यमुना या कालिंदी हिमालय के तीन शिखर समूह -श्रीकंठ, बंदरपूंछ अवं जमुनोत्री कांठे के विस्तार में पसरे हिमनद यमुनोत्तरी से निकलती है जो पांच किलो मीटर की लम्बाई में विस्तृत है. पहले इसमें तीन धाराएं हैं, फिर इसमें यमुनोत्तरी तीर्थ के तप्तकुण्ड का जल मिल कर इसे पवित्र यमुना बना देता है. उत्तरकाशी जिले की राजगढ़ी तहसील में बीस हज़ार फ़ीट से ऊँचे पर्वत बंदरपुच्छ के यमुनोत्तरी नामक कांठे के दक्षिणी-पूर्वी भाग से निसृत होती है यमुना. यमुश्नोत्तरी कांठे को कलिंद पर्वत कहा गया तो यमुना को कलिंद पुत्री कालिंदी. इसी नाम से बाण भट्ट ने इसे अपने ग्रन्थ कादम्बरी में संबोधित किया तो राजशेखर की कृति काव्य मीमांसा में कलिंद तनया.
(Yamuna River System Uttarakhand)
यमुना का मूल उदगम तो यमुनोत्तरी मंदिर से पांच मील ऊपर हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य सिमटी संकरी सी एक घाटी है जिसमें हिमनदों से आये जल ने एक छोटी सी झील बनाई है. यहीं से लगभग एक गज चौड़ी व आधा फीट गहरे गह्वर से निकली धारा यमुना नदी का मूल कही जाती है. यमुना के इस स्त्रोत क्षेत्र को ही यमुनोत्तरी तीर्थ के नाम से जाना गया. यह एक ओर से उत्तरकाशी और टिहरी जनपद के पश्चिमी भाग को तो दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश और जौनसार-भावर के पूर्वी अंचल की अनेक जल धाराओं के समागम से सहारनपुर के धाड़ प्रदेश से होती मैदानी इलाके में प्रवेश करती है.
इस प्रकार यमुना घाटी उत्तर-पश्चिम में हिमाचल की सीमा रेखा से, दक्षिण-पूर्व में राड़ी के डांडे से एवं पूर्व में भटवाड़ी तहसील की सीमाओं व पश्चिम में नाहन से घिरी है. यमुना की पर्वतीय घाटी सर्वप्रथम रवाईं में फिर दायें जौनसार अवं सिरमौर जनपद तथा बायें जौनपुर परगना तथा पाछूडूं हो कर सहारनपुर जिले में प्रवेश कर जाती है. यमुना के तट पर खरशाली, बड़कोट, नौगांव लाखामंडल, कलसी, जगतराम बादवाला, गंगभेवा तथा पौंटासाहेब प्रसिद्ध स्थल हैं. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि प्रचुर ऐतिहासिक व पुरातात्विक सामग्री भी यमुना नदी के तट क्षेत्र से ही प्राप्त हुई है.
उन्नीस हज़ार फीट के यमुनोत्तरी कांठे के अपने मूल स्त्रोत से यमुना नदी आरम्भ में जानकी चट्टी तक यू आकार की गहरी और संकरी घाटी में छह कि. मी. बहती है.यहाँ लगभग पंद्रह कि. मी.के प्रवाह में यमुना 5036 फीट नीचे तक उतर जाती है. उत्तरकाशी जनपद की राजगढ़ी या बड़कोट तहसील के उत्तरी-पूर्वी इलाके से दक्षिणी-पूर्वी इलाके तकयमुना एकसार रूप में बहती है. उत्तरकाशी जनपद के रवाँई अंचल में यमुना का कुल प्रवाह पथ 110 कि. मी. है जहाँ यह लगभग दस से बारह फुट प्रति कि. मी. ढाल के साथ उतरती है.
तदन्तरी टिहरी जनपद के जौनपुर परगने में अलगाड़ नदी का जल ले पश्चिम की ओर मुड़ जाती है. कालसी के पास इसमें अमलावा तो हरीपुर में टोंस नदी का संगम होता है. इस प्रकार अपने मूल से कालसी के समीप हरिपुर व्यास संगम तक यमुना लगभग 200 कि. मी. तक व सहारनपुर के धाड़ इलाके में 230 कि. मी. तक सफर तय कर लेती है. इस प्रकार अपने उदगम राजगढ़ी तहसील से सहारनपुर के धाड़ क्षेत्र तक इसका पहाड़ी पथ है.प्रयाग तक यमुना अपने उदगम से 1376 कि. मी. तक का सफर तय करती है.
पहाड़ में कालसी के अपने प्रवाह पथ में यमुना उत्त्तरकाशी से 131 कि. मी. दूर पश्चिम -उत्तर में 3185 मीटर की ऊंचाई से बड़कोट या राजगढ़ी तहसील से निकलती है जिसे यमुनोत्तरी तीर्थ के नाम से जाना जाता है. यह यमुनोत्तरी हिमनद से सात कि. मी. नीचे दो तीव्र जल धाराओं के बीच स्थित एक सुद्रढ़ चट्टान पर स्थित है. इसी के तल पर दो चट्टानों के मध्य गर्म जल की धाराएं प्रवाहित होतीं हैं जिनके मिलन से ‘ॐ’की ध्वनि सुनाई देती है वहीँ शीतोष्ण जल के इस संकरे स्थान में यमुना मां का मंदिर है.यमुनोत्तरी तीर्थ तक पहुँचने के लिए 2400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हनुमान चट्टी तक परिवहन सुविधा उपलब्ध है. हनुमान चट्टी से आगे नारद चट्टी, फूल चट्टी और जानकी चट्टी होते हुए यमुनोत्तरी तक पैदल यात्रा की जाती है. सं 1946 में यमुना के दाएं तट पर स्थित बीफ ग्राम में एक महिला जानकी देवी ने यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशाला का निर्माण किया जिससे यह ग्राम जानकी चट्टी के नाम से जाना जाने लगा.
