ये चिपको वाले चैन नहीं लेने देंगे. पिछले कुछ वर्षों से पहाड़ पर तैनात डी.एफ.ओ. (डिविज़नल फॉरेस्ट ऑफीसर, प्रभागीय वनाधिकारी) शिव मंगल सिंह राणा की परेशानियाँ आजकल कुछ ज्यादा ही बढ़ने लगी हैं. वह राजस्थान निवासी जाट है. आई.एफ.एस. (भारतीय वन सेवा) परीक्षा में सफल हो जाना कोई मामूली बात नहीं होती. प्रशिक्षण पूरा हो जाने पर उनकी सेवा डी.एफ.ओ. से शुरू होती है. वानिकी का विशेष अध्ययन व शोध करने के लिए अंगे्रजी सरकार ने अपने राज की शुरूआत में ही देहरादून में फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना कर दी थी. एक रेंजर्स कॉलेज भी खोल दिया था. उससे निकलने वाले रेंज ऑफीसर्स डीऋडीऋआर. (देहरादून रेंजर्स) कहे जाते थे.
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कुछ वर्षों की सेवा के बाद ये रेंजर प्रमोशन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुऐ वन-सेवा के उच्चतम पदों पर जा पहुँचते थे. भारत की आज़ादी के बाद नई सरकार ने डी.डी.आर. कॉलेज को कायम रखते हुए विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा प्राप्त छात्रों को डीएफओ के लिए सीधे तौर पर चयनित करने की पद्धति को ज्यादा तवज्जों देना शुरू कर दिया. विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त शिवमंगल राणा ने अपने शिक्षण के दौरान फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यट देहरादून में भी काफी समय बिताया.
विभाग में डायरेक्ट सेलेक्शन से आए उन ऑफिसर्स का रूतबा और होता है. उन्हें साधारण से कुलीन ऑफीसर के रूप में ढ़ाल दिए जाने की परंपरा रही है ताकि वे तंत्र की सेवा ठीक तरह से कर सकें. अंग्रेजी राज की तमाम परंपराओं को अक्षुण्ण रखते हुए वानिकी के विशेष अध्ययन के दौरान उनके दिल, दिमाग और व्यवहार में, उनके खून में, वन-सेवा की विशिष्टता का रस, रूप और गंध कूट-कूट कर भर दिये जाते हैं. वनसेवा के वैज्ञानिक, तकनीकी विशेषज्ञ बना दिए जाने के अलावा.
पहाड़ों के तीखे ढलानों पर ऊपर से नीचे बनाए जाने वाले छोटे-छोटे सीढ़ीदार खेतों को शिवमंगल हमेशा समझने की कोशिश करता रहा है. उसके लिए पहाड़ी खेती, उसके काश्तकारों के खेती करने के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले औजार, छोटी-छोटी, अँगूठे के बराबर गाएँ व मवेशी, बौने बैल ओरउनसे हल लगवाने के तौर-तरीके हमेशा अजूबा बने रहते हैं.
शुरू-शुरू में जब वह पहाड़ पर आया तो अपने पुश्तों (दीवारों) के सहारे पहाड़ पर टिके हुए खेतों को देखकर शिवमंगल कमो बहुत आश्चर्य होता था.
एक दिन उसे एक अजीब नजारा अपनी आंखों से देखां दस फुट ऊंचे पुश्ते के ऊपर जो खेत बना था, उसकी लम्बाई पन्द्रह फुट और चौड़ाई कहीं बारह फुट तो कहीं सिर्फ आठ फुट ही बाकी रह गई थी. कुछ हिस्से इतने सँकरे हो गए थे कि वहां पर हल में जुते छोटे-छोटे बैलों की जोड़ी को भी घुमाया नहीं जा सकता. वह किसान हल लगा रहा था. संकरे टुकड़ों पर, जहां तक उस वक्त उसके बैलों की जोड़ी नहीं पहुंच सकती थी, किसान की स्त्री कुदाल से खुदाई करने में जुटी थी.
