गोमुख, गंगोत्री और तपोवन की यात्रा
– चेतना जोशी
अपनी सहूलियत से कभी धार्मिक होने, तो कभी नहीं होने में अपना मजा है. पर धर्म अगर पहाड़ों की सैर करा दे तो धार्मिक होना ही बेहतर है. यों तो पहाड़ों को देखने घूमने फिरने जाना अपने आप में ही मुकम्मल बात है. इसका किसी धरम या रिवाज को मानने ये न मानने से रिश्ता नहीं है. बड़े सारे लोग इसे एक उम्दा शौक भी मानते हैं. मानें भी क्यों न? ये होते ही हैं इतने खूबसूरत. ताकतवर इतने कि हमारे किसी पुराने नजरिए को बदलकर हमें नया ही इंसान बना दें. पहाड़ों में भी बात अगर विराट हिमालय की हो तो इस बात की बात ही निराली है. ये शौक एक नशे की तरह है और एक अजीब सी सनसनी देता है. पर इन सबसे ही परे हमारी गोमुख जाने की चाह के पीछे बात कुछ और ही थी. ये तो एक नदी को बनते देखने की इच्छा थी. इस चाह को लिए हम 6 जून 2015 की रात 11:55 पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में नंदा देवी एक्सप्रेस ट्रेन में चढ़े.
ठीक चार घंटे में हम हरिद्धार स्टेशन पर थे. हरिद्धार से आगे जल्द ही पहाड़ी रास्ता शुरू होगा. अब आगे केवल मोटर रोड से ही जाया जा सकता है. हमने रेल पटरियों को अलविदा कहा. अब बस अड्डा खोजा जाये. हरिद्धार बस और रेलवे स्टेशन पास पास ही हैं. बस अड्डे से पता लगा कि ठीक 6 बजे यहाँ से गंगोत्री के लिए सीधी बस निकलती है. गंगोत्री ही वो जगह है जहां से गोमुख के लिए पैदल रास्ता शुरू होता है. हम बीते दिनों इस ढूंढ – खोज में थे कि सस्ते में गंगोत्री कैसे पहुंचा जाए. इस सिलसिले में हमने इंटरनेट छान दिया. नजर कई ऐसी उम्दा वेबसाइटों पर पड़ी जो ऐसी जानकारियों से अटी पड़ीं हैं. इन वेबसाइटों से उत्तराखंड परिवहन की बसों से लेकर पहाड़ों में आमतौर पर चलने वाली सूमो जैसी छोटी गाड़ियों तक की जानकारी मिल सकती है. एक ही दिन में हरिद्धार से गंगोत्री पहुँच सकते हैं ये जानकर हमारे आँखों की चमक बढ़ गयी. क्योँकि इंटरनेट से जुटाई जानकारी के हिसाब से बस से जाने पर ये मुमकिन नहीं था. पर बस तो सामने ही खड़ी थी और उसके सामने लगा ‘हरिद्धार से गंगोत्री’ का पट्टा साफ़ बताता था कि ये दिन ही दिन में गंगोत्री पहुँचने को बेक़रार है. 6 बजने में समय है, आगे का रास्ता पहाड़ का है और सिर के घूम जाने की पूरी संभावना है. इस परेशानी से एवोमिन की गोली गटक-कर निपटा जा सकता है. पर उसके लिए पहले कुछ खा लेना चाहिए.
कुछ ही देर में हम बस के सामने बाहर खड़े थे. गोल-मोल रास्तों में चलने वाली बसों के सफर में इस बात से फरक पड़ता है की हम आगे की सीटों में बैठे हैं या पीछे की. आगे की सीटों में सफर थोड़ा आराम से होता है. हमारा मकसद बस की आगे की तरफ की सीटों को हथियाने का था. बहरहाल तो बस का दरवाजा बंद है. ड्राइवर कंडक्टर का कोई अता पता नहीं है. बस से जाने के लिए इकट्ठा हुईं सवारियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. इसके चलने का नियत समय भी निकल चुका है. पर बस के चलने का जैसा कोई नाम-ओ-निशा नहीं है. कहीं ऐसा तो नहीं कि ये चले ही ना और इस के चक्कर में हम यहीं फंसे रह जाएं? तमाम वेबसाइटों मे दर्ज ये बात कि ‘हरिद्धार से गंगोत्री’ कोई सीधी बस नहीं जाती बार बार याद आई. आखिर बात क्या है? काउंटर के चक्कर लगाने पर मालूम पड़ा कि ये बस तो ख़राब है. आगे नहीं जाएगी. पर हम वहीं डटे रहे. थोड़ी ही देर में पता लगा कि बस तो ठीक है पर ड्राइवर साहब सोये हुए हैं. जब उठेंगे तो बस चल देगी. पर चूँकि बस देर से निकलेगी तो अब ये गंगोत्री तक नहीं जा पायेगी. अब ये भटियारी तक ही जाएगी. भटियारी उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच बसा छोटा सा क़स्बा है. बस का ड्राईवर होना जिम्मेवारी का काम है और ड्राईवर का पूरी नींद लिए होना भी जरूरी है. इसलिए समझदारी चुपचाप बस की योजना के हिसाब से अपने को बदलने में ही है. आँखों की चमक अब ‘बस’ के ‘बस’ चल देने की आशा में तब्दील हो गयी.
साढ़े सात बजे के आस-पास कुछ हलचल हुई. ड्राइवर साहब अपनी सीट के बगल वाले दरवाजे से बस के अंदर आए. अंततः उन्होने बस का गेट खोला. गेट क्या खुला घमासान ही शुरू हो गया. ऐसा लगा कि सभी को बस में आगे की ओर की खिड़की के पास वाली सीट ही चाहिए. इसके लिए खींचतान का सहारा लेना भी मंजूर है. पूरा हुजूम बस की तरफ लपका और कुछ देर के लिए अफरा-तफरी सी मच गयी. पर हमारी तैयारी भी पूरी थी. हमारी योजना के तहत पहले जा के सीट हथियाने का काम मेरे जिम्मे था जब कि वेद को बाद में सामान के साथ आना था.
जद्दोजहद के बाद बस के अंदर जाने में तो हम सफल हुए पर ये क्या? किसी सीट में रुमाल पड़ा है, किसी में पानी की बोतल तो किसी में ऐसा मुसाफिर जो पूरी सीट ही घेरे हुए है. आगे की तो छोड़ ही दें कहीं भी तो जगह नहीं दिखती. अनुभवी सवारियों ने खड़ी बस में ही शीशे खोल-खोलकर अपने छुट पुट सामान डालकर कब्जे किये हुए हैं. कब्ज़ा करना उन कुछ एक आदतों में है जो हम छुटपन में ही अच्छे से सीख लेते हैं. फिर ये तो बस की अदना सी सीट ही है. खैर हम पीछे से चौथी पंक्ति में खिड़की और उसके साथ वाली सीट पाने में सफल होते हैं. खुश हैं कि एक काम पूरा हुआ.
ड्राइवर सो जाये तो जो स्थिति उत्पन्न होती है उससे कैसे निपटा जाये? इसका जवाब तो इंटरनेट रुपी महाग्रंथ के किसी वेबसाइट रुपी पाठ में लिखा हुआ नहीं पाया था. इसलिए भटियारी दूर था और हमारी किसी भी योजना से बाहर था. भटियारी के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते इसलिए उत्तरकाशी तक का ही टिकट कटाते हैं. बस के चलने का मुहूर्त करीब आठ बजे आता है और आखिरकार वो चल पड़ती है. और क्या बढ़िया चलती है! बिना अटके बिना रुके. यहाँ तक कि सवारियों के खाने पीने की भी परवाह नहीं करती. ऋषिकेश, नरेंद्रनगर, चम्बा, धरासू होते हुए गाड़ी नई टिहरी के पास ऊपर से गुजरती है. पहाड़ों को देखने में रास्ता अच्छा ही गुजरता है चाहे वो जून के सूखे हुए पहाड़ ही क्यों न हों. कुछ असामान्य नहीं होता जिसको लिखा जाये. पर एवोमिन की तारीफ में दो शब्द जरूर कहे जा सकते हैं. कमाल की गोली है. पहाड़ों में बस के सफर में अगर सिर न चकराए तो खूबसूरत रास्ते सचमुच में हीं मंजिलें हैं. एवोमिन में कमीं है तो बस एक. ये आँखों में नीद को पनाह देती है. सोने का इरादा बिल्कुल भी नहीं था. कुछ नयी बढ़िया चीज सामने आये तो वेद हिला हिला के आँखे खुलवा देते थे. जब भी आँखें खुलती थीं आब-ओ-हवा निराली ही महसूस होती थी.