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यमुना का प्राथमिक उल्लेख ऋग्वेद के नदी सूक्त (10/75-5-6)में हुआ है. वनपर्व (90/6)में कहा गया कि राजा भरत ने यमुना नदी के तटों पर पैंतीस अश्वमेध यज्ञ संपन्न किए थे. अगस्त्य ऋषि ने इसके तट पर तपस्या की एवं इसके विभिन्न तटों पर ऋषि मुनियों के अनेक आश्रम थे.वेदों में यमुना नदी के तट पर विजय प्राप्त किये युद्धों का उल्लेख किया गया है जैसे कि ऋग्वेद 7 /18 /26 में वर्णन है कि ‘इंद्र तृत्सुओं तथा यमुना की सहायता से असुर राज भेद का वध करते हैं .तदुपरांत भरत जन का विस्तार हो जाता है तथा अन्य आर्य जन यथा अनु, यदु, पुरु, तुवर्सु, द्रहयु अदि भी उसके अधीन हो जाते हैं. ऋग्वेद (7 /18, 19 )के अनुसार तृत्सुओं और सुदास ने अपने शत्रुओं को यमुना नदी के तट पर ही पराजित किया था. ऐतरेय ब्राह्मण(8 /23 )में यहाँ भरत की विजय कीर्ति का उल्लेख किया गया है. इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में कहा गया कि यमुना नदी के तट पर होने वाले अनेक यज्ञ इसे वैदिक काल में ही पवित्र नदी की मान्यता दिला चुके थे.
कूर्मपुराण की ब्राह्मी संहिता में यमुना का उल्लेख है कि यह सूर्य पुत्री तीन लोकों में विख्यात है. द्वापर युग में यमुना का महत्व गंगा नदी से अधिक रहा. ब्रह्म पुराण में इसे हिमालय से निकली छह नदियों के महत्वपूर्ण देव तीर्थों में स्थान दिया गया.इसी प्रकार कल्कि पुराण एवं भागवत पुराण में भी यमुना का वर्णन है. मत्स्य पुराण में कहा गया कि यमुना के जल के स्नान से सात दिनों के स्नान के बराबर पवित्रता आती है. वहीं राजतरंगिणी में यमुना के तात को द्वादश ज्योतिर्लिंगों और इनके उपलिंग केदारेश्वर का स्थान बताया गया है. केदारखंड पुराण में कृष्णवर्णा यमुना का बायीं तरफ और श्वेतवर्णा गंगा का दायीं ओर प्रवाहित होने के साथ इनके तीर्थ यमुनोत्तर और गंगोत्तर को सिद्धियों को प्रदान करने वाला बताया गया है. यह भी कहा गया कि स्वेत पर्वत से उत्तर की और यमुना का उद्गम स्थान है जहाँ से यह सूर्य पुत्री प्रवाहित होती है और यह सारे पापों का विनाश करती है. इसके महासरोवर अर्थात तप्तकुण्ड में स्नान से मानव जन्म एवं मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है.
केदारखंड(अध्याय 9/89-90) में वर्णित है कि सूर्य देव ने यमुना को तीनों लोकों के हित कल्याण के उद्देश्य से पितरों को अर्पित कर दिया तभी पृथ्वी में आकर यमुना उत्तरवाहिनी बन गयीं जिनके दर्शन से समस्त पापों का नाश होता है. केदारखंड में अन्यत्र (39 /34-35) उल्लेख है कि जब राजा भगीरथ हिमालय में तप कर रहे थे तब उन्हें दो कन्याओं के दर्शन हुए. भगीरथ द्वारा उनका परिचय पूछे जाने पर एक ने अपने को श्वेतवर्णा गंगा और दूसरी ने अश्वेतवर्णा सूर्य पुत्री यमुना कहा. गंगा ने अपना उद्गम गंगोत्तरी और यमुना ने यमुनोत्तरी बताया. केदारखंड में यमुना के अवतरण का विशेष उल्लेख है.
यमुना को श्री कृष्ण की पट्टमहिषी कहा गया. श्री कृष्ण की एक रानी का नाम भी कालिंदी था. यमुना को भी कालिंदी कहा जाता है. इतिहासकारों का मत है की श्री कृष्ण की अधिकांश लीलाएं यमुना नदी तट के समीप के अंचलों में संपन्न हुईं थीं .मथुरा भी यमुना तट पर ही बसी. प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में जिन पांच महानदियों का वर्णन है उसमें यमुना भी है. कालसी में स्थित सम्राट अशोक के द्वारा उत्कीर्ण चौदह शिला प्रज्ञापन इसके महत्व को रेखांकित करते हैं. शुंग काल में यमुना व गंगा के स्त्रोत प्रदेशों की तीर्थ यात्रा होती रही तब हिमालय की तीनों श्रेणियों महहिमवन, क्षुद्र हिमवान और वहिहिमवान कर जाना होता था.कुलिंद नरेशों ने अपनी राजधानी पूर्वी स्त्रुघ्न यमुना के तट पर बसाई जिसकी पहचान कालसी के समीप सिंहपुरा से की गयी.गंगा एवं यमुना नदी को महत्व देते हुए कुषाण काल से ही इनका अंकन द्वार अलंकरण में करने की परंपरा बनी तथा गुप्त काल में द्वार के दोनों पार्श्वों में इनका अलंकरण द्वारपाल के स्थान पर किया जाने लगा था जिसमें गंगा को मकर वाहिनी तथा यमुना को कूर्मवाहिनी के रूप में अलंकृत किया जाने लगा साथ ही उनकी मकर और कछुए पर आरूढ़ मूर्तियां बनायीं गयीं.गुप्तकाल की अलंकरण की यह परंपरा चौदहवीं शताब्दी तक उत्तराखंड में कई स्थानों में जारी रही जिनमें सातवीं शती के उत्तरार्ध में पलेठी, आठवीं व नवीं शती में उत्तरकाशी के रैंथल एवं पौंटी,चौदहवीं शती में यमुना प्रतिमा थानगांव व बड़कोट के मंदिरों में ऐसे अलंकरण किये गए. इन्हीं कारणों से गंगा एवं यमुना को प्रतिष्ठित करने में गुप्त काल का योगदान सर्वोपरि माना गया.
