सौ बरस पहले 14 जनवरी की सुबह बागेश्वर की फ़िजा में अलग गर्मी थी. आज सरयू कल-कल के बजाय दम्मू की दम-दम करती ज्यादा लग रही थी. बागेश्वर में आज कौवे तो बुलाने ही थे पर साथ में उड़ाने थे ब्रितानी सरकार के होश. क्या गांधी क्या नेहरु किसी को उम्मीद न होगी की सुदूर पहाड़ में रहने वाली यह भोली-भाली कौम भी कोई क्रांति कर सकती हैं. पर उन्होंने कर दिखाया बिना खून की एक बूंद गिराये वो कर दिखाया जिसकी किसी को उम्मीद न थी.
(100 Years of Kuli Begar Aandolan)
10 हज़ार से अधिक लोगों का जन समूह जब बागनाथ मंदिर से सरयू के बगड़ की ओर बड़ा तो डाक बंगले में बैठे अल्मोड़े के डिप्टी कमिश्नर डायबिल ने चुपचाप रहने में समझदारी समझी. हज़ारों पहाड़ियों के सामने डायबिल के 21 अफ़सर और 25 सिपाहियों की 500 गोलियां क्या ही जो कर सकती थी. न डायबिल का कर्फ्यू काम आया न उसकी धारा 144.
बागेश्वर बाज़ार के बीचों बीच होता हुआ वीर पहाड़ियों का जुलूस जब हाथों में कुली ‘उतार बंद करो’ के बैनर के साथ निकला तो ‘भारत माता की जय’ वन्दे मातरम् के नारों से पूरा बागेश्वर गूंज रहा था. क्या आम लोग क्या ख़ास लोग सभी लोग आज इस जुलूस में शामिल थे. आज तो थोकदार और ज़मीदार भी आम लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे.
(100 Years of Kuli Begar Aandolan)
बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पन्त, चिरंजीलाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में सूदूर कुमाऊं के बागेश्वर में यह आन्दोलन घटा जो संभवतः भारत के इतिहास में आम जनता का इस तरह का पहला शांतिपूर्ण आन्दोलन था.
मकर संक्रांति के पावन दिन सबने मिलकर बेगार से जुड़े कुली रजिस्टर सरयू नदी में बहा डाले आज़ादी की लड़ाई में कुमाऊं में घटी इस घटना से पूरा देश हतप्रभ था. देश और दुनिया के लोग जानना चाहते थे कौन हैं ये आंदोलनकारी जिन्होंने बिना खून की एक बूंद गिराये अंग्रेजों को नाकों चने चबा दिये.
(100 Years of Kuli Begar Aandolan)
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