ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित गोलमाल (1979) हिंदी सिनेमा की सफलतम फिल्मों में से एक है. शिष्ट हास्य को परदे पर उकेरना बड़ा ही दुष्कर काम होता है. इस फिल्म में निर्मल हास्य का सृजन हुआ है. कथासार साधारण सा है- फिर वही मिडिल क्लास की पाँच- साढ़े पाँच सौ की नौकरी की ख्वाहिश. सूत्रधार की बदौलत या यूँ कहें कि, विनम्रता-अति शालीनता का बाना ओढ़कर, वह साढ़े आठ सौ की नौकरी हासिल कर लेता है (मजे की बात यह है कि, डेविड फिर से ऋषि दा के फेवरेट सूत्रधार की भूमिका में दिखाई पड़ते हैं.) संयोग से नियोक्ता-सेवक की अभिरुचियाँ बेमेल निकलती हैं, लेकिन ‘ब्लू आइड ब्वॉय’ बने रहने के लिए उसे झूठे-पे-झूठ का सहारा लेना पड़ता है. नौकरी बरकरार रखने की जद्दोजहद में उसे आकाश-पाताल एक करना पड़ता है. फिर तो परिस्थितिजन्य हास्य का सिलसिला निकल पड़ता है. ह्यूमर(विशुद्ध विनोद), विट(वाग्वैदग्ध्य), सैटायर(व्यंग्य), आयरनी(वक्रोक्ति) और फार्स(प्रहसन) में से कोई भी ऐसा फॉर्मेट नहीं, जो इस फिल्म में नजर न आया हो. उस वर्ष के फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में ‘गोलमाल’ की धूम मची रही. फिल्म ने तीन श्रेणियों में अवॉर्ड्स हासिल किए: सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए अमोल पालेकर, बेस्ट कॉमेडियन के लिए उत्पल दत्त और सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए गुलजार साहब.
फिल्म शुरू करने से पहले ऋषि दा के सामने बड़ी विकट समस्या थी. वे वेटरन एक्टर उत्पल दत्त के बरक्स एक ऐसे एक्टर को चाहते थे, जिसका अभिनय, इस अनुभवी एक्टर के अभिनय से आच्छादित न हो सके. यह संभावना उन्हें अमोल पालेकर में दिखाई दी. अमोल पालेकर ने उनके भरोसे को कायम रखा. उन्होंने किसी को भी(सिनेकार से लेकर आम दर्शक तक) निराश नहीं किया. तीव्र गति और स्वस्थ मनोरंजन से भरी-पूरी यह फिल्म हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्मों में शुमार की जाती है.
फुटबॉल मैदान के दृश्य से फिल्म का आरंभ होता है. दर्शकों की भीड़ में अमोल पालेकर उल्लास मनाते हुए दिखाई पड़ते हैं. स्क्रीन पर शीर्षक गीत और स्टारिंग साथ-साथ चलती है. रामप्रसाद (अमोल) का दोस्त उसे घर तक छोड़ने आता है. दोनों में कल टेलीविजन पर होने वाले कॉसमॉस वर्सेस मोहन बागान मैच की चर्चा चलती है. रामप्रसाद तो ‘पेले’ को खेलते हुए देखने को ज्यादा ही ‘एक्साइटेड’ दिखता है.
डॉक्टर मामा (डेविड) उनके घर पहुँचे हुए हैं. वे रत्ना (मंजू सिंह) से राम के रिजल्ट के बाबत पूछते हैं. उनकी सूचना के अनुसार इस साल का रिजल्ट पंद्रह परसेंट है. तभी रामप्रसाद घर पहुँचता है, चेहरा लटकाए, एकदम उदास. रत्ना उससे रिजल्ट पूछती है, तो वह कहता है, “वही हुआ, जिसका डर था.“ वह मामा को कहता है, आपकी इंफॉर्मेशन सही नहीं, रिजल्ट बारह परसेंट है. यह सुनकर रत्ना के चेहरे पर परेशानी के भाव उभर आते हैं. कुरेदने पर वह रत्ना को रुखा सा जवाब देता है. तभी डॉक्टर मामा उसका कान खींचते हुए रिजल्ट पूछते हैं, खुशी के मौके पर ऐसे नाटक करना, उसने अपने मरहूम पिता से सीखा है. वह अच्छे नतीजे के साथ पास हुआ है और मामा ने रामप्रसाद के लिए नौकरी देखी हुई है, साढ़े पाँच-छस सौ की. वे उससे फॉरेन एप्लीकेशन लिखवाते हैं, ‘टू द प्रॉपराइटर उर्मिला ट्रेडर्स’ के नाम.
