विषम भौगोलिक परिस्थिति वाला राज्य. आज भी जहां आवागमन के सीमित संसाधन हैं. इसमें भी अधिकांश कच्ची व टूटी सड़कें हैं. पेयजल की आधी-अधूरी व्यवस्था है. रोजगार का कोई जरिया नहीं है. सीढ़ीनुमा खेतों के लिए सिंचाई के इंतजाम कुछ भी नहीं है.
खेती से छह महीने के लिए भी अनाज नहीं हो पाता है. इतनी ही समस्या नहीं है, पहाड़ समस्याओं का पहाड़ बन चुका है. हमारे जनप्रतिनिधियों को और भी बहुत कुछ नहीं दिखता है. अस्पतालों के बड़े-बड़े भवन बना दिए, लेकिन उनमें डाॅक्टर व तकनीशियन तक तैनात नहीं कर सके. ऐसा नहीं कि विद्यालय व महाविद्यालय नहीं हैं, दोनों की अच्छी खासी संख्या है, वोट हासिल करने के लिए मनमाने तरीके से घोषणा कर दी, लेकिन यह भी महज दिखावे भर के ही रह गए हैं. ऐसे हालातों से मुंह छिपाने वाले नेताओं ने पहाड़ को सिर्फ वोट बैंक तक सीमित कर दिया.
सबसे आश्चर्य यह है कि पहाड़ में वोट को लेकर गिद्ध दृष्टि रखने वाले नेताओं ने अपना आशियाना मैदान में बना दिया है. कुमाउं के अधिकांश नेताओं ने हल्द्वानी में घर बना लिया है. इसमें सांसद ही नहीं, बल्कि विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, सदस्य, ब्लाक प्रमुख, क्षेत्र पचायत सदस्य हैं. इतना ही नहीं, ग्राम प्रधान भी पीछे नहीं हैं. मैदान से ही गांव की राजनीति करने में लगे हैं. ऐसे में किस तरह के विकास और कौन से विकास की बात की जा सकती है.
छह जनपदों वाले कुमाऊं मंडल के पांच जनपद पर्वतीय क्षेत्र में हैं। 29 विधानसभा सीटों वाले क्षेत्र में आलम यह है कि जिन जनप्रतिनिधियों को वहां की जनता विकास के लिए वोट देकर चुन रही है, जब वह जीत जाते हैं, फिर क्षेत्र से मुंह मोड़ लेते हैं. यह आम रवैया हो गया है. पहाड़ के लोगों को इस तरह की आदत सी पड़ गई है. अगर आदत नहीं पड़ी होती, तो ऐसे नेताओं के खिलाफ आवाज बुलंद हो गई होती.
मैदान में एक नहीं बल्कि कई घर बनाने वाले जनप्रतिनिधि पलायन पर भी घड़ियाली आंसू बहाने लगते हैं. लगातार खाली होते गांवों को देखकर भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर थोड़ा बहुत असर होता भी, पहाड़ के विकास के लिए कुछ तो करते ही सीएम त्रिवेंद्र रावत ने पलायन आयोग ही बना दिया था. मानो यह आयोग पलायन को दूर कर देगा. इसने भी वहीं कहा, जो वर्षों से लोग कहते आए हैं. रिपोर्ट दे दी और अब उस रिपोर्ट पर क्या होगा? सरकार का नजरिया ही स्पष्ट नजर नहीं आता है.
एक बात और दिलचस्प है. नौ नवंबर 2000 को राज्य बना. इससे पहले पलायन दिल्ली, लखनऊ आदि बाहरी राज्यों में हुआ करता था. इसके बाद पलायन रूकने के बजाय दोहरा पलायन हो गया. एक राज्य के बाहर और दूसरा राज्य के अंदर मैदानी क्षेत्रों में. जिसे हुक्मरानों ने सुगम का नाम दे दिया. इस सुगम के नाम से ही स्थानांतरण उद्योग पनपा दिया गया. कथित जनप्रतिनिधियों ने जमकर नोचा और 18 साल में भी राज्य की हालत वैसी की वैसी ही रह गई.
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