को ऑफिस से ज़रा जल्दी रुखसत होने की खुशी ज़रूर होती मगर बाहर कदम रखा तो देखा कि अच्छी खासी बारिश हो रही थी. बारिश मे रानीखेत की माल रोड किसी नई नवेली दुल्हन सी दिलकश हो जाती है. सड़क के एक तरफ आसमान तक जाते देवदार के वृक्ष हैं और दूसरी ओर आलीशान कॉटेजेस के बगीचों मे लगे हाइड्रेंज़िआ के फूल, जो बारिश में नहाने के बाद किसी पाषाण को भी अपनी तरफ आकर्षित कर दें. ये नज़ारा सुमित्रानंदन पंत या वर्ड्सवर्थ अगर देखते तो शायद एक और कृति में खामोश प्रकृति फिर से बोल उठती. मगर मेरे जैसे जौन एलिया की बिरादरी वाले लोग फितूर-ए-इश्क की परम्परा को बरकरार रखते हुए मन की टाइम मशीन से अतीत के प्रसंगों मे प्रवेश कर जाते हैं. (Winter Holidays and Childhood in Mountains)
बारिश मे प्रेमिका को याद करने का रिवाज़ बहुत पुराना है मगर ऐसी बारिशों मे भीगने पर मुझे भीगे से बचपन की याद सबसे पहले आती है.
जैसे कि हर कुमाऊनी नॉसटेल्जिया की शुरुआत होती है. अभी कल की बात लगती है, जब एक ही गांव के सोलह-सत्रह बच्चे हर रोज तीन गांव से होकर सात किमी दूर स्कूल में पढ़ने जाया करते और बरसात से स्कूल का बस्ता बचाने की जद्दोजहद मे अमूमन लेट हो जाया करते.
ज़िन्दगी तब उस शार्टकट रास्ते की चढ़ाई सी प्रतीत होती जिससे न चाहते हुए भी गुजरना ही पड़ता. कभी-कभी अपने क्लासमेट्स को देख अत्यधिक ईर्ष्या होती जिन्हें स्कूल आने को सिर्फ दो कदम का फासला तय करना था. दूसरी तरफ हमारा सफर रोज़ सुबह सात बजे शुरू हो जाता और शाम साढे पांच बजे घर पहुंचने पर खत्म होता.
मगर उस चढ़ाई के रास्ते मे भी कुछ चीज़ें ऐसी थी जो सारी थकान मिटा देती. जैसे कि वह मरघट वाली नदी, जिसके शीतल जल की याद से ही तन मे सिहरन सी उत्पन्न हो जाती है. जंगलात वाली तीक्ष्ण बयार जिसमें उड़ जाने को दिल करता. संसार में सबसे मीठी चीज़ों में शुमार ‘हिसालु’ के कांटेदार बौने वृक्ष और साथियों का अनर्गल शोर जिसके सामने आज की ज़िंदगी खामोश प्रतीत होती है. सच! इन पहाड़ी रास्तों में रोज़ चलने के बाद अब ज़िन्दगी की पहाड़ जैसी चुनौतियों से रत्ती भर भय नहीं लगता.
सर्दी का सीज़न नये दर्द लेकर हर बार दस्तक दे ही देता. दादी के द्वारा हाथ से बिने गए दस्ताने और टोपी ही उस ज़ालिम दिसंबर से लोहा ले सकते थे. भोर की सफेद बर्फीली ओस से ढंकी सतह पर चलना भी किसी सर्कस के करतब जैसा लगता था. ज़रा सी असावधानी और धड़ाम! और फिर गिरने पर साथियों द्वारा मज़ाक बनाया जाना तय था. धूप खिलने तक ठंड के प्रकोप से सभी के गाल गाजर के रंग के हो जाया करते थे.
इन सब कठिनाइयों के बावजूद दिसंबर हमें जान से प्यारा था क्योंकि इसके साथ शुरू होता सिलसिला सर्दी की छुट्टियों की उलटी गिनती का.
