आखिर उत्तराखण्ड सरकार राज्य में राजस्व पुलिस की व्यवस्था समाप्त करने को राजी हो ही गयी. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कैबिनेट की बैठक का ब्यौरा पेश करते हुए कहा कि वह उत्तराखण्ड हाई कोर्ट के 2018 के उस फैसले को लागू करने के लिए राजी है जिसमें राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में भी रेगुलर पुलिस बहाल करने के आदेश दिए गए थे. हाई कोर्ट के इस आदेश के बाद सरकार सुप्रीम कोर्ट में पहुंची थी, जहां मामला फिलहाल लंबित था. गौरतलब है कि अंकिता भंडारी हत्याकांड के बाद से राजस्य पुलिस की भूमिका लगातार बहस का मुद्दा बनी हुई थी और पर्वतीय क्षेत्र में राजस्व पुलिस भाल करने की मांग जोर पकड़ रही थी. (Uttarakhand Revenue Police System)
पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों को नहीं है बुनियादी नागरिक सुविधा
उत्तराखण्ड एक ऐसा राज्य है जिसके पहाड़ी इलाके में रहने वाले लोगों को नागरिक सुरक्षा उपलब्ध ही नहीं है. सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल वगैरा की दिक्कतें तो खैर यहां हैं ही. भारत के महानगरों में मोबाइल का पैनिक बटन दबाने भर से पुलिस आपकी सुरक्षा में चौकस हो जाती है लेकिन उत्तराखण्ड के 55 % से ज्यादा हिस्से में डायल 100 तक की सुविधा नहीं है. यहां न कोई पुलिस चौकी है न थाना. फिर उत्तराखण्ड के इन पहाड़ी इलाकों की सुरक्षा का जिम्मा किसका है? ये जिम्मेदारी है राजस्व पुलिस के नाम पर पटवारी, कानूनगो वगैरा के हाथ में. जिनके पास न हथियार होते हैं न लॉकअप न ही कोई फोर्स. न ही इन्हें अपराधों से निपटने के लिए ट्रेंड ही किया गया है. अब इस मसले को समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटते हैं.
राजव पुलिस बनाम रेगुलर पुलिस की पृष्ठभूमि
एक समय था जब जनता को सिर्फ राजस्व का स्रोत समझा जाता था यानि जिससे सिर्फ टैक्स वसूला जाना है. इसलिए राजस्व इकठ्ठा करने वाले लोगों को ही पुलिस और न्याय करने जैसे अधिकार भी हुआ करते थे.
देश में नागरिक सुरक्षा के लिए नियमित पुलिस की स्थापना की अंग्रेजों ने. लेकिन उन्होंने उत्तराखण्ड जैसे इलाकों में इसे लागू ही नहीं किया. उन्होंने इसकी वजह बतायी कि इस तरह के इलाकों में अपराध ही बहुत कम हुआ करते हैं. लेकिन असल वजह यह थी कि अंग्रेज यहां आये थे माल और पैसा बटोरने, जिसकी इन इलाकों में बेहद कम गुंजाइश थी. यानि यहां पुलिस सिस्टम बहाल करने में जितना पैसा लगना था उतनी वापसी थी नहीं .
1857 के गदर के बाद जब अंग्रेजों ने महसूस किया कि भारतीयों को कंट्रोल करने के लिए पुलिसिया कानून जरूरी है. तो 1861 में पूरे भारत में पुलिस एक्ट लागू किया गया. लेकिन उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों जैसे देश के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया.
उन दिनों उत्तराखण्ड का ज्यादातर हिस्सा कुमाऊं कमिश्निरी में आता था और कमिशनरी का राजा था रैमजे.
रैमजे ने अंग्रेज अधिकारियों को समझाया की पहाड़ के लोग बड़े भोले और सीधे-साधे हैं. रैमजे ने ही पहाड़ों के लिए राजस्व पुलिस की सिफ़ारिश भी की.
राजस्व पुलिस का मतलब हुआ पटवारी, लेखपाल, कानूनगो और नायब तहसीलदार जैसे कर्मचारी और अधिकारी ही यहां राजस्व वसूली के साथ-साथ पुलिस का काम भी करते हैं. अगर राजस्व पुलिस के अधिकार क्षेत्र वाले हिस्से में कोई अपराध होता है तो इन्हीं लोगों को एफआईआर भी लिखनी होती है, मामले की जांच-पड़ताल भी करनी होती है और अपराधियों की गिरफ्तारी भी इन्हीं के जिम्मे होती है.
उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों में राजस्व पुलिस की ये व्यवस्था 1874 से लागू है. अंग्रेजों के समय में शुरू हुई यह रवायत आज तक चली आ रही है.
