उन दिनों समाज में नैतिकता का जोरदार आग्रह रहता था. हर किसी पर घनघोर नैतिकता छाई रहती थी. लड़के, अपने परिवार के सदस्यों से तो डरते ही थे, मोहल्ले वालों से उनसे भी ज्यादा डरते थे. अपनों ने देख लिया, तो सजा तय मानी जाती थी. लेकिन अगर मोहल्ले के चाचा या पड़ोसी ने देख लिया तो सजा के अलावा ‘मशहूरी’ मुनाफे में मिल जाती. मोहल्ले वाले, आपसदारी में ऐसे लड़कों को ‘ऐबी’ कहकर पुकारने लगते थे. तब ऐबी को बहुत बुरी निगाहों से देखा जाता था. इसलिए लड़के, मशहूर होने से बहुत भय खाते थे.
इसके मूल में रहस्य यह था कि, आपके बारे में उनकी राय, अपनों की राय से ज्यादा महत्त्व रखती थी. चूंकि किसी तरह के रक्त-संबंध में न पड़ने के कारण समाज में उनकी राय, एकदम वस्तुनिष्ठ राय समझी जाती थी. अगर एक बार ‘खत्तम डिगरी’ का लेबल लग गया तो फिर उससे पिंड छुड़ाना नामुमकिन हो जाता. अब चाहे वो लेबल, आधी-अधूरी बातों में आकर लगा हो या सुनी-सुनाई बातों को लेकर. एकबार चिपक गया तो मजबूत जोड़ की तरह चिपककर रह जाता था. भूलवश-भ्रमवश जैसे भी समझ लिया गया हो, सुधारक, उसमें त्रुटि-सुधार की जरा भी गुंजाइश नहीं छोड़ते थे.
सयाने, इतने चौकन्ने रहते थे कि, कहीं जरा सा, कोई लड़का कुछ करते दिखा नहीं कि, अगले दिन उसका पूरा-का-पूरा जीवन-चरित, ऐन चौराहों पर धारावाहिक रूप से सुनने को मिलता. किस्सागो, आश्चर्य से मुँह खोलते और विचित्र भाव-भंगिमा के साथ, चटखारे लेकर आँखों देखा हाल बयान करते नजर आते.
‘पहले तो ऐसा नहीं था.. घोर कलजुग इसी को कहते हैं… कानों सुनी नहीं, आँखों देखी बता रहा हूँ… सच्ची… अपनी आँखों से देखा है… तुम्हारी कसम… यही हाल रहा, तो फिर तो ठाकुर साहब के खानदान का भगवान ही मालिक है… घर के इकलौते चिराग के हाल तो देखो… अब ज्यादा क्या कहें… मुँह खोलने से अपनी ही जबान खराब होती है, इसलिए हम तो कुछ कहते ही नहीं… जिनका है, जब उन्हें ही फिकर नहीं, तो हमें क्या… लौंडा, एकदम दिशाहीन होता जा रहा है… बाप को देखो, बेचारा कितना भला आदमी था… अब तो पानी सर से ऊपर निकला गया… चाल-ढ़ाल देखी, कभी… लाज-शर्म तो बिल्कुल बेच डाली है… मेरा लड़का होता तो… कंट्रोल से बिल्कुल ही बाहर होता जा रहा है… भगवान, ऐसी औलाद किसी को न दे… इससे अच्छा तो बेचारा निपूता ही रहता… अच्छे-खासे खानदान का नाम डुबोके रख दिया… अब तो लड़का, बिल्कुल ही हाथ से निकल गया… पछतायेगा…
फलस्वरूप, बड़ों का ‘लिहाज रखने का’ अच्छा- खासा चलन था. लिहाज, कई तरीके से रखा जाता था.
यथा, वो चले आ रहे हैं और उनको देखते ही, ‘आपने नजरें नीची कर ली… थोड़ा कोने की तरफ सरक लिए… पीठ फेर ली… जलती हुई सिगरेट हाथों में ढाँप ली और उसे तब तक ढाँपे रहे, जब तक हाथ जलने की नौबत नहीं आ गई. धुएं को जादूगर की तरह, साँस घुटने तक नथुनों के अंदर छुपाके रख लिया.’