दिन बढ़ते गर्मी भी बढ़ी. इतनी कि पसीने छूट गए. सर्दी से ठिठुरने की उम्मीदों के उल्टे ये मौसम कुछ अटपटा है. करीब डेढ़ बजे पसीने बहाते हम उत्तरकाशी पहुंचे. जो कि काफ़ी गर्म जान पड़ रहा है. उत्तरकाशी के बस स्टेशन के आसपास का इलाका भी सूखा-सा रसहीन था. खैर हमें हमारा ठिकाना पता था. बस स्टेशन के ठीक सामने का ‘राजेंद्र पैलेस’ जिसके ‘इन-चार्ज’ भंडारी जी से पहले से ही बात की हुई थी. राजेंद्र पैलेस में पैलेस जैसी कोई बात नहीं थी. इस बात का हमें पहले से ही अच्छी तरह अनुमान था और हमारी उससे अपेक्षा भी कुछ खास नहीं थी. ये बस अड्डों के पास उगे सरायों जैसा ही है. पर इसका छोटा सा कमरा रात गुजारने के लिए काफी था. रहने के ठिकानों के नामों के आगे पैलेस क्यों जोड़ा जाता होगा? ये समझना उतना ही दिलचस्प होगा जितना कि ये जानना कि सिनेमाघरों के नाम कैपीटल क्यों रखे जाते हैं. उत्तराखंड की शान बर्फ से ढ़के ‘औली’ का फोटो दिवार पर टंगा था. कमरा अंदर से ठंडा था. पानी भी ठंडा था. शायद फोटो के बर्फीले पहाड़ों से ठण्ड लेकर ही कमरा ठंडा हुआ हो. वर्ना बाहर तो हमने उत्तरकाशी को ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा शिकार ही घोषित कर दिया था.
इस शहर को देखने का आज मौका है. ज्यादा देर कमरे के अंदर रहने का कोई मतलब नहीं है. हम करीब एक-डेढ़ घंटे बाद बाहर निकले. निकलते ही खुश होने का मौका मिला. मौसम का मिजाज जो पूरी तरह बदला हुआ था! मौसम सुहावना हो चुका था. बारिश की हलकी हलकी बूँदें पड़ रही थीं. ये हुई न पहाड़ों वाली बात.
उत्तरकाशी मतलब उत्तर का काशी. यहाँ के विश्वनाथ मंदिर की मान्यता काशी के विश्वनाथ जैसी ही है. थोड़ी ही देर में हम छतरी ताने विश्वनाथ मंदिर के सामने खड़े थे. पत्थरों का बना सुन्दर पुराना मंदिर एक बार को जागेश्वर, बैजनाथ, कटारमल सूर्य मंदिर और द्वारहाट में बने पुराने मंदिरों की ही शैली का लगता है. पर दूसरे मंदिरों के उलटे इस की चाहर दीवारी के रंग-रोगन ने इसे शहरी बना दिया है. मौसम अब तक पूरी तरह बदल चुका है और बारिश तेज़ हो गयी है. इन सब के बीच मंदिर के ठीक सामने बने छोटे से अहाते में एक शादी हो रही है. जिसकी रौनक को बारिश ने कम कर दिया है. अहाते में बने बांये शेड के नीचे इस शादी के अति विशिष्ट लोग जैसे दूल्हा-दुल्हन, उनके माँ –पिता और पंडित फटाफट हवन करवा रहे हैं जब कि दायें शेड के नीचे सजे-धजे रिश्तेदार परिचित जमा हो गए हैं. हमने मंदिर के बाहर एक टीन शेड में जगह ले ली है. टीन में पड़कर बारिश की बूंदे उसके तेज़ होने का अहसास करा रहीं हैं. आनन फानन में हवन निपटा के पगड़ी सँभालते हुए दूल्हा और लहंगा समेटते हुए दूल्हन ने भी अंततः इसी टीन की शरण ली. चंद मिनटों में बारिश थमी और हम नदी तक पहुंचने का रास्ता पूछते नीचे निकल आये.
उत्तरकाशी भागीरथी के दोनों ओर बसा हुआ है. गंगोत्री से आई भागीरथी नीचे देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलेगी और उसके आगे गंगा कहलाएगी. नदी देखकर सुकून सा हुआ. बीते कई सालों मे हमने इतनी भरी हुई सी नदी नहीं देखी थी. नदी के उस पार वाले हिस्से में जाने के लिए लोहे का पुल बना हुआ है. ये झूलता हुआ सा है. नदी को उस पार जाकर भी निहारा. चलते फिरते पानी की बात ही निराली है. शाम हो आई थी और शहर भर के छोटे- छोटे रात के सूरज घर घर जगमगा उठे थे. उनकी चमक से नदी भी चमक रही थी.
बढ़ती ठण्ड के साथ पहाड़ों में ‘पहाड़ में’ होने जैसा लगने लगा. अपनी ठण्ड के बिना पहाड़ भी अधूरे हैं. दुनिया भर का बढ़ता तापमान चिंता का विषय बना हुआ है. इसका सबसे बुरा प्रभाव पहाड़ों पर पड़ेगा और पहाड़ों मे भी हमारे हिमालय सबसे ज्यादा बर्बाद होंगे. ऐसी खबरें आती ही रहती हैं. इसकी वजह हमारे व्यवहार का पहाड़ों के अनुकूल नहीं होना ही बताया जाता है. इस बात का अहसास भी खूब हुआ और नदी के मुहाने में चालू कंस्ट्रक्शन काम के चलते हुए शोर-शराबे और गंदगी से अफ़सोस भी.
नदी से वापस अपने ठिकाने की ओर चले तो उत्तरकाशी का बाजार बीच मे आया. बाजार साफ़ – सुथरा, छोटा और खूबसूरत है. यहाँ से कुछ बिस्किट, केक और टोर्च लीं. ये सब गौमुख और आगे हमारे काम आएंगे. देर शाम हम वापस राजेंद्र पैलेस पहुंचे. इस पैलेस का मुख्य आकर्षण इसका बस स्टेशन के बेहद करीब होना है. अभी शाम ही है और रात के खाने में अभी समय है. हम थोड़ा थक भी गए हैं. खाने से पहले थोड़ा आराम कर लेना चाहिए.
आराम कुछ लंबा ही हो गया और आँख सीधे अगली सुबह चार बजे के आस-पास ही खुली. हमने बस्ते बांधे और पैलेस वालों को अपना कर्ज अदा किया. 6 बजे तक हम बस स्टॉप पर थे. मकसद सात बजे उत्तरकाशी से गंगोत्री के लिए निकलने वाली बस को पकड़ने का था. अगली बस दोपहर बाद ही मिलेगी इसलिए सुबह की पहली बस पकड़ना जरूरी है.
वाह बस तो सामने खड़ी है! हम लंबे डग भरते उस तक पहुंचे. अरे ये क्या बात हुई? ये तो पहले से ही भरी हुई है. बस की सबसे पिछली कतार में 3-4 सीटें ही बची हैं. पता लगा की ये एडवांस का मामला है. इस बस की सीटें एक दिन पहले ही सुरक्षित की जा सकती हैं. अब तो जो मिल रहा है उसी में संतोष कर लेना अच्छा है.
बस ठीक समय पर चल दी. उत्तरकाशी से गंगोत्री बस यात्रा कई मामलों मे यादगार रही. इसको यादगार बनाने का श्रेय खचाखचा भरी बस में हम से आगे की सीट में विराजे दो हरियाणा से आए लोगों को था. सुर ताल के साथ वे प्रकृति पर आधारित फ़िल्मी गीत गाते हुए चले. उनका जोश पाँच घंटे मे रत्ती भर भी कम नहीं हुआ. अगर कोई कमी रह भी गयी हो तो वो कंडक्टर के बगल वाली सीट में डमरू लेकर बैठे एक 70-75 साल के बुजुर्ग ने पूरी की. बुजुर्ग गढ़वाली लोकगीत और देवी गीत गाते हुए भाग लगाते हुए चले. हमारे बगल में बैठे बाबाजी पर ऐवोमीन का कोई असर नहीं दिख रहा था और वे पूरे सफर मे उलटते हुए चले.
