरकाशी जौनसार में चट्ट सुफेद मखनी राजमा उगती जो लोग हाथों-हाथ लेते पर जरा मुश्किल से ही बाजार में मिल पाती.
ऐसे ही राजमा की दगडुआ पर कई कई रंगों वाली और चितकबरी छोटी बड़ी ‘नौ रतनिया’ भी सुवाद में अलग ही होती. बहुत मसालों का ढेर मिलाये बिना ये खूब ताकत भी देतीं और भात के साथ सपोड़ने में खूब खायी जातीं.
यमुना -टोंस उपत्यका की सीमी भी खूब प्रसिद्ध हुई. इस इलाके में सुबह नकूल या नाश्ता किया जाता जिसमें रात के बचे खाने का भी प्रयोग होता. उबले गहत को पीस कर उनसे भरी रोटी, कच्चे आलुओं को कूट कर उनकी थेचवाणी और कोदों की रोटी बहुत ही स्वाद बनती.
मक्के को गीला पीस भी रोटी बनती जिसके गीले घोल को तवे पर फैलाया जाता, मंद आंच पे सेका जाता. तो इसके आटे की कड़क रोटी भी बनती. जौनसार के बड़े बुजुर्ग बताते कि मक्की की रोटी- पंचगांई में फांफरा, चांवरी और ओंगल जैसे जंगली अन्न पीस पास कर भी रोटी बनती थी.
रंवाई में जौ और कोदो को भिगा जब उनके अंकुर निकाल जाते तो उन्हें मिला-घोंट पीस लेते. फिर उसमें कई दिनों की बासी रोटी भी चूर-चार कर मिला देते. तीम की जड़ी भी मिलाते. अब ये सारा माल एक मिट्टी के घड़े में डाल देते. कुछ दिन पसीजने देते. फिर इसे आसवानी में डाल बून्द बून्द आसव चूआ लेते. ये बड़ा जबरदस्त हेल्थ टॉनिक कहलाता. सुबे-सुबे भी पी लिया जाता. अब बड़े बुजुर्गों से बस हमने तो सुना. चखने छकने की किस्मत भी तो चाहिए. Pulses in Uttarakhand
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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3 Comments
Pankaj sanwal
बड़े ही अच्छे आर्टिकल प्रकाशित हो रहे हैं काफल ट्री में , धन्यवाद काफल ट्री का ।
Kailash singh garia
काफल ट्री,,,हम उत्तराखण्डियों के पुराने समय की ज्ञानवान आमा की मानिन्द है,जहां से काफी हद तक हमारी ज्ञान पिपासा को सन्तुष्टि की खुराक मिलते रहती है,,
थैंक्यू soooo much
भूपेन्द्र सिंह रावत
पहाड़ की ललक लिए सा आता है हमारे लिए “कांफलट्री” का हरेक आलेख ।