ये खेत कुदरती तौर पर ऐसे नहीं होते, जैसे वे दिखाई देते हैं. उन्हें उस तरह की शक्ल देने में पहाड़ी किसानों की कई-कई पीढ़ियाँ खप जाती हैं. जमीन मंजूर होने के बाद नयाबाद करते वक्त पहाड़ी ढलानों को खोद-खोद कर कृषि योग्य बनाना होता है. उनकी ऊपरी सतह को समतल करने के बाद मिट्टी का कहीं नामों निशान नहीं दिखाई देता. वहाँ पत्थरों की तहें बिछी रहती हैं. उन पत्थरों को ढँकने के लिए मिट्टी को कहीं बाहर से, दूर या नजदीक से, ढो-ढोकर उस नए बनाए जा रहे खेत तक लाना होता है. एक-एक टोकरा करके इतनी मिट्टी बिछानी होती है कि उसके ऊपर बीज डाल कर वहाँ खेती की जा सके.
बरसात होने पर पहाड़ की चोटियों-ढलानों से तेजी के साथ नीचे की ओर बहने वाला पानी अपनी पूरी ताकत के साथ पुश्तों से टकराता है. लेकिन बाढ़ आ जाने पर पुश्तों के पत्थर खिसकने-लुढकने लगते हैं. उस कमजोर, कच्चे सहारे के खिसकते ही खेत की मिट्टी बेबस होने लगती है.
टिहरी के पहाड़ों से शुरू होने वाले चिपको आंदोलन ने अचानक कुछ ही दिनों में पूरे पहाड़ में एक विराट जन आंदोलन का रूप धारण कर लिया. उसके कारण वन विभाग को अपनी लाज बचाना मुश्किल लगने लगा. सुख-चैन का तो क्या जिक्र किया जाए. चिपको वालों ने पहाड़ों पर पेड़ों के व्यावसायिक कटान के खिलाफ जबर्दस्त मुहिम छेड़ दी. वन विभाग के आला हाकिमान को कुछ सूझ ही नहीं रहा है कि अब क्या किया जाय.
भेंगार्की खाले में बारहों मास पानी बहता रहता है. कई-कई मील के प्रश्रवण क्षेत्रों के पर्वतीय ढलानों का पानी पूरे वेग के साथ नीचे बह रहे खालों की ओर भागता चला आता है. चार साल पहले वन विभाग के ठेकेदारों ने उस खाले के ऊपर के इलाके में पेड़ों के कटान का काम किया था. वे जंगल को तहस-नहस कर चले गसे. अब पिछले तीन बरसों से भेंगार्की खाले में बाढ़ें आने लगी हैं. वे बाढ़ें ऐसी विकराल होने लगी हैं कि उनका रूप देखकर आदमी अपने होश-हवाश गवाँ बैठे.
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पहले इस खाले में बरसात में भी काफी साफ पानी बहता था. अब बरसात होती है तो पानी की अपनी पहचान मिट जाती है. उसके साथ रल कर काली और लाल मिट्टी, छोटे-बड़े पत्थर बहने लगते हैं. वे जितना नीचे पहुंचते है. उतना और ज्यादा नुकसान करने लगते हैं. उस पानी में लकड़ी के टुकड़े ओर बड़े-बड़े पेड़ तक अपनी जड़ों से उखड़ कर बहने लगते हैं. लगता है कि मिट्टी के बहते दरिया के रूप में बेकसूर धरती पर, कोई लगातार तरतीबवार तोप के गोले बरसाने लगा है. पहाड़ के ऊपरी इलाकों पर सैकड़ों सालों से मौजूद छोटे-बडे़ सीढ़ीदार खेतों की मिट्टी वर्षा के शुरू होते ही टूट-टूट कर भेंगार्की खाले के पेट में समाने लगती है. चिपको वाले इन बाढ़ों के लिए वन विभाग द्वारा करवाए गए पेड़ों के कटान को दोष देने लगते हैं. सारा दोष ठेकेदार और वन विभाग के मत्थे मढ़ देने की उनकी आदत हो गई है.