उत्तरकाशी से गंगोत्री तक एक न एक तरफ भागीरथी रहती है. हरा भरा इलाका मनमोहक है. मनेरा, भटियारी , गंगनानी, हरसिल, धराली, लंका, भैरोघाटी आते आते तो क्या देखो और क्या छोड़ो वाला हाल हो गया. हरसिल के सुन्दर हरे-भरे इलाके में ऊँचे झरने हैं. पानी की इतनी इफरात बारिश के मौसम के आने से पहले. बाद में न जाने क्या होगा. पर रास्ता कच्चा-पक्का है. इस तरफ के पहाड़ कच्चे हैं और दिल थाम के बैठना जरूरी है. भैरोघाटी में जाड़गंगा पर बने ऊँचे पुल पर यकीं ही नहीं हुआ कि हम असल ज़िंदगी में ये देख पा रहे हैं. जाड़गंगा का वजूद भैरोघाटी तक ही है. आसपास ही कहीं ये भागीरथी में मिल जाएगी. दो संकरी ऊँची नंगी सफ़ेद- भूरी चट्टानों के बीच में बहती जाड़ गंगा. इस जिंदगी में इस द्रष्य को हम शायद ही भूल पाएँ.
करीब एक बजे हम गंगोत्री पहुंचे. महसूस नहीं हुआ पर अनुभवी बस ड्राईवर ने एक सौ दस किलो मीटर का सफर करीब बीस किलो मीटर प्रति घंटे कि रफ्तार से पूरा किया था. गंगोत्री में हमारा ठिकाना कीर्तिलोक होटल था जिसको चलाने वाले राणा जी से पहले ही बात हो चुकी थी. पता लगा की कीर्तिलोक बिल्कुल पास में ही है. बस स्टॉप से गंगोत्री मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पर कई सारे होटल सराय आदि बने हुए हैं. सब कुछ साफ-सुथरा रंगबिरंगा और खूबसूरत लग रहा है. दिन भर में कुछ एक बसें ही गंगोत्री आती हैं. ऐसा लग रहा है की सब को इस बस के गंगोत्री आने की खबर हो गयी है. होटलों से उनके मालिक निकलकर सड़क पर आ गए हैं और बस से उतरी सवारियों को अपने ही होटल में खींच ले जाने की फ़िराक में हैं.
थोड़ी ही देर में हम कीर्तिलोक के कमरे में हैं. लकड़ी का बना ये कमरा छोटा पर खूबसूरत है. इस छोटे से कमरे में पीछे बाहर की तरफ खुलने वाला एक दूसरा दरवाजा भी है. कौतूहल हुआ कि दरवाजे के पार क्या होगा ? अरे ये तो पीछे नदी की ओर खुलता है. दरवाजा खोलते ही पानी की छलबलाहट और शोर ने कमरे को भर दिया. ये भागीरथी के बड़े पत्थरों से टकराने, रास्ता बनाने और ऊंचे दरख्तों से बड़ी बेफिक्री से सब कुछ रौंदते हुए नीचे आने की गरज थी. दरवाजे से आयी ठंडी हवा के झौंके ने हमे मस्त मौला बना दिया. जिंदगी मेँ हमें चाहिए भी तो क्या ? हर पल नायाब नजारे दिखने वाले ये दरवाजे और खिड़कियाँ जिनसे ताजी हवा आर पार हो. हम होश खोने को बेकरार थे पर हक़ीक़त ने ऐसा होने नहीं दिया. ये दर्शन द्वार तो नरकद्वार साबित हो सकता है. दरवाजे के आगे बना संकरा अहाता बिना दीवार का है. अगर दो कदम भी दरवाजे के बाहर उठाये तो सीधे नीचे की मंजिल पर पहुचेंगे. हड्डियाँ जो टूटेंगी सो अलग. हमारी भलाई इसको बंद रखने में ही है.
कुछ खा पी के हमने गंगोत्री मंदिर की तरफ रुख किया. बहुत ही छोटा क़स्बा होने का फायदा कि सब कुछ अगल-बगल ही है. मंदिर मार्ग पूजा सामग्री, सिंदूर, ताबीज, चूड़ियों, भगवान की छोटी बड़ी तसवीरों, छल्लों, लाकेटों, मूर्तियों की दुकानों से भरा हुआ है. खरीददार इक्के दुक्के हैं. इन दुकानों की मौजूदगी ने रास्ते को बेहद जीवंत बनाया है.
मंदिर के बाहर एक बोर्ड लगा है. जिसमे लिखा है ‘हिमालय की गोद में बसा यह तीर्थ स्थल, जहां गंगा माँ ने धरती को कृतार्थ किया था. पुराणों के आधार पर स्वर्ग की बेटी गंगा देवी ने नदी का रूप लेकर राजा भागीरथ के पूर्वजों को पाप मुक्त किया था. पुराणों के अनुसार भगवान शिव ने गंगा देवी का वेग कम करने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में लिया था. भागीरथी के दायें तट पर गंगा देवी को समर्पित मंदिर 18 वी शताब्दी मे निर्मित है. यह तीर्थ स्थल समुद्र तल से 3,140 मी की ऊंचाई पर स्थित है’.
सफ़ेद रंग से पुता गंगोत्री मंदिर गंगोत्री कस्बे की तरह ही शांत और स्निग्ध है. मंदिर का रुख गोमुख की ओर है और इस के पीछे ऊंचे पहाड़ हैं. मंदिर से गोमुख की ओर लंबा और चौड़ा विराट द्रश्य मुग्ध करने वाला है. नदी किनारे की छलबल, घंटियों की आवाजों और साफ मौसम में आई धूप ने मंदिर को और भी पावन बना दिया था. दोपहर में मंदिर में खालीपन पसराया है. इस खालीपन की वजह से हम जितनी देर तक चाहें यहाँ समय बिता सकते हैं. इस जगह में जो खास है उसको अपने में समेटने सोखने के हिसाब से ये एक नायाब बात है.
शाम से पहले हमे गाइड की तलाश भी करनी है. सोचा मंदिर में मौजूद लोगों से इस बारे पूछताछ की जाये. जिस बेंच में हम बैठें हैं उसके बगल वाली बेंच में कुछ लोग हैं जो फोटो खिंचवा रहे हैं. फोटोग्राफर तो अपने तौर तरीकों से यही आसपास का बंदा नजर आ रहा है. 18-19 साल का नौजवान फॉटोग्राफर कागज पर तस्वीर निकालकर फटाफट देता है. वो शायद किसी गाइड को जनता हो?
‘हमे गोमुख और तपोवन जाना है. क्या आप किसी गाइड के बारे में बता सकते हैं’? हमारा ये कहना ही था की फोटोग्राफर भाई साहब ने अपना कैमरा फटाफट बगल में नीचे बेंच पर रख दिया. हमारी तरफ मुखातिब हुआ और बोला ‘मैं भी गाइड हूँ. अभी 3-4 दिन पहले ही तपोवन से वापस आया हूं. फोटोग्राफी तो में खाली समय में सीखने के लिए करता हूं.’ वो हमारा गाइड बनने के लिए बेहद आतुर है. पर हमें उसके गाइड होने पर शक है. जल्दबाजी में इसके साथ कुछ भी तय करना ठीक नहीं. ये हमें शायद ठीक तरह तपोवन नहीं पहुंचा पायेगा. विकास राणा नामक इस शख़्स को हमने शाम की आरती के वख्त मंदिर में फिर से मिलने का वादा किया. कुछ भी तय नहीं किया. ऐसा करने से हमे थोड़ा वक्त मिल जायेगा और शायद कोई बेहतर गाइड भी. उसने हमारा फोन नंबर ले लिया और हम से कहा कि परमिट में हम उसका ही नाम डलवा दें. गंगोत्री मे केवल भारत संचार निगम के फोन ही काम करते हैं और हमारे नंबर निजी कंपनियों के हैं. इसलिए नंबर दे के भी हम सुरक्षित थे.