उधर उस दफ्तर में एप्लीकेशंस की स्क्रीनिंग चलती है. कुछ नौसिखियों ने भी आवेदन किया हुआ है. अनुभवी आवेदकों की संख्या अधिक है. भवानी शंकर (उत्पल दत्त) इन ‘बेकार-बूढ़ों’ के आवेदनों को एक सिरे से रद्दी की टोकरी में डालने को कहते हैं. उनके मुताबिक इनकी वजह से यह देश दौड़ नहीं पा रहा है. नौजवानों से उन्हें बस एक शिकायत रहती है, ‘वे खेलकूद और फैशन-पोशाक में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं.”
नये आवेदकों में पहली एप्लीकेशन किसी विकी सक्सेना की है. वे इस आवेदन को बिना जाँचे-परखे तुरंत खारिज कर देते हैं. भवानी शंकर की मान्यता है, “जो अपना नाम शॉर्ट कर दे, वह काम भी छोटा ही करेगा.“ इस सिद्धांत के तहत वे बद्रीनारायण श्रीवास्तव और रामप्रसाद शर्मा के आवेदनों से मुतमईन नजर आते हैं.
इधर रामप्रसाद हॉकी टूर्नामेंट की चर्चा में मशगूल दिखता है. उसके मुताबिक इस्लामुद्दीन और समीउल्ला भी भारत आ रहे हैं. बड़ा मजा आएगा.
इधर डॉक्टर मामा उनके घर पहुँचे हुए हैं. वे खुलासा करते हुए बताते हैं, भवानी शंकर उनके बचपन का दोस्त है. राम प्रसाद की मूछों को को वे ‘प्लस प्वाइंट’ मानते हैं, क्योंकि भवानी शंकर की दृढ़ मान्यता है, “जिनकी मूँछें साफ होती हैं, उनका मन साफ नहीं होता”
मामा इंटरव्यू के लिए रामप्रसाद को कुछ उपयोगी सूचनाएँ देते हैं, “आधा नाम मत बताना. पूरा नाम बताना जरूरी है. भवानी शंकर को सिफारिश से सख्त नफरत है. अकाउंटेंसी के सिवा और किसी सवाल का जवाब देने की जरूरत नहीं, क्योंकि भवानी शंकर का दृढ़ विश्वास है कि, पढ़ाई-लिखाई की उम्र में पढ़ाई-लिखाई ही करनी चाहिए. वह अपनी कल्चर-संस्कृति पर गर्व करता है. इसलिए साक्षात्कार कुर्ते- पाजामे में देना फायदेमंद रहेगा.”
इस पर रामप्रसाद कहता है, “लेकिन मेरे पास तो कुर्ता-पाजामा है ही नहीं.”
इस पर मामा उसे फाइनल अल्टीमेटम सुनाते हुए कहते हैं, “बाय, बॉरो और स्टील. और हाँ, सिर पर तेल अच्छे से चुपड़कर जाना.”
रामप्रसाद कुर्ते-पजामे का बंदोबस्त करने निकल पड़ता है. बस स्टॉप पर उसे देखकर देवेन (देवेन वर्मा) अपनी गाड़ी रोकते हुए पूछता है, “अरे प्रसाद! कहाँ हो आजकल.”
रामप्रसाद जवाब देता है, “अपना जगन्नाथ है न. सोशल वर्कर हो गया है. उससे एक दिन के लिए कुर्ता-पाजामा उधार माँगने जा रहा हूँ.”
देवेन उसे अपने साथ मोहन स्टूडियो ले चलता है. स्टूडियो में अमिताभ बच्चन की ‘जुर्माना’ फिल्म की शूटिंग चल रही है. देवेन ड्रेस डिजाइनर से कुर्ता-पजामा मँगाता है. वह उसे ढेर सारे कपड़ों में से अपने नाप के कपड़े सिलेक्ट करने को कहता है. बहुत लंबाई लिए कुर्ता (अमिताभ बच्चन का), बहुत ढीला कुर्ता (संजीव कुमार का) देखकर देवेन प्रसाद के नाप का कुर्ता लाने को कहता है. इस पर डिजाइनर कहता है,
“असरानी का कुर्ता तो है, लेकिन थोड़ा छोटा पड़ेगा.”
इस पर रामप्रसाद कहता है, “एक ही दिन की तो बात है, मैं मैनेज कर लूँगा.”
इंटरव्यू का दृश्य
शुरुआती कैंडीडेट्स को भवानी शंकर, अपनी पूर्व धारणा के चलते बाहर का रास्ता दिखा देते हैं. आवेदक ने अपना नाम बताया, “राम प्रसाद, दशरथ प्रसाद शर्मा.”
भवानी शंकर के चेहरे पर खुशी अंदर से छलकती हुई दिखाई पड़ती है, नेत्र विस्फरित हो उठते हैं. प्रश्नोत्तरी का सिलसिला कुछ यूँ चलता है:
“सुनील गावस्कर के बारे में क्या राय है?”
“क्षमा चाहता हूँ सर! इन विषयों में मेरा ज्ञान कम है.”
“ब्लैक पर्ल को जानते हो.”
“मोती काला भी होता है सर! मैं तो अभी तक श्वेतवर्णी मोती ही जानता था.”
