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यूपी के दो दोस्तों की चिठ्ठियाँ

प्रमुख रूप से चिंता का वि‍षय निश्‍चित रूप से गधा चिंतन ही है
-राहुल पाण्डेय

प्रिय मिरगेंदर,

तुमने अपनी चिट्ठी में मुझसे जो सवाल पूछा, यकीन मानो उस सवाल ने क्‍या दिन और क्‍या रात, मुझे बेचैन करके रख दि‍या है. मेरे भाई, मेरे सखा, मुझे पता है कि इन दिनों तुम उत्‍तर प्रदेश में हो और उत्‍तर प्रदेश समूचा तुममें समा चुका है. अन्‍यथा मेरे बाल सखा, तुम मुझसे ऐसा प्रश्‍न न पूछते कि कि‍ससे प्रेम करें. अरे जिन दिनों मैं बाग में बांस की लग्‍गी लि‍ए घूमता रहता था, उन दिनों तुम सकीना, सीमा, नीतू और न जाने किस-किस के साथ प्रेम की पींगे लेते रहते थे. मुझे यकीन है कि आज भी कहीं से कोई उनके कान में मिरगेंदर फुसफुसा दे तो उनकी आह ही निकलेगी. खैर तुम्‍हारा सवाल हमको बहुत बेचैन किए हुए है और मुझे यह भी यकीन है कि मेरे पास इसका कोई न कोई ऐसा उत्‍तर जरूर होगा जो तुम्‍हारे प्रदेश की सामाजिकता को सूट कर सके. बस तुम किसी तरह से अपने हृदय को संभाले रहो मित्र, उसे असामाजिक न होने देना. तुम्‍हारे हृदय के कितने भी उत्‍तर में वह प्रदेश बस गया हो, बाकी की दि‍शाएं प्रेम की हि‍लोरों के लि‍ए तुम खाली रखोगे, यह भी मुझे यकीन है.

मुझे सकीना की कमी खासी खलती है, खासकर ऐसे वक्‍तों में जब मेरे सामने दो सवाल हों और उनमें से कि‍सी एक का जवाब पहले देना हो तो वो दन्‍न से एक उंगली पकड़ लेती थी. मौली को उंगली दि‍खाता तो वह तो पूरा हाथ ही पकड़ लेती तो उसका ऐसे समय में कोई काम नहीं. नाम तो हम बस इसलि‍ए लि‍ए कि कैसे तो हम और तुम कंप्‍यूटर क्‍लास में उसके आगे पीछे घूमते रहते थे. हमारी तरह तुम्‍हारी भी आह छूटेगी, तभी तो हमको चैन मि‍लेगा. अब हमारे सामने दो सवाल हैं. पहला ये कि ये बताएं कि कि‍ससे प्रेम न करो या पहले ये बताएं कि किससे और किस-किस से प्रेम करो. है ना एकदम भीष्‍म समस्‍या. तुम जिस तरह से उत्‍तर प्रदेश से घि‍र चुके हो, धर्मोचित और संभवत: मित्रोचित भी यही होगा कि पहले यह बताया जाए कि तुम किस-किस से प्रेम न करो. और प्‍लीज, अभी अपने महाभारत का ज्ञान न उड़ेलना, पूरी जिंदगी पड़ी है महाभारत के लि‍ए. पहले प्रेम की समस्‍या पर वि‍चार होना चाहि‍ए.

तो मित्र, अपने हृदय पर उत्‍तर प्रदेश से भी भारी वस्‍तु रखकर सुनो. अब तक तुम जिस-जिस से प्रेम करते आए हो, अब तुम उससे प्रेम नहीं कर सकते. तेरह तक तो मित्र मैं ही तुम्‍हारा गवाह रहा हूं, लेकिन जो हाल इस वक्‍त तुम्‍हारे प्रदेश का है, मैं किसी भी तरह की गवाही से साफ मुकर जाउंगा. मैं न किसी नीतू, सकीना, सीमा और मौली को जानता हूं और न ही निधि, पूजा, प्रेरणा, प्रियंका, श्‍वेता, आस्‍था, शांति, समीक्षा या अंजू को जानता हूं. ये भी मुझे नहीं जानतीं, इसका भी मुझे यकीन है. तो मित्रवर, अब जब किसी भी स्‍त्री को देखना तो ऐसे देखना कि कुछ भी नहीं देखा. पुरुष को तो देखना भी नहीं, नहीं तो पूरा का पूरा प्रदेश तुम्‍हारे हृदय में जो हाहाकार करेगा, तुम कहीं के भी रह जाओगे, मुझे पूरा यकीन भरा संदेह है.