शिवमंगल राणा को अपने ऑफिस में पहुंचे अभी मुश्किल से दस मिनिट भी नहीं हुए थे. वह ऑफीसर है, ऑफीसर की तरह रहता आया है. डीएफओ कोई डेली लेबर नहीं होता कि कोई फॉरेस्ट गार्ड किसी रजिस्टर पर उसके काम के घंटों का हिसाब दर्ज करने लगे. ज़रूरी डाक वह घर पर ही कर लेता है. आफिस में अक्सर लंच टाइम के बाद आने की उसकी शुरू से आदत रही है.
इस घाटी का चिपको कर्मसिंह है. सुन्दरलाल बहुगुणा जहां होंगे. यहाँ के जंगलों में, जंगली किस्म के लोगों के बीच, कर्मसिंह का ही सिक्का चलने लगा है. अपने कुछ बेकार, आवारा साथियों को लेकर ऑफीसरों, ठेकेदारों के कार्यों में जंगलों-घाटियों में, वक्त-बेवक्त बाधाएँ खड़ी करते रहने की उसकी आदत हो गई है.
शिवमंगल सिंह के किसी कर्मचारी ने उसे आकर बताया कि नीचे से कर्मसिंह ऑफिस की तरफ आ रहा है. वन विभाग का ऑफिस एक टीले पर बना है. वहाँ आने के लिए आम पैदल रास्ते से एक अलग बटिया बनी है. उस बटिया पर चलने वाले लोग अलग से पहचान लिए जाते हैं.
मंगलसिंह आज के दिन अनुराधा से यह वायदा करके आया था कि वह ऑफिस से बहुत जल्दी घर लौट आएगा. बस गया और आया.
अब यह कर्मसिंह उसके सामने पता नहीं किस तरह के तमाशे करता है, कैसे-कैसे गुल खिलाता है. इसको भी आज ही आना था. फालतू आदमी! जिसको अपने समय की कोई कीमत नहीं, वह औरों का वक़्त जाया करने में क्यों परहेज़ करने लगा.
शिवमंगल को लग रहा है कि हो न हो. आज कर्मसिंह फिर भेंगार्की खाले की बात उठाएगा. वह वन विभाग पर किसानों के खेतों की पूरी तरह टूट कर वह जाने के आँकड़े दिखा कर नए आरोप लगाते हुए बेवजह उसका दिमाग चाटने, परेशान करने के मकसद से वहाँ आ रहा है.
भेंगार्की खाले में आई पिछली बाढ़ के दौरान किसानों को नकदी क्षतिपूर्ति करने की माँग उठाई गई थी. डी.एम. ने जनता की और से कर्मसिंह के नेतृत्व में उसके पास गए प्रतिनिधिमंडल से हार्दिक सहानुभूति प्रकट की थी. जनता की अर्जी पर उसने तत्काल आदेश पारित कर दिया कि तहसीलदार काश्तकारों को हुई क्षति की जाँच कर रिपोर्ट दे.
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तहसीलदार ने जिलाधिकारी महोदय के आदेश के अनुपालन में पटवारी को तुरंत जाँच कर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश पारित कर दिया. कि किसके खेत को कितना नुकसान तीस से चालीस प्रतिशत तक दिखाया. उस रिपोर्ट के आधार पर किसानों को मुआवजे का जो नकदी भुगतान किया गया उससे पूरा इलाका सदमे में आ गया था. प्रशासन ने साफ कह दिया था नियमों के मुताबिक अब और कुछ नहीं किया जा सकता.
वन विभाग की जंगलों का कटान कर वनों और काश्तकारें का सर्वनाश करने की नीति के खिलाफ चिपको वालों ने वनों के अंदर मोर्चा खोल दिया था. वे नए वन के अंदर ठेकेदार के द्वारा किए जा रहे कटान के खिलाफ पेड़ों से चिपकने लगे. जिला प्रशासन ने बाहर से हथियारबंद पुलिस मंगवा ली. आंदोलन में शामिल होने वाले वाले चिपको के तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा. गिरफ्तार किए जाने वालों में गाँव की महिलाएं भी शामिल थीं. उन सबके खिलाफ अदालतों में मुकदमें भी दायर कर दिए गए.