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महाकवि कालिदास ने भी अपने लेखन में गंगा अवं यमुना का वर्णन किया. चीनी इतिहासकारों ने यमुना नदी को “येन-मोक -ना” कहा. यूनानी यमुना को “इरैन्ने बोस’ के नाम से भी सम्बोधित करते थे जो “हिरण्यवाह ” या “हिरण्यवाहु” से समीकृत किया जाता है. यूनानी लेखकों में टॉल्मी ने यमुना के लिए ‘डाइमोना’ और प्लिनी ने ‘जोमानेज’ शब्दों का प्रयोग किया था जिसे यह ज्ञात होता है कि यमुना के महत्व से विदेशी विद्वान भी दो हजार वर्ष पहले परिचित हो चुके थे.
ऋग्वैदिक काल से “पर्वतों की उपत्यका व सरिताओं के संगम पर ज्ञान की वृद्धि होती है” के अनुपालन से तीर्थ स्थलों का विकास होता गया. जलमय नदियों के संगम,कुंड और सरोवर को तीर्थ की संज्ञा दी गयी. उत्तराखंड के तीर्थों के बारे में मान्यता बनी कि उनको देवों द्वारा निर्मित किया गया तदन्तर ऋषियों एवं मनुष्यों ने इन्हें बनाये रखा. इस क्रम में गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी, बद्रीनाथ एवं केदारनाथ तीर्थों का महत्व बना रहा. फिर इनके साथ पांच /सप्त शब्द भी जुड़े जैसे पंचकेदारी. यजुर्वेद में कहा गया कि “अंगान वेदी वसुधा “अर्थात धरती को घर -आंगन समझ जब मनुष्य ने इस पर विचरण आरम्भ किया और उसे स्वानुभूति हुई कि पर्वतों की उपत्यका और नदियों के संगम पर आने से अपूर्व आनंद मिलता है.
वनपर्व में कहा गया कि जो व्यक्ति पूजा अर्चना नहीं कर सकते उन्हें धर्म का लाभ प्राप्त करने हेतु जो यज्ञ के फल के समतुल्य है, तीर्थ यात्रा करनी चाहिए . इस विचार के उपरांत गव्यूति, नारायण क्षेत्र और तीर स्वरूपों की कल्पना हुई. इस प्रकार तीर्थ का विधान बना कि देव दर्शन कर प्रणाम करें, जलकुंड में स्नान करें, मंत्र पड़ें और तीर्थ स्थल में रात्रि में अवश्य निवास करें. उत्तराखंड की तीर्थ यात्राओं का ज्ञान पुराणों के भुवन कोशों में जनपदों के उल्लेख से प्राप्त होता है. जिसमें हिमालय से सम्बंधित सात जनपदों का उल्लेख है. पाणिनी के अनुसार यहाँ आयुधजीवी संघ निवास करते थे तो वाल्मीकि रामायण में इसे “निरामय कारुपथ” देश की संज्ञा दी गयी. महाभारत में कहा गया कि इन्हीं स्थलों से पांडवों ने स्वर्गारोहण यात्रा की. पांडवों ने सर्वप्रथम यमुनोत्तरी फिर गंगोत्तरी और फिर केदार बद्री की यात्रा की. इसी कारण उत्तराखंड की तीर्थ यात्रा वामावर्त की जाती रही. काव्यानुशासन में ‘कालिंन्द्रे पर्वत’का वर्णन है जिसे यमुना या कालिंदिनी के प्रदेश की उपत्यका माना जाता है. इतिहासकारों का मत है कि कुलिंद जनों की भूमि संभवतः कालिंदिनी के स्त्रोत प्रदेश में थी इस प्रकार वर्तमान में यमुना उपत्यका का वह क्षेत्र जो रंवाई, जौनपुर व जौनसार नामों से जाना जाता है पहले कुणिँद जनपद कहलाता था. महामयूरी ग्रन्थ में वर्णन है कि यमुना के स्त्रोत प्रदेश में दुर्योधन यक्ष का अधिकार था. वर्तमान में भी यमुना की पंचगायीं और गीठ पट्टी में दुर्योधन की पूजा प्रचलित रही है.
