पर्यावरण की बिगड़ती दशा, विशेष रूप से जल स्रोतों में पानी की निरंतर कम होती मात्रा तथा वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का निरंतर बढ़ता उत्सर्जन सभी के लिए चिंता का विषय है अभी जब पूरे विश्व की आबादी 7 अरब के करीब है और हमारे पास मौजूद प्राकृतिक संसाधन वर्तमान जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही नाकाफी साबित हो रहे हैं ऐसे में सवाल उठता है कि वर्ष 2050 तक जब वर्तमान आबादी में 2 अरब लोग और जुडऩे वाले हैं, तब शासन प्रशासन किस तरह से और कहाँ से लोगों की हवा पानी की जरूरतों की पूर्ति करेगा. (Uttarakhand Forests)
जंगलों का पर्यावरण संतुलन में अतुलनीय योगदान है. जंगलों को काटकर/जलाकर पर्यावरणीय असंतुलन पैदा करने में मानवीय गतिविधियों का भी मुख्य हाथ रहा है.
एक तरफ मानवीय जरूरतों के लिए जंगल कट रहे हैं तो नये जंगल लगाने की कोशिश भी जारी हैं. परंतु कृत्रिम पौधारोपण से विकसित जंगल, प्राकृतिक जंगलों का स्थान ले पायेंगे? यह एक बहुत बडा़ सवाल है क्योंकि पौधे रोपकर पेडों का झुरमुट खड़ा करना तो मनुष्य के हाथ में है परंतु जैव विविधता, जलस्रोतों से युक्त जंगल विकसित करना प्रकृति के ही हाथ में है.
लंबे अरसे से सरकार तथा संगठनों द्वारा नये जंगल विकसित करने के प्रयास किये जा रहे हैं. पहले तो पौधारोपण की सफलता दर ही बेहद संदिग्ध है. संदिग्ध इसलिये क्योंकि जिस मात्रा और विस्तार में, लंबे अरसे से पौधारोपण किया जा रहा है और अगर उसकी सफलता दर वाकई वही है जैसी कि कागज पर दिखाई देती हैं तो जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि से पैदा समस्याएं होती ही नहीं. मगर हम सब अपने चारों ओर पौधारोपण की विफलता को देखकर भी पौधारोपण करना नहीं छोड़ते जबकि नये जंगल विकसित करने के लिए हमारे पास सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति मौजूद है.
सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति में किसी भी अवनत वन क्षेत्र को आग, मानवीय हस्तक्षेप से बचाकर प्राकृतिक शक्ति का सहारा लेकर नये मिस्रित जंगल विकसित करने की पद्धति है जिसमें अवनत वन क्षेत्र में पूर्व में मौजूद कट चुके पेड़ों की जडों से निकलने वाली कलियों से ही नये पेड़ विकसित होते हैं यह पद्धति मिस्रित जंगलों के विकास के लिए पौधारोपण की तुलना में न केवल कम समय, कम संसाधनों की मांग करती है वरन इस पद्धति से विकसित जंगल जल संरक्षण, जैवविविधता संरक्षण, कार्बन अवशोषण तथा भूस्खलन रोकने में पौधारोपण से विकसित जंगलों की तुलना में बहुत आगे हैं.
जरनल आफ जियोफिजिकल अनुसंधान में प्रकाशित आर्टिकल के अनुसार चीन में बहुत से विश्वविद्यालयों तथा सरकारी विभागों द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति, जिसे ए.एन.आर. भी कह सकते हैं, से विकसित जंगल पारिस्थितिकी विकास में कृत्रिम पौधारोपण से विकसित जंगलों से बहुत आगे हैं और इसलिये महत्वपूर्ण भी हैं.
सन साठ के दशक में जब उत्तराखंड में भी बांज आदि चौड़ी पत्ती प्रजाति के जंगल, देवदार, चीड़ के बेहतर? जंगलों के पौधारोपण के लिए जमीन खाली करने हेतु तथा निकटवर्ती शहरों को कोयले की आपूर्ति हेतु सरकारी संरक्षण में नीलामी कर काटे जलाये जा रहे थे तो चीन में भी व्यापक पैमाने पर पुराने मिस्रित जंगलों को काटकर, जमीन खाली कर देवदार का पौधारोपण किया गया और देवदार के जंगल विकसित किये गए.