परमिट 5 बजे से बनते हैं. हमारे पास करीब डेढ़ घंटे का समय है. इतनी देर में हम गंगोत्री घूम सकते हैं. गंगोत्री में मंदिर के अलावा गौरीकुण्ड, सूर्यकुण्ड और पांडव गुफा देखने लायक हैं. मजबूत सफ़ेद-भूरी चट्टानों के ओटों से भागीरथी के तेज़ धारे कुण्ड के आकार के दरख्तों में गिरकर उसको भर कर छल छलाते हुए आगे बढ़ते हैं. नदी पर बने लोहे के पुल से इन्हें देखा जा सकता है. पुल को पार करीब एक किमी आगे पांडव गुफा है. गुफा के अंदर बाबाजी लोग विराजे हैं. धूँए से भरी गुफा मे उन्होने लकड़ी जलाकर गर्मी लायी हुई है. जब आँखें धुएँ और अंधेरे की अभ्यस्त हुई तो जटाधारी बाबाजी की काया और चिलम चमक उठे. पिछले कई सालों से बाबाजी का ये ही अड्डा है. वो लोगो की आवाजाही पसंद करने वाले जान पड़ते हैं. कुछ देर बाबाजी के साथ बिताकर हम रूखसत लेते हैं.
पांच बजे हम वापस बस स्टेशन पर थे. जिसके पास ही वन विभाग वालों का दफ्तर है. गंगोत्री से आगे ‘गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान’ संरक्षित क्षेत्र है और वहाँ जाने के लिए वन विभाग से परमिट लेना जरूरी है. एक दिन मे केवल 150 परमिट ही जारी होते हैं जिसमे से गंगोत्री के वन विभाग के दफ्तर से हर दिन केवल 30 परमिट ही जारी किए जाते हैं. इसलिए देर से पहुंचने का कोई मतलब नहीं है. हमारे पहुँचने तक दफ्तर खुल चुका है और सरगरमियाँ तेज़ मालूम पड़ रहीं हैं. ख़ैर बिना किसी अड़चन के कुछ औपचारिकताएँ पूरी कर के हमें 3 लोगों का परमिट मिल गया. तीसरा परमिट गाइड के लिए था पर हमने किसी गाइड का नाम दर्ज नहीं कराया था. परमिट ले कर हम बाहर निकले ही थे और चर्चा कर ही रहे थे कि कैसे अब एक अनुभवी गाइड को ढूंढा जाए हमने अपने सामने विकास राणा को खड़ा पाया. हम समझ गए कि हमारी धर पकड़ हो चुकी है. हमने भी हाथ खड़े कर दिये. उसने तुरत फुरत में हमारे परमिट का निरीक्षण भी कर लिया. किसी भी गाइड का नाम नहीं लिखा होने पर वो थोड़ा निश्चिंत हुआ. परमिट लेकर उसने फटाफट दफ्तर का रुख़ किया और अपना नाम डलवा के ही छोड़ा. विकास राणा ने हमें ज्यादा मौके नहीं दिए और हमारी गाइड की तलाश अपने आप ही पूरी हो गयी. काश जिंदगी की दूसरी चाहते भी इतनी ही आसानी से पूरी होतीं. राणा जी के आदेश पर हमने दस्ताने और टोपी खरीदी. अगली सुबह 5:30 बजे तक तैयार रहने को कहकर वो चला गया. साथ ही पराठे लेकर चलने की हिदायत भी दे गया.
एक नोट कीर्तिलोक के इन चार्ज राणा जी के नाम. गंगोत्री पहुंचने पर जब हम एटीएम की तलाश में निकले तो जान कर सिर ही घूम गया कि गंगोत्री में अभी ये सुविधा नहीं है. ऐसे में राणाजी ने भरोसा दिलाया कि अगर हमारी जेब बिल्कुल खाली हो जाती है तब भी हम उनके होटल में रह सकते हैं और वापस उत्तरकाशी पहुंचकर उनके परिचित को भुगतान कर सकते हैं. अपनी जरुरत भर का समान पिट्ठू में भरकर हमने बाक़ी समान राणा जी के कमरे में रख दिया. खाना बनाने वाले को सुबह 5 बजे तक 10 पराठे पैक रखने को बोलकर हम वापस गंगोत्री दर्शन को निकल लिए जो अब सुनहरा हो कर जगमगा उठा था. मंदिर मे भी चहल पहल दिन से कहीं ज्यादा थी. आदमी, औरतें, बुजुर्ग, बच्चे सब पालथी मारकर बैठे थे. आरती की तैयारियां जोरों पर थीं.
अगली सुबह 5:30 बजे विकास हाजिर था. चाय पी के 6 बजे के करीब हम गंगोत्री मंदिर की ओर को निकले जिसके अहाते से ही गौमुख को रास्ता शुरू होता है. शुरुवात ऊँची खड़ी सीढ़ियों से होती है. इलाका हरा भरा है और शुरुआत मे हम तेज़ी से निकलते हैं. करीब 2 किमी चलने के बाद वन क्षेत्राधिकारी, गंगोत्री नेशनल पार्क, गंगोत्री रेंज का ऑफिस आता है. यहाँ परमिट चेक होते हैं. चेकपोस्ट के बाहर जंगली भरल (ब्लूशीप) के पोस्टर चस्पा हैं. ये इनका इलाका है. भाग्य का साथ होने पर इनको देखा जा सकता है.
अगला चेकपोस्ट चीड़वासा में है जो कि अभी 7 किमी दूर है. गंगोत्री के बाद अगली चाय भी वहीं मिलती है. नदी के बहने की उल्टी दिशा में पगडंडियों से होकर जाना है. रास्ता मुश्किल नहीं है. पर कहीं कहीं पर पगडंडियाँ बर्फ से ढकी हुईं जरूर हैं. बर्फ के ये बड़े ढ़ेर पहाड़ों के ऊपर से नीचे आए होंगे और यही जमे रह गए. इन ढ़ेरों के ऊपर मिट्टी, धूल, पत्ते जम गए. जब इनको डंडे से खोचो तो ही ये एहसास होता था की ये बरफ के ढेर हैं. वरना तो इनमे और मिट्टी-पत्थरों के ढेरों मे फरक करना मुमकिन नहीं है. इन बर्फीले ढेरों के ऊपर से ही पगडण्डी बन गयी है. कहीं कहीं इन के ऊपर सीढ़ियाँ भी नक्काश दी गयी हैं. बरफ ने नीचे नदी को भी लम्बाई में कई कई मीटर बर्फ से ढका हुआ है. पर नदी ने बर्फीले ढेरों के नीचे से ही अपना रास्ता निकाल लिया है.
रास्ते में पानी के कई स्रोते चट्टानों से फूटते हुए दिखते हैं. कहीं ये ऊंची चट्टानों में कहीं ऊपर से पानी की छोटी बूंदों-फुहारों की तरह निकल रहे हैं और सराबोर कर जाते हैं तो कहीं बिलकुल बगल में से निकलते छोटे- धारे की शक्ल में हैं और मटरगश्ती में रास्ता काटते हुए निकल जाते हैं. दो भयंकर खड़ी ऊंची चट्टानों के बीच की संकरी दरारों के बीच से होकर कई गाड़ें शोर मचाती चली आ रही हैं. ये छोटे बड़े पत्थरों से अटी पड़ीं हैं. सब धारे, छोटी बड़ी सभी गाड़ें एक दूसरे में समाती हुईं बड़ी से बड़ी बनती हुईं बढ़ती जा रही हैं. इनको पार करने के लिए इनके किनारे पर पड़े ऊँचे बड़े पत्थरों के ऊपर टीन की पट्टियाँ जमाईं हुई हैं. टीन की इन पट्टियों ने इलाक़े की खूबसूरती को और भी बढ़ा दिया है.
बहते पानी के उलटी दिशा में नदी को समकोड़ पर काटती भागीरथी पर्वत की तीन चोटियां अब धूप में चमक उंठी हैं. हम रुक रुक कर उनको निहारते जाते हैं. हर अगले मोड़ पर वो ज़्यादा निखरी हुई नजर आती हैं. कभी कभार हवा में दौड़ते फिरते बादलों की कोई टोली उन चोटियों पर टंग सी जाती है. पर इन बादलों को रूकना गवारा नहीं. साफ़ नीले आसमान पर रुई जैसे वो न आने में समय लगाते हैं और ना ही रूकने में समय जाया.