वनविभाग की दृष्टि में वन-क्षेत्र के भीतर किसानों को बसाने का मतलब वनों का सर्वनाश. वनमंत्री ने कटान के कारण भेंगार्की खाले में आई बाढ़ का मामला वन सचिव के हवाले कर दिया था. लखनऊ में बैठने वाला वन सचिव साईनाथ अपने विभाग के हाकिमान की दुश्चिंताओं को दूर करने के उपाय खोजने में माहिर ऑफीसर है. उसने आइंदा ऐसी दुर्घटनाओं से बचाव के लिए एक नया, विशाल प्रोजेक्ट तैयार करवाया. उसके अनुसार वन विभाग का एक नया सर्कल खोलने की योजना बनाई गई. उसका काम सिर्फ वृक्षारोपण करना होगा. उस वृत्त में एक कंसर्वेटर और तीन डीएफओ नियुक्त किस जाएंगे. उनकी मातहती में अनेक छोटे-बड़े वन अधिकारी और कर्मचारी.
नए वृत्त के खुल जाने के फैसले से वन विभाग में खुशी की लहर फैल गई. वे मनौती करने लगे-भगवान! ऐसी बाढ़े बार-बार आएँ! विभाग के पास डीएफओ की कमी थी. लिहाजा दो वरिष्ठतम रेंज ऑफीसर्स कमला प्रसाद और सोहनलाल की पदोन्नति कर उन्हें डीएफओ बना दिया गया.
नए वृत्त ने ऊपर से आए आदेशों के मुताबिक युद्धस्तर पर वृक्षारोपण का काम करना शुरू कर दिया. अब चिपको वाले पीड़ित किसानों के लिए कोई नकद रकम नहीं मांगते. पीड़ित काश्तकारों को चिपको वाले वन-क्षेत्र में कृषि योग्य भूमि दिए जाने की मांग उठाने लगे हैं.
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मंगलसिंह के हिसाब से पीड़ित काश्तकारों को वन-भूमि दिए जाने की मांग एक बेहूदा मांग है. उसने कर्मसिंह के ऑफिस में आते ही उसे फौरन अन्दर बुलवा लिया. वह ऐसे फालतू नेताओं से निपटना जानता है.
कर्मसिंह के साथ आज कोई भीड़ नहीं थी. वह अकेला था. मंगलसिंह को लगा वह कोई सौदा पटाने आया है.
कर्मसिंह ने और दिनों की तरह आज अपने पसीने से तर हो रहे गले में लटक रहे बैग से कोई गंदी-सी फाइल निकाल कर उसकी मेज के ऊपर नहीं खोली. उसने बहुत आदरपूर्वक एक विवाह का कार्ड पेश किया. उसके बेटे के विवाह का कार्ड था. मंगलसिंह ने उसे अग्रिम बधाई देते हुए शुभ समारोह में शामिल होने का वायदा कर दिया. उस समारोह में प्रीतिभोज का आयोजन दिन का था, रात का नहीं.
उसके अर्दली ने साहब का सामान जीप से उतार कर डाक बंगले पर पहुंचाया. साहब को रात में यहीं विश्राम करना होगा. कर्मसिंह का गांव यहां से काफी दूरी पर है और रास्ता लगातार चढ़ाई का है. छोटे से बंगले पर दो बैडरूम थे. डाइनिंग रूम और किचन एक ही थी. अर्दली ने सामान को बँगले के एक कमरे में खोल कर कायदे के अनुसार लगा दिया. उसके बाद वह साहब के साथ कर्मसिंह के गाँव की ओर चल दिया.
मंगलसिंह वैसी खड़ी चढ़ाई पर उससे पहले कीाी नहीं चला था. चढ़ाई की उस संकरी बटिया पर यह अंदाज लगाना मुश्किल था कि हमने अब तक कितनी दूरी पार कर ली होगी. लगता था कि वह चढ़ाई कभी खत्म ही नहीं होगी. विकट राह पर चलते हुए पहाड़ों की चोटियाँ बदलती जा रही थीं. एक शिखर के खत्म हो जाने के बाद कहीं दूर, अब तक नज़रों से कतई ओझल, और अधिक ऊँचाई पर, एक दूसरे पहाड़ का शिखर नज़र आने लगता था.
