3 ईडियट्स (Three Idiots) निर्देशक: राजू हिरानी (Raju Hirani)
गंभीर मुद्दों को हल्के-फुल्के अंदाज में कहने और सेल्यूलाइड स्क्रीन पर उतारने में, राजू हिरानी माहिर सिनेकार हैं. जैसे-जैसे ऑडियंस-क्लास बढ़ता जाता है, वे उनकी फिल्मों से उतना ही अधिक आनंद रस खींच लेते हैं. अन्यथा, शेष के लिए विशुद्ध मनोरंजन तो रहता ही है.
फिल्म यांत्रिक ढंग के शिक्षा-तंत्र और शिक्षण-पद्धति पर गंभीर सवाल खड़े करती है. डायरेक्टर वीरू सहस्रबुद्धे (वायरस) प्रोफेसर्स, लाइब्रेरियन के मार्फत रैंचो, प्रचलित शिक्षा-पद्धति पर गहरे सवाल खड़े करता है. ‘लाइफ इज ए रेस,’ ‘जिंदगी एक जंग है’ जैसे मुहावरों को वह निरंतर खारिज करता चला जाता है…
फिल्म उसके बहाने शिक्षा के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण को सामने लाती हैं, विसंगतियों को कायदे से उठाती है. परीक्षा के नतीजों में अच्छे ग्रेड्स, बेहतर मार्क्स पाने की गला काट स्पर्धा, उसे हार-जीत की तरह लेने, करियर बनाने का दमघोंटू माहौल जैसे मुद्दों पर फिल्म गंभीर सवाल खड़े करती है. अभिभावकों, संस्थानों का बेतहाशा दबाव, बच्चों को आत्मघाती कदम उठाने को विवश करता जा रहा है. नतीजों के सीजन में इस तरह की खबरों से अखबार अटे पड़े रहते हैं. अच्छे-खासे लड़कों का जीवन नष्ट हो जाता है. फिल्म में जॉय लोबो, डाइरेक्टर का स्वयं का बेटा इसी रेस की भेंट चढ़ जाते हैं. यहाँ तक कि राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) भी डीन के दफ्तर से ‘हाई जंप’ लगाकर आत्मघाती प्रयास करता है. अधिक अंक लाना, उपाधि हासिल करना, गार्जियंस के मनमाफिक नौकरी की खातिर बेमन से कोर्स में दाखिला लेना, अभिभावकों का पाल्यों के ऊपर कुछ विशेष हासिल करने का दबाव, फिल्म की केंद्रीय विषय वस्तु है. जिसे समाज में योग्यता साबित करने का पैमाना मान लिया जाता है. गार्जियंस, ज़िद में देखे गए सपनों को साकार करने का जरिया बच्चों को बनाते हैं, ऐसे सपने, जिन्हें वे खुद पूरा नहीं कर पाए. बच्चे की इच्छा-अनिच्छा के बावजूद उसे जोते रखते हैं. ये बातें फिल्म में उपदेशात्मक अथवा आख्यानपरक तरीके से नहीं, वरन रोचक और मनोरंजक घटनाओं के साथ आई हैं. नई पीढ़ी के मुहावरे के साथ आई हैं, वो भी वचन वक्रता और व्यंजना के साथ. फिल्म सार्थक हैं, और उद्देश्यपरक भी. फिल्म का मोटामोटी संदेश यह है कि, ‘काबिल बनो, चाहे फील्ड कोई भी हो.’ इसी मुद्दे को फिल्म में गंभीर और सर्वांग तरीके से पेश किया गया है. विसंगतियों, गैप्स को पहचानकर विषय को खूबसूरती से परोसा गया है. कुछ चरित्रों का मर-मरकर पढ़ना, मजबूरी में पढ़ना, विवश होकर अनिच्छा से गार्जियंस के दबाव के चलते पढ़ना, ऊपर से प्रिंसिपल और फैकल्टी का दबाव, जबकि वे मन से करना कुछ और चाहते हैं.
उधर कॉलेज डायरेक्टर वायरस (बोमन ईरानी) ‘द मोस्ट कंपीटेंट मैन’ है. उसे किसी को भी अपने से आगे निकलना बरदाश्त नहीं. नंबर वन होना उसका लक्ष्य रहता है, और आदर्श भी. अपनी इस उपलब्धि पर वह मुग्ध सा रहता है. वह बेहद सख्त आदमी है, इसलिए स्टूडेंट्स उससे घबराए से रहते हैं. डरते हैं, हरदम अनिष्ट सोचते हैं. चिंतित और अशांत बने रहते हैं. वह प्रतिवर्ष अंडे लेकर फर्स्ट ईयर के लड़कों को जीवन-स्पर्धा का लाइव डेमो देता है, “तेज नहीं चलोगे, तो कोई तुम्हें कुचलकर आगे निकल जाएगा.”
वह धक्का मारकर गिराने को कंपटीशन कहता है.
‘सिंबल ऑफ एक्सीलेंस’ के तौर पर छात्रों को एक नायाब पेन दिखाता है. अनुशासन के नाम पर वह एक नितांत दुराग्रही व्यक्ति दिखाया गया है.