अब मेरे बाल सखा, अपने प्रश्‍न का उत्‍तर सुनो. दुनि‍या में कितना कुछ तो है प्रेम करने के लि‍ए. गाय से प्रेम करो. बकरी से भी प्रेम करो. नहीं, बकरी से प्रेम न करो मित्र. आजकल बकरी दूसरे धर्म में शिफ्ट हो गई है. गाय से भी करना तो सफेद गाय से करना, काली गाय से नहीं. काली गाय दूसरे धर्म की है. कुत्‍ते से प्रेम करो. तरह तरह के मोती इधर से उधर चंचल होकर चपल कुलांछे भरते रहते हैं, क्‍या तुम्‍हें उनसे तनिक भी प्रेम नहीं होता. भूल गए कैसे हम लोग बचपन में कनछेदू की कुतिया के तीन पिल्‍ले चुराकर लाए थे. भले बाद में अम्‍मा लात मारकर नि‍काल दी हों, क्‍या हमें उनसे प्रेम नहीं था. बंदरों से प्रेम करो. हमने बंदरों पर बहुत अत्‍याचार कर लि‍या. जहां उन्‍हें देखते हैं, उठाकर पत्‍थर या डंडा या जो भी हाथ में आए, उनपर फेंकते हैं. जरा भी नहीं सोचते कि वह अब उत्‍तर प्रदेश के राष्‍ट्रीय प्रतीक हैं.

राह चलते गाय-भैंस, कुत्‍ता-बिल्‍ली, बंदर-बंदरि‍या, जो कोई भी दि‍खे, सबको प्रेम से सहलाते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रहो. इसकी परवाह बिलकुल न करो कि कौन तुम्‍हें सींग मार रहा है, कौन पंजा और कौन दांत गड़ा रहा है. आखि‍रकार पहले के भी प्रेम में तुमने कम मुसीबतें नहीं झेली थीं. भूल गए कैसे नुपूर के घर की छत कूदने के चक्‍कर में हम दोनों के टखने टूटे थे. टूट फूट उस प्रेम में भी थी, इस प्रेम में भी है मित्र, इसलिए बिलकुल भी हताश होने की आवश्‍यकता नहीं है. और क्‍या तुम्‍हारी प्रेमिकाओं ने तुम्‍हें कभी दांत नहीं काटा. बंदर भी तो सिर्फ दांत ही काटते हैं, कभी कभार थप्‍पड़ भी मार देते हैं तो थप्‍पड़ तो प्रेम की पहली सीढ़ी ही है मित्र. मैंने तुमने मिलकर कितने तो थप्‍पड़ खाए हैं. बंदर के थप्‍पड़ को जैसी सामाजिक स्‍वीकृति मिलती है, क्‍या किसी प्रेमिका के थप्‍पड़ को मि‍ल सकती है.

मि‍रगेंदर, मेरे दोस्‍त, मेरे भाई, इसलि‍ए बि‍लकुल भी निराश न हो. देखो, मैं भी बि‍लकुल भी नि‍राश नहीं हूं और कल ही अपनी कामवाली से दो बिल्‍ली के बच्‍चे लाने को कहा है. मैंने अपनी लाइफ में अजस्‍ट करना सीख लि‍या है और आशा करता हूं कि मेरी लाइफ से लाइन लेते हुए तुम भी अडजस्‍ट करना सीख लोगे. नहीं सीखोगे तो उत्‍तर प्रदेश में सिखा दि‍ए जाओगे, इसका भी मुझे पूरा यकीन है. बाकी प्रत्यक्षा के बारे में जब दिल्‍ली आओगे, तब बात की जाएगी, तब तक चुप रहना भी सीखना होगा दोस्‍त.