मंगलसिंह समारोह में पहुँचा तो वह थककर चकनाचूर हो गया था.
मंगलसिंह के कुछ देर बाद वहां वृक्षारोपण डीएफओ सोहनलाल भी पहुंच गया. अपने गांव में पहली बार वन विभाग के दो-दो आला हाकिमान के पधारने से ग्रामवासियों की खुशी की कोई सीमा नही थी. वहाँ के बुजुर्गो की याद में आज तक कोई रेंजर तक गाँव में नहीं आया था. फॉरेस्टर भी बाहर-बाहर से गुजर जाता था.
वहाँ खाने के लिए कोई कुर्सी-मेज नहीं बिछे थे. गाँव के समस्त निवासियों, आमंत्रित रिश्तेदारों और मेहमानों को पारंपरिक तरीके से खुले, खाली खेतों में, जहाँ फसलों की कटाई के बाद अभी बुवाई नहीं की गई थी, जमीन पर बैठ कर एक साथ भेजन करना था. कर्मसिंह ने साहब लोगों को अलग कमरे में बैठाकर भोजन करा लेने का सुझाव रखा. मंगलसिंह ने उसे मंजूर नहीं किया. वह पूरे गांव के साथ, उनकी परंपरा के अनुसार, जमीन पर, पंगत में बैठ कर खाना चाहता था.
उन्होंने साहब लोगों के बैठने के लिए जमीन परदो गद्दियाँ बिछा दीं. बाकी सभी बच्चे-स्त्री-पुरूष खुले, सीढ़ीनुमा कई खेतों में नंगी जमीन पर बैठ गए. सब लोगों के पंगतों में बैठ जाने के बाद उनके सामने पत्तले बिछाई जाने लगी. फिर उन पत्तलों पर उड़द की दाल की पकौड़ियाँ और कई तरह की सूखी सब्जियाँ परोसी जाने लगीं. उसके बाद कई लोग वहाँ बच्चों को समझाने, धमकाने लगे.
जब तक सब लोग खाना खत्म न करें कोई पंगत से उठेगा नहीं. अपनी-अपनी जगहों पर बैठे रहना सब बच्चे. मंगलसिंह की समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह की हिदायत दिए जाने की क्या जरूरत है. उसके पूछने पर पंगत में उसके साथ बैठे लोगों ने उसकी शंका का समाधान किया.
किसी एक के पंगत से उठ जाने पर सबका खाना जूठा हो गया मान लिया जाता है साहब. तब सभी लोग खाना छोड़कर उठ जाते हैं.
धोतियाँ पहने नंगे बदन दो सरोले पंक्तियों का मुआयना करते लग रहे थे. दोनों के सामने दो बड़ी-बड़ी परातें रखी थीं, जिन पर उन्होंने कढ़ाही से निकाल कर भात रखा था.
सरोलों ने ज़ोर की आवाजें देकर पूछा- खाना चला दिया जाए?
चला दो पंडित जी.
और तो नहीं है कोई अब पंगत में बैठने वाला?
जो आएगा उसे बाहर ही खड़ा कर देंगे.
उसके साथ ही वहाँ अब तक पकौड़ियाँ व सब्जियाँ बाँटने वाले नौजवान भी किसी न किसी पंगत में बैठ गए.
तब वे दोनों रसोइए, जिन्हें लोग सरोले कह रहे थे, परातों में भात लेकर आए और दो दिशाओं में जाकर पत्तलों पर भात परोसने लगे.