फिल्म में रैंचो के माध्यम से एक खूबसूरत सा जीवन-दर्शन पेश किया गया है, “कामयाबी के पीछे भागने की जरूरत नहीं. काबिल बनो. कामयाबी झख मारकर आपके पीछे आएगी.” रैंचो, चल रही व्यवस्था को यथास्थिति के साथ स्वीकार नहीं करता. वह डिग्री और ज्ञान में फर्क समझता है और अपने दोस्तों को भी समझाने की कोशिश करता है. चतुर के माध्यम से रटंत विद्या के नफा-नुकसान गिनाए गए हैं. विशेष रूप से भाषण में कुछ शब्दों को बदल देने वाले दृश्य में. क्लास में मशीन की डेफिनेशन के बाद, रैंचो ‘बुक’ की डेफिनेशन बताकर फैकल्टी और स्टूडेंट्स को चौका देता है. रैंचो, रट्टू तोता बनने के स्थान पर, जिज्ञासा के शमन पर अधिक बल देता है. परीक्षा हॉल में आधा घंटा देर से पहुँचने पर, जब वे एग्जामिनर से एक्स्ट्रा टाइम की माँग करते हैं, तो चतुर एग्जामिनर से उनकी शिकायत करता है, समय पूरा होने के बावजूद वे अभी भी लिख रहे हैं. रेस में सेकंड आने वाले व्यक्ति की ईर्ष्या-भावना को ओमी वैद्य ने बेहद खूबसूरती से अभिनीत किया.
आंसर शीट्स को मिक्स करके भागने वाला दृश्य काफी मजेदार है. ‘इंडक्शन मोटर कैसे स्टार्ट होती है’ पर राजू रस्तोगी का जवाब, दर्शकों को लहालोट करने पर मजबूर कर जाता है.
यह फिल्म अनंत अपेक्षाओं के बोझ तले दबे नौजवानों को एक नया विकल्प देती है. रैंचो, प्रचलित व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है. वह फरहान और राजू को डिग्री और ज्ञान में फर्क बताता है. प्रश्न उठाता है. प्रचलित तौर- तरीकों को चुनौती देता है.
इंजीनियरिंग कॉलेज कथा स्थल है. कैंपस लाइफ है, तो जाहिर है उधमबाजी भी होगी ही. करारी शरारतें, मजाक, कहकहे और ठहाके भरपूर मात्रा में हैं. बिन बुलाये शादी में शामिल होने का शौक भी. यहाँ तक कि पिया की शादी के मौके पर फरहान, राजू से कहता है,” जब-जब वायरस की बेटियों की शादी होती है, हम बैंड बजाने पहुँच जाते हैं.”
सुहास के बारे में रेंचो की डीप ऑब्जर्वेशन से पिया प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाती. वह ‘चटनी डेमो’ से सुहास का आंतरिक व्यक्तित्व पिया के सामने उजागर कर देता है, तो मनाली में जब पिया को यह यकीन हो जाता है कि, सुहास काफी बदल गया है, तो वहाँ पर राजू, प्राइस टैग को उखाड़ने का काम करता है.
इसी आजादखयाली के चलते वे प्रिंसिपल सहस्रबुद्धे (वायरस) की आँखों में खटक जाते हैं.
दोनों परिवारों का परिचय उस समय दिखाया जाता है, जब उन्हें डायरेक्टर का नोटिस मिलता है. प्रिंसिपल, उन्हें संगति-दोष समझाता है. उसके रूम पार्टनर्स के पेरेंट्स को सचेत करता हैं कि, वे रेंचो की सोहबत से अलग हो जाएँ. अगर आपको अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है, तो उन्हें उसकी संगत से दूर रखें.
उधर रैंचो, मानवीय मूल्यों को आखिर तक बाँधे रखता है. वह फरहान की वाइल्डलाइफ पर लिखी सारी किताबें पढ़ता है, तो राजू के ब्लॉग्स भी. आखिर ये सब उसके दोस्तों की उपलब्धियाँ है. भौतिक रूप से अलगाव होने के बावजूद, वह निरंतर उनके विचारों के संपर्क में बना रहता है. वह मिलीमीटर की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करता है, तो पिया के चुराये गए हेलमेट को, स्मृति-चिन्ह के रूप में संजोकर रखता है.
फिल्म में फरहान के परिवार की कथा है. मध्यवर्गीय पिता हिटलर कुरैशी (परीक्षित साहनी) की सारी उम्मीदें फरहान पर टिकी हैं. वे उसको सहूलियत देने के लिए अपना सर्वस्व झोंक देते हैं, तो राजू के परिवार की कथा भी कम रोचक नहीं. आर्थिक रूप से कमजोर परिवार, लकवाग्रस्त पिता, रिटायर्ड माँ, एक विवाह योग्य बहन. राजू के परिवार को ब्लैक एंड व्हाइट धज में दिखाया गया है, यह प्रयोग तंगहाली का प्रभाव पैदा करने में हद से ज्यादा कामयाब रहा. परिवार के उद्धारक की अपेक्षाएँ, राजू पर आ टिकती हैं. वह गंडा-ताबीज पहनता है, जितनी अंगुलियां है, उनसे ज्यादा अंगूठियाँ पहनता है. अंततः वह अंगूठियाँ उतारकर व्हीलचेयर पर इंटरव्यू देता है. इंटरव्यू पैनल से बेबाक बोलता है, “आप अपनी नौकरी रख लीजिए. मैं अपना एटीट्यूड रख लेता हूँ.”
