पितृपक्ष
-वीरेन डंगवाल
मैं आके नहीं बैठूंगा कौवा बनकर तुम्हारे छज्जे पर
पूड़ी और मीठे कद्दू की सब्ज़ी के लालच में
टेरूँगा नहीं तुम्हें
न कुत्ता बनकर आऊँगा तुम्हारे द्वार
रास्ते की ठिठकी हुई गाय
की तरह भी तुम्हें नहीं ताकूँगा
वत्सल उम्मीद की हुमक के साथ
मैं तो सतत रहूँगा तुम्हारे भीतर
नमी बनकर
जिसके स्पर्श मात्र से
जाग उठता है जीवन मिट्टी में
कभी-कभी विद्रूप से भी भर देगी तुम्हें वह
जैसे सीलन नई पुती दीवारों को
विद्रूप कर देती है
ऐसा तभी होगा जब तुम्हारी इच्छाओं की इमारत
बेहद चमकीली और भद्दी हो जाएगी
पर मैं रहूँगा हरदम तुम्हारे भीतर पक्का.
वीरेन डंगवाल की यह कविता हमारे समय की बड़ी कविताओं में गिनी जाती है. एक तरफ मानवीय संबंधों की अमरता पर टिका मनुष्यों का संसार है और दूसरी तरफ शास्त्रों के विधि-विधानों में परिभाषित किया गया वह मृत्यु के बाद का संसार जिस को लाकर अनेक अनुष्ठान रचे गए हैं. श्राद्ध के अनुष्ठानों से सम्बंधित सभी स्थापित मानदंडों को चुनौती देता कवि मनुष्य मात्र की महत्ता और संबंधों की अमरता को रेखांकित करता है.
उल्लेखनीय है कि वीरेन डंगवाल ने यह कविता तब लिखी थी जब वे एक लम्बी और घातक बीमारी से संघर्ष कर रहे थे. यह उनकी लिखी आख़िरी कविताओं में से एक है.
वीरेन डंगवाल (5 अगस्त 1947 – 27 सितम्बर 2014) समकालीन हिन्दी कविता के सबसे लोकप्रिय कवियों में गिने जाते हैं. साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता इस कवि के तीन कविता संग्रह – ‘इसी दुनिया में’, ‘दुश्चक्र में सृष्टा’ और ‘स्याही ताल’ प्रकाशित हुए. हाल ही में उनकी सम्पूर्ण कविताएँ नवारुण प्रकाशन से छपकर आई हैं.
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