तुम्‍हारे बचपन का वेरी अनरि‍लायबल दोस्त

तारकेंदर

***

प्रिय तारकेंदर,

तुम्‍हारे नाम के आगे जो मैंने प्रिय लगाया है, प्‍लीज इसे अन्‍यथा न लेना और न ही किसी से कहना कि तुम मेरे प्रिय हो. तुम्‍हें तो पता ही होगा कि इन दिनों मेरे प्रदेश में प्रिय, प्रेम, प्रेमी, प्रेमिकादि पर कितनी सख्‍ती चल रही है. ऐसे में किसी पुरुष को प्रिय कहना खतरे से खाली नहीं है, लेकिन पत्राचार की रवायतों से मजबूर होकर मुझे ऐसा कहना पड़ रहा है, इसलिए प्‍लीज, न तो तुम इसे अन्‍यथा लेना और न ही किसी और को लेने देना. लेना-देना एक तरफ मित्र, तुमने अपने पत्र में गाय-बकरी, कुत्‍ता-बिल्‍ली, बंदर-बंदरिया से प्रेम करने की जो सलाह दी, वह तुम्‍हारे जैसा अनरि‍लायबल दोस्‍त ही दे सकता है. अगर वाकई तुम मेरे रिलायबल दोस्‍त होते तो मित्र, तुम मुझे गधे से प्रेम करने की सलाह जरूर देते. इस वक्‍त हमारे प्रदेश में वही इकलौता जानवर है, जो निर्विवाद है.

यह बात तो मित्र हम बचपन से ही सुनते आए हैं कि स्‍त्रियों को प्रेम गधों से ही होता है. वैसे सुनने से कहीं ज्‍यादा तो कहते आए हैं. अभी उस दिन ही जब श्‍वेता गली के संजू के साथ अकब-बजाजा में हंस-हंस ठिठोली करके सैलाराम के सड़े हुए गोलगप्‍पे खा रही थी तो वह कौन था जो बोला था स्‍त्रियों को गधे ही भाते हैं? तुम ही तो थे! जब मैसी साहब की लड़की रीटा उस दो कौड़ी के यूपी बोर्ड वाले राहुल के साथ मटकती हुई गुदड़ी बाजार से चौक जा रही थी तो कौन बोला था कि देखो-देखो, गधा जा रहा है? तुम ही तो थे! और तो और, सकीना की शादी तक में ‘गधा आया-गधा आया’ की जो हुलकारें लगीं, वो किसने लगाई थीं मित्र? तुम ही तो थे! इतना सब याद रखने के बावजूद तुम गधे को क्‍यों भूल गए मित्र? क्‍या सिर्फ इसलिए कि इस बार जो गधा आया है, वह सीधे गुजरात से आया है?

गुजरात हो या गोरखपुर, गधे-गधे में क्‍या भिन्‍नता? लेकिन मूल प्रश्‍न यह नहीं है. मूल समस्‍या भी यह नहीं है. मूल समस्‍या यह है मित्र कि स्‍त्रियां तो गधों से प्रेम कर लेती हैं, हम पुरुष गधों से कैसे प्रेम करें? और फिर ऐसे में क्‍या सेम सेक्‍स का सवाल नहीं उठेगा? मैंने इस सवाल पर गहन वि‍चार कि‍या मित्र. इतना कि जल में तनिक तरल मिलाकर गुप्‍तारघाट किनारे रात भर बैठकर सोचता रहा. वो तो सुबह जि‍यावन निषाद आकर बोले कि झाड़ा पानी करना हो तो घाट के बारे में मन में एक भी गलत विचार न लाना. हमको पता है कि तुम और तारकेंदर कितने बड़े पापी हो. कैसे-कैसे तो लोग हैं मित्र तारकेंदर. एक तरफ हम रात भर तरल में जल मि‍ला भरी बोतल को सीने से सटाकर उदर में उतारकर गंभीर विचार मंथन करते रहे तो एक तरफ जियावन को झाड़ा-पानी की पड़ी है. आने दो इस बार वाला सभासदी का चुनाव. कम से कम सात सौ वोट न कटवाए तो हमारा नाम मिरगेंदर से बदलकर चुगेंदर कर देना. सरयू मैया हमारी गवाह हैं.

तुमने अपने पत्र में बंदर के थप्‍पड़ की सामाजिक स्‍वीकृति की बड़ी ही अर्थपूर्ण विवेचना की थी. तुमसे अच्‍छी विवेचना कोई और कर भी नहीं सकता. मुझे अभी तक वह दिन याद है जब तुम अपने घर के टूटी छत वाले टॉइलट में दिव्‍य निपटान में व्‍यस्‍त थे और कैसे वानर सेना ने तुम पर आक्रमण कर तुम्‍हें थप्‍पड़ों और दंतक्षत का परम प्रसाद दिया था? उसके बाद कैसे उस निधि ने आर्यकन्‍या के पीछे ब्रह्म बाबा की थान पर तुम्‍हें थप्‍पड़ पर थप्‍पड़ लगाए थे? तुम कहते रहे कि बंदर बहुत काटे हैं, पेट में सुई बहुत दर्द कर रही है, फि‍र भी उसके थप्‍पड़ एकदम उसकी साइकिल के पैडल की तरह एक बार जारी हुए तो सीधे सत्‍तर की स्‍पीड में. बावजूद इसके तुमने उससे प्रेम करना नहीं छोड़ा था. जब तक उसकी डोली आर्यकन्‍या वाली गली से नहीं उठ गई, जाने कौन सा विश्‍वास तुम्‍हें उसके थप्‍पड़ छाप प्रेम से चिपकाए हुए था, आज तक मुझे समझ नहीं आया? क्‍या बचपन का एक थप्‍पड़ बीकॉम तक किसी को इस तरह से चिपकाकर रख सकता है?