“मैं पेले के बारे में पूछ रहा हूँ.“ “सर! पर कैपिटा इनकम ऑफ बैकवर्ड ट्राइब्स इन महाराष्ट्रा में बेहतरीन काम है ‘रेले’ का.”
“हॉकी टेस्ट होने वाला है क्या ख्याल है आपका.”
“इस विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं.“ वह रुआँसा होकर उठ खड़ा होता है, “मेरे पिताजी कहा करते थे, जवानी काम करने के लिए है, शौक करने के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है. आज समझ में आया पिताजी की शिक्षा मिथ्या थी.“ भवानी शंकर प्रेम से उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे बिठाते हैं. इतने उच्च विचार सुनकर वे मुदित होकर कहते हैं,
“ तुम्हें आदर्श शिक्षा मिली है.“ तत्पश्चात् एक शीट पकड़ाकर उसे परखते हैं, “इस बैलेंस शीट को देखो.”
शीट पर निगाह डालते ही रामप्रसाद उखड़ जाता है, “किस घामड़ ने बनाई है. ये तो गलत है.”
वे कैंडिडेट से अत्यंत प्रभावित नजर आते हैं. वे उसे सीधे ऑफर देते हैं, “कल से काम पर आ जाओ. आठ सौ मिलेंगे.”
राम प्रसाद के संकोच जताने पर वे साढ़े आठ सौ कर देते हैं. लेकिन राम प्रसाद विनयवत् मुद्रा में कहता है, “मैं तो साढ़े पाँच सौ के भी योग्य नहीं.“ ‘छोटा कुर्ता पहनने का’ कोई विशेष कारण पूछे जाने पर, रामप्रसाद बड़ा ही मार्मिक जवाब देता है, “सर, मेरे पिताजी कहते थे, कुर्ता तो शरीर के उपरार्द्ध के लज्जा- निवारण के लिए होता है. हमारे देश में तीस में से दस करोड़ मर्द कुर्ता पहनते हैं. सभी छह इंच छोटा कुर्ता पहनने लगें, तो देश की वस्त्र-समस्या हल हो सकती है.”
“मेरे पिता जी फैशन के विरुद्ध थे.”
इस पर भवानी शंकर अफसोस जताते हुए कहते हैं कि उन्हें इस ‘स्ट्रेट और ग्रेट फिगर’ से मिलने का सौभाग्य नहीं मिला.“ कक्ष से जाते हुए रामप्रसाद के लिए उनके मुख से बरबस ही आशीर्वाद निकल पड़ता है, “तुम बहुत आगे बढ़ोगे.”
बड़े बाबू (यूनुस परवेज) ‘बिफोर टाइम’ ऑफिस पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि, रामप्रसाद वहाँ पहले ही मौजूद है और काम में जुटा हुआ है. वे रामप्रसाद से कहते हैं, “अभी तो साढ़े नौ बज रहे हैं, इतनी जल्दी.”
“मैं तो आठ बजे ही आ गया था. मेरे पिताजी कहते थे, जब काम करना है, तो वक्त का मुँह नहीं देखना चाहिए.”
वह रिपोर्ट भवानी शंकर को ‘सबमिट’ कर देता है. इस पर मालिक हैरत में पड़ जाते हैं. कल शाम का बताया काम, सुबह ही हाजिर. इस खुशी में वे रामप्रसाद को सौ रुपये के ‘कन्वेंस अलाउंस’ की तरक्की दे बैठते हैं.
उधर दोस्तों को इस तरक्की की पार्टी दी जाती है. वे कल दोपहर बाद होने वाले हॉकी मैच की चर्चा करते हैं, तो राम प्रसाद छुट्टी न मिलने की मजबूरी जताता है. इस पर दोस्त कहते हैं, ‘माँ बीमार है’ का बहाना बना लो. राम प्रसाद की माँ का स्वर्गवास हुए अरसा बीत चुका है. कोई-न-कोई रास्ता तो निकालना ही पड़ेगा. फिर इसी बहाने को सही मान लिया जाता है कि, वे मरी हुई माँ को जिंदगी ही तो दे रहे हैं. योजना बनती है कि, कल दोपहर ऑफिस के फोन पर बीमारी की खबर दी जाएगी.
अगले दिन वह नियत समय पर फोन के इर्द-गिर्द मँडराते हुए देखा जाता है. फोन बजते ही वह चहककर भवानी शंकर को बताता है, “फोन सर! फोन.“ फिर संभलकर अपने भावों को संयत कर लेता है. भवानी शंकर फोन सुनते हैं. वह रुआँसे स्वर में पूछता है, “क्या हुआ सर, मेरी माँ को.”
उसे छुट्टी मिल जाती है. छुट्टी मिलने की खुशी को वह बमुश्किल जज्ब कर पाता है. दारूण स्वर में यह कहते हुए चला जाता है, “मेरी माँ के लिए भगवान से प्रार्थना करना.”