इन हरकतों पर मुअज्जिज लोग, मुग्ध होकर रह जाते थे. जानकर भी अनजान बनने की चेष्टा करते थे. परंपरा यही चली आ रही थी. जो लोग इन सिद्धांतों में यकीन रखते थे, वे ‘समझदार लोग’ कहलाते थे. वे सींक की आड़ को भी काफी मानकर चलते थे. ‘चलो, इतनी तो लाज-शर्म अभी बाकी है कि, लिहाज कर रहा है. सीधे, मुँह पर धुआं तो नहीं फेंक रहा है.’
लड़के ने जरा सी नाटकीयता दिखाई नहीं, कि, वे फूलकर कुप्पा हो जाते. बचने की कोशिश करते हुए लड़कों से ‘समझदार लोग’ परहेज रखते थे. उस पर रहम खाकर, उधर से रास्ता काट लेते. ‘जवान लड़का है. अब नहीं करेगा, तो कब करेगा… करते हैं, लड़के ऐसा. लोग कुछ भी कहें, बड़ों की तो बहुत इज्जत करता है. खासकर मुझे तो बहुत मानता है. क्या मजाल कि कभी शान में गुस्ताखी की हो.’ जिम्मेदार लोगों के परस्पर वार्तालाप में, बंदिशें, परदा, मान-मर्यादा, आँखों में शर्म जैसे जुमलों का खुलकर प्रयोग सुनने को मिलता था.
तो एक-से-एक विधि-निषेध प्रचलन में थे. कई तरह की वर्जनाएँ. लेकिन लड़के कहाँ बाज आते हैं. वो लड़के ही किस बात के, अगर वो आसानी से मान जाएँ. वो जवानी जवानी नहीं, जिसकी कोई कहानी नहीं. उस उम्र में टैबू या वर्जनाएँ तोड़ने का उन्माद बस यों ही उफनाता रहता है. बहुत रोकथाम करते-करते, रोकते-थामते भी लड़के, बचते-बचाते दो-चार घूँट मार ही जाते थे. एकाध सिप खींच लेते. एकांत दिखा नहीं कि, एकाध सुट्टा खींच लेते. नजर हटते ही लड़के, अपने खास दोस्तों के साथ उस ‘परम तत्त्व’ की खोज में निकल पड़ते थे. बिल्कुल ‘इन्नर सर्किल’ के साथ, जो अक्सर काफी बड़ा होता था.
आनंद की खोज में, खाली हाथ जाने का कोई मतलब नहीं होता था. भारी सरंजाम करके ही निकलते थे. आसपास के मोहल्लों में खरीददारी करना, तब आसान नहीं रहता था. आबादी कम थी और सब एक-दूसरे के खानदान को ‘फिंगर टिप्स’ में हेड काउंट करके पहचानते थे. ‘वर्जित पदार्थ’ खरीदना, शेर के दाँत गिनने जैसा लगता था. ‘मटीरियल’ जुटाना असंभव सा हो जाता. जरा सी भनक लगते ही, दुकानदार हाहाकार मचाने में यकीन रखते थे. छोटी-छोटी बातों पर प्रश्नसूचक निगाहों से देखते, मानो कह रहे हों, ‘अच्छा बेटा, अब तू भी हो गया तीखी नमकीन वाला, हाँ दालमोठ वाला… बहुत स्सही… एकदम सही राहपे जा रहे हो… गुड गोइंग…”
तो उस दिन इशारों-ही-इशारों में प्रोग्राम बना. चार दोस्त थे, जो सिर पर कफन बाँधे निर्जन एकांत की खोज में निकल पड़े. ऐसा स्थान, जहाँ न आदमी मिले, न आदमजात. बोतल, अंटी में दबाए, कई मोहल्लों को फलाँगते हुए वे एक कोने के घर में जा पहुँचे. घर, गाँव के आखिरी छोर पर पड़ता था. गृहस्वामी उनमें से एक के रिश्ते के चाचा पड़ते थे. खुफिया पद्धति से उसने अनुमान लगाया हुआ था कि, चाचा-चाची इस समय घर पर नहीं होंगे, दोनों खेतों में काम करने गए होंगे. घर पर मिलेंगे तो कच्चे-बच्चे. घटनास्थल पर पहुँचते ही, उसने बच्चों को लेमनचूस थमाई और उन्हें खेल में लगा दिया. ‘घर का ही लड़का’ होने की हैसियत से उस पर कोई रोक-टोक तो थी नहीं. वो सीधे रसोई में जा घुसा. जैकेट के अंदर से मुर्गा निकालते ही, उसने उसे चूल्हे पर चढ़ा दिया. बाकी तीन जने बरामदे में खटिया में बैठे हुए थे. दरअसल वे चौकीदारी कर रहे थे. साथ-साथ बच्चों को बातों में बहलाए हुए थे. जो लड़का, खानसामे के रोल में था, वो तबीयत से मसालेदार मुर्गा तैयार करने में जुटा हुआ था. आज वो अपनी सारी-की-सारी कला दिखाने पर उतारू था, चूँकि आज दोस्तों के बीच उसकी पाककला का इम्तिहान जो होने जा रहा था. अपनी कला को अंजाम देने के बाद उसने भोज्य पदार्थ पर सिल्वर फोइल का कवर चढ़ाया. फिर उसे अखबार से लपेटा. तत्पश्चात् उसे रंगीन पॉलीथिन में भरके रख दिया.