पांच छः किमी तो मजे में ही निकल गए. पर अब पीठ के बोझ का अहसास होने लगा है. चीड़वासा का इंतज़ार है. चीड़वासा मे चीड़ के घने जंगल हैं. वो दूर से दिखाई देने लगे हैं. रास्ते में लगे बोर्ड के हिसाब से यहाँ रई (स्प्रूस), मोरिंडा (सिल्वर फर), कैल (ब्लू पाइन) और देवदार (हिमालयन सिडार) के 1200 पेड़ 2001 में लगाए गए थे. पेड़ दिख रहे हैं तो जगह भी पास ही होगी. हर अगले मोड़ पर विकास हम से कहता है कि अब अगले मोड पर ही चीड़वासा है. उसकी बात सच मानने में ही हमारा भला है. रूकते, देखते हम चलते रहते हैं.
3600 मीटर की ऊंचाई में बसे चीड़वासा चेक पोस्ट पर नाम और गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में रहने की अवधि दर्ज करानी होती है. पराठे खाने के लिए यह जगह ठीक है. चेकपोस्ट में तैनात लोग चाय भी पिलाते हैं. बस्ते वही रखकर हमने पानी के एक छोटे से स्रोते के पास बैठकर गरम चाय की चुसकियाँ लीं. चीड़वासा के आगे बीएसएनएल के मोबाइल सिग्नल भी नहीं हैं. दीन दुनियां से परे समय गुजारने के लिए भी ये जगह अच्छी है.
चीड़वासा में हम करीब आधा घंटा रुके होंगे. हम थोड़ा और सुस्ताना चाहते थे पर विकास राजी नहीं था. वो फटाफट हमें भोजवासा पहुँचाना चाहता था. बीच मे रुकना कोई समझदारी नहीं है. अब तो उठना ही होगा. जब चलने को उठे तो लगा उठ ही नहीं पायेंगे. शरीर की किस किस हड्डी को हमारे चलने से फरक पड़ा है समझ आने लगा था. हम सामान टाँगकर कभी धीरे कभी मध्यम कही रुकते कही फोटो लेते चलते रहने की कसम खाते बढ़ते रहे. जल्द ही हरियाली भी पीछे की बात हो गयी. पहाड़ों का आकर और प्रकार दोनों ही तेज़ी से बदल गए. पगडंडियां तंग और पहाड़ मिटटी के ढेर से हो गए हैं. ऐसा कि मानो एक चट्टान के ऊपर 35 -40 फीट की ऊंचाई वाले मिट्टी-पत्थरों के कई ढेर रखे हों. ये एक अजीबोगरीब कुदरती करिश्मा सा लगा. हम पहली बार ऐसा कुछ देख रहे थे.
पगडंडियों पर मिट्टी के नीचे से चमकीली धातुएं झाँकती थीं. इस इलाके में लैंडस्लाइड होते रहते हैं. छोटे छोटे पत्थर तो नीचे ढुलकते ही रहते हैं. 100-200 किलो सामान लाद लादकर ले जा रहे पोर्टर हमें इस इलाके को तेज़ी से पार करने की हिदायत देते निकल गए. यहाँ पर धीरे चलने का मतलब नहीं है. पर जल्दबाजी भी किसी काम की नहीं. रास्ता खूबसूरत पर जोखिम भरा जो है और बचते बचाते निकलना है. भागीरथी की चोटियों के साथ ही अब दायीं तरफ की बर्फीली चट्टानें भी साफ दिखने लगी हैं. इसी बीच हमने एक पोर्टर को अपना बैग भी थमा दिया जो उसे चीड़वासा में छोड़ देगा. विकास भी पोर्टर के साथ ही निकाल गया.
करीब डेढ़ बजे हम भोजवासा पहुंचे जिसका मतलब है कि हम चौदह किमी चल चुके हैं. वैसे ये कोई बड़ी बात नहीं पर पहाड़ के रास्ते मे इतना भी चल पाना हम जैसे आधे शहरी लोगो के लिए काफी है. आज का सफर पूरा हुआ. ऊपर से दिखने में भोजवासा नदी के बगल में बसी फौज की छावनी जैसा है. यहाँ हमने सीधे राम बाबा के आश्रम में शरण ली. हालाकि यहाँ बंगाली बाबा का आश्रम और गढ़वाल मण्डल विकास निगम का एक यात्री आवास गृह भी है. राम बाबा के यहाँ जाना विकास ने तय किया था.
आश्रम में न तो बाबा दिखे न ही आश्रम जैसी कोई निशानी. बाबा कहीं बाहर गए हुए हैं. आश्रम एक बच्चा चला रहा है. उसने हमें चाय पिलाई. यहाँ बर्तन बर्फ जितने ठन्डे पानी से धो कर रखने होते हैं. सामान काले रंग के बड़े से टेंट के अंदर रख कर हम बाहर रखी कुर्सियों पर पसर गए. धूप तेज है और बढ़ती ठंड में इसे सेकने का मज़ा ही अलग है.
आश्रम में हमारी मुलाकात दीपक राणा से हुई. ये एक पर्वतारोही हैं. विकास उनसे बातें कर रहा है. वो उनको पहले से ही जानता है. उनकी आँखें बड़े से काले चश्मे के पीछे छिपी हैं. चश्मे से बचा जो चेहरा नजर आ रहा है वो भी बेहद लाल हुआ है. चेहरे पर छोटे छोटे चकत्ते से भी हैं. उन्होने बताया कि वो अभी भागीरथी की दूसरे नंबर की चोटी को फ़तेह कर लौटे हैं. ऐसा करने में उनको केवल चार दिन ही लगे जो कि उनके हिसाब से एक नया रिकॉर्ड है. उन्होंने हमारे साथ कुछ रोचक साहसिक किस्से साझा किये. पिछले साल के उनके माउंट एवरेस्ट को फ़तेह करने के अधूरे प्रयास का ब्योरा रोंगटे खड़े करने वाला था. बर्फीले तूफ़ान की वजह से आधे रास्ते में पहुँचकर उनको आगे बढ़ने का विचार छोड़ एक हाथ में सामान पकड़े वापस लौटना पड़ा था. इस सब के दौरान कड़कती ठंड में भारी सामान को देर तक पकड़ने की वजह से उनके एक हाथ की छोटी ऊँगली उनसे अलहदा हो गयी. चाय पी के वो गंगोत्री के लिए निकल गए.
सुबह से आसमान पर तेज़ दौड़ते बादल अब धीमी चाल से रेंगते से नजर आने लगे थे. शायद ये पानी से भरे हुए हों इसीलिए धीमे चल पा रहे हों. वजह जो भी हो इन्होने धूप को निगल के ठण्ड को पसार दिया है. फिर हम भी स्थिर हो गए थे तो हमने भी उसे महसूस करना शुरू कर दिया था. साढ़े तीन बजे तक तो पारा काफ़ी नीचे आ गया. बाबाजी के आश्रम में बच्चे की बनायीं खिचड़ी खाकर हम नदी के किनारे निकल आये. कड़कड़ाती ठंड मे नदी किनारे चहल कदमी कर हम बायीं ओर को मुड़ लिए जहाँ नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ हाइड्रोलॉजी, रूड़की का बोर्ड लगा था. बगल में लगे वेदर स्टेशन से मालूम होता था कि वैज्ञानिक लोग यहाँ पर निरीक्षण परीक्षण करते होंगे. इंस्टिट्यूट के छोटे से सेट अप में मुलाकात अजय शर्मा जी से हुई. उन्होने हमें अपने कमरे मे बिठाया जिससे वो लैब, घर और दफ्तर का काम ले रहे हैं. वो यहाँ 40 दिनों के लिए आये हैं. वह परीक्षणों से भागीरथी नदी में सालाना बहे हुए पानी की मात्रा का अनुमान और गुड्वत्ता की जाँच करते हैं. चालीस दिन इस बेहद ठंडी जगह में काटते हैं. उनके इस छोटे से कमरे के अंदर ठंड इतनी बढ़ चुकी थी कि हम कांपने से लगे थे. ऐसे में शर्मा जी की पिलाई काफी अमृत जैसी महसूस हुई.