इस पर भवानी शंकर नेपथ्य से स्वगत में कहते हैं, “इसे कहते हैं- माँ-सेवक.”
भवानी शंकर खुद विकट खेल- प्रेमी हैं. वे भी स्टेडियम में पहुँचते हैं. बैठने से पूर्व अकस्मात् उनकी निगाहें एक जगह पर ठिठककर रह जाती है. दायीं ओर उन्हें रामप्रसाद का बायाँ हिस्सा दिखाई पड़ता है. वही है, कन्फर्म करने के लिए वे उसे चश्मा उतारकर देखते हैं. फिर आँखें भींचकर देखते हैं. यहाँ तक कि उकड़ूँ होकर भी देखते हैं.
अगले दिन वे उद्विग्नता में अपने ऑफिस में टहलते हुए पाए जाते हैं. उनका विश्वास भंग हुआ है, जिसका उन्हें गहरा आघात लगा है. वे पीठ पीछे हाथ बाँधे इधर-से-उधर, उधर-से- इधर, चहलकदमी करते हुए नजर आते हैं. रामप्रसाद के पहुँचते ही वे उसे सशंकित दृष्टि से देखते हैं. बहुत ही कोमल स्वर में पूछते हैं, “अब तुम्हारी माता जी कैसी हैं.”
फिर पूछते हैं, “अच्छा ये बताओ, हॉकी टीम में गोविंदा और अशोक कुमार भी होते तो बड़ा मजा आता, कल कौन कह रहा था.”
वे राम प्रसाद को आड़े हाथों लेते हुए कहते हैं, “मैंने अपनी आँखों से तुम्हें स्टेडियम में देखा है.“ यह सुनते ही रामप्रसाद हक्का-बक्का होकर रह जाता है, लेकिन वह सँभलकर कहता है, “मैं समझ गया सर, आप उत्तेजित मत होइए. आपने जिसे देखा, उसने रंगीन कपड़े पहने होंगे. सनग्लासेस लगाए होंगे. बाल बिखरे-बिखरे होंगे. लफंगा सा दिखता होगा. वो लक्ष्मण प्रसाद दशरथ प्रसाद शर्मा है, मेरा जुड़वाँ भाई.”
वह पैंतरा फेंकते हुए कहता है, “लेकिन सर वो तो मुछमुंडा है.“ “आप मालिक हैं. निकालना चाहते हैं तो मैं चला जाता हूँ. मेरे पिता जी कहा करते थे, मिथ्या आरोप, अन्याय कदापि सहन नहीं करना चाहिए. मेरा त्यागपत्र स्वीकार कर लीजिए.”
भवानी शंकर गलती मान लेते हैं. ग्लानि से भर उठते हैं. वे लक्ष्मण की डीटेल माँगते हैं. इस पर रामप्रसाद कहता है, “वह दिनभर खेलकूद, सिनेमा-फैशन में लगा रहता है. कमाता नहीं, गँवाता है.”
इस पर भवानी शंकर उसके लिए भी नौकरी की पेशकश कर बैठते हैं. जब रामप्रसाद उसके बारे में आशंका जताता है, तो भवानी शंकर कहते हैं, “प्रायश्चित तो करना पड़ेगा.“ वे फरमान सुनाते हैं, “परसों सुबह उसे मेरे घर भेज दो. वो मेरी लड़की को गाना सिखाएगा.“ उसके जाने के पश्चात भवानी शंकर विजड़ित-विस्मित से नजर आते हैं. वे ऑफिस चेयर पर बैठकर, टेबल ग्लास में झाँककर देखते हैं. फिर हथेली से मूँछे ढ़ककर झाँकते हैं. वे कई बार इस प्रयोग को दोहराते हैं. दरअसल वे रामप्रसाद-लक्ष्मण प्रसाद के इत्तेफाक को खुद पर आजमाने की भरसक चेष्टा करते हुए दिखाई देते हैं. उनका चकित होना दर्शकों को प्रभावित करता है.
नियत समय पर वह उनके घर जा पहुँचता है- रंग-बिरंगे कपड़े पहने, सनग्लासेस चढ़ाए, बाल बिखराए गेट के अंदर दाखिल होता है. उस समय भवानी शंकर अहाते में गार्डनिंग कर रहे होते हैं. वह ‘हाय माली’ कहकर उनका अभिवादन करता है. जेब से कंघी निकालता है, कंघी चाकूनुमा है, जिससे भवानी शंकर चौंककर डर जाते हैं. वह पूछता है, “बुड्ढ़ा है घर में.”
भवानी शंकर पूछते हैं, “तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि, वह बुड्ढा है.“ लक्ष्मण लापरवाही से जवाब देता है, “जिसका नाम भवानी शंकर हो, वो तो पैदा होते ही बुड्ढा हो गया.”