वो बाहर निकला ही था,कि उनमें से एक चार- पाँच बरस का बच्चा आगे आया और तनकर खड़ा हो गया. तर्जनी उठाकर बोला, “भाई, तू दारु पीने जा रा ना. बोल ना. जा रा ना. तू ‘ठंडे कुंडे’ जा रा ना दारू पीने.” सब-के-सब हैरत में पड़ गए. जिस बात को ढ़ँका- छुपाकर चल रहे थे, सात पर्दों में छुपा के यहाँ तक ले आए थे. इतनी दूर चलकर आने के बाद निर्जन एकांत खोजा था. बड़ों की अनुपस्थिति का लाभ उठाने की भरसक कोशिश की थी. सारी-की-सारी रिसर्च उसने बेकार करके रख दी. हथेली से दाएँ हाथ के पंजों को ठोकते हुए ‘टॉप सीक्रेट’ का जो निशान बनाया था, वह सब टाँय-टाँय फिस्स होकर रह गया. भाई लपक के झुका और उसका मुँह बंद करने की कोशिश में जुट गया,लेकिन कवि कब से चीखते आए हैं कि, ‘सच्चाई छुप नहीं सकती… बनावट के उसूलों से.’ सच्चाई सुनने से शायद गिरोह की हैसियत को चोट पहुँची थी. लड़कों की सारी-की-सारी बदगुमानी धरी-की-धरी रह गई. मोहल्ले-के-मोहल्ले लाँघकर, वे इतनी दूर आए थे. मतलब बेगारी का कोई फायदा नहीं रहा. मुँह बंद करते ही बच्चा चीखने लगा. जोरों से बोला, “बोल ना भाई. तू दारु पीने जा रा कि नी. जा रा ना. सच- सच बता भाई. खातो विद्या कसम.”
ऐसा लगा कि, बच्चा कच्चा चिट्ठा खोलने पर आमादा है. चुप कराने पर भी वह हामी सुनने की जिद पर अड़ा रहा. उसके भाई ने आँखें तरेरी. उसकी मान- मनौव्वल की, तो वह सत्य के साक्षात्कार के लिए मचलने लगा. प्यारा भैय्या, राजा भैय्या कहकर उसे पटाने की कोशिशें की. लेमनचूस की रिश्वत देने की कोशिश की, तो वो चीखते हुए बोला, “नहीं बताना है तो मत बता. तू क्या सोचता है, तू नहीं बताएगा तो किसी को पता नहीं चलेगा.” बच्चे का बर्ताव देखकर ऐसा लगा, मानो किसी ने उसे सिखा-पढ़ाकर पुछवाया हो.