संसार के सारे यहूदी और कैथलिक समुदाय से ज्यादा बेसब्री से क्रिसमस का इंतजार हमें रहता था. यही वो दिन होता जब हमें 40 दिनों के लिए अपनी ज़िंदगी खुद के अनुसार जीने को ‘विंटर वैकेशन’ नाम का लाइसेंस मिल जाता.
स्कूल सेशन के आखिरी दिन क्रिसमस और न्यू इयर सेलिब्रेशन पर बेइंतहा चहल-पहल रहती, मन हिलोरे मारता और नाचने को दिल करता. मानो ‘खुल जा सिम सिम’ वाला दरवाजा मिल गया हो. या फिर ‘शाका लाका बुम-बुम’ वाली पेंसिल. हो भी क्यों ना,ये खुशियां क्या इनसे कम थी?
अब कल से और दिनों की भाँति गाँव के मुर्गों से पहले नहीं जागना पड़ेगा. न सुबह उठते ही अधखुली आंखों से हाथ-मुंह धोने होंगे. न ही पांच मिनट देर होने के चलते दादाजी की स्वाभाविक डांट खानी होगी और न ही मेरे कंधे पर स्कूल बैग लटकाते हुए मां का रुआंसा चेहरा देख मन उदास होगा. सच कहूं तो छुट्टी के दिन से अधिक आनंद तो आने वाली छुट्टी के खयाल से प्राप्त होता है.
बहरहाल, न जाने क्यों इस शोरगुल के बीच दिल ज़रा बेचैन सा हो जाता है. जब यह बाजू में बैठी लड़की मुझसे कान के पास आकर एक हाथ की दीवार बनाकर अपनी ‘मज़े की बात’ बतलाती है. ये लड़की जो स्कूल में दिन भर साथ होती है मेरे. जो रोज़ साझा करती है मुझसे अपनी टॉफियां और चॉकलेटस और मेरे दुःख और परेशानियां.
ये लड़की जो पढ़ाई-लिखाई में कमज़ोर है और लड़ाई-झगड़े में सबसे तेज़, कल से ये भी तो नहीं मिला करेगी. आह! ये तो मैंने सोचा तक नहीं. अनायास ही अब इसकी बातें बक-बक नहीं लगती. अभी ये हाथ पकड़ भी ले तो बुरा न लगे और अगर कह दे तो पैन फाइट भी खेल लें. काश ये भी चले मेरे साथ, मेरे घर. इसी कशमकश के बीच बज गई स्कूल घंटी और ये नामुमकिन सा खयाल भी मन से काफूर हो गया.
कोतुहल और उमंग से ओतप्रोत मन से शरीर में एक अलौकिक ऊर्जा स्फुटित होती और पैरों को मानो पंख लग जाते. आलम ये रहता कि सरपट दौड़ते हुए रोज़ का सफर आधे वक्त में तय हो जाता और इसके साथ शुरू होता ‘स्वराज.’
शीतकालीन अवकाश गृहकार्य की डायरी को एक नज़र देखकर बहुत जल्द काम खत्म करने का झूठा वादा कर दिया जाता.
अगली सुबह सूरज के उगने के पश्चात ही नींद खुलती और शुरू होती तैयारी महीने भर से बन रही योजनाओं को अंजाम देने की.
दिसंबर-जनवरी के खेती की दृष्टि से ‘मुकसार’ के मास होते हैं अर्थात दोनों बेती की फसलों के बीच का खाली समय. जब सारी भूमी बंजर नज़र आती है. ऐसे में गाय, बकरियों के ग्वाले बनकर जाने के कई फायदे थे. उनके द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाए जाने का भय तो था नहीं और उनकी रखवाली करने बहाने दिन भर घर बैठकर पढ़ाई करने से भी बचा जा सकता था. नतीजा ये रहता कि गांव के सभी बच्चे गाय, बैलों की पूंछ हिलाते खेतों में एकत्रित हो जाते और उनके कोलाहल से समस्त वातावरण गूंज उठता.
दो दलों में विभाजित होकर क्रिकेट मैच खेले जाते, जिसमें हारने वाला दल हमेशा जीतने वाले पर बेईमानी और नाइंसाफी के आरोप मढ़ता और मुकाबले का समापन रोज़ाना लड़ाई-झगड़े से होता. किंतु यह दुश्मनी कुछ ही पलों में ख़त्म हो जाया करती और एक दूसरे का मज़ाक बनाते हुए खूब हँसी, ठिठोली हुआ करती. फिर थकान मिटाने को नदी में जाकर मछलियां पकड़ने का निरर्थक प्रयास करते.