अंदर जाकर भवानी शंकर अपने ओरिजिनल फॉर्म में आ जाते हैं और उसे बैठने को कहते हैं. वह किरदार के लिहाज से सोफे पर अधलेटा सा होकर बैठता है. उसे स्वयं को रामप्रसाद से भिन्न जताना जरूरी हो जाता है. आत्मपरिचय में वह अपना नाम लकी शर्मा बताता है और चाबी का छल्ला घुमाते हुए वार्ताक्रम को जारी रखता है. भवानी शंकर छल्ला पकड़ने की निष्फल चेष्टा करते हुए नजर आते हैं. फिर भी उसके लिए दो सौ रुपये तनख्वाह तय कर देते हैं, लेकिन इसमें भी उनकी कुछ शर्तें होती हैं. एक तो पगार रामप्रसाद के हाथों में ही सौंपेंगे, दूसरी यह कि यह बात उनकी बेटी तय करेगी कि, वह संगीत सिखाने लायक है या नहीं. दूसरी शर्त पर लक्ष्मण एतराज जताता है. वह भवानी शंकर पर तंज कसते हुए कहता है, “गीत- संगीत बिजनेस या अकाउंटेंसी नहीं है.”
भवानी शंकर की बेटी उर्मिला (बिंदिया गोस्वामी) लक्ष्मण को अपने संगीत कक्ष में ले जाती है. वह विज्ञान भवन में उसका गायन सुन चुकी है और तभी से उससे प्रभावित है. सो वह लक्ष्मण से उसी गीत को दोहराने का आग्रह करती है. आने वाला पल… जाने वाला है…. गीत के भावप्रवण बोलों के मध्य अनुराग भाव उदित होता दिखाई पड़ता है.
उधर ऑफिस में भवानी शंकर राम प्रसाद से परम प्रसन्न नजर आते हैं. उसके सद्गुणों पर रीझकर, वे उसे संभाव्य जमाता की दृष्टि से देखते हैं. जब वह कहते हैं कि मैं तुम्हारी माताजी से मिलने आऊँगा, तो रामप्रसाद उन्हें रोकने की भरसक कोशिश करता है.
वह पुनः देवेन की शरण में जा गिरता है. उसकी उलझन सुनकर देवेन कहते हैं, “अब तुझे एक माँ चाहिए. कुर्ता- पजामा तक तो मैं हैंडल कर सकता था. अब तुम्हें कोई कमर्शियल डायरेक्टर ही बचा सकता है.”
वे उसे श्रीमती कमला श्रीवास्तव (दीना पाठक) की शरण में ले जाते हैं. श्रीमती श्रीवास्तव एक सोशल वर्कर हैं. वह शौकिया एक्टिंग भी करती हैं. छद्म माँ बनने के प्रस्ताव को लेकर वह स्पष्ट इनकार कर देती हैं. इस पर देवेन उन्हें तरह-तरह से फुसलाता है: “आर्टिस्ट के टैलेंट का इम्तिहान है. चैलेंज है. गरीब आदमी की इकलौती बहन की शादी कैसे होगी. यह भी तो सोशल वर्क ही है.” जैसे शब्दजाल फेंककर वे उनसे हामी भरवा लेते हैं. इतना ही नहीं उनकी हिम्मत भी बँधा जाते हैं. वे रत्ना व उनकी बेटी के समवयस्क होने का हवाला देकर उनके मातृत्व भाव को जाग्रत कर लेते हैं.”
आखिर भवानी शंकर, राम प्रसाद के घर पहुँच ही जाते हैं. रामप्रसाद के विषय में उनकी धारणा काफी उच्च स्तर की रहती है. सो वे दरवाजे पर जूते उतारकर घर के अंदर प्रवेश करते हैं. माताजी (छद्म) भवानी शंकर का अभिवादन करते हुए कहती हैं, “हमारा सौभाग्य कि आप के दर्शन हुए.“ इस पर भवानी शंकर बीच में टोकते हुए कहते हैं, “नहीं- नहीं बहन जी, सौभाग्य तो मेरा है.“ वे इस परिवार के संस्कारों से अभिभूत से नजर आते हैं. मंत्रमुग्ध से दिखते हैं. बातचीत में माता जी अपने कपोलकल्पित पुत्र (लक्ष्मण प्रसाद) को गिनना भूल जाती हैं. भवानी शंकर इस बात को लक्ष्य कर जाते हैं, तो माताजी बड़ी खूबसूरती से बात संभालते हुए कहती हैं, “उसका होना भी कोई होना है भाई साहब.“ समग्रतः भवानी शंकर गद्गद नजर आते हैं. “क्या उच्च विचार हैं” कहते हुए वे वारे-वारे जाते हैं.