संकट की घड़ी में बेसहारा होता है पहाड़
अब होता यह है कि संकट की घड़ी में न तो 100 या 112 पर फोन किया जा सकता है न चौकी-थाने ही जाया जा सकता है. ऐसे में पहाड़ के लोगों को पटवारी या किसी और राजस्व अधिकारी को फोन करना होता है. इसके लिए जरूरी है कि उस अधिकारी का फोन नम्बर आपके पास हो. अगर नम्बर है तब भी रात-बेरात तो वह अधिकारी फोन उठाएगा नहीं.
तब होता यह है कि जैसे पुलिस हर मसले पर कार्रवाई करती है, पटवारी केवल जघन्य अपराधों के मामले में ही सक्रिय होते हैं. और इसमें भी काफी वक्त लग जाता है.
पटवारी जब अपराध की जांच-पड़ताल करता भी है तो वह अकेला होता है या कभी-कभार एक होमगार्ड उसके साथ होता है. यानि उसके पास एक खुर्रांट गुंडे को सँभालने भर का माद्दा नहीं होता.
इन राजस्व अधिकारियों के पास अपराध की जांच करने की कोई ट्रेनिंग नहीं होती. इसलिए उनकी जांच अक्सर ढीलम-ढाल ही हुआ करती है.
इन अधिकारियों के पास राजस्व से जुड़े ही काम इतने जायदा होते हैं कि उन्हें पूरा करने में इनका ख़ासा समय और ऊर्जा लग जाती है.
इन वजहों से न सिर्फ अपराध की जांच ढीली होती है बल्कि अक्सर आरोपी दोषमुक्त भी हो जाते हैं.
ऐसी कई और भी वजहें हैं जिनकी वजह से यह व्यवस्था न सिर्फ रद्दी है बल्कि ये नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का हनन भी करती है. देश के सभी नागरिकों की तरह उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों को भी नागरिक सुरक्षा क्यों नहीं मिलनी चाहिए.
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से ही राजस्व पुलिस की व्यवस्था को ख़त्म कर के रेगुलर पुलिस बहाल करने की मांग की जाती रही है. उत्तराखण्ड राज्य की मांग की भी इसीलिए गयी थी कि उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्सा मैदानी है इसलिए लखनऊ में बनने वाली नीतियों में पहाड़ की उपेक्षा हो जाती है. लेकिन हुआ क्या? जो दिमाग़ लखनऊ में थे वही देहरादून की कुर्सियों में विराजमान हो गए.
हाई कोर्ट ने 2018 में पुलिस व्यवस्था लागू करने का दिया फैसला
जब सरकारों के कान में जूँ नहीं रेंगी तो उत्तराखंड के हाईकोर्ट ने इस डेढ़सौ साल पुरानी सुरक्षा व्यवस्था को अवैध बताते हुए सरकार को इसे छह महीने के भीतर खत्म करने का आदेश दिया.
2018 में जस्टिस राजीव शर्मा और जस्टिस आलोक सिंह की खंडपीठ ने आदेश दिया था कि छह महीने के भीतर पूरे प्रदेश से राजस्व पुलिस की व्यवस्था समाप्त की जाए और सभी इलाकों को प्रदेश पुलिस के क्षेत्राधिकार में शामिल किया जाए लेकिन राज्य सरकार ने ऐसा नहीं किया. हाई कोर्ट के इस फैसले को इंटरनेट पर पढ़ा जा सकता है.
रेगुलर पुलिस लागू करने के बजाय सरकार जा पहुंची सुप्रीम कोर्ट
हाई कोर्ट के इस फैसले को लागू करने के बजाय सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गयी. वजह यह बतायी गयी कि क्षेत्रफल के हिसाब से राजस्व पुलिस भले ही राज्य के 55 % से ज्यादा हिस्से की निगरानी करती हो लेकिन जनसंख्या के हिसाब से तो उसके पास सिर्फ 15% आबादी की सुरक्षा का जी जिम्मा है. सरकार ‘कन्विक्शन रेट’ का भी हवाला दे रही है जो इन इलाकों में लगभग 30–32 % है. यह यहां के पुलिसिंग एरिया से तो जरूर कम है लेकिन राष्ट्रीय औसत से ज्यादा ही है.
अब पहाड़ी इलाकों में दूर-दराज तक सड़कें बिछ चुकी हैं. सभी जगह मैदानी लोगों का खूब आना-जाना है. प्रदेश से बाहर के रसूखदार लोगों ने पहाड़ों में धड़ल्ले से जमीनें खरीदी हैं उन पर रिजॉर्ट और आउटहाउस बना रखे हैं. पूरे पहाड़ में ऐशो-आराम के ढेरों टापू बने हुए हैं. इसलिए बेहद जरूरी है कि पहाड़ी इलाकों में भी रेगुलर पुलिस की व्यवस्था लागू हो. यहां के नागरिकों को डायल हंड्रेड, चौकी-थाने की पहुंच मिले जिससे कि अपराध रोके भी जा सकें और हो जाएँ तो उन पर तुरंत कार्रवाई भी हो सके. (Uttarakhand Revenue Police System)
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