क्रिसमस-युद्धविराम, प्रथम विश्वयुद्ध की सबसे प्रसिद्ध उपकथाओं में से एक है. पूरी तरह से अनऑफिशियल और तात्कालिक ये युद्धविराम 24-25 दिसम्बर 1914 को प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चिमी मोर्चे पर हुआ था. लगभग 50 किलोमीटर के दायरे में इस दौरान पूरी तरह शांति छा गयी थी. एक बार को लगा था कि ये महायुद्ध अब बंद हो जाएगा पर दुर्भाग्य से युद्ध कई सालों तक जारी रहा. मृत्यु के बढ़ते आंकड़ों ने दोनों पक्षों के बीच नफरत की दीवार इतनी बड़ी कर दी कि फिर कभी कोई क्रिसमस-युद्धविराम न हो सका.
(Unofficial Ceasefireon Christmas)
इस ऐतिहासिक क्रिसमस-युद्धविराम का उत्तराखण्ड के लिए भी खास महत्व है. प्रथम विश्वयुद्ध में प्रतिभाग करने वाले गढ़वाली सैनिक भी इसके साक्षी रहे हैं. जिंदगी में पहली बार सात समुद्र पार की विदेशी धरती पर लड़ रहे इन सैनिकों को ये क्रिसमस एकबारगी तो दीवाली जैसा लगा था. इस युद्ध में गढ़वाल राइफल्स की दूसरी बटालियन के कमांडेंट, ब्रिगेडियर-जनरल डी.एच. ड्रेक-ब्रोकमैन ने अपनी बहुचर्चित किताब में इस घटना का विस्तार से रोचक वर्णन किया है.
अगले दिन अर्थात 25 दिसम्बर 1914 को क्रिसमस था. उसी दिन हमने सुना कि हमें रिलीव किया जा रहा है. रिलीविंग रेजीमेंट के सीओ और दूसरे ऑफिसर्स अपने जीओसी के साथ खंदकों का निरीक्षण करने आए. ये लोग 5वीं ब्रिटिश ब्रिगेड की वार्सेस्टर रेजीमेंट से थे. मैंने उन्हें खंदकों को दिखाया और दिन के 3 बजे कम्यूनिकेशन ट्रेंच के प्रवेश मार्ग पर विदा किया. अपनी खंदक में लौटा ही था कि कैप्टेन बेरीमैन दौड़ते हुए आए ये खबर देने कि जर्मन अपनी खंदकों से बाहर आ गए हैं. शैतान कहीं के! मैंने कहा और उसके साथ खंदक के बाहर आ गया.
मैंने देखा कि बहुत सारे जर्मन नम्बर 2 कम्पनी की खंदक के पैराफिट पर बैठे हैं और नम्बर 1 कम्पनी के बाहर, ठीक सामने भी. वे हमारे आदमियों से बात करने की कोशिश कर रहे थे और उन्हें बिस्किट, सिगरेट और सिगार के डब्बे दे रहे थे. मैं जर्मन जानता था इसलिए मैंने उनसे बात की. वे 16वीं रेजीमेंट से थे और ये विचित्र संयोग है कि बाद में मार्च 1915 में न्यूवे शैपल की लड़ाई में जो युद्धबंदी हमारे हाथ आए उनकी सूरत इनसे मिलती-जुलती थी जो इस क्रिसमस के दिन अनौपचारिक युद्धविराम के अवसर पर खंदकों से बाहर आ गये थे. वे सब मस्त लग रहे थे जैसे कि खाने-पीने की अच्छी दावत हुई हो. असल में उन्होंने ही मुझे बताया था कि उन्होंनेने अच्छा डिनर किया है. उनमें से एक ने बताया कि आज के दिन धरती पर शांति जरूर होगी. वे आश्वस्थ भी लग रहे थे कि वे जीत रहे हैं. एक ने हाथ हिलाते हुए बताया कि रशियन तो लड़ाई से बाहर ही हो गए हैं.
ये युद्धविराम थोड़े ही समय का था. बिना अनुमति के इसे होना भी नहीं चाहिए था. हमारे और जर्मन दोनों मुख्यालयों ने इस अघोषित युद्धविराम पर नाराजगी जतायी थी, ऐसा जब्त दस्तावेजों में हमने बाद में देखा था. 3:45 बजे उनकी खंदक से एक सीटी की आवाज सुनायी दी और वे सब अपने चुस्त एनसीओज द्वारा वापस खंदक में हांक दिए गए. सिपाही उतने चुस्त-दुरुस्त नहीं थे जितने कि उनके एनसीओ. ऐसा स्वाभाविक भी था क्योंकि उनका काम अधिक कठिन और थकाने वाला जो था. मैंने देखा कि एक आदमी ने तो यूनिफॉर्म के बाहर सिविलियन मोटा कपड़ा भी पहना हुआ था.
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उस रात, युद्धविराम का पूरी तरह पालन किया गया. एक भी गोली नहीं चली. राइफल और मशीनगनों की गड़गड़ाहट से अलग माहौल में विचित्र शांति थी. जिस तरीके से वे खंदकों से बाहर आए थे वो आश्चर्यजनक था. शाम को सबसे पहले उन्होंने मोमबत्तियों से जगमगाते क्रिसमस ट्री अपनी खंदकों से बाहर रखे. हमारे सैनिक अचम्भित थे. उन्होंने बताया कि ये सब तो उनकी भारतीय दीवाली की तरह लग रहा है. सुबह गाने और शोर-शराबे की आवाज़ सुनी गयी. कुछ देर बाद सर दिखायी देने लगे और फिर पूरे शरीर. इससे प्रकट होता था कि उन्हें हमारे आदमियों पर कितना विश्वास था. हम उन पर इसी तरह भरोसा नहीं कर सकते थे. हमने इस अवसर का फायदा अपने साथी टेलर और रॉबर्टसन-ग्लैसगो के शव ढूंढने में लिया. ये दोनों 13 नवम्बर को मारे गये थे. सिर्फ़ दूसरे का ही शव मिल सका. टेलर और गढ़वाली आफिसर सीधे जर्मन खंदक के पास ही पहुँच गए थे और मारे गये.
अपनी तरह के इकलौते इस क्रिसमस ट्रूस के बारे में एक जर्मन सैनिक जोसफ़ वेंज़्ल लिखता है कि कुछ ही घंटे पहले जिसे मैं अभी भी पागलपन समझता हूँ, अपनी आँखों से देख रहा था. जर्मन और अंग्रेज़ जो अब तक एक-दूसरे के सबसे बड़े दुश्मन थे, हाथ मिला रहे थे, बात कर रहे थे और चीजों का आदान-प्रदान कर रहे थे. आसमान में एक अकेला तारा उनके ठीक ऊपर था और जिसे खास शगुन के रूप में देखा जा रहा था. क्रिसमस पूरी दुनिया में उत्साह और भव्यता से मनाया जाता है पर जिस तरह स्वतः स्फूर्त तरीके से युद्ध के नफरत भरे माहौल में, 1914 में इन सैनिकों द्वारा मनाया गया उसकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिलती.
हमारे गढ़वाल सैनिकों ने भी उस क्रिसमस का खूब आनंद लिया. उस साल वो सितम्बर से ही देश से बाहर थे. जाहिर है बग्वाळ भी नहीं मना पाए थे. इस क्रिसमस-युद्धविराम को ही उन्होंने अपने हिस्से और मुकद्दर की बग्वाळ समझ लिया था.
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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