फिल्म में एक तरफ मिलीमीटर की कथा है, तो पिया (करीना कपूर ) के माध्यम से वायरस के परिवार की कथा दिखाई जाती है. हैरत की बात यह है कि, दर्शकों को रेंचो के परिवार की कोई जानकारी नहीं मिलती. बाद में जब उसके बारे में, रणछोड़ दास वल्द श्यामल दास चाँचड़ (जावेद जाफरी) से जानकारी मिलती है, तो वह दर्शकों की श्रद्धा का पात्र बन जाता है. वह ज्ञान- पिपासा शांत करने और जिंदगी जीने का एक नया नजरिया पेश करता है. ‘चौतरफा ज्ञान बँट रहा है, जितना चाहे बटोर लो.’ वह मिलीमीटर से कहता है, “पढ़ने के लिए फीस नहीं, यूनिफार्म चाहिए, यूनिफॉर्म.”
जब मिलीमीटर पकड़े जाने की आशंका जताता है, तो वह बड़ा ही सरल समाधान देता है, “स्कूल चेंज, यूनिफार्म चेंज.”
दरअसल ज्ञान-प्राप्ति का यह फलसफा मौलाना हाली का है. यानी इल्म हर तरह से हासिल करना चाहिए, जिससे मिले, जहाँ से मिले, जिस कदर मिले. गीत-संवाद और लतीफों का बखूबी इस्तेमाल करना, सिनेकार बेहतर तरीके से जानते हैं. वे नई पीढ़ी की भाषा को तो समझते ही हैं, उनके मुहावरे को समझाना भी बखूबी जानते हैं. फिल्म में सरप्राइज एलिमेंट्स की भरमार है.
आखिर में जब फुंगसुक वांगड़ू के बारे में जानकारी मिलती है, तो वह सहज ही दर्शकों की अतिरिक्त श्रद्धा का पात्र बन जाता है. डिग्री तो रणछोड़ दास चाँचड़ के लिए हासिल की थी. अपने लिए हासिल किया था, केवल ज्ञान. उसी ज्ञान और अनुभव के सहारे वह चतुर के नजरिए से बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर लेता है, लेकिन उसके चार सौ पेटेंट्स अपनी जगह हैं, उसका बच्चों को पढ़ाना अपनी जगह. उपयोगिता मूलक शिक्षा देना अपनी जगह.
फिल्म का लीड कैरेक्टर फुंगसुक वांगडू, रीयल लाइफ हीरो सोनम वांगचुक से प्रेरित बताया जाता है.
चतुर (ओमी वैद्य) ने दर्शकों पर बेहद प्रभाव जमाया. जेम्स बॉन्ड स्टाइल की ‘बो’ पहनने से लेकर, कक्षा में सेकेंड आने वाले ईर्ष्यालु छात्र की भंगिमा को उन्होंने बखूबी अंजाम दिया. हमेशा आगे बने रहने की चाहत रखने वाले छात्र की भूमिका में वे खूब जँचे. आखिर तक उनके लिए सफलता का पैमाना, बड़ा पैकेज और बड़ी डील ही बना रहता है.
फिल्म में गीत, मौके के अनुकूल हैं और मौके पर बेहतरीन तरीके से फिल्माए गए हैं.
फिल्म में सबकुछ आनुपातिक सा हैं, फरहान का फ्लाइट रुकवाना और मोना सिंह के सुरक्षित प्रसव के दृश्य के सिवाय.
फिल्म के पूर्वार्द्ध में कथा स्थल कैंपस ही है, तो आखिर में लद्दाख को कथा स्थल के रूप में दिखाया गया है. फिल्म में ह्यूमर का जबरदस्त उपयोग हुआ है. अच्छे ह्यूमर की यही पहचान है, कि हास्य की मजबूत तरंगों के नीचे करुणा और कराह उपजे. उसी दृश्य में आप कहकहे लगाते हैं, ठठाकर हँसते हैं. फिर सोचने-समझने अथवा रोने तक को मजबूर हो सकते हैं. प्रसंग यथार्थ के आसपास के से लगते हैं. फिल्म में करियर-मार्गदर्शन है, तो अभिभावकों के लिए बच्चों की मजबूरियाँ जानने का एक सही नजरिया भी. दोस्ती के खूबसूरत लम्हें हैं, तो रोमांस भी. किस्सागोई, दिलचस्प किरदार, विसंगति देखने की सजग दृष्टि और वचन- वक्रता फिल्म को एक उच्च धरातल पर ले जाती है. फिल्म विचारोत्तेजक है, तो मनोरंजक भी कम नहीं, इसीलिए फिल्म की प्रस्तुति असरदार साबित हुई.
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ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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