यमुना जी का मंदिर पहले काष्ठ निर्मित था जिसे राजा सुदर्शन शाह ने बनवाया था.इससे पहले यहाँ कोई मंदिर न होने की बात कही जाती है. फिर राजा प्रताप शाह ने एक छोटा सा मंदिर बनवाया. 1815 ईस्वी में फ्रेजर ने यहाँ की यात्रा के बाद लिखा कि लोगों का यह विश्वास रहा कि यमुना सादगी से पूजा अर्चना मांगती है और अपने सम्मान में उसने मंदिर की भव्यता का निषेध किया है. तदन्तर यमुनोत्तरी में जो मंदिर विद्यमान है उसमें एक -एक फ़ीट ऊँची काले संगमरमर की मूर्तियां राजा प्रताप शाह ने लगवायीं. इनमें गंगा की मूर्ति को यमुना जी की मूर्ति के बायीं और लगाया गया है जिसके नीचे यमराज एवं श्री कृष्ण की मूर्तियां हैं.ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब यमुनोत्तरी मंदिर का निर्माण हुआ तथा मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा हुई तब यमुनोत्तरी के मंदिर के साथ ही, खरसाली के सोमेश्वर देवता तथा बीफ के नारायण देवता की पूजा करने का अनुरोध भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण पंडित बड़देव उनियाल को सौंपा गया. उनियाल ब्राह्मणों को सत्रहवीं शताब्दी में खरसाली में बसने में विशेष सुविधा दी गयी थी. कहा जाता है कि इससे पहले यमुनोत्तरी के प्राचीन पुजारी खरसाली में निवास कर रहे क्षत्रिय थे.
खरसाली यमुनोत्तरी से 6 किलोमीटर दूरी पर स्थित इस उपत्यका का उपजाऊ इलाका है.खरसाली में गांव के बीच पत्थर और काष्ठ से निर्मित सोमेश्वर का देवालय है जिसकी यह विशेषता है कि इसकी एक मंजिल भूमि के नीचे है. यहाँ संवत 1808 का नागरी लिपि में उत्कीर्ण लेख भी विद्यमान है. खरसाली गाँव में ही कार्तिक मास में दीपावली की यम द्वितीया तिथि के पश्चात यमुनोत्तरी के कपाट बंद हो जाने के बाद यमुना मैया की पूजा संपन्न होती है. ग्रीष्मकाल में वैशाख शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया को पुनः मूल मंदिर के पट खोले जाते हैं. मंदिर की देखरेख व प्रबंधन की व्यवस्था 1953 ईस्वी से यमुनोत्तरी मंदिर समिति के द्वारा की जाती रही है.
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सम्राट अशोक के धम्म यात्रा युग में गंगा-यमुना जल के महत्व ने इनके उद्गम क्षेत्र को इतना लोकप्रिय बनाया कि श्रद्धालुओं की यह मनोकामना सर्वोपरि रही कि वह यहाँ की यात्रा करें. तदन्तर तीर्थ यात्रा पथ विकसित हुए. पाणिनी ने इन्हें “उत्तर पथ” कहा तो मेगस्थनीज़ ने “नार्दन रूट” तो कौटिल्य के समय इसे “हेमवत पथ” कहा गया. हेमवत नामक महापथ में उत्तराखंड से जो तीर्थ यात्रा पथ जाता था वह गंगाद्वार या हरिद्वार से हो कर जाता था उनमें पहला था यमुना उपत्यका को जाने वाला मार्ग तो दूसरा गंगोत्तरी बद्रीनाथ जाने वाला पथ. पहले उत्तराखंड की वामावर्त तीर्थ यात्रा का प्रचलन हुआ जब पांडवों ने यमुनोत्तरी से यात्रा आरंभ की तथा फिर वह गंगोत्तरी से केदारनाथ होते हुए बद्री नारायण को बढे. बाद में बौद्ध धर्म में दक्षिणावर्त यात्रा की परिपाटी चली. प्राचीन काल में वामावर्त तीर्थ यात्रा का प्रचलन रहा जिसमें हरिद्वार से देवप्रयाग होते यमुनोत्तरी मार्ग मुख्य था.
हरिद्वार से देवप्रयाग होते यमुनोत्तरी मार्ग में पहले हरिद्वार से देवप्रयाग फिर देवप्रयाग से टिहरी, टिहरी से धरासू व धरासू से यमुनोत्तरी जाया जाता था. इस मार्ग में हरिद्वार से सत्यनारायण मंदिर हो कर ऋषिकेश की 19 मील की यात्रा होती थी. फिर ऋषिकेश से लक्ष्मण झूला, गरुड़ चट्टी फुलवाड़ी होते गूलर चट्टी (10 मील) गूलर चट्टी से महादेव सैणचट्टी, मोहनचट्टी, बैंजनी मुकाम, कुण चट्टी, बंदर भेल, महादेव चट्टी, सेमलचट्टी व आगे कांडी चट्टी (22 मील) पहुँचते थे. कांडी चट्टी से आगे व्यास चट्टी, राममंदिर, छालरी चट्टी, उम्ररासु चट्टी,सौड़ चट्टी होते भागीरथी तथा अलकनंदा के संगम देवप्रयाग (13 मील ) की यात्रा होती थी. अलकनंदा का पल पर कर रघुनाथ मंदिर जाया जाता तथा भागीरथी का पल पर कर शांता बाजार देवप्रयाग. इस प्रकार हरिद्वार से देवप्रयाग तक के इस प्रमुख यात्रा मार्ग की दूरी 64 मील थी. देवप्रयाग से फिर टिहरी की यात्रा खरसाडा, कोटेश्वर, बंडरिया व क्यारी होते की जाती थी जिसकी दूरी 35 मील होती थी. टिहरी से आगे पीपलचट्टी व भलडियाना, छाम, नगुण होते 25 मील चल धरासू आते थे. धरासू से आगे 4 मील की दूरी पर कल्याणी में राजेश्वरी का प्राचीन मंदिर है. कल्याणी से 10 मील पुनः आगे बढ़ते ब्रह्मखाल में ब्रह्मा जी के मंदिर के दर्शन कर सिलक्यारा पड़ता है जिससे राड़ी धार, डंडालगांव, सिमल होते 11 मील की पदयात्रा के बाद गंगनाणी आता है. गंगनाणी से यमुना चट्टी 6 मील दूर है. यमुना चट्टी से अब वजरी, डडोरी, राना गांव, हनुमान चट्टी व खरसाली की 17 मील की पैदल दूरी तय कर यहाँ से 4 मील दूर यमुनोत्तरी तीर्थ के दर्शन होते हैं. इस प्रकार धरासू से यमुनोत्तरी का यह पैदल यात्रा पथ 52 मील लम्बा होता था.
बड़कोट यमुनोत्तरी के परंपरागत प्राचीन यात्रा पथ के विश्राम स्थल के रूप में मुख्य रहा.बड़कोट से होते यमुनोत्तरी मार्ग में बड़कोट से आठ किलोमीटर की दुरी पर यमुना के बाएं तट पर गंगाणी या गंगनाणी है जिसके बारे में यह लोक विश्वास है कि यहाँ गंगा नदी की एक धारा आती है जिसको परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि की पूजा अर्चना हेतु निकाला था. यहीं से परशुराम की माता रेणुका गंगाजल की प्राप्ति के लिए भागीरथी में जातीं थीं . गंगनाणी में बने मंदिर में गंगा की श्वेत व यमुना की कृष्ण वर्णी प्रतिमाएं हैं. मंदिर के समीप जो कुंड है उसका सम्बन्ध भी परशुराम एवं ऋषि जमदग्नि से जोड़ा जाता है. गंगनानी में फागुन में संक्रांति पैर मेला भी लगता है. गंगनाणी से तीन किलोमीटर आगे यमुना नदी के दाएं तट पर थान गांव है जहाँ जमदग्नि ऋषि का मंदिर है. इस मंदिर और इसकी मूर्तियों को चौदहवीं शती का बताया जाता है.
बड़कोट राजगढ़ी तहसील का मुख्यालय है जिसका शाब्दिक अर्थ “बड़ा कोट’अर्थात ऐसा कोट है जो बारह ग्रामों का केंद्र हो. इन बारह गांवों के नाम कुथनोर, किरशाल, सरनोल, सपाण, स्यालंग, चलगढ़ी, पौँटी, पुजेली, मौलडा, बररेड़ी, डख्यात गांव व गडौली थे. अभी बड़कोट पट्टी में आठ गांव हैं.पुरातत्व विदों ने यहाँ लक्ष्मी नारायण मंदिर और इसके परिसर में खुदाई से शेषयायी विष्णु गणेश, उमा महेश्वर व यमुना तथा शिव मंदिर से प्राप्त त्रिमुख शिव,लक्ष्मी नारायण की भग्न प्रतिमा तथा गंगा व यमुना की उकेरी प्रतिमा को देख यह अनुमान लगाया कि चौदहवीं शती में यहाँ कई प्रस्तर मंदिर बनाये गए होंगे जो बाद में विनिष्ट हो गए. अपनी गंगोत्तरी यात्रा के विवरण में 1808 में कैप्टन रेपर ने इस स्थान का नाम बाड़ाहाट होने का कारण यहाँ सबसे बड़ा हाट होना बतलाया था. अतः एक बस्ती, एक बड़े दुर्ग और एक बड़े बाजार से इस विस्तृत स्थान को बड़कोट कहा गया. कहा जाता है कि तंगण जाति के व्यापारियों का यह शीतकालीन व्यापार केंद्र रहा जिससे रंवाई इलाके के निवासी वस्तुओं की खरीद करते थे.
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मध्यकालीन राजपूत युग जिसे गढ़वाल में अनेक ठकुराइयों का समय कहा जाता है में बड़कोट में भी एक स्वतंत्र ठकुराई बनी थी.इसके बारे में कहा जाता है कि इसकी उच्च टेकड़ी में ठाकुर और नीचे की टेकड़ी जिसे माची या दड़का कहा जाता था में बाजगी रहते थे. बड़कोट ग्राम के उच्च टीले पर गढ़ के अवशेष हैं जिन्हें सहस्रबाहुगढ़ व इसके नीचे कुंड हैं जिन्हें सहस्त्रबाहु कुंड कहा जाता है. पहले यहाँ 365 कुंड बताये जाते थे अब इनमें 7 कुंड़ों के ही अवशेष विद्यमान हैं. जनश्रुति है कि जब परशुराम ने सहस्त्रबाहु का सर काटा तो उसका शीश गढ़ के नीचे बने कुंड वाले स्थान पर पड़ा. इसे ही सहस्त्रबाहु की समाधि कहा जाता है. स्थानीय निवासी सहस्त्रबाहु का अवतार बौख नाग को मानते हैं. इस गढ़ के ऊपर पंडो की चौरी व पीछे की शिला पर हवन कुंड है. गढ़ के नीचे दड़का या पश्चिमी ढाल पर बाजगी लोगों की बस्ती है.
ऐतिहासिक व धार्मिक स्थलों से गुजरता एक अन्य पथ जो यमुनोत्तरी के लिए प्रचलन में रहा वह कालसी से लखवाड़ होते पहले नागथात पहुँचता था जहाँ नागदेवता का मेला लगता था.इससे आगे विजनार, गौराघाटी, लाखामण्डल व चांदा डोखरी होते हुए यह मार्ग बगासू पहुँचता जहाँ शिव मंदिर है. फिर पोंठी होते नगाण गाँव आते जिसे परशुराम की तपस्थली कहा जाता है. आगे यह पथ गुदडू जमींदार की घाटी, बजरीव पिंड की वनास से बढ़ जानकी चट्टी में मिल जाता था. कालसी से यमुनोत्तरी तक यह पथ 76 मील की दूरी तय करता था.
केदारखंड पुराण में यमुनोत्तरी तीर्थ को योनि तीर्थ एवं योनि पर्वत पर यवन देश पीठ के रूप में वर्णित किया गया तथा यमुना नदी को कृष्णवर्णी की संज्ञा दी गयी जिसका अभिप्राय श्याम रंग वाली सरिता से था. आस्था वश कृष्ण की पटरानी की मान्यता पा कृष्ण पत्नी वर्णा कही गयी. वहीं ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहा जाता है कि यमुना के पर्वतीय प्रदेश में अर्जुन के द्वारा यदुवंशी बसाये गए थे. कृष्ण के द्वारका जाने के उपरांत अनेक यदुवंशी यमुना की पर्वतीय श्रेणी में आ बसे.वस्तुतः कलिंद पर्वत से आने वाली अनेक जल धाराओं के मिलने से यमुना नदी बनी परन्तु इसका मूल नाम उस कुंड से है जो यमुनोत्तरी तीर्थ में है. यमुना की सहायक नदियों में टोंस एवं गिरि मुख्य है जिनके साथ अनेक अन्य छोटी नदियां भी इसमें मिलतीं हैं. टोंस नदी को पुराणों में तमसा कहा गया. इसका उदगम बन्दरपुच्छ पर्वत के पश्चिमी ढाल से होता है. टोंस की मुख्य सहायक रुपिन, सुपिन और पवार हैं. रुपिन नदी मांझीवन कांठे के भराड़सर ताल जो 19,190 फीट की ऊंचाई पर स्थित है से होता है जो 35 किलोमीटर प्रवाहित होने के उपरांत सुपिन नदी के साथ नैटवाड़ में संगम करती है. वहीँ सुपिन नदी बंदरपूच्छ पर्वत के स्वरगारोहिणी कांठे से निकलती है.तीसरी मुख्य नदी पवार है जिसका उदगम 14000 फीट में चन्द्रनाहन ताल से होता है जो चांगशील पर्वत से निकलती है. पवार नदी का संगम त्यूणी में टोंस से होता है. इन तीन मुख्य नदियों के अतिरिक्त यमुना की अन्य बड़ी सहायक नदियों में गिरि व कमल नदी है. इनमें कमल नदी कालसी डांडा से निकलती है और पुरोला से होते हुए मुंगरागढ़ के समीप लगभग 20 किलोमीटर के अपने प्रवाह पथ के बाद यमुना के दाएं तट पर जा मिलती है. वहीँ गिरि नदी पांवटा साहिब से 6 किलोमीटर उत्तर में यमुना से संगम करती है. गिरि नदी का उदगम खड़ा पत्थर या कुपड़कांठा जुब्बल के उत्तर में है.
यमुना की सहायक कमल नदी का इलाका रामा-सिराई के नाम से जाना जाता है. इसमें पुरोला के पास देवढूँग ग्राम है जहाँ बौद्धस्तूप विद्यमान है. पुरोला के पास इटाकोट में खुदाई से शुंग -कुषाण काल के मिट्टी के बर्तन और कुलिंद काल के ताँबे के सिक्के प्राप्त हुए तथा वैदिक कालीन यज्ञ की परंपरा पर आधारित गरुड़ चिति यज्ञ वेदिका प्राप्त हुई. इसी प्रकार देवढुँग से आगे ढिकाल ग्राम में कुषाण कालीन ईटें मिलीं व यहीं समीप में स्थित खाबली सेरा में मौर्य कालीन वस्तुएँ प्राप्त हुईं. पुरोला तहसील के पास छिवाला गांव में की गयी खुदाई से महाभारत काल के मिट्टी के बर्तन मिले.
यमुना की अन्य कई सहायक छोटी नदियाँ हैं जो विभिन्न स्थानों में इसके दाएं एवं बाएँ तट पर इससे संगम करती हैं.बाएं तट पर संगम करने वाली छोटी नदियों में यमुनोत्तरी से 13 किलोमीटर नीचे हनुमान चट्टी पर बंदर पुच्छ से निकलने वाली हनुमान गंगा है.हनुमान गंगा के बारे में यह मान्यता है कि इसके स्त्रोत के समीप बंदरपुच्छ में हनुमान जी तपस्या करते थे तभी इसे हनुमान गंगा कहा गया.आगे कुबड़ा टिब्बे से कुथनौर गाड़ है जो कुबड़ा टिब्बे से निकल कर कुथनौर के पास यमुना में समाहित होती है. अन्य गाड़ों में राड़ी फलाश टिब्बा से निकली नंदगांव गाड़ इसमें राजतर के पास मिलती है. बड़कोट से 2 किलोमीटर निचे किशना के पास किशना गाड तथा कुवां के पास कफनोल डंडा से निकली बनीं गाड़ यमुना में समाहित हो जाती है. नैनबाग के पास ऐंढ़ी डंडा से निकली भद्री गाड़ व जमुनापुल के पास सुरकुण्डा से निसृत अगलाड़ गाड़ यमुना के बाएं तट पर इसमें समाहित हो जातीं हैं.
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यमुना के दाएं तट पर बनास डांडे से निकला बनास नाला पिंडकी बनास के पास इसमें मिलता है. पुजयार गांव चट्टी के निकट सन्नोल डांडा से निकली पुजयार गांव गाड़ व नगाण गांवके पास केदार कांठे बड्यार से निकली नगाण गाड़ इसमें मिलती है.नगाण गांव गड के तट को जमदग्नि ऋषि की तपस्थली बताया जाता है. नगाण गांव में एक प्राचीन मंदिर है तथा यहाँ शमी के ऐसे पेड भी बताये जाते हैं जो कभी नहीं सूखते. आगे यमुना नदी में डरव्याट गांव के नीचे व्यंली कण्ठे से निकली गडोली गड और भंकोली के ऊपर से निकली रिखनाल गाड़ चांदा डोखरी के समीप कुवांगांव के सामने इसमें समाती है. नौगांव के नीचे मुगरागढ़ा में कालसी डंडा से निकली कमल नदी यमुना नदी में आ मिलती है.
यमुना उपत्यका का पूर्वी भाग छःहजार फ़ीट से ले कर ग्यारह हजार फ़ीट ऊँचा है तो पश्चिमी भाग की ऊंचाई पांच हजार से छह हजार फ़ीट. दस हजार फ़ीट से ऊपर के इलाके में भोजपत्र, सिमरू व खिर्सू के पेड़ों के साथ जड़ी बूटियों की प्रचुरता है. हर की दून इसी ऊंचाई वाला क्षेत्र है जहाँ की घाटियां सितम्बर के बाद फूलों से लद जातीं हैं.यमुना उपत्यका के रक्षित वनों में चीड़, देवदारु, बांज व बुरांश के सघन वन हैं.यमुना उपत्यका के उच्च पर्वतीय इलाके में छह हजार फ़ीट से ऊपर वर्षा ऋतू को छोड़ वर्ष भर बर्फ पड़ी रहती है.
यमुना नदी के बायें तट पर बर्नीगाड़ के पास स्थित है देवल जहाँ छलेश्वर देवता का मंदिर है. छलेश्वर को ग्यारह ग्रामों का देवता माना जाता है. यह ग्यारह गांव देवल, भोंटी, सिंगुड़ी, विजोरी, गढ़, डाबरा, कसलाना, फिफयारा, फुफन, चोपड़ा, व न्यूड़ी हैं.इन ग्रामों के ईष्ट देवता जाख, भैरव, दूल्हा तथा पांडव होते हैं. देवल के पुजारी इसी गांव के नौटियाल और डोभाल पंडित हैं. देवल को पौराणिक मंदिर माना जाता है और देवल देवता डोली में रहता है. डोली में पांच मूर्तियां रहतीं हैं तथा डोली ही नृत्य करती है. डोली का श्रृंगार लाल कपडे से किया जाता है. मंगसीर और वैशाख में इनके मेले लगते हैं.
यमुना की सहायक नदियों रुपिन और सुपिन के संगम के पास नैटवाड़ कस्बे में पोखू का मंदिर बहुत प्रसिद्ध है. साथ ही देवरागांव में कर्ण मंदिर है.पुरातत्व की दृष्टि से गुंदियाट गांव का कपिलदेव मुनि मंदिर और रामा गांव का रामेश्वर मंदिर महत्वपूर्ण है. रामागांव के ही ऊपरी भाग में सिरकोट गढ़ है जहाँ से रवाईँ इलाके की सुरक्षा की जानी संभव होती थी. गुंदि याट गाँव में सामंतों के निवास थे.
नौगांव से लगभग 18 किलोमीटर कि दूरी पर गड़ोली के निकट रघुनाथ मंदिर है. ऐसा ही दूसरा मंदिर पुजेली गांव में है जहाँ के ईष्ट रघुनाथ हैं. यहाँ सीता माता को ठकराण, लक्ष्मण को नागदेव तथा हनुमानजी को संकटारु कहा जाता है. मंगसीर माह की अमावस्या को यहाँ बूढ़ी बग्वाल य बड़ी बग्वाल मनाई जाती है जिसे लोकपर्व “देवलाग “के नाम से भी जाना जाता है.यहाँ देव का मतलब इष्टदेव तथा लाग वह पेड खम्बे की तरह सीधा खड़ा हो. देवलाग त्यौहार मनाने के लिए गोल इलाके के निवासी पहले निराहार रह जंगल से देवदार का कटा हुआ पेड़ इस तरह लाते हैं कि उसका सबसे ऊपर का भाग न टूटे अर्थात खम्बे की तरह सीधा खड़ा पेड़ देवलॉग है. अब इस पेड़ को देवदार के छिलकों टहनियों से सजाया जाता है. ग्रामवासी अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं जिसके बाद पेड को अग्निदेव को अर्पित कर दिया जाता है.
देवलॉग के आयोजन में स्थानीय बनाल वासी दो थोकों में बंट जाते हैं. इनमें पहली थोक साथी थोक होती है जिसके अंतर्गत कोटी, जावला, ईडक, पौड़ी, सिड़क,गडोली, वयांली, गेर, अरुणा, गौल, गडाला, विस्याट, बानी, थानका, छतरी आदि गांव शामिल होते हैं तो दूसरी ओर पानसाई थोक में कूँण, जेस्ताड, विंगराडी, ,करनाली, जखाली, घौंसाली, घुण्ड, गुलाड़ी, पुजेली, सिसाला, कोटला व बरखेति इत्यादि गांव आते हैं अब दोनों थोक अपने ओल्ला को ले बाजा बजाते हुए मंदिर में आते हैं. फिर लोक ओल्ला खेला जाता है और रासो किया जाता है. फिर देवलॉग को प्रणाम कर टीका तिलक लगते हैं और देवलॉग को मंदिर के प्रांगण में ले आया जाता है. ईष्ट रघुनाथ के उपासक अपने ओल्ला से देवलॉग को अग्नि अर्पित करते हैं तथा देवलॉग को उसकी ओखली में लाठियों के सहारे खड़ा करने का प्रयास किया जाता है. एक और साठी थोक तो दूसरी और पानसाही थोक होती है. अब देवलॉग को लाठियों के सहारे सीधा खड़ा करने के प्रयास में जिस और देवलॉग गिर जाती है तो उस ओर की थोक को अपनी हार माननी पड़ती है. सुबह होते इस प्रकाशोत्सव का समापन होता है. इस पर्व के द्वारा आपसी कटुता को भुला प्रेम और सौहार्द की भावना को बढ़ाने की सोच है तो ब्रह्मा अवं विष्णु की आपसी श्रेष्टता को वर्णित करने की कथा भी इसमें निहित है.
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यमुना तथा रिखनाड़ नदियों के संगम पर पुरोला से चकरौता जाने वाले मार्ग पर यमुना उपत्यका का पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थल लाखामंडल है जिसका प्राचीन नाम गोड़ा था. कहा जाता है कि यहाँ पांडवों के अज्ञातवास की जानकारी जब दुर्योधन को हुई तो उसने लाख का घर यहाँ बनवा छल से उसमें पांडवों का प्रवेश करा उसमें आग लगा दी. संयोग से पांडव एक सुरंग से होते बच निकले. बताया जाता है कि यहाँ चट्टान से होती एक संकरी सुरंग नदी के तट तक जाती है. इतिहासकारों का मानना है कि प्राचीन काल से ही यह शिव या भव का स्थान रहा तथा यहाँ मंडल, मंदिर, स्मारक चिन्ह और प्रशस्ति लेख स्थापित हुए. यहाँ मृतक की आत्मिक शांति के लिए गाय, बैल व बछड़े को भेंट करने की परंपरा रही. लाखामंडल का मुख्य आकर्षण यहाँ का शिव मंदिर है. समीप ही पुरातात्विक संग्रहालय है जिसमें दास एवं यादव वंश के महत्वपूर्ण शिलालेख हैं. शिव मंदिर के यमुना नदी के दाएं भाग में होने के साथ पांचवी शती ईस्वी की प्रशस्ति व आठवीं से सोलहवीं शती ईस्वी के मध्य की मूर्ति के मिलने से यह कहा जाता है कि प्राचीन काल में यमुनोत्तरी को जाने वाला पथ दाएं होकर था जो सिंहपुर, कालसी, लाखामंडल, नौगांव, बड़कोट, गंगनाणी, खरसाली होते हुए यमुनोत्तरी को जाता था.
यमुना नदी के दाएं किनारे देहरादून चकरौता मार्ग में यमुना और अलावा नदियों के संगम पर पौराणिक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान कालसी है.यहाँ सम्राट अशोक के चौदह अभिलेख चित्र शिलाओं पर अंकित हैं.इसे आदिपर्व में यामुन पर्वतमाला में “कालकूट “और अनुशासन पर्व में “कालशैल” कहा गया व ग्यारहवीं शताब्दी में अलबरूनी ने इसे “कालकोटि ” कहा. इसे “कलसिग्राम” भी कहा गया जो टोंस,अलावा और यमुना से तीन और से घिरा होने से टापू के सामान है. यमुना के बाएं तट में अम्बादि इलाके के समीप जगतग्राम में की गयी खुदाई से यहाँ राजा शीलवर्मन व दक्षिण में राजा शिव भवानी के समय की यज्ञ की वेदियां मिलीं. इसी कारण ऐतिहासिक महत्व के साथ कालसी प्राचीन पुरातात्विक स्थल के रूप में उल्लेखनीय है.
यमुना उपत्यका में देहरादून जिले में भावर परगने की टोंस घाटी में हनोल एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है जहाँ महासू का छत्र शैली में त्रिरथ पर बना मंदिर है.इस मंदिर के गर्भगृह में लकड़ी के सिंहासन में चार भाई महासू अर्थात वोटा, चालदा, भासोक व पवासी की धातु मूर्तियां स्वर्ण जड़ित ताज के साथ स्थापित हैं. मंदिर के पीछे वीर खम्भ है जो बुरी शक्तियों से रक्षा करता है. हनोल में महासू के मंदिर के अतिरिक्त पुरातात्विक संग्रहालय है जिसमें लक्ष्मी नारायण, शेषशायी विष्णु, उमा महेश्वर, पार्वती,गणेश व बलराम की मूर्तियां रखीं हैं.
यमुना उपत्यका के पुरातत्व व इतिहास पर जिन विद्वानों ने महत्वपूर्ण शोध की है उनमें डॉ शिव प्रसाद नैथानी,डॉ शिव प्रसाद डबराल, हरिकृष्ण रतूड़ी, डॉ जे पी बिजल्वाण,डॉ सोहनलाल भट्ट, महावीर रवांल्टा, डॉ सुष्मिता नैथानी मुख्य हैं. इनके अतिरिक्त जिला उत्तरकाशी राजगढ़ी तहसील की असेसमेंट रपट (1963), केदारखंड का अध्याय 39, फ्रैजर का ग्रन्थ माउंटेन हिमालय व जर्नल, ए टूर इन गढ़वाल हिमालय, एटकिंसन का गजेटियर भाग 3, खंड 1, वालटन का देहरादून गजेटियर तथा इतिहास एवं पुरातत्विक विभाग हेमवती नंदन बहुगुणा विश्व विद्यालय श्रीनगर के प्रकाशन महत्वपूर्ण सन्दर्भ हैं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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