किसी पार्टी-जलसे का दृश्य है. भवानी शंकर अपने दोस्तों के साथ सामयिक मुद्दों पर विचार-विमर्श कर रहे होते हैं. तभी श्रीमती श्रीवास्तव भवानी शंकर को देख लेती हैं. सो वे फौरन रास्ता बदलकर स्त्री- समुदाय में शामिल हो जाती है. इधर भवानी की निगाह भी उन पर पड़ जाती है, तो वे दोस्तों को छोड़कर उनके पीछे साए की तरह नजर आते हैं. श्रीमती श्रीवास्तव सतर्क सी नजर आती हैं. वह लगातार स्थान परिवर्तन करती रहती है. इधर भवानी भी उनके आसपास मँडराने लगते हैं. जब वे झूले पर बैठ जाती हैं, तो भवानी शंकर कहते हैं, “शायद हम पहले भी कहीं मिल चुके हैं.“ वे झूले पर बैठने की असफल चेष्टा करते हैं. ‘झूला-दृश्य’ फिल्म का अप्रतिम दृश्य है. जैसे ही वे झूले पर बैठने के लिए झुकते हैं, झूला स्विंग करते हुए, दूसरी डायरेक्शन में चला जाता है. वे परिचय देते हुए कहती हैं, “खार की मिसेज शर्मा मेरी छोटी बहन हैं, लेकिन वे विधवा हैं. तो भी लोगों को पहचानने में भूल हो जाती है. हम जुड़वाँ है. हमारी नानी भी जुड़वाँ थी.”
भवानी शंकर को संदेह हो जाता है. सो इसे यकीन में बदलने के लिए वे राम प्रसाद के घर की दौड़ लगा बैठते हैं. इधर मिसेज श्रीवास्तव तो पहले से ही सतर्क हैं. वे भवानी शंकर की रवानगी पर सूक्ष्म दृष्टि रखती हुई नजर आती है.
इधर घर पर दोनों भाई-बहन रिकॉर्ड प्लेयर पर गीत सुनते हुए दिखाई देते हैं. चुपके-चुपके का सा रे गा मा… मा सा रे गा… गीत बज रहा है. भवानी शंकर के अकस्मात् आगमन से दोनों अवाक् होकर रह जाते हैं. माँ के बारे में पूछे जाने पर रामप्रसाद कहता है, “माताजी नहाने गई है. वह नहाने में ज्यादा समय लेती हैं.“ हालांकि दोनों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ती हुई नजर आती हैं. मिसेज श्रीवास्तव घर के पीछे पहुँच जाती है. वे कमर में साड़ी का पल्लू बाँधकर खिड़की से प्रवेश करने की चेष्टा करती हैं. बेचारी भारी जद्दोजहद के बाद ही अंदर पहुंच पाती हैं. ड्राइंग रूम में भवानी शंकर पहरा बिठाए दिखाई देते हैं. माताजी के दर्शन किए बिना, वे टलने के मूड में नहीं दिखते.
हालांकि उनका वास्तविक लक्ष्य तो कुछ और ही है, और वह है मन में उठे संदेह को यकीन में बदलना. तभी अकस्मात् सद्यस्नाता माताजी ड्राइंग रूम में प्रवेश करती है. भवानी शंकर भौचक्के से नजर आते हैं. उनकी आँखें चमक उठती हैं और मुँह से चुटीले बोल फूट पड़ते हैं, “नमस्ते बहन जी, आप के दर्शन दुर्लभ हो गए.”
यहाँ पर गौर करने की बात है कि बात करने को उनके पास कुछ भी नहीं है, इसलिए वे राम प्रसाद की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, “ऐसा निष्ठावान, मेहनती, सुशील बेटा है आपका.”
राम प्रसाद की मातृ-भक्ति देखकर भवानी शंकर की आँखें भर आती हैं.
उधर कालिंदी बुआ (शुभा खोटे) भवानी भाई से उर्मिला की शिकायत करती है, “उर्मिला के लक्षण ठीक नहीं है. लक्ष्मण का नाम लेकर बड़बड़ाती है. कल रात मैंने अपने कानों से सुना भाई साहब.”
भवानी शंकर झट से इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि उर्मिला को सोने और पीतल में कोई फर्क मालूम नहीं है. उनका अभिप्राय रामप्रसाद के स्वर्ण और लक्ष्मण के पीतल होने से है. अतः भवानी निश्चय करते हैं, आज से संगीत शिक्षा बंद. इसके स्थान पर वे संशोधन लागू करते हैं कि, अब उस अवधि में रामप्रसाद उर्मिला को थोड़ी देर पढ़ाएंगे.
उर्मिला-लक्ष्मण की भेंट का समय तय रहता है, शाम के सात बजे. रामप्रसाद, उर्मिला को कबीर पढ़ाना शुरू करते हैं, लेकिन उसका मन पढ़ने में जरा भी नहीं लगता. वह घड़ी-घड़ी घड़ी पर निगाहें डालती है. वह ऊबकर रामप्रसाद से कहती है,”साढ़े छह बज गए.” इस पर ज्ञान बाँटते हुए रामप्रसाद कहता है, “साढ़े छह तो प्रतिदिन बजते हैं. कबीर पढ़ने के लिए एक घंटा नहीं, एक जन्म भी कम है.”
