2016 के दिसम्बर की बात होगी दिल्ली में गैर-पहाड़ी ने यूट्यूब पर एक वीडियो दिखाया. वीडियो में कुछ गोरे लड़के-लड़कियों के बीच में एक भारतीय हुड़का बजा रहा था. यह अमेरिका की कोई एक यूनिवर्सिटी थी. हुड़के के साथ शुरु इस वीडियो में थोड़ी देर बाद गोरिल की जागर गायी जाने लगी. वीडियो में सबसे आगे दिखने वाला यह एक पहाड़ी था. जिसका नाम था प्रीतम भरतवाण ‘जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण’.
इन दिनों मोबाईल के डाटा की निश्चित लिमिट होती थी. मतलब मुफ्त का इंटरनेट नहीं था. बावजूद एक घंटे के इस वीडियो का एक हिस्सा वायरल हुआ. दो से तीन मिनट का वह वीडियो जिसमें प्रीतम भरतवाण गले में ढोल बधा है, माईक पर वह गा रहे हैं जिसे उनके पीछे कुछ अमरिकी दोहरा रहे हैं और सामने कुछ अमरीकी लड़कियां इस धुन पर नृत्य कर रही हैं.
यह प्रदर्शन अमेरिका के ओहायो की सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी में हुआ था. प्रीतम भरतवाण का साथ देने वाले मुख्य अमरीकी डॉ. स्टीफन फियोल थे. अपने इस प्रवास के दौरान उन्होंने डॉ. स्टीफन फियोल की मदद से अमेरिकियों को ढोल-दमौं की बारीकियां सिखायी थी. प्रीतम भरतवाण को हाल ही में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री पुरुस्कार देने की घोषणा की गयी है.
ऐसा नहीं है कि प्रीतम भरतवाण को अमेरिका के उस शो के बाद कोई पहचान मिली है. प्रीतम भरतवाण उत्तराखंड में तब से लोकप्रिय हैं जब संगीत सुनने का माध्यम टेप रिकार्डर की कैसेट हुआ करता था.
प्रीतम भरतवाण का जन्म देहरादून के रायपुर ब्लॉक के सिला गांव में एक औजी परिवार में हुआ. जिस कारण लोक संगीत उन्हें विरासत में मिला है. उनके घर पर ढोल, डौर, थाली जैसे कई उत्तराखंडी वाद्य यंत्र हुआ करते थे. उनके पापा और दादा घर पर ही गाया करते थे. पहाड़ में होने वाले खास त्यौहारों में प्रीतम का परिवार जागर लगाया करता था. वहीं से उन्होने संगीत की शिक्षा भी ली.
प्रीतम भरतवाण की कला को पहचान सबसे पहले स्कूल में रामी बारौणी के नाटक में बाल आवाज़ देने से हुई. मात्र 12 साल की उम्र में ही उन्होंने लोगों के सामने जागर गाना शुरू कर दिया था. इस जागर को गाने के लिए उनके परिवार के जीजाजी और चाचा ने उन्हे कहा था.
1988 में प्रीतम भरतवाण ने सबसे पहले ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से अपनी प्रतिभा दिखाई. 1995 में प्रीतम भरतवाण की कैसेट रामा कैसेट से तौंसा बौं निकली. इस कैसेट को जनता ने हाथों-हाथ लिया. प्रीतम भरतवाण को सबसे अधिक लोकप्रियता उनके गीत सरूली मेरू जिया लगीगे गीत से मिली. यह गीत आज भी सबसे लोकप्रिय गढ़वाली गीतों में शामिल है जिसके अब न जाने कितने रिमिक्स बन चुके हैं.
प्रीतम भरतवाण न सिर्फ जागर गाते हैं बल्कि लोकगीत, पवांडा, और लोकगीत भी गाते हैं. इसके साथ ही वे कई लोक वाद्य यंत्र भी बजाते हैं.
प्रीतम भरतवाण ने उत्तराखंड की संस्कृति का विदेशों में भी खूब प्रचार-प्रसार किया है. अमेरिका, इंग्लैंड जैसे कई देशों में उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्रदर्शन किया है. आज प्रीतम भरतवाण का जन्मदिन अब उत्तराखंड में जागर संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है.
भारत सरकार से इससे पहले उत्तराखंड की जागर गायिका बसंती बिष्ट को भी पद्म श्री से सम्मानित किया था. 2017 में जागर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए बसन्ती बिष्ट को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. बसन्ती बिष्ट में गढवाल और कुमाऊं में खत्म हो रही सदियों पुरानी जागर परम्परा को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया.
अमेरिका की सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी में प्रीतम भरतवाण का कार्यक्रम यहां देखिये.
– काफल ट्री डेस्क
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1 Comments
हरीश चन्द्र सिंह (धर्मशक्तू)
काफल ट्री से मैं काफी समय से जुड़ा हूँ. बहुत सारे लेखों से मैं बहुत प्रभावित भी हूँ. हमारे पहाड़ के कई लोगों ने बहुत अच्छे काम किये हैं . मैं कुछ चुने हुए लोगों पर अपने बच्चों और युवाओं के लिए एक पुस्तक संकलित करना चाहता हूँ, जिससे वे अच्छे कार्य के लिए प्रेरित हो सकें. आप अनुमति दें तो बहुत कृपा होगी. मैं पुस्तक से कोई आर्थिक लाभ के लिए नहीं संकलित कर रहा हूँ. पुस्तक से यदि कोई आर्थिक लाभ हो भी जाता है तो मैं सारी राशि निर्धन बच्चों के शिक्षा पर लगा दूँगा, आपको विश्वास दिलाता हूँ.
मैं कुमाऊँनी हूँ और हलद्वानी में रहता हूँ. मैने अभी तक चार पुस्तक लिखी हैं जो पहाड़ और उत्तराखंड पर ही आधारित है.
धन्यवाद!
हरीश चन्द्र सिंह (धर्मशक्तू)
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