खैर किसी तरह चारों नौजवान वहाँ से निकल पड़े. कुछ दूर तक रास्ता ढलवाँ था. मन में हलचल सी मची हुई थी और चेहरे पर रौनक, जो उमंग और उत्साह के मेल से उत्पन्न जान पड़ती थी. थोड़ी ही देर में, वे घने जंगल में जा पहुँचे. बैठने के लिए हरी-भरी जगह को जाँचा-परखा गया. आखिर में ऐसी जगह छाँटी गई, जो मनोरम हो और रमणीक भी. आखिर में एक ऐसी जगह पर मत स्थिर हुआ, जिसके ऐन सामने नदिया किनारा पड़ता था. अहा, क्या अद्भुत दृश्य था. उस जगह को ठोक-बजाकर देखा गया. सब ने चैन की साँस ली. चप्पल उतारकर उनका आसान बनाया और आलथी-पालथी मारकर बैठ गए. तत्परता से अखबार बिछाया और साजोसामान उस पर फैला दिया. उनमें से एक स्वयंसेवक, नदी के तीर की तरफ, तीर की गति से भागा. ‘प्रोग्राम’ के लिए पानी की सख्त जरूरत थी. पानी लेकर तो चले ही नहीं थे. जहाँ ऐन सामने नदी बह रही हो, वहाँ पानी ढोना बेवकूफी का सा काम लगता था. तो जैसे ही स्वयंसेवक ने नदी-जल को देखा, वह अवाक् होकर रह गया. पानी, चाय के रंग का बह रहा था, एकदम मटमैला. शायद ऊपर वर्षा होने अथवा ग्लेशियर पिघलने से काम भर की बाढ़ आई हुई थी. मटमैलै पानी के संग ‘प्रोग्राम करना’ संभव नहीं था. संगी साथियों को उसने एक खास इशारे से बताया कि, हम बरबाद हो गए. कहाँ तो मूड बनाने आए थे, इस सूचना से सबका मूड खराब होकर रह गया. प्रोग्राम, डब्बाबंद करने की नौबत आ पहुँची.
दूसरी ओर, इतना कर-गुजरने के बाद पीठ दिखाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. अगर यही सब करना था, तो फिर इतना जोखिम क्यों उठाया. ऐसे मामलों में एक खास बात अनुभव की जाती थी- ये जो अभाव का जोखिम था, वह खेल के रोमांच को दुगना करके रख देता था. शौकीनों ने इधर-उधर नजर दौड़ाई. चौतरफा घना जंगल था. थोड़ा सा आगे देखा, तो निगाह वहीं पर टिककर रह गई. घने पेड़ों के नीचे पत्तों की एक टपरिया खड़ी थी. वहाँ जाकर देखा, तो थोड़ी सी दूरी पर काला सा लबादा ओढ़े एक बाबा दिखाई पड़ा. जाहिरा तौर पर, यह उसका ही आशियाना था. लड़के अनुभवी थे, अतः उन्हें अनुमान लगाते देर न लगी कि, वह ‘भंगमल्या’ था, जो भांग के पत्तों से सारतत्त्व निकालने में दक्ष था. कुछ मात्रा में सेवन करता था, कुछ औरों के सेवन के लिए पैदा करता था. उस समय वह बेधड़क होकर अपने मौलिक काम में जुटा हुआ था. एक लड़के ने बाबा वेषधारी को पुकारा और इशारे से उसका डोल(बर्तन) माँगा. उसने अभयदान देते हुए हाथ से इशारा किया और बर्तन उठा लेने का संकेत दिया.
डोल उठाए वो शौकीन, जो कुछ उतावला सा था, सरपट दौड़ा और थोड़ी ही देर में उसमें पानी भर लाया. आधा-एक घंटे तक उसे बिना हिलाए-डुलाए छोड़ दिया गया. सभी डोल को घेरे हुए थे और व्यग्रता से उसमें अवसादीकरण को देखते रहे. मिट्टी के कण क्रमशः नीचे बैठते जा रहे थे, जिसे एक खास तरह की राहत के तौर पर देखा जा रहा था. एटीएफ; एवियशन टरबाइन फ्यूल, इसी पद्धति से भरा जाता है. हेलीकॉप्टर्स में भरे जाने वाले ईंधन को पूरे-पूरे दिन, अविचल खड़ा करके रखा जाता है. ‘इंप्योरिटीज’ नीचे तलछट में बैठ जाती है. तब जाकर, रिफ्यूलिंग की जाती है.
एक समय की बात है. बुद्ध ने अपने शिष्यों के साथ एक तालाब को पार किया, जिससे पानी गंदला हो गया. बुद्ध ने आनंद से कहा, “हे आनंद! मन के विकार ऐसे ही बैठ सकते हैं, जैसे इस तालाब में मिट्टी के कण. बस चित्त शांत रहना चाहिए. बिना हलचल के, ये कण अपने आप तलछट मे बैठते चले जाएंगे.”