छुट्टी होते ही राम प्रसाद हाँफते हुए सिनेमा हॉल में पहुँचता है और प्रसाधन कक्ष से लक्ष्मण प्रसाद बनकर बाहर निकलता है.
उर्मिला-लक्ष्मण का रोमांस परवान चढ़ता नजर आता है. पार्श्व में गीत बजता है- आने वाला पल… जाने वाला है.
गीत में रूमानियत के कई दृश्य सरकते हुए दिखाई देते हैं. इन्हीं दृश्यों में से एक दृश्य को भवानी शंकर ‘कैप्चर’ कर लेते हैं. वे बाकायदा गाड़ी रोककर इस युगल की शिनाख्त करते हैं.
बेटी के भविष्य को लेकर भवानी चिंतित दिखाई पड़ते हैं. इसी उद्विग्नता में वे राम प्रसाद के घर की दौड़ लगाते हैं. वे माताजी से अभयदान माँगते हुए नजर आते हैं, “जरूरी बातें करनी हैं. मैं हाथ जोड़ता हूँ. निराश मत करना.”
बड़े-बुजुर्गों के मशवरे से यह रिश्ता तय हो जाता है.
इधर घर पहुँचने पर इस निर्णय पर एतराज जताया जाता है. पिता, लक्ष्मण प्रसाद को वितृष्णा की दृष्टि से देखते हैं, तो पुत्री राम प्रसाद को. भवानी रोष में आकर पुत्री को बुरी तरह डपट देते हैं. वे किसी इष्ट मित्र को फोन पर चहकते हुए खुशखबरी सुनाते हैं, “लड़का खरा सोना है. मैंने तो सोचा था, भगवान ने ऐसे लड़के बनाने बंद कर दिए हैं.”
इधर उर्मिला इस फैसले के खिलाफ विद्रोह के स्वर उठाती है और घर छोड़ देती है. भवानी शंकर इस कारनामे के लिए लक्ष्मण के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने को आमादा हो जाते हैं. रामप्रसाद उन्हें विश्वास दिलाने की लाख कोशिश करता है कि आप की पुत्री के हरण में लक्ष्मण की कोई भूमिका नहीं है. वह रो-धोकर उन्हें विश्वास दिलाता है कि वह येन केन प्रकारेण, उनकी पुत्री को हाजिर कर देगा.
वह उर्मिला को विश्वास में ले लेता है. ‘राम प्रसाद और लक्ष्मण एक ही ‘हस्ती’ हैं’ जानकर उर्मिला अतिशय प्रसन्न नजर आती है. वह रामप्रसाद और मामा के कहे पर चलने को खुशी-खुशी राजी हो जाती है.
भवानी शंकर के घर रामप्रसाद को भोज कराया जा रहा है. पानी पीने के दौरान उसकी मूँछ किनारे से अपना स्थान छोड़ देती है. भवानी शंकर इसे नोटिस कर लेते हैं. आश्वस्त होने के लिए वे काफी देर तक मूँछ के उस हिस्से पर स्थिर दृष्टि से देखते हैं. तत्पश्चात् कालिंदी बुआ से रामप्रसाद को मिठाई परोसने को कहकर वे स्वयं ऊपर के कमरे में चले जाते हैं. वे अपना पिस्तौल चादर के नीचे छुपाए नीचे आते हैं. रामप्रसाद को बातों में बहलाकर वे उसकी मूँछ खींच लेते हैं. सहसा भवानी शंकर के मस्तिष्क में यह धारणा बैठ जाती है कि, लक्ष्मण ने उनके प्रिय रामप्रसाद की हत्या कर दी है और नकली मूँछें लगाकर उसके स्थान पर स्थापित होने की चेष्टा कर रहा है. रामप्रसाद को काटो तो खून नहीं. वह हड़बड़ी में कहता है, “मुझे माफ कर दो.”
भवानी शंकर का क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच जाता है. वे पिस्तौल लहराते हुए कहते हैं, “मैं तुम्हें माफ़ नहीं, साफ कर दूँगा.”
वे बहन से उसका रास्ता रोकने को कहते हैं, ताकि यह स्कॉण्ड्रल भागने न पाए. रामप्रसाद बहाना गढ़ता है, “मैं अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहता हूँ. मुझे चरण छूने दो.“ भवानी शंकर गुस्से में इस प्रस्ताव को नकार देते हैं, “चरण-वरण नहीं.”
इधर से निराश होकर वह बुआ के चरण छूने के बहाने नीचे झुककर भाग निकलता है. भवानी शंकर पिस्तौल लहराते हुए उसका पीछा करते हैं, लेकिन उर्मिला की मदद से वह भाग निकलता है.
