“बिना पूजा के बात नहीं बनेगी, भाई. बिलकुल नहीं बनेगी.” दीपक अपनी माँ की ओर देखते हुए सुभाष से बोला.
(Wapsi Story by Yugal Joshi)
सुभाष ने हैरान होकर उसकी ओर देखा. पूजा से उसका क्या मतलब, वह यह सोच ही रहा था कि दरवाज़े के बाहर से ही दीपक के छोटे भाई गिरीश ने सुर मिलाया.
“मसान वाले बाबा भी यही कह रहे थे. तीस-चालीस हज़ार का ख़र्च आएगा. सभी कमाने खाने वाले ठहरे. मिलजुल कर दे देंगे.
“यह शहरी ठहरा, इसको क्या समझ में आएगा?” खिड़की से छनकर आती धूप में आधी श्याम, आधी श्वेत लग रही बुढ़िया ने कहा.”
“हाय तो पाँच पुश्तों तक लगने ही वाली हुई. परिवार अलग होने से शराप थोड़ी दूर हो जाने वाला ठहरा.” गिरीश ने बड़ी सधी हुई गम्भीर आवाज़ में कहा.
“देख भाई, इस साल तेरी भाभी गुज़र गई. पार साल तेरे चचा भी ख़त्म हो गए, हेमा भी. और देबुली की हालत देखी है तूने. डंठल जैसी हो गयीं हैं, डंठल जैसी. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ ठहरा.” दीपक ने इस बार सुभाष की आँखों में देखकर बात की.
“इसको थोड़ी पण्ड्यानी की फाम होगी.” बुढ़िया ने कहा. “हमने ही भुगता ठहरा उसको.”
क़रीब क़रीब चौदह बरस बाद वह अपने गाँव वापस लौटा था. गाँव में कभी रहा नहीं था, सो बचपन में ऐसा भावनात्मक लगाव भी उसे गाँव से नहीं था. पिताजी की मृत्यु के बाद वह उन जड़ों को फिर से तलाशने आया था. भगवान ही जाने क्यों, पिता की छाया सिर से उठने के बाद अचानक से उसका मन भूले बिसरे गाँव और सम्बन्धियों की ओर खिंचने लगा था.
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उसके चचेरे भाई विनोद ने उससे कहा था, “जा ही रहा है तो तल्लि कुड़ि काकी से भी मिल आना.” तल्लि कुड़ि मतलब था गाँव के निचले किनारे आख़िरी छोर पर बना मकान, जहाँ उसकी दूर के रिश्ते की काकी रहती थी, अपने दो शादीशुदा बेटों के साथ.
विनोद की बात मानकर वह काकी से मिलने पहुँचा था. उसे बहुत धुँधली याद थी काकी की. उसके बेटों को तो सुभाष पहचानता भी नहीं था. जड़ें हरी करने का भावनात्मक उद्वेग उसे इस शिष्टाचार भेंट के लिए ले आया था. एक तरह की भलमनसाहत वाली शिष्टाचार भेंट.
उस बेतरतीब बिखरे कमरे में वह काकी के पैर छूकर बैठ गया. बड़ा बेटा दीपक उसके साथ ही भीतर आया था और छोटा गिरीश दरवाज़े के पास मोढ़ा रखकर बैठ गया.
“आ लाटि आ. आज तो बार भी नहीं है, फिर भी आओ.”
बुढ़िया के स्वागत भाषण ने उसका सिर शर्म से झुका दिया.
“इजा, इनको थोड़ी इस सबका पता हुआ. खाली किताबों की पढ़ाई हुई. दुनियादारी का तजुर्बा थोड़ी ठेहरा.” दीपक ने माँ को समझाया.
सुभाष का आई. आई. टी. में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर होना उसके किसी काम नहीं आया.
थोड़ा सा शर्मसार होकर उसने खिसियानी सी हँसी के साथ बात बदली, “काकी, तबियत ठीक रहती है आपकी?”
“अब बुढ़ापे में क्या ठीक रहेगी बेटा. बहुत गई थोड़ी रही, हुआ.”
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सुभाष ने ग़ौर से काकी के चेहरे को देखा. रूखे झुर्रीदार चेहरे पर स्नेह का कोई चिन्ह नहीं था. उसकी एक आँख सफ़ेद थी, मोती जैसी. दूसरी आँख एक स्कैनर की तरह सुभाष का मोल-भाव टटोल रही थी.
उसका मन अचानक उठ कर जाने को हुआ कि बुढ़िया ने आवाज़ दी, “अरे कोई है रे, चहा बनाओ तो ज़रा.”
“नहीं, नहीं. चाय की ज़रूरत नहीं है. पीकर ही आया था.” असमंजस में उसने क्षीण सा विरोध किया.
“अरे, ऐसे कैसे. मैं ठीक होती तो दाल-भात बनाती. बड़ी ब्वारी ने इस साल फाँसी लगा ली. छोटी घास लाने गई है.”
