आज से 18 साल पहले उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था. उत्तरप्रदेश से अलग होकर ये नया राज्य बना है इसके अलावा शायद मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता था. हालाँकि पिताजी की मुंह से इसको लेकर चल रहे आंदोलनों के बारे में सुनता था. वो एलआईयू थे और राजनीति में मेरी थोड़ा बहुत रूचि थी. अटलबिहारी वाजपेयी उस समय देश के प्रधानमंत्री थे. राज्य की घोषणा के बाद अल्मोड़ा में उत्सव का माहौल था. मैं राजकीय इंटर कॉलेज में नौंवी का छात्र था.
मुझे याद है कैसे उस दिन उत्तराखंड बनने की खुशी में स्कूल में कार्यक्रम चल रहा था. लेकिन मेरा मन स्कूल में कम ही लगता था तो मेरा ध्यान स्कूल से भागने मेंं ज्यादा था. फिर भी एहसास था कि हम उत्तराखंड के वाशिंदे बन गए हैं. उत्तराखंड का पहला मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को बनाया गया हालांकि कुछ ही महीनों में भगत सिंह कोश्यारी उस कुर्सी पर विराजमान हो गए. इसके दो साल बाद सूबे में चुनाव हुए और कांग्रेस की सरकार बनी. मैं इंटर मैं था तो पिताजी के मुंह से अक्सर सुनता था कि सरकार ये कर रही वो कर रही है. लेकिन किताबों के बोझ तले राजनीति में ज्यादा ध्यान नहीं दे पाता था. फिर पढ़ने दिल्ली आ गया और सूबे की राजनीति से इंटरेस्ट भी कम हो गया. बस विधानसभा चुनाव के वक्त दिलचस्पी रहती कि सरकार किसकी बनी. लेकिन मेरी जिंदगी में यू-टर्न आना बचा था.
दिल्ली में तीन साल मास कम्युनिकेशन करने के बाद 2009 में वापस लौटा. तब लोकसभा चुनाव का दौर था. मुकाबला आडवाणी बनाम मनमोहन सिंह था. अल्मोड़ा-पिथोरागढ़ सीट से अजय टम्टा भाजपा और प्रदीप टम्टा कांग्रेस से प्रत्याशी थे. ये अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व सीट थी. हरीश रावत को चुनाव लड़ने हरिद्वार जाना पड़ा. उन्हें उनकी लगातार हारों की वजह से जानता था. पिताजी से प्रदीप टम्टा के बारे में खूब सुना और भाजपा को चाहने के बावजूद आखिरी समय में हाथ पर बटन दबाया. पहली बार वोट दिया था.
इसके बाद दो साल करीब घर पर रहा और सूबे की राजनीति में दिलचस्पी जागी. धीरे धीरे नेता माफिया-ठेकेदार और अधिकारियों का खेल समझ में आया. पर्वतीय राज्य की ज़रूरत और विकास पर ध्यान गया. अब समझ में आने लगा कि हमारे साथ क्या खिलवाड़ किया जा रहा है. ठग्स ऑफ उत्तराखंड सत्ता और विपक्ष में मौजूद हैं और बारी़-बारी से हमें लूट रहे हैं. इसके बाद सूबे के इतिहास और भूगोल के बारे में जानना शुरू किया, पिताजी विकीपीडिया से किसी भी मामले में कम नहीं है. उनसे बहुत कुछ जाना कैसे आंदोलनकारियों ने अपनी जान सूबे के निर्माण के लिए दी. मुलायम सिंह यादव, नारायण दत्त तिवारी क्या सोचते थे उत्तराखंड के बारे में.
पलायन, प्रकृति से छेड़छाड़, रेत, पत्थर और शराब माफियाओं को करीब से देखा और समझा. जामिया से पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के दौरान भी पहाड़ से जुड़े रहा. अब सब कुछ समझने में आने लगा. पत्रकारिता करते गुए पत्रकार के तौर पर सवाल उठाने शुरू कर दिए. लोगों से बहसें होती पर दुख होता जब हमारी युवा पीढ़ी इस बारे में बात नहीं कर पाती. उनके लिए सड़क, बिल्डिंग और मॉल ही विकास का पैमाना थे और अब भी हैं. वो खुद अपनी जन्मभूमि में टूरिस्ट की तरह आना पसंद करते है़ और खुद को तरोताज़ा करके वापस अपनी जिंदगी में लौटना चाहते हैं. इसी का फ़ायदा कुछ लोग उठा रहे हैं.
स्थानीन युवा जो अधिकतर गुंडागर्दी में आगे थे या फिर राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़े हैं वो स्थानीय स्तर पर पद पाकर खुश हैं. कुछ ठेकदारों ने पैसे के बल पर विधायक का पद खरीद लिया है और अपने चाटुकारों को ठेकेदार बना दिया है. ये जमकर जनता को नीचे स्तर पर लूट रहे हैं. बड़े स्तर पर मैदान के करोड़पति मंत्रियों के साथ मिलकर पहाड़ को लूट रहे हैं. देहरादून को विधायको, माफियाओं और नेताओं ने अपना ठिकाना बना लिया है और कोठियां बनाकर लोगों को ठग रहे है़. ठग्स ऑफ हिंदुस्तान की तरह 18 सालों से ठग्स ऑफ उत्तराखंड नाम की सुपर डुपर हिट फिल्म चल रही है. कुछ लोग लड़ रहे हैं इसी आस में कभी तो यहां भी उजाला आएगा और उत्तराखंड आंदोलन में अपनी जैन गंवाने वालों का सपना पूरा होगा जो उन्होंने देखा है. गिर दा के गाने के साथ अपनी बात खत्म करना हूं.
विविध विषयों पर लिखने वाले हेमराज सिंह चौहान पत्रकार हैं और अल्मोड़ा में रहते हैं.
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