[बागेश्वर के कन्यालीकोट गाँव के लोग परंपरा से ही लकड़ी की ठेकियां बनाते आ रहे हैं. बड़े पैमाने पर लकड़ी की ठेकियों का इस्तेमाल कुमाऊँ में अनाज भंडारण में तो इस्तेमाल होता ही था, उनका सबसे अधिक इस्तेमाल दही जमाने के लिए किया जाता रहा है. इधर कुछ बीसेक सालों से ये ठेकियाँ दिखनी या मिलनी बिलकुल बंद हो गयी हैं. शमशेर नेगी ने ठेकी बनाने वाले इन शिल्पकारों की बाबत कुछ दिलचस्प जानकारियाँ इकठ्ठा की हैं- सम्पादक]
हर साल जाड़ों में ये लोग अपना गाँव छोड़कर कोई दो-एक सौ किलोमीटर दूर हल्द्वानी के समीप कॉर्बेट की कर्मभूमि कालाढूंगी में बहने वाली बौर नदी के किनारे आकर अब भी अपना परंपरागत पेशा करने में लगे रहते हैं.
यहाँ के जंगलों में मिलने वाली सांदन की मुलायम लकड़ी ठेकियां बनाने के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है. कालाढूंगी से करीब तीन किलोमीटर चलकर आप पहले बौर नदी तक पहुँचते हैं और फिर नदी पार करके इन लोगों के ठिकाने पर.
गाड़ी, मोटरसाइकिल वगैरह से यहाँ नहीं पहुंचा जा सकता. इसके लिए ट्रैक्टर ट्रॉली में बैठकर जाना होता है. नदी के पानी के बहाव से चलने वाली लकड़ी की बनी एक मोटरनुमा घिर्री की मदद से यह जटिल कार्य संपन्न होता है.
कुछ साल पहले तक करीब 100 लोग यहाँ आते थे. 2015 में कुल 9 आये थे. चन्दन, रमेश, गोपाल, गोविन्द, सुरेश, तेज और धनराम के अलावा इनके मुखिया पुष्कर राम.
नीचे जिस औज़ार का इस्तेमाल तस्वीरों में पुष्कर कर रहे हैं उसे बांक कहा जाता है. पुष्कर की टीम के बाकी सदस्य जंगल से लकड़ी लेकर आते हैं जबकि कलाकारी का सारा काम पुष्कर राम का होता है.
आमतौर पर दो से लेकर दस किलो क्षमता की लगभग सौ ठेकियां बनती हैं एक सीज़न में, जिन्हें ये वापस अपने गाँव जाकर बेचते हैं – अमूमन सौ रूपये प्रति किलो क्षमता की दर से. कई बार अनाज के बदले भी ठेकी दे दी जाती है.
कुछ महीने पेट पालने को तो पैसा आ जाएगा पर बाकी के महीने कैसे बिताते हैं, इसका कोई ठोस जवाब उनके पास नहीं. बाकी अगले साल भी आएँगे क्या? – इसका भी नहीं.
समाप्त होते हुए ये भी कुछ लोग हैं जो किसी भी तरह के विकास के दायरे में नहीं आते. कुमाऊनी हस्तशिल्प के इन नायाब नमूनों को लोग आजकल अपने बैठक के कमरों में भी सजाने लगे हैं. लेकिन कभी ठेकी के दही का स्वाद किसी कुमाऊनी बुज़ुर्ग से पूछिए.
तस्वीरों में देखिये कैसे बनती है उत्तराखंड में दही रखने वाली ठेकी.
शमशेर सिंह नेगी एक राष्ट्रीय दैनिक में पत्रकार हैं. एक सजग मीडियाकर्मी के तौर पर शमशेर ने पर्वतीय जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं पर रिपोर्टिंग की है. हल्द्वानी में रहते हैं.
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11 Comments
Anonymous
मुझे चाहिए ये ठेकी
C S Verma
I need the theki
रक्षित
आप इनको दिखाते तो हो लेकिन इन्हें कहाँ से और कैसे प्राप्त किया जा सकता है इस बारे में कुछ नही बताते। क्यों नही एक ऑनलाइन प्लेटफार्म बनाते जहां से ये मिल जाये। कारीगर और उद्योग बढ़ेगा और हमे भी ये वस्तुएं मिल पाएगी। पहाड़ी नूनं, काफल,ठेकी….
Girish Lohani
इस कला का संरक्षण किया जाना चाहिए एवं इसके कारिगरों को विशेश प्रोत्साहन व सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए।
क्रान्ति रौतेला
बहुत अच्छा लेकिन कैसे इनको संरक्षित किया जाए????
Manish m.k
प्लास्टिक की जगह लकड़ी से बनी चीजों का इस्तेमाल करें इससे हमारा स्वास्थ्य भी बचेगा और हमारे संस्कृति भी??
[email protected]
Plz give me contact no..
Amarjeet Singh
काफल पाकौ मैल नी चाखौ ???
शेखर चन्द्र पांगरिया
अपनी विरासत को हमें बचाना ही होगा और स्थानीय शिल्पकारों का मनोबल उनकी लगन से बनाई गई वस्तुएं अपनाकर हम इस दिशा में अपना योगदान दे सकते हैं।
Joga Giri
Bageshwar m. Ink gaon ka nam CHACHAI kanyalikote k pas.
Joga Giri
Bageshwar m