घूम फिर कर हम वापस टेंट की ओर को लौटे. इस टेंट मे अब तक दो बंगाली, दो जर्मन, एक बुजुर्ग और हम सब के गाइड लोग थे. देर शाम तक बातचीत का सिलसिला चला. गाइड लोगों ने अपने मजेदार अनुभव सुनाये. इसी बीच आश्रम चालक का फरमान आया की रात का खाना तैयार है और हमें पास की झोपड़ पर खाने के लिए पहुँचाना होगा. अभी तो 5 ही बजे हैं. रात के खाने के हिसाब से ये काफी जल्दी है. टालने की काफी कोशिशों के बाद हमने 6 बजे तक दाल चावल खा ही लिया. रौशनी न होने की वजह से अब हमारे पास सोने के अलावा कोई और काम नहीं था.
एक टेंट में 10-12 बिस्तर तो रहे ही होंगे. हमने ऊनी गरम कपड़ों की कई परतें पहनी हुई थीं. अपने ऊपर रजाई कंबलों की भी कई परतें डाल लीं. पर ठण्ड जाने का नाम ही नही ले रही थी. मोजों की कई परतों के अंदर मौजूद पैरों की उँगलियाँ बरफ की सिल्लियों सी ठंडी थीं. दस्तानों में छुपी हाथ की उँगलियों का हाल भी कुछ अलग नहीं था. पर थकान ठण्ड पर भारी पड़ी और नींद आ ही गयी.
जितनी जल्दी नींद आई उतनी ही जल्दी टूट भी गयी. करीब 11 बजे थे और टेंट मे अजीब सी दुर्गन्ध फैली थी. दम घुट सा रहा था. एक तो 3792 मीटर फ़ीट की ऊंचाई वाले भोजवासा में ऑक्सीजन कम तिस पर एक टेंट के अंदर इतने सारे लोग. टेंट का त्रिपाल का बना दरवाजा भी बंद था. मेरे लिए मामला कुछ ज्यादा गंभीर हो गया था. ठण्ड इतनी कि बाहर जाने का बिल्कुल भी मन नहीं. ‘इतने लोगों को नींद आई है तो शायद मुझे भी आ ही जाये’. नींद लाने की सभी कोशिशें की पर सफलता हाथ नहीं आयी. अब तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा. मैं दबे पाँव बाहर निकली और टेंट के पर्दों को थोड़ा सरकाकर उसके निचले हिस्से को खींचकर पत्थर से दबा दिया. हवा की आवाजाही हुई तो थोड़ा बेहतर महसूस हुआ. क्यों न इन किवाडों को थोड़ा और चौड़ा किया जाय. एक बार फिर बाहर निकल कर पर्दों को खींचा. अब तक वेद की नींद भी खुल चुकी थी. वजह सिर दर्द और घुटन. हम दोनों ने इस टेंट से बाहर निकलने का निश्चय किया.
बाहर का नजारा तो कुछ और ही था. ऊपर बेहद ही नीले आसमान में अनगनित तारे तेज़ चमक रहे थे तो सामने भागीरथी की सफ़ेद चोटियाँ चाँदी सी नजर आ रही थीं. नदी की छलबलाहट सुन कर तो रात बाहर ही गुजारी जा सकती थी. अजूबा कि खुले आसमां तले ठण्ड भी गायब थी. ऐसे में सिर की चंपी से बेहतर काम क्या हो सकता है. घंटा भर वहाँ गुजारने के बाद टेंट में गए. नींद ने कब निगल लिया पता ही नहीं लगा.
अगली सुबह पता लगा कि दूसरे लोगों को भी रात में सांस लेने में परेशानी हुई. जर्मन लड़की ने सिर में दर्द की शिकायत की. वो अब आगे गोमुख तक भी नहीं जाएगी. सात बजे तक एक पत्तल पतला दलिया खाकर हम वहाँ से रुखसत हुए. भोजवासा से गोमुख 4 किमी दूर है. पहाड़ के मापदण्डों के हिसाब से पगडण्डी आमतौर पर सीधी जाती है. पर ग्लेशियर तक पहुँचने से ठीक पहले रास्ता गायब सा हो जाता है और मिट्टी-बालू के ऊंचे ढेरों मे टिके बड़े ऊँचे पत्थरों में तब्दील हो जाता है. इस हिस्से को सावधानी से लांघना फाँदना जरूरी है. भोजवासा से निकलने के करीब दो घंटे बाद हम गोमुख पर थे.
गोमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुख है जहां बरफ के नीचे से पानी के धारे निकलते हैं. पानी के ये धारे हजारों सालों से अनवरत निकलते आ रहे हैं. गाय के मुख के आकार वाले गोमुख को उसके ठीक सामने वाले मिट्टी पत्थरों के ऊंचे टीले पर चढ़कर ऊपर से देखा जा सकता है. उत्तर भारत को हजारों हजार सालों से जिंदा रखने वाली इस नदी जितना ही महान इस नदी का इन्सानों से रिश्ता है. इतनी बीहड़ जगह में लोगों की आवाजाही कितनी पुरानी है इसका किसी को अंदाजा भी नहीं है. वो कौन लोग होंगे जिनको ये नदी पहले पहल यहाँ तक खींच के ले आयी होगी. उनमे कितना कौतुहल रहा होगा और वे क्या गज़ब के साहसी शूरमा रहे होंगे. इसके बारे में सोचने से ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं. इस जगह पर इस समय हमारा मौजूद होना भाग्य और संयोग है.
ग्लेशियर से टूट कर बरफ के बड़े सिल्ले, टुकड़े नीचे गिरे दिखते हैं. ग्लेशियर के बरफ की बाहर की परतें जब झड़ती हैं तो अंदर की परतें बाहर उजागर होती हैं. ये साफ सफ़ेद सुथरी परतें धूप में चमकती सी दिखती हैं. तापमान कम होने की वजह से नीचे पानी मे गिरी पुरानी परतें भी गलने में समय लेती हैं. इन सब के बीच ग्लेशियरों से निकलती धारायें तेज़ नहीं हैं. ग्लेशियर से नदी किसी एक जगह से नहीं निकलती है. बल्कि ये अनेक धाराओं के मिलने से बनती दिख रही है. रास्ते मे मिली तमाम दूसरी धाराएँ और छोटी बड़ी गाड़ें इसे अपना पानी भी देती जाएंगी.
ये भागीरथी का उद्गम है. देवप्रयाग में ये अलकनंदा से मिलेगी और गंगा कहलाएगी. भागीरथी को गंगा सागर बनकर बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले 2525 किलो मीटर लंबा सफर तय करना है. इस सफर में छोटी बड़ी गाड़ों के अलावा बड़ी नदियां जैसे यमुना, रामगंगा, गोमती, घागरा, सोन, गंडक, बूढ़ी गंडक, कोशी, महानंदा भी भागीदारी करेंगी. नदी बड़ी से बड़ी होती जाएगी.
जिस मिट्टी, बालू, पत्थर के ऊंचे टीले से हम गोमुख को देख रहे थे वो बेहद कमजोर था. उस पर चलने में छोटे पत्थर नीचे खिसकते जाते थे. यहाँ पर ज्यादा देर तक रूकना सुरक्षित नहीं है. पर बचे हुए पराठे खाने के लिए ये अच्छी जगह है. यहाँ पीली चौंच वाले बेहद काले रंग के कौवे हैं. ये पराठे का टुकड़ा उछाल कर फेंकने पर उसे झटपट चौंच से पकड़ लेने में उस्ताद मालूम पड़ते हैं.
जल्द ही हम गौमुख से आगे निकलने को तैयार थे. अगला पड़ाव तपोवन था जिस तक पहुँचने के लिए हमें गंगोत्री ग्लेशियर पर बायीं तरफ से जाना होगा. ग्लेशियर को चौड़ाई से नापते हुए दायीं तरफ को आगे बढ़ना है. गौमुख से आगे पगडंडियां भी नहीं हैं. गाइड के बिना आगे जाना मुमकिन भी नहीं है. अब हम पूरी तरह 19 साल के विकास राणा के भरोसे हैं.