तो शौकीनों ने अत्यंत सावधानी बरती और पात्र से सहेजकर पानी निकाला. फिर क्या था, रास-रंग, मौजमस्ती पूरे उफान पर जा पहुँची. फागुन का एक विशेष दिन होता था, होली. लड़के, जमकर अबीर-गुलाल खेलते. फाग गाते. इस तरह के भाईचारे से बारह बजे तक फुर्सत पा जाते थे. फिर पर्व को समेटकर चुपके से जंगल की तरफ निकल पड़ते. मकसद रहता था- नदी में उतरकर रंग छुड़ाना. नहाना-धोना, चौकस होकर घर वापस लौटना, लेकिन उससे पहले का पड़ाव, लड़कों के लिए खास मायने रखता था. तो उस दिन अरमान सजाके शौकीन लड़के जंगल की ओर निकल पड़े. हरी घास पर क्षण भर के लिए रुके, जगह उन्हें काफी पसंद आई, तो जफड़ी वहीं पर जमकर रह गई. अखबार बिछाकर उस पर दस्तरखान सजाया, दालमोठ से लेकर मुर्ग-मुसल्लम तक सब कुछ. बोतल ढ़ाली जा रही थी. शौकीन हरी घास पर पसरे हुए थे और लेटे-लेटे पत्ते खेल रहे. गायन-वादन साकी-सुराही सारे सरंजाम सामने थे.
प्रोग्राम अपने उफान पर था कि, तभी किसी चौकन्ने ने शंका जताई, “यार जोर से मत गाओ. मामा टपक पड़ा, तो लेने-के-देने पड़ जाएंगे.’ मामा का नाम सुनते ही समाजियों में एक किस्म की भगदड़ सी मच गई. एक ने कहा, “तूने उसका नाम लेकर मूड का सत्यानाश करके रख दिया.” मामा की दास्तान; मामा गाँव के रिश्ते में, सबके मामा लगते थे-जगत मामा. वे उस जंगल में पिछले बीस बरस से तैनात थे और संभावना जताई जाती थी कि अगले बीस बरस और रहेंगे. पहले कच्चे थे, फिर पक्के फॉरेस्ट गार्ड बने. फिर वहीं, फॉरेस्टर हो गए अर्थात् वहीं के वहीं रहे. उनका ओहदा भले ही बढ़ा हो, लेकिन जंगल वही था, जिसकी वे बरसोंबरस रक्षा करते चले जा रहे थे. शास्त्र कहते हैं कि, सांप, साधु और जंगलाती को एक जगह टिककर नहीं रहना चाहिए. उन्हें निरंतर चलते रहना चाहिए. वे एक जगह टिके नहीं कि, उन्हें क्रमशः जीवन, साधना-पथ एवं नौकरी का नुकसान उठाना पड़ सकता है. वे ‘लोकल’ कहलाना पसंद करते थे. शायद इससे उनका रौब-दाब बनता था. दरअसल वे आवारा छोकरो की कारस्तानियों पर लगाम डालने का श्रेय लेना चाहते थे. लोकल होने से उनको नैतिक बल मिलता था, तजुर्बा तो जरूरत से ज्यादा ही रहा होगा.
कर्त्तव्य, एक व्यक्तिवादी धर्म है, जिसके बारे में सबकी अपनी-अपनी धारणाएँ हो सकती हैं. तो मामा, दिन-रात, दौड़-धूप करते रहते थे. शरीर उनका चुस्त था और निगाहें तेज. उनके लिए यह जानना जरूरी रहता था कि, किस-किस के लौंडे हैं और आखिर कर क्या रहे हैं. ‘किस-किसके चिराग हाथ से निकल गए.’ जानने को वे अक्सर व्याकुल से रहते थे. घबराकर लड़के उन्हें इज्जत देते थे. आदर-भाव जताते. इस तरह से जाने-अनजाने वे घरवालों के लिए ‘तीसरी आँख’ का काम कर रहे थे. यह उनका नित्य प्रति का कारोबार था. झुंड देखते ही, उनके मन में एक अनजानी सी हूक उठने लगती थी. वे इच्छाधारी से थे, न जाने कब कहाँ से प्रकट हो जाते. जिस दिन उन्हें कोई न दिखता, वे उदास रहते थे. खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. कुछ दिखा नहीं कि, अगले दिन बिना किसी संदर्भ अथवा प्रसंग के सब कुछ बताने लगते थे, ‘अनसेंसर्ड-अनएडिटेड.’ बात यहीं पर खत्म नहीं होती थी. समस्या इस बात को लेकर रहती थी कि, अपने हक में हवा बनाने के लिए, वे वाकयों को बढ़ा- चढ़ाकर पेश करते थे. रस ले-लेकर बताते थे. तो लड़के उनसे बहुत भय खाते थे. उनके सामने पड़ते ही, उनकी खातिर करने लगते थे, खुशामद करते. चरण-धूलि और आशीर्वाद लेकर जान छुड़ाते. कुल मिलाकर, सब उनका बहुत लिहाज करते थे.