खाना परोस रहे सरोले पत्तल पर देखने से पहले उस आदमी या औरत या बच्चे को देखते थे, जिसके सामने वह पत्तल रखी हो. वे अंदाज लगा लेते थे कि कौन कितना खा पाएगा. उसी हिसाब से वे भात के ढेले पत्तलों पर डाल रहे थे. मंगलसिंह उन सरोलों की हरकतों को बहुत गौर से देखता जा रहा था. ऐसे कि जैसे वह महज उनका निरीक्षण करने के लिए ही वहाँ आया हो.
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गरम-गरम भात को परात से निकाल कर पत्तल पर डालने में इनके हाथ नहीं जलते क्या?
इनका यह रोज का काम है साहब. सरोले का काम सरोले ही कर सकते हैं.
सरोला किसे बनाया जाता है?
सरोला बनाया नहीं जाता साब. वे जन्म से सरोले होते हैं.
किस जाति के होते हैं सरोले?
ब्राह्मण होते हैं साब.
सभी ब्राह्मण सरोले होते हैं?
ब्राह्मणों के बीच की खास कुछ जातियों के लोग सरोले होते हैं.
उनकी रिश्तेदारी भी अपनी ही जाति में हो जाती है?
अपनी जाति में किसी की रिश्तेदारी नहीं होती साब, लेकिन सरोले सिर्फ सरोले ब्राह्मणों से ही रिश्ता करते हैं.
और अगर कोई सरोला दूसरी किस्म के ब्राह्मणों से रिश्ता करेगा तो क्या हो जाएगा?
तब उसकी संतानें सरोला नहीं रह जाएँगी साब. वे गंगाड़ी हो जाएंगे.
गंगाड़ी? क्या मतलब?
आप वन के हाकिम हैं साब. इसे यों समझ लीजिए कि सरोलों को हमारा समाज पर्वतों के शिखरों जैसी ऊँचाइयों पर मानता आया है और जो ब्राह्मण सरोले नहीं रह जाते वे घट जाते हैं. उन्हें गंगा की किसी घाटी में यानी पहाड़ पर सबसे नीचे, उसकी घाटी में, मान लिए जाता है.
पहाड़ के इस भाग में सहभोज में सरोले को बुलाने की पुरानी परंपरा चली आ रही है. मंगलसिंह राणा को यह प्रथा बहुत अच्छी लग रही है.
दोनों सरोले भात बाँटने के फौरन बाद दाल परोसने में जुट गए. कई लोगों ने इस बीच अपनी पत्तलों पर रखे भात को फैला कर चौड़ा करते हुए उसके बीच में खाली जगहें बना लीं. पतली दाल पत्तल से बाहर न बह सके उन्होंने उसकी व्यवस्था कर ली थी. एक दाल के बाद दूसरी दाल. दुबारा चावल, दुबारा भात. कई लोगों ने खाना खत्म कर लिया था, कुछ लोग पंडितों को आवाजें देकर अपने लिए कोई चीज मंगवा रहे थे. लेकिन पंगतें अनुशासन में थीं. उनमें कोई भी वहाँ से उठ नहीं रहा था. मंगलसिंह एक-एक चीज़ को बहुत गौर से देखता जा रहा था.
उसने आज एक नए, खास तथ्य की जानकारी हुई थी. सरोले के हाथ की बनी रसोई सब लोग खा लेते हैं लेकिन सरोला और किसी के हाथ का बना नहीं खा सकता.
कर्मसिंह ने भोजन के बाद साहब लोगों के लिए दो अलग-अलग कमरों में दिन में आराम करने की व्यवस्था भी कर दी थी. साहब लोग अपने-अपने कमरों में सोने चले गए. उस वक्त मंगलसिंह को नींद जैसी नींद नहीं आई, थकान के मारे उसे अपने तन-बदन की होश ही नहीं रह गई थी.
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वह जागा तो गोधूलि का समय हो रहा था. उसने वापिसी की तैयारी की. कर्मसिंह और गाँव के बाकी लोग दोनों हाकिमान को उस रात वहीं रोकना चाहते थे. लेकिन मंगलसिंह उसके लिए तैयार नहीं हुआ. वह टॉयलेट का सामान तक अपने साथ नहीं ला पाया था, वापसी पक्की मान कर सब कुछ बंगले पर छोड़ दिया गया. यह असली बात उसके मन में थी हालांकि इसके बारे में उसने किसी को कुछ नहीं बताया. लोगों ने बहुत जोर किया लेकिन दोनों हाकिमान वहां से निकल गए.