कभी संचायक भंडारे का आयोजन किया जाता, जिसमें चाय और आलू के ‘गुटके’ बनाए जाते. सूखे धनिए की चटनी के साथ सान कर बनाए गए खट्टे-मीठे नींबू को याद कर आज भी मुँह में पानी आता है.
उन दिनों शामें भी बेहद खूबसूरत हुआ करती. सूरज जब छिपने को होता तो रुई के गट्ठर जैसे बादलों में लालिमा बिखर जाती. यूँ लगता कि ऊपर वाले ने आसमान के कैनवस पर कोई नायाब चित्र उकेरा हो जैसे. घर की पाथर वाली छत पर बैठकर दूध पीते हुए इस नज़ारे से नज़र न हठती थी. अबोध मन में ख्याल आता कि यदि किसी तरह से सामने की पहाड़ी पर पहुँच सकूं तो उचक कर सुनहरे बादलों को पकड़ा जा सकता है.
इसी बीच नज़दीक के मैदान से किसी साथी की पुकार आती और सभी बच्चों का जमावड़ा लग जाता. चोर-पुलिस, छुपन-छुपाई, गिट्टी जैसे कई खेल खेले जाते जिनमें किसी विशेष साधन की आवश्यकता न थी.
सच !बचपन में खुशियां कितनी सस्ती हुआ करती थी. कभी-कभी हम सभी धनपुतलियों के पीछे भागा करते. दिखने में तितली जैसी ये वास्तव में बहुत चतुर और फुर्तीली थीं. ठीक सर के ऊपर मंडराती पर कभी हाथ न आती, मानो अबोध बच्चों को छका रही हो.
फिर अंधेरा होने के बाद अंगेठी के किनारे बैठकर दादी की लोककथाएं सुनी जाती जिनमें ज़्यादातर एक राजा हुआ करता जिसे एक बहुत गरीब मगर बेइंतहा खूबसूरत लड़की से प्रेम कर बैठता. दोनों ही अनेक विपत्तियों से लड़ते. कई दुश्मनों का सामना करते पर अंत में उनकी जीत होती होती और फिर वे सदैव खुशी-खुशी रहते. काश असल ज़िन्दगी भी दादी की कहानियों जैसी होती तो दुनिया कितनी हसीन लगती.
जनवरी में मकर संक्रान्ति के दिन पड़ने वाला त्योहार ‘घुघुती’ का बहुत बेसब्री से इंतज़ार रहता. तरह-तरह के व्यंजन जो खाने को मिलते जैसे पूरी, कचौरी, मालपुए, खजुर इत्यादि. सबसे बड़ी बात – माँ के साथ नानी के घर जाने मिलता. दुनिया में नानी ही थी जो माँ से भी ज़्यादा स्वादिष्ट खाना बनाया करती.
बस! यूं ही आनंद में सराबोर जनवरी कब निकल जाती खबर न लगती और वह दिन भी आ जाता जो सबसे अधिक मनहूस लगता – फरवरी का पहला सोमवार. जब ‘विंटर वेकेशन्स’ खत्म होती और फिर से स्कूल खुल जाते. भारी मन से जनवरी को अलविदा कहते हुए उस बाजू की सीट पर बैठने वाली लड़की का ख्याल आता तो दिल को ज़रा तसल्ली मिलती. खैर! वो कहानी कभी और सही.
थाली का श्रृंगार बढ़ाने वाले शुद्ध पहाड़ी घी में बने पकवान
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सूरज सिंह सिजवाली मूल रूप से ग्राम ‘ढौरा’ अल्मोड़ा के रहने वाले हैं. अंग्रेजी साहित्य से एम.ए करने के बाद वर्तमान में रानीखेत पोस्ट ऑफिस में कार्यरत हैं .
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1 Comments
ज्योति
वाह क्या बात है। अब उस लड़की की कहानी भी लिख ही दो