खैर यह सब तो मजाक की बात हुई मित्र और मुझे पता है कि निधि के लि‍ए तुम्‍हारे मन में सम्‍मान का कौन सा स्‍थान है. तुम्‍हारे मन में मौजूद सम्‍मान को लेकर मुझे कभी कोई कन्‍फ्यूजन नहीं हुई मित्र और न ही तुम्‍हारे प्रेम की पवित्रता को लेकर. तुम तो मेरी गवाही देने से साफ मुकर गए, लेकिन मैं कभी भी और कहीं भी तुम्‍हारे मन में मौजूद प्रेम की गवाही देने के लिए गीता को उठाने को तैयार हूं. वैसे बता दूं कि तिवारी एजेंसी नियावां वाले पंडित जी की लड़की गीता की पिछले साल ही शादी हो चुकी है. हम जाना तो नहीं चाहते थे, ऊपर छत वाले कमरे में पेट के बल लेटकर बेगम फैजाबादी का गाना ‘इतना ना जिंदगी में किसी की खलल पड़े’ पूरे शोक से सुन रहे थे, लेकिन मम्‍मीजी जबरदस्‍ती इक्‍कीस रुपये का लिफाफा जेब में ठूंसते हुए बोलीं कि नन्‍हीं के जन्‍मदिन पे पूरे ग्‍यारह रुपये नकद दी थीं. हम कोई उनसे कम थोड़ी ना हैं! लिखा जरूर देना कि इक्‍कीस दिए हैं और खाना पूरा खा के आना, अंत में आइसक्रीम जरूर खाना! कोई पूछे उनसे कि दोस्‍त, इस दिल का दर्द इक्‍कीस रुपया देके और आइसक्रीम खाके कहां दूर होता है. अभी और सुनो, जाते-जाते ऑर्डर दीं कि ये जरूर पता लगा के आना कि गीता का लहंगा कितने का था?

गीता चिंतन बहुत हुआ मित्र, उस चिंतन से लेशमात्र भी लाभ नहीं. अब उत्‍तर प्रदेश में जो भी चिंतन प्रमुख रूप से चिंता का वि‍षय है, वह निश्‍चित रूप से गधा चिंतन ही है. गुजरात हो या गोरखपुर, गोरखनाथ हो या सोमनाथ या फिर तुंगनाथ ही क्‍यों न हो, उसके चिंतन से जीवन की यह नैया उस किनारे नहीं लगने वाली मित्र, जिस किनारे लगने से पहले क्‍या-क्‍या करें के बारे में महाराज भृतहरि बता गए थे. हम सब एक हद तक प्रेमी जीव हैं. इस धरा पर हमने प्रेम करने का ही अवतार लिया है. अब यह भूलोकवासि‍यों पर निर्भर है कि वह हमें किस-किस से प्रेम करने देते हैं. अगर वह स्‍त्री से प्रेम नहीं करने देंगे तो हम गधों से प्रेम कर लेंगे मित्र क्‍योंकि बार-बार बेहूदे बदलाव करना भूलोकवासियों की आदत है, हम प्रेमियों की नहीं. लोग बदल जाते हैं, स्‍थान बदल जाते हैं, काल बदल जाते हैं, सवाल बदल जाते हैं मित्र, किंतु यह प्रेम ही है जो नहीं बदलता. जानता हूं मेरे पत्र का तुम्‍हारे पास कोई जवाब नहीं होगा, इसलिए मैं किसी जवाब के इंतजार में नहीं बैठा हूं. दरअसल थोड़ी देर में बंबे धोबी अपने गधों को मेरी गली से लेकर जाने वाला है, मैं बस अपनी टूटी दीवार पर बैठा उन्‍हीं गधों का इंतजार कर रहा हूं. गधों से प्रेम करने के बारे में सोच रहा हूं!

तुम्‍हारा दूर जाता मित्र

मिरगेंदर

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