गिरीश चाय बनाने चला गया तो बड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला.
कमरा और अधिक अंधियारा लगने लगा था. जिस दीवार के साथ लगे तख़्त पर सुभाष बैठा था, काकी ठीक उसके सामने खिड़की की ओर खाट पर बैठी थी. तीसरी दीवार के पास प्लास्टिक की कुर्सी में दीपक बैठा था. दीपक के सिर के ठीक ऊपर काका की तस्वीर लगी थी. जिस पर चढ़ी प्लास्टिक की माला भी अब बदरंग हो गई थी.
फिर काकी ने दोबारा बोलना शुरू किया.
“दीपक के पिताजी के जाने के बाद वह वापस आ गई है. उनसे तो बहुत डरती थी. उनके सामने कभी एक शब्द भी नहीं बोली. अब हमारा घर तबाह कर रही है. पहले कभी चूँ तक करने की हिम्मत नहीं हुई. तब भी नहीं, जब उसके होते-होते, दीपक के पिताजी मुझे ले आए.
स्वानि भी ख़ूब हुई. ये बड़ी-बड़ी आँखें. गोरे-गोरे गाल, हर समय हँसती रहने वाली हुई. बस औलाद नहीं हुई.”
मुझमें इसके पिताजी ने पता नहीं क्या देखा. मुझे घर ले आए. चूँ तक नहीं की उसने, बस बुझ जैसी गई. घर के सब काम करती. मेरे उठने से पहले, गाय-भैंस, नहाना-धोना, नाश्ता-पानी सब तैय्यार. जो मैं कहती बिना कुछ बोले सब कर देती.”
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बुढ़िया का चेहरा काला हो गया था. खिड़की के पार आसमान पर एक काला बादल आकर टिक गया. सुभाष को कमरे की हवा में एक घुटन सी महसूस हुई.
“बिना बोले सब कर देने वाली हुई. उसका सलीक़ा, उसकी तमीज़, उसका रूप देखकर मैं जल-जल के काला कोयला हो जाती. उसके सामने ही दीपक के पिताजी को भीतर खींच कर ले जाती. पहले दीपक हुआ, फिर गिरीश, फिर हेमा, फिर देबी. सबकी उसने सेवा की.
मैं उसे डाँटती, गाली देती. पर उसकी आवाज़ सुनने को मैं तरस गई थी. कभी एक शब्द भी नहीं कहा उसने. इससे मैं और चिढ़ जाती. उसे तेरे काका से डाँट खिलाती, बच्चों से गालियाँ दिलवाती, पर वह कभी कुछ नहीं बोली. मैंने उसे खाना देना भी बंद कर दिया. दीपक के पिताजी भी कुछ नहीं बोले. दीपक और गिरीश उसको पागल-पागल कह कर तंग करने वाले हुए. वह घर साफ़ करती तो यह गंदा कर देते, उससे फिर-फिर साफ़ कराते.
वो काम हमारा करती और खाना माँगने पड़ोस में जाती. फिर मैंने पड़ोसियों से भी लड़ना शुरू कर दिया. किसी ने उसे कहा मायके चले जाओ. इतनी गालियाँ सुनने, इतने अपमान पर तो कोई भी चला जाता. पर वह कभी नहीं गई.
फिर एक दिन मैंने सुना वह मरी मिली. उसके भाई आए और उसे फूँक गए.”
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सुभाष को लगा जैसे कमरा घूम रहा हो.
“हेमा के मरने के बाद हम लोगों ने जागर भी किया. जागर ने बताया पूजा करनी है. हमने की भी. पर फिर भाभी ने भी फाँसी खा ली.” गिरीश चाय लाते हुए बोला.
सुभाष के सामने झुककर स्टील का गिलास रखते हुए वह बोला, “हमारी तो अब हैसियत हुई नहीं भाई इतने ख़र्चे की. थोड़ी तुम मदद कर दोगे तो काम हो जाएगा.” और चाय से लबालब भरा स्टील का गिलास उसने सुभाष की ओर सरका दिया.
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–युगल जोशी
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झूलाघाट में पले-बड़े युगल जोशी वर्तमान में स्वच्छ भारत मिशन के निदेशक हैं. योग, इतिहास और मिथकों में विशेष रुचि रखने वाले युगल जोशी ने अब तक पाँच पुस्तकें लिखी हैं. उनकी किताब सिंगापुर वॉटर स्टोरी का अनुवाद चीनी, जापानी, मंगोलियन और हिंदी भाषा में हो चुका है. युगल की अन्य किताबें हैं, क्रियेटिंग शेयर्ड वैल्यूस, राम: द सोल ओफ़ टाइम, विमेन वॉरीअर्ज़ इन इंडीयन हिस्ट्री और बूंस एंड कर्सेस: लेजेंड्स ओफ़ द माईथोलोजिकल मदर हैं.
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