इधर ग्रे रंग की ग्रेनाइट की चट्टानें पहाड़ों से टूट टूटकर गिरी हुई हैं. दोनों तरफ बस ग्रेनाइट ही ग्रेनाइट दिखाई दे रहा. ग्लेशियर तक पहुंचने के लिए ग्रेनाइट की परतों के ऊपर से होकर जाना होगा. रास्ता डग-मग और गड्ड-मड्ड है. क्या पता आगे जाना ठीक भी है या नहीं? हमारा ऐसे इलाक़ों में जाने का कोई इतिहास भी नहीं हैं. तभी हमें कमण्डलधारी बाबा लोग तपोवन की तरफ से वापस आते दिखे. ‘बाबाजी क्या तपोवन का रास्ता ठीक है’? ‘गंगा मैया का नाम लेते हुए जाना. हर-हर महादेव. पर अगर कहीं पर हिम्मत हार जाओ तो आगे मत जाना, वापस चले आना’. अचरज कि बाबा लोग नंगे पैर थे और कपड़ो के नाम पर भगवा लंगोटी लपेटे थे. बर्फीली वादी की कपकपाती ठण्ड तो जैसे किसी दूसरी दुनिया की बात हो.
थोड़ी ही देर में हम गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर थे. मेरी कल्पना का ग्लेशियर गंगोत्री ग्लेशियर से बिलकुल अलग था. यों तो शायद ग्लेशियरों के बारे में सोचने में ज्यादा वक्त कभी गुजारा भी नहीं था. पर एक धुंधला सा खाका दिमाग में जरूर था. जो कि साफ सफ़ेद बर्फ के ऊंचे पहाड़ का सा था. पर गंगोत्री ग्लेशियर ऐसा बिलकुल भी नहीं है. बल्कि ये दोनों तरफ के ऊँचे पहाड़ों के बीच में धंसा हुआ है. ऊपर से देखने में ये ऊबड़ खाबड़ बालू, मिट्टी और छोटे-बड़े पत्थरों से ढका लम्बाई में फैलता हुआ है. पत्थर बर्फ के ऊपर टिके हैं. चलते समय पहले डंडे को पत्थरों पर टेक कर ये इत्मीनान करना पड़ता है कि ये वजन सहलेगा और धंसे या लुढ़केगा नहीं. कहीं कहीं पर पत्थरों के नीचे की बर्फ पिघल गयी है और छोटे बड़े पत्थरों के बीच से नीचे का हरा नीला पानी झाँकता है. ये जानकर धक्का भी लगता है कि हम जिन पत्थरों के ऊपर चल रहे हैं वे सब जून के महीने की गलती बर्फ की परतों के ऊपर टिके हैं. कहीं कहीं पर तो बर्फ ने पिघलकर छोटे छोटे तालाब ही बना दिए हैं. गौमुख से पीछे की ओर फैले गंगोत्री ग्लेशियर में गहरी खोहें और खाइयां भी साफ दिखती हैं. इसके अलावा आने वाले समय में गहराने वाली नई खाइयों ने भी अपनी जगह चुन ली है. ग्लेशियर की लम्बाई में जहाँ तक भी नजर जाती है इन भविष्य की खाइयों के निशान दिखते हैं. ये निशान बरफ के अभी थोड़ा सा ही धँसने से उभरे हैं. समय के साथ इन जगहों पर बरफ और भी धसेगी और ये निशान नई गहरी खाइयों में तब्दील हो जाएंगे.
दायीं ओर देखने पर अब शिवलिंग पर्वत सामने दिखता है. हम उसके बेहद करीब हैं और उसी की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. पर उस तक पहुंचना आसान नहीं है. क्योंकि हमारे और उसके बीच एक खड़ी पहाड़ी है जिसको हमे नापना होगा. इस पहाड़ी को दूर से ही पहचाना जा सकता है. इस पर एक झरना जो तेजी से बह रहा है. ये अमरगंगा है. तपोवन के आस पास से पिघलती बरफ का बहता पानी. हम नीचे हैं और पहाड़ी के ऊपरी छोर जहाँ पर से अमरगंगा झरना शुरू करती दिख रही है उसके उस पार तपोवन है. ये झरना इतना खड़ा दिखता है कि यकीन ही नहीं होता कि इस पखाण को चढ़ा भी जा सकता है. तिस पर सूखी बालू और छोटे पत्थरों से लदा रास्ता ऐसा कि आगे चलने पर पत्थर पीछे की तरफ झड़ने से लगते हैं. ठंडी हवा में ऑक्सीजन भी बहुत कम है और हम थक भी चुके हैं.
हमारा गाइड रास्ते को खोजने की कवायद मे हम से काफी आगे निकल जाता था. ऐसी दुर्गम जगह पर इर्द गिर्द नजर डालो तो कही न कहीं ऐसा पत्थर दिखेगा जिसके ऊपर एक छोटा पत्थर रखा होगा फिर उस पत्थर के ऊपर उससे भी छोटा पत्थत. ऐसे 9-10 पत्थर एक दूसरे के ऊपर दिखे तो मानो कि उस तरफ से ही आगे बढ़ना है. पीछे आते लोगों की जानकारी के लिए इलाके के जानकार लोग पत्थरों को ऐसे रखते जाते हैं. कठिन रास्तों में एक दूसरे को मदद करने की इन्सानों कि ये मिसालें हैं.
तपोवन पहुचने के लिए हमें कहीं पर झरने को पार करना होगा. हम वो सही जगह ढूंढते हैं जहाँ पानी का बहाव कम हो. जून की दोपहर में जमी हुई बर्फ ने तेजी से गलना शुरू कर दिया था. नतीजा कि अमरगंगा में पानी का बहाव तेज़ हो गया था. विकास ने ऊपर तक मुआयना करने के बाद हमें वापस नीचे जाने को कहा. हम पखाण में दो हाथों और दो पैरों के सहारे मुश्किल से चढ़े थे. सूखी पथरीली रेत पर चढ़ना तो फिर भी आसान है पर थकान की वजह से उतरना नामुमकिन सा लग रहा था. मुमकिन है कि हम भटक गए हैं. विकास पर बढ़ते अविश्वास ने हमारी मुश्किलों को बढ़ाया ही था.
‘कहीं पर अगर हिम्मत हार जाओ तो आगे मत जाना, वापस चले आना’ बाबा जी के शब्द याद आये. क्या करें क्या न करें सोच ही रहे थे कि पखाण के ऊपर से नीचे को आती हुई तीन चींटियों जैसी तसवीरें उभरीं. चंद मिनटों में वो तस्वीरें आदमियों में तब्दील हो गईं. बीहड़ में इंसानों को देखकर ख़ुशी होती है. ये झरने के उस पार हैं और कहीं न कहीं इसे पार करेंगे. उन्हे देखकर हम भी चौपाइयों की तरह उतरे और एक बड़े पत्थर पर जाकर बैठ गए.
ऊपर से आते लोगों ने दोनों जूतों को लेस से बांधकर, कंधे में टांग कर एक एक करके झरना पार किया. झरने के बेहद बर्फीले पानी में उनके पैर सुन्न हो गए. उन्होने पैरों मे जान वापस आने तक पत्थरों में बैठकर इंतज़ार किया. झरना पार करने की अब हमारी बारी थी. हमारे पार होने तक वे रुके रहे. फिर हम ऊपर और वे नीचे की ओर रूखसत हुए.
हमें बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि अब हमारे सामने क्या आने वाला है और हम जिस लोक के बेहद करीब हैं वो कैसा है. बची हुई चढ़ाई को पार करते ही हम कुछ पलों के लिए सन्न रह गए. ये एलिस इन वंडर लैंड जैसा ही अजूबा था. अमरगंगा अब एक सरल गाड़ सी है. उसमे पानी की रफ्तार तेज़ है. उसकी छलबलाहट कानों को सुकून देने वाली है. जैसे नाक के दोनों ओर आँखे हैं वैसे ही इस गाड़ के एक तरफ शिवलिंग दूसरी तरफ भागीरथी की चोटियां हैं. सफ़ेद और बर्फीली. शिवलिंग के दूसरी ओर से मेरु पर्वत पीछे से झांकता सा है. अगर एक जगह खड़े होकर 360 डिग्री घूम जाएँ तो हर तरफ ऊँची चोटियां ही चोटियां हैं. ऐसा चकराने वाला ये मैदान 4400 मीटर की ऊंचाई पर है. यहाँ अपनी सांसों की आवाज भी साफ़ सुनाई देती है. यहाँ कि बेहद ठंडी हवा कान के बगल और नाक के नीचे से सांय से जाती है. यकीं करना मुश्किल कि ये सपने सरीखी जगह इसी दुनियाँ में है. यहाँ सब कुछ अनूठा है बेजोड़ है.