चौकन्ने लड़के ने रौनक भरी महफिल में इन्हीं मामा को याद किया था. इस पर एक लड़का बोल पड़ा, “अरे भई, क्यों रंग में भंग डाल रा . कभी तो अच्छा सोच लिया कर.” उसका इतना कहना भर था कि, अकस्मात् उसकी निगाह सामने पड़ी और वही पड़कर रह गई. बड़ा भारी संकट सामने चला रहा था, मानो वह इसी दुर्लभ क्षण की प्रतीक्षा में था. देखने वाले ने निहायत चालाकी दिखाई. किसी को कोई संकेत किए बिना उसने चुपचाप अपना पेग खिसकाकर अपनी पीठ के पीछे छुपा दिया. किसी को भी सतर्क नहीं किया. बाकी लड़के पेग पर पेग चढ़ाए जा रहे थे. हा हा ठी ठी जोरो पर थी. वे ठीक सिर के ऊपर खड़े थे. सीन कैप्चर करने में उन्हें बहुत मजा आया. चहककर बोले, “एंजॉयमेंट हो रहा है.”
दीनानाथ के साक्षात् दर्शन पाकर, लड़कों में भगदड़ सी मच गई. खिलाड़ी स्तब्ध और बदहवास से थे, भागने की राह तक नहीं सूझी. चालाक लड़के ने मासूम बनकर कहा, “मामा के लिए, लगाओ रे एक लार्ज.” मुरब्बत में पड़कर सबने उनका खूब आदर सत्कार किया. बड़ी आवभगत की. प्याला पेश किया. अखबार की पत्तल बिछाई. परोसने वाले ने तो उन्हें खुश करने के लिए, लेग पीस ही लेग पीस परोसे. संक्षेप में, उन्हें दीनबंधु सा सम्मान दिया गया. वे जितनी देर तक रहे, उन्होंने गिरोह का पूरा साथ दिया. पहले तो वे हिचके, लेकिन बाद में बड़े इत्मीनान से दो लार्ज खींच गए.
काम भर की ऑब्जर्वेशन लेकर वे काम पर निकल गए. उनकी आमद से इस आमोद-उत्सव में खलल पड़कर रह गया. उनके जाने के बाद भी अफरातफरी मची रही, क्योंकि वे जानते थे कि, अब तो गाज गिरकर ही रहेगी. जीना हराम हो जाएगा. यह सोचकर, उनका नशा काफूर होकर रह गया. उनका मन रखने के लिए उसी चालाक लड़के ने कहा, “अबे, क्यों चिंता करते हो. हम सबके चेहरों पर तो रंग चढ़ा हुआ है. रंगबिरंगी शक्लें देखकर उसने क्या ही पहचाना होगा.” किसी ने उसकी बात काट के रख दी. भीत-भाव से कहा, “वो बहुत घाघ है. उसे इतना हल्का समझने की भूल मत करना. कल सुबह देखना, सबका कच्चा चिट्ठा खोल के रख देगा.”
तो पहले वाले ने दिलासा देते हुए कहा, “अबे, अब तो उसने हमारा नमक खा लिया. देख लेना नमकहरामी नहीं करेगा.” लड़के चिंतातुर हो उठे. वे पेग पे पेग चढ़ाए जा रहे थे, लेकिन इस सोच-विचार के बीच, शराब ने चढ़ने से मना कर दिया. लड़के सहमकर रह गए. वे जानते थे कि, जो कुछ हुआ, वह सच था. एक असहज करने वाला सच. उनका मनोबल बनाए रखने की तमाम कोशिशें नाकाम रही. अंधेरा घिरने पर वे फिक्रमंद होकर घर लौटे.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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