उस वक्त आसमान से चांद अपनी रोशनी फैलाने लगा था.
बंगले पर अर्दली ने बहुत फुर्ती के साथ साहब के बैडरूम में चाय पेश कर दी. वह किचन में डिनर बनाने चला गया. मंगलसिंह बिस्तर पर आराम करने लगा.
कुछ देर बाद अर्दली उसी में अपने-अपने साहेब की रसोई बनाने में लग गए. ऐसे मौकों पर उन्हें मिल-जुल कर काम करने की आदत थी. उन दोनों ने करीब-करीब एक ही समय पर रसोई तैयार कर ली.
मंगलसिंह का अर्दली अपने साहब को डिनर तैयार हो जाने की सूचना देने आया.
हमारी टेबुल पर कोई और नहीं खाएगा, समझे?
जी साहब! मैं उससे कह देता हूँ. अपने साहब का डिनर अभी न लगाए.
खाना खाते वक्त मंगलसिंह के मन में कई तरह के विचार आते रहे. आज की सरकार बेशक उनको प्रमोट कर सकती है. प्रमोट करके डीएफओ बना सकती है. जो चाहे वह बना सकती है. लेकिन कोई प्रमोटी हमारी टेबुल पर बैठकर, हमारे साथ, डिनर लेने लगे यह कैसे हो सकता है.
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29 सितंबर 1933 में जन्मे नौटियाल जी का जीवन साहित्य और राजनीति का अनूठा संगम रहा. वे प्रगतिशील लेखकों की उस विरल पीढी से ताल्लुक रखते थे जिसने वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये कला से कभी समझौता नहीं किया.हेमिंग्वे को अपना कथा गुरू मानने वाले नौटियाल जी 1950 के आस-पास कहानी के क्षेत्र में आये और शुरूआत में ही भैंस का कट्या जैसी कहानी लिखकर हिन्दी कहानी को एक नयी जमीन दी.शुरआती दौर की कहानियां लिखने के साथ ही वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गये और फिर एक लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया में अलक्षित रहे. उनकी शुरूआअती कहानियां लगभग तीस वर्षों बाद 1984 में टिहरी की कहानियां नाम से संकलित होकर पाठकों के सामने आयीं.नौटियालजी की साहित्यिक यात्रा इस मायने में भी विलक्षण है कि लगभग चार दशकों के लम्बे हाइबरनेशन के बाद वे साहित्य में फिर से सक्रिय हुए! इस बीच वे तत्कालीन उत्तर-प्रदेश विधान-सभा में विधायक भी रहे. विधायक रह्ते हुए उन्होंने जिस तरह से अपने क्षेत्र को जाना उसका विवरण एक अद्भुत आख्यान भीम अकेला के रूप में दर्ज किया जिसे विधागत युक्तियों का अतिक्रमण करने वाली अनूठी रचना के रूप में याद किया जायेगा.लेखन की दूसरी पारी की शुरूआत में दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था ,“ मुझे लिखने की हडबडी नहीं है”.आश्चर्य होता है कि जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं जिसमें कहानी संग्रह ,उपन्यास,संस्मरण,निबन्ध और समीक्षाएं शामिल हैं.यह सब लिखते हुए वे निरन्तर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहे.देहरादून के किसी भी साहित्यिक -सामाजिक कार्य-क्रम में उनकी मौजूदगी हमेशा सुख देती थी-वे वक्त पर पहुंचने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में थे-प्राय: वे सबसे पहले पहुंचने वालों में होते.उनकी विनम्रता और वैचारिक असहमतियों को दर्ज करने की कठोरता का सामंजस्य चकित करता था.
वे एक प्रयोगशील कथाकार थे. सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनके यहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा. [नवीन नैथानी का लिखा यह परिचय लिखो यहाँ वहां से साभार]
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