करीब 300 मी ऐसे ही बहते पानी के किनारे चलते जाना है. आगे अमरगंगा को पार करने के लिए उस पर टीन की तीन–चार परतों को बांधकर पत्थरों के ऊपर अटकाकर पुल बनाया गया है. टीन हवा में उड़ ना पाये इसलिए उस के दोनों किनारों और बीच में भी पत्थर रखे हुए हैं.
तपोवन मे हमारा ठौर मौनी बाबा जी का आश्रम है. आश्रम ना कहकर इसे अगर उनका घर कहें तो बेहतर है. मोटी पीले रंग की जैकेट पहने और धूप से बचाने वाला काला चश्मा लगाये बाबा जी अहाते में कुर्सी डालकर बैठे हैं. उम्र 35 के आसपास होगी. उनकी लम्बी जटाएं एकदम काली हैं. ऐसा लगता है कि उनको लोगों की आवाजाही पसंद है. वो भोजवासा कैंप के हमारे बंगाली साथियों के नेपाली गाइड से बातें कर रहे हैं. इशारों से अपनी बातें समझाना उनकी खूबी है. दिन के 2 बज चुके हैं.
बाबाजी ने हमारा तहे दिल से स्वागत किया. हमें बेहतरीन चाय पिलाई तो लाजवाब खिचड़ी भी खिलाई. खिचड़ी के साथ अचार भी है. वो तेज़ दिमाग के इंसान मालूम पड़ते हैं और अपने काम के बारे में बताई बातों को भी झटपट समझ लेते हैं.
बाबा जी ने अपनी कुटिया के ठीक बगल वाली कुटिया हमें रात गुजारने के लिए दे दी है. ये छोटा सा कमरा अंदर से नारंगी रंग की बरसाती से ढका है. छत बेहद नीची है और हम झुककर ही खड़े हो सकते हैं. पर इसकी नीची छत से सूरज की रोशनी पार हो इस बात का खयाल रखा गया है. अंदर रजाई गद्दे और स्लीपिंग बैगों के ढेर रखे हैं. आज रात बेहतर नीद आ सकती है.
शाम होते होते बादल और हवा के बीच का खेल फिर शुरू हो गया. गालों पर बरसने वाली ठण्ड पसर गयी. ठंडे में घुमक्कड़ी का नतीजा ये कि हमारी नाकें फूल के पकौड़े जैसी मोटी और लाल हो चुकी हैं. पर आसपास तो घूमा ही जा सकता है.
एक बार फिर से हमने टीन के पुल को पार किया. अमरगंगा के बहने की उल्टी दिशा में हम शिवलिंग की ओर चले. तपोवन में जमीं बर्फ तेज़ी से गल रही है. बर्फ की मोती तहों में आई लम्बी दरारें ऊपर से साफ़ दिख रहीं हैं. पानी के कई छोटे धारे पिघलती बरफ से निकलते अमरगंगा बनाते भी दिख रहे हैं. थोड़ा पानी शिवलिंग के ठीक नीचे भी इकट्ठा हो गया है. ये भागीरथी और शिवलिंग चोटियों के लिए आईने का काम कर रहा है. अगले कुछ ही दिनों मे ये सारी बर्फ पिघल जाएगी और बसंत आते आते एक बार फिर से बंजर सी दिखने वाली ये धरती अपने विशिष्ट फूलों से खिल जाएगी.
शाम होते होते ऊँची चोटियों की सफ़ेद बर्फ को शाम की लाल चादर ने घेर लिया. इधर भरलों के कई जत्थे धमाचौकड़ी मचाते बेख़ौफ़ घूम रहे हैं. हमारी उनके पास जाने की कोशिश उनको हम से दूर ले जाती. ठन्डे क्षेत्र के इन सींग वाले साथियों को दूर से ही देखना ठीक है. ठण्ड में अब और घूमना हमारे लिए मुमकिन भी नहीं है. अमरगंगा में भी पानी बढ़ चुका है. अब पानी टीन के पुल के नीचे और ऊपर दोनों तरफ से गुजर रहा है. थोड़ी देर में ये शायद टीन को ढक ही दे और ये पता लगाना भी मुमकिन ना रहे की टीन कहाँ पर रखा था. हमें अब वापस आश्रम में चलना चाहिए. दूर से दिखते बाबाजी भी वापस आने के लिए इशारे कर रहे हैं.
आज के पास हमको देने के लिए इतना ही था. पर ये ‘इतना’ इतना था कि आज ठीक आठ महीने बाद ये लिखते हुए एक एक द्रष्य आँखों के सामने वैसे ही दिखता है जैसे कि उस दिन तपोवन में दिखा था.
एक नोट बाबा जी के नाम जो एक बेहतरीन मेजबान हैं. वे सात साल पहले तपोवन आये थे. तपोवन की खूबसूरती ने उन्हे ऐसा जकड़ा कि वापस जाना ही भूल गए. उस रात हमारे अलावा वहां चार लोग बंगाल से थे और तीन गाइड लोग थे. एक छोटी सी रसोई भी बाबाजी की कुटिया का हिस्सा है. जिसमें वो लाजवाब खाना बनाते हैं. मेहमानों को पहले खिलाकर बाद मे खुद खाते हैं. खुद मौन हैं पर आने वालों को वहाँ भजन, श्लोक या ऐसा ही कुछ सुनाने को कहते हैं. हँसी-मेलजोल का ऐसा माहौल बनाते हैं कि सब एक दूसरे के करीब आ जाएँ. बाबाजी का इंतज़ाम इतना पुख्ता है कि सूरज की रौशनी से चलने वाले टोर्च से लेकर, ऊंचाई की वजह से होने वाले सिर दर्द से निपटने की गोली तक सब कुछ मुहिया है. सब से बड़ी बात कि उस जगह की इन बेशकीमती सेवाओं की वे कोई कीमत नहीं लेते.
तपोवन की सुबह भी शाम जितनी ही निराली है. नीला आसमान और सफ़ेद चोटियां. आज का इरादा सीधे गंगोत्री पहुँचने का है. चाय पीकर हम तपोवन और बाबाजी से रुखसत लेते हैं.
चेतना जोशी. जन्मस्थान –रायबरेली, बाद में हल्द्वानी, नैनीताल और दिल्ली निवासी. पैतृक निवास पिथौरागढ़। पिछले 13 सालों से दिल्ली में. वर्तमान में पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और सतत विकास के मुद्दों पर काम करने वाली संस्था से सम्बद्ध.
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7 Comments
Anonymous
Its indeed a wonderful and refreshing article … keep it up chetna joshi. Would love to see many more. Swati melkani
Anonymous
Bahut hi acha likha hai Chetna aapne. Har line padhte hue aisa laga jaise Mai khud travel KR rahi hu pahadon me. Thanks for such a delight. 🙂 Keep up the great work.
Ravina
Anonymous
Chetna Joshi it’s wonderful piece of work and gives us the opportunity to go through the journey as story goes on ..
Keep it up.
All the best.
Prakash singh bora
चेतना जी बहुत ही सुंदर यात्रा वृतांत है. लेकिन Photos और ज्यादा साथ ही क्रम वाइस होती तो और मजा आता
प्रकाश
Prakash singh bora
क्या आप बता सकते हैं कि गंगोत्री में तपोवन तक का परमिट मिल जाएगा या सिर्फ गौमुख तक का मिलेगा. या उत्तरकाशी से ही तपोवन तक का परमिट बनाना पड़ेगा?
Akash
Beautiful experience
Sudesh Kumar Upadhyay
धन्यवाद चेतना जी, आपका यात्रा वर्णन इतना दिलचस्प है कि ऐसा लग रहा था कि मैं ही यात्रा कर रहा हूँ, तपोवन तक यात्रा कराने के लिए एक वार फिर धन्यवाद