इस अफरा-तफरी में भवानी शंकर, घरेलू परिधान में ही वाहन से उसका पीछा करते हैं. ‘रैश ड्राइविंग’ के अपराध में भवानी शंकर का चालान हो जाता है. उन्हें पकड़कर थाने में हाजिर किया जाता है. थाने में शराब तस्कर (केष्टो मुखर्जी) पहले से ही मौजूद मिलता है. अपने पेशे का समझकर, वह भवानी शंकर से हमदर्दी जताने की कोशिश करता है. भवानी शंकर उसे डपट देते हैं तो वह जोरदार उक्ति कहता है, “थाने में या तो पुलिस होगी या चोर- उचक्का-लफंगा.”
भवानी कड़क आवाज में उसे जवाब देते हैं, “मैं एक बिजनेसमैन हूँ.”
इस पर वह बराबरी के स्तर पर आकर कहता है, “तो मैं भी बिजनेसमैन हूँ. तुम्हारा भट्टी किधर है.”
इतना ही नहीं वह उनको घबराहट से बाहर निकालने के लिए दिलासा भी देता है, “पहली बार पकड़ा गया है, इसलिए घबराता है. घबराओ मत.“ थानाध्यक्ष (ओमप्रकाश) केबिन में पहुँचते हैं, तो वह छोटे दारोगा से पूछते हैं, “किस जुर्म में लाए हो इसे.”
“रैश ड्राइविंग. इनके पास रिवाल्वर भी मिला है.“
इस पर भवानी शंकर सख्त लहजे में कहते हैं, “मेरे पास लाइसेंस है.”
लाइसेंस मांगे जाने पर वे कहते हैं कि लाइसेंस तो घर पर है. बहस बढ़ती चली जाती है, तो भवानी थानेदार को अंग्रेजी में फटकारने लगते हैं. इस पर थानेदार उन्हें संदिग्ध मानते हुए ‘ड्रॉअर’ खींचता है और किसी तस्कर की फोटो पर कनखियों से निगाह डालता है. फोटो भवानी से मेल खाता है. बस फोटो में मूँछें नहीं है. मुतमईन होकर थानेदार कहता है, “वेलकम होम, पास्कल डिकोस्टा!” इस नाम से पुकारे जाने पर भवानी भड़क उठते हैं. थानेदार सिपाहियों से उनकी मूँछों की सत्यता का परीक्षण करने का आदेश देता है. संभावित परिणाम न निकलने पर भवानी थाने में कोहराम मचा डालते हैं. इस बीच एक अन्य दरोगा जी आते हैं. वे फौरन भवानी शंकर को पहचान लेते हैं, “ये तो शहर के बहुत बड़े बिजनेसमैन हैं.”
क्षमा-याचना का दौर चलता है. भवानी शंकर थाने को क्षमा कर जाते हैं.
डॉक्टर मामा, देवेन व इष्ट मित्रों की उपस्थिति में रामप्रसाद-उर्मिला, परिणय सूत्र में बँध जाते हैं. भवानी शंकर नवयुगल से नाराज नजर आते हैं. डॉक्टर मामा और देवेन भवानी की मूँछों संबंधी धारणा का सिलसिलेवार खंडन करते जाते हैं. सभी के मनुहार पर भवानी बमुश्किल नवयुगल को आशीर्वाद देते हैं. फोटो सेशन के अंतिम दृश्य में भवानी शंकर मध्य में विराजमान दिखाई देते हैं. दर्शक अनुभव करते हैं कि अपनी धारणाओं को दरकिनार करते हुए भवानी शंकर भी मूछों को तिलांजलि दे चुके हैं.
फिल्म में संवाद बेहद चुटीले और तीक्ष्ण हैं. राही मासूम रजा साहब की लय और टाइमिंग लाजवाब तो है ही, उनसे एक स्तरीयता भी झलकती है. शेक्सपियर के ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ ड्रामा से प्रेरित होकर दोहरी भूमिकाओं को लेकर कई हास्य फिल्में बनी, लेकिन इस फिल्म में एक ही व्यक्ति अपनी नौकरी बचाने के लिए दोहरी भूमिका में नजर आता है और मारा-मारा फिरता है. दर्शक इस तथ्य से वाकिफ रहते हैं कि वह रामप्रसाद ही है. तो भी मात्र मूँछें लगा लेने अथवा हटा लेने से उसका नायकत्व अद्भुत रूप से बदला-बदला सा नजर आता है.
इस फिल्म में उत्पल दत्त का अभिनय दर्शकों के लिए अविस्मरणीय होकर रह गया. उनका इत्मीनान से ‘अच्छाआआ..’ कहना हो या फिर ‘ईईई.. बोलकर विस्मय से चौंकना, आगे यह उनका ट्रेडमार्क बनकर रह गया. उनकी पैनी सतर्क निगाहें और भावाभिनय दर्शकों को खूब रास आया. इस फिल्म के साथ ही, वे ऋषि दा के साथ ‘नरम-गरम’ और ‘रंग- बिरंगी’ में भी नजर आए. तीनों फिल्मों में बेस्ट कॉमेडियन का फिल्मफेयर अवार्ड उन्हीं के हिस्से आया.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें