जनवरी का महीना था. कुछ ही दिन पहले हिमपात हुआ था. जिला शिक्षा अधिकारी के साथ मैं छापराधार इण्टर कॉलेज में गया था. मसूरी-चम्बा मार्ग पर धनोल्टी से छापराधार तक जनवरी में ठण्ड का क्या आलम रहता है ये उधर से गुजरने वाला ही समझ सकता है. (Winter Holidays and Students Safety)
निरीक्षण की रूटीन जानकारी लेने के बाद जिला शिक्षा अधिकारी ने प्रधानाचार्य से स्वाभाविक सवाल किया कि क्या आपके स्कूल में जाड़ों की छुट्टी नहीं होती. उन्हें बताया गया कि जी पहले होती थी, अब नहीं होती. मैंने जवाब की पुष्टि करते हुए कहा कि अब टिहरी में माध्यमिक स्तर के विद्यालयों में सिर्फ़ धनोल्टी में ही शीतावकाश होता है. बात छिड़ी तो यह भी बताया गया कि यहाँ स्टाफ में ऐसा कोई नहीं जिसे घुटनों या कमर दर्द की शिकायत न हो. ये दर्द यहाँ की पोस्टिंग के साथ बिन मांगे और बिन चाहे स्वतः ही मिल जाता है. ये संवाद चूंकि चरम शीत ऋतु में ग्राउण्ड ज़ीरो पर हो रहा था इसलिए पूरी तरह विश्वसनीय था. बल्कि कहना चाहिए कि प्रमाण से हम संवाद से पहले ही रू-ब-रू हो चुके थे. जिला शिक्षा अधिकारी ने उस भयंकर शीत में बच्चों के कष्ट को महसूस करते हुए पूछा कि क्या आप लोग नहीं चाहते कि शीतकालीन अवकाश हो. बताया गया कि कई बार मांग का प्रस्ताव भेजा जा चुका है पर वांछित परिवर्तन आज तक नहीं हुआ है. इस पर जिला शिक्षा अधिकारी ने कहा कि एक बार और भेजिए. इस बार आपके शीतावकाश की पैरवी मैं स्वयं करूंगा.
इस बार कोविड-19 के चलते माध्यमिक विद्यालयों के लिए शीतावकाश फिर से चर्चा में आ गया है. दिनांक 24 दिसम्बर 2020 को निर्गत एक शासनादेश के द्वारा उत्तराखण्ड शासन ने माध्यमिक विद्यालयों के लिए शीतावकाश समाप्त कर दिया है. राजकीय शिक्षक संघ, शीतावकाश को यथावत रखने की मांग कर रहा है और शिक्षामंत्री जी से वार्ता भी कर चुका है. शिक्षक जहाँ शीतावकाश के पक्ष में तकनीकी तर्क रखते हुए अपने पिछले अनुभवों को साझा कर रहे हैं वहीं शासन को लगता है कि कोविड-19 के चलते पढ़ाई में बहुत व्यवधान हुआ है और बोर्ड कक्षाओं के लिए इसकी भरपायी शीतावकाश को समाप्त करके ही की जा सकती है.
शीतावकाश के इस चर्चित और विवादित मुद्दे के किसी पक्ष में खड़े होने से पहले हमें दीर्घावकाश की अवधारणा को अवश्य समझ लेना चाहिए. और इस अवधारणा को समझने के बाद जिस ओर भी खड़े होना चाहें आप बेझिझक हो सकते हैं.
पहला महत्वपूर्ण तथ्य ये कि दीर्घावकाश का प्रावधान सिर्फ़ स्कूल-कॉलेज के लिए ही है. दूसरा ये कि ये परम्परा प्राचीन या मध्य काल से शुरू नहीं हुई है और न ही भारत में उपजी है. दीर्घावकाश का काॅंसेप्ट पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की देन है और बमुश्किल 100-150 साल पुरानी है. प्रतिकूल मौसम मे छात्रों के स्वास्थ्य और सुरक्षा की चिंता ही इसका मूल आधार था. साथ ही अकेडमिक कैलेंडर का निर्धारण करते समय अग्रेरियन कैलेंडर का भी पूरा ध्यान रखा जाता था. 40 पार के लोगों को अवश्य याद होगा कि लगभग तीन दशक पूर्व तक प्रारम्भिक विद्यालयों के लिए दशहरे-दीवाली के बीच फसली तातील भी हुआ करती थी. समय के साथ-साथ समाज कृषि प्रधानता से विमुख हुआ तो स्कूलों से फसली तातील की भी खामोश विदाई हो गयी. यूरोप-अमेरिका में कुछ शिक्षाशास्त्री दीर्घावकाश को कम करने के पक्ष में भी दिखते हैं, कई पब्लिक स्कूल्स में इस तरह के प्रयोग हो भी रहे हैं. पर ये सब बच्चों के स्वास्थ्य और सुरक्षा की क़ीमत पर नहीं हो रहे हैं. ऐसे शिक्षाशास्त्रियों का तर्क है कि जब हमारे पास क्लाइमेट कंट्रोल्ड स्कूल बिल्डिंग्स हैं, बच्चे क्लाइमेट कंट्रोल्ड वाहनों में घर से आना-जाना कर रहे हैं तो फिर प्रतिकूल मौसम के आधार पर दीर्घावकाश का क्या औचित्य. इस तर्क के आधार पर भारत के सरकारी स्कूलों में दीर्घावकाश पर निर्णय करना किसी भी कोण से समझदारी नहीं कही जाएगी. जिस अमेरिका को उत्कृष्टता का आदर्श मानकर सारी दुनिया अंधानुकरण करती है वहाँ के अधिकांश स्कूल कैलेंडर भी औसत रूप से 180 दिन के ही हैं. प्रतिकूल मौसम भारतीय शिक्षा को प्रभावित करने वाला बहुत महत्वपूर्ण कारक है और सरकारी स्कूलों के लिए तो ये कारक चुनौती जैसा भी है. ये चुनौती कहीं पेयजल अनुपलब्धता के रूप में दिखती है कहीं पर्याप्त प्रकाश और धूप की अनुपलब्धता के रूप में.
भारत में हम अभी शिक्षा के अधिकार की हर बच्चे और उसके परिवार तक पहुँच को ही सुनिश्चित करने के लिए संघर्षरत हैं. ऐसे में सरकारी स्कूलों के लिए क्लाइमेट कंट्रोल्ड स्कूल बिल्डिंग्स और वीइकल्स की उपलब्धता तक पहुँचना बहुत दूर की बात है. ऐसे में जो हमारे हाथ में है वो ये कि क्लाइमेट फ्रैंडली अकेडमिक कलेंडर को परिवर्तित न किया जाए. इस तरह भी समझा जा सकता है कि जब तक प्रतिकूल मौसम को विजित करने में सक्षम न हुआ जा सके तब तक उसके हिसाब से अनुकूलित जीवनशैली और क्लाइमेट फ्रैंडली अकेडमिक कलेंडर अपनाने में ही भलाई है.
यह भी स्पष्ट है कि दीर्घावकाश के मामले में शिक्षक कोई पार्टी नहीं है. विद्यालयी दीर्घावकाश के दृष्टिगत दो ही पार्टी हैं – बच्चे और शासन. बच्चों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को केंद्र में रख कर ही शासन दीर्घावकाश नीति तय करता है. शिक्षकों का,े बच्चों के हित में ही हमारा हित निहित है इस अलिखित प्रतिज्ञा का पालन करना होता है. बच्चों का हित क्या है, इस पर विचार करने के लिए शासन, समाज, अभिभावकों के साथ शिक्षक भी निश्चित रूप से एक पार्टी है और इस पार्टी के बहुमत के निर्णय की उपेक्षा तो बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए.
उत्तराखण्ड के माध्यमिक स्कूलों में शीतकालीन दीर्घावकाश विषय को इस विमर्श के आलोक में ही परीक्षित और निर्णीत किया जाना चाहिए. एक अधिकारी के संवेदनशील व्यवहार और विवेकशील निर्णय का लेख के शुरुआत में जिक्ऱ करने का मकसद ये पुष्ट करना है कि पूर्व में भी बहुत से शिक्षाधिकारियों के द्वारा अपने अधिकार क्षेत्रान्तर्गत, बच्चों के हित को सुनिश्चित किए जाने वाले निर्णय लिए जाते रहे हैं. और उम्मीद है कि आगे भी शासन स्तर के निर्णयों को दिशा देने में उनकी अनुभव-आधारित सलाह की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. मनोवैज्ञानिकों की उस सलाह का भी अवश्य संज्ञान लिया जाना चाहिए जो इस वैश्विक महामारी के कठिन काल में प्रतिदिन के टीचिंग आवर्स, सिलेबस और इंस्ट्रक्शनल डेज़ को नियंत्रित करने को लेकर है.
विद्यालय, शिक्षा का साधन है साध्य नहीं. विपरीत परिस्थितियों में साधन बदला भी जा सकता है. पर इससे न तो साध्य बदलना चाहिए और न ही साधना में कोई कमी आनी चाहिए.
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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