हालांकि उत्तराखंड में देवदार आदि के नये जंगल तो विकसित नहीं हो पाये और खाली स्थान पर चीड़ ने कब्जा जमा लिया और बांज आदि चौड़ी पत्ती प्रजाति के मिस्रित जंगलों के चीड़ के एकल प्रजाति जंगलों में बदल गए. जंगलों के स्वरूप में इस बदलाव ने उत्तराखंड के जल स्रोतों, जैवविविधता और आबोहवा पर जो विपरीत प्रभाव डाला वह किसी से छिपा नहीं है. हालांकि चीन मिस्रित जंगलों को काटकर देवदार के जंगल विकसित करने में सफल रहा और आज विश्व के देवदार के जंगलों में से 24 % चीन के पास हैं. चीन के फुजियान प्रांत के सानमिंग शहर में 1958 से आरंभ किये गए इस अनुसंधान में ए.एन.आर. पद्धति से विकसित जंगल की तुलना पौधारोपण से विकसित 2 जंगलों और 2 पुराने मिस्रित जंगलों से 4 बिंदूओं पर की गई ये बिंदु हैं—
- वर्षा जल का संरक्षण
- जैवविविधता
- भूस्खलन
- बायोमास एकत्रीकरण/कार्बन अवशोषण.
अनुसंधान से निकलने परिणामों के अनुसार प्रथम वर्ष के उपरांत ए.एन.आर. जंगल में जल अपवाह (surface runoff) पौधारोपण से विकसित जंगलों के मुकाबले आधा तथा मिस्रित जंगलों जैसा ही था. ए.एन.आर. पद्धति से विकसित जंगल में तलछट (sediment) जिसे गाद भी कह सकते हैं, की मात्रा पौधारोपण से विकसित जंगल के मुकाबले आधी ही थी.
अध्ययन में यह भी पाया गया कि ए.एन.आर. से विकसित जंगल में जैवविविधता, पौधारोपण से विकसित जंगल से कहीं ज्यादा होने के साथ साथ परिपक्व मिस्रित जंगलों के बराबर पायी गईझाडिय़ों की संख्या ए.एन.आर. जंगल में सर्वाधिक पायी गई इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो सामने आया है वह था कि ए.एन.आर. से विकसित जंगल में पौधारोपण से विकसित जंगल की तुलना में तीन से चार गुना बायोमास ज्यादा इकट्ठा हुआ.
इस अनुसंधान के परिणामों पर चर्चा करते हुए अध्ययन रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि यदि चीन के पौधारोपण से विकसित देवदार के जंगल के बजाए ए.एन.आर. से विकसित जंगल होता तो 25 सालों में 0.7 गीगाटन कार्बन का अवशोषण किया जा सकता थाइस आंकड़े का महत्व इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2009 में पूरे विश्व में पेट्रो पदार्थों के जलने से 8.4 गीगाटन कार्बन उत्सर्जन हुआ इस तरह अध्ययन के परिणाम दिखाते हैं कि ए.एन.आर. से मृदा संरक्षण, जल संरक्षण और बायोमास एकत्रीकरण को बल मिलता है जिससे पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत होता है.
जनपद अल्मोड़ा में कोसी नदी के प्रमुख रिचार्ज जोन स्याहीदेवी शीतलाखेत में जनसहभागिता से वर्ष 2004-5 से चलाये गए “जंगल बचाओ-पानी बचाओ” अभियान के तहत स्याहीदेवी विकास मंच, महिला मंगल दलों तथा वन विभाग के संयुक्त प्रयासों से सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति (ए.एन.आर.) से लगभग 600 हैक्टेयर क्षेत्रफल में मिस्रित जंगल विकसित किया जा चुका है. चूंकि ए.एन.आर. पद्धति में किसी तरह के पौधारोपण की जरूरत नहीं होती है इसलिए इस पद्धति से जंगल विकसित करना सस्ता होने के साथ-साथ समय, संसाधन की बचत भी करता है.
उत्तराखंड सरकार द्वारा विभिन्न नदियों तथा जलस्रोतों के उपचार के लिए पौधारोपण पद्धति का सहारा लिया जा रहा है. स्याहीदेवी शीतलाखेत के आरक्षित वन क्षेत्र में ए.एन.आर. से विकसित जंगल के माडल को आसानी से उत्तराखंड के हर वन क्षेत्र में ले जाने से कम खर्च, कम समय में बेहतर परिणाम हासिल किये जा सकते हैं.
गजेन्द्र कुमार पाठक (शीतलाखेत )
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