पिथौरागढ़ चम्पावत में बोये जाने वाले धान की कुछ किस्मों का संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है, जिससे धान की किस्मों में व्याप्त विविध गुणों के आधार पर उनके प्रयोग की जानकारी इंगित होती है.
(Types of Rice in Uttarakhand Kumaun)
यह धान पिथौरागढ़ क्षेत्र में सिंचित (पनगल) व असिंचित (उनगल) दोनों अवस्थाओं में बोया जाता है. पूजा (अक्षत तथा पार्थिव) के काम आता है. इसका आटा पार्थिव पूजा (सन्तति प्राप्ति हेतु) के अलावा पकवान (साया व सिंगल) बनाने के काम आता है.
यह भी साल की तरह पकवान बनाने तथा विशेष रूप से च्यूड़ा व सिरौला बनाने के काम आता है.
यह धान विशेषतः बेरीनाग-गंगोली व आस-पास के क्षेत्र में ही होता है. यह सिंचित धान है. इसका भात नहीं बनता बल्कि धान के मुरमुरे चावल बनते हैं, जो अखरोट या भट के भुने दानों के साथ चबाकर खाने के काम आते हैं. खीर बनाने में यह विशेष रूप से प्रयुक्त किया जाता है.
यह लोहाघाट में पनगल में बोया जाने वाला प्रसिद्ध धान है. स्वादिष्ट और मीठा. बाल निकलते समय पौधे से खुशबू आती है. पूर्व में विवाह के समय बासमती के स्थान पर इसे ही बनाया जाता था.
यह लोहाघाट तथा गंगोली में होने वाला लाल रंग का धान है. इसके खाजे (धान को भूनकर ओखल में कूट कर बनाए गए चपटे चावल, जो चबाकर खाए जाते हैं) स्वादिष्ट होते हैं, परन्तु भात विशेष स्वादिष्ट नहीं होता.
गंगोलीहाट में पाताल भुवनेश्वर क्षेत्र में होने वाले लाल चावल का यह धान उपराऊँ में होता है. इसका भात स्वादिष्ट होता है.
सिंचित धान की यह अत्यधिक प्रचलित किस्म है. कहीं-कहीं इसे असिंचित भी बोया जाता है. कुमाऊँ अंचल के अनेक गाँवों में इसकी खेती की जाती है. थापचीनी (थापाचीनी) धान के विषय में अल्मोड़ा-बागेश्वर के गरुड़-बैजनाथ (कत्यूर घाटी) एवं सोमेश्वर-चनौदा (बोरारौ घाटी) में लगभग 65-70 वर्ष आयु की महिलाओं एवं पुरुषों से सम्पर्क करने पर जो जानकारी मिली, उसके अनुसार लगभग 1950 तक कुमाऊँ एवं गढ़वाल का नेपाल, तिब्बत व चीन के साथ भौगोलिक-व्यापारिक निकटता और कम प्रतिबंध के कारण पारगमन आसान था.
(Types of Rice in Uttarakhand Kumaun)
लगभग 80-90 वर्ष पूर्व व्यापार के सिलसिले में कत्यूर घाटी से ‘थापा’ जाति का एक व्यक्ति चीन के इलाके से धान के कुछ बीज लाया. सर्वप्रथम इस बीज की खेती कत्यूर घाटी में आरम्भ की गयी. धीरे-धीरे इस बीज का फैलाव पूरी घाटी में होता चला गया और यह ‘चुमई धान’ के नाम से जाना जाने लगा.
कुमाऊँ के कुछ क्षेत्रों में सामाजिक मान्यताओं के अनुसार जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो गाँव के चौराहे पर धान एवं अन्य फसलों के बीज रख दिये जाते हैं, जिसको ‘चुमई’ देना कहते हैं. ‘थापा’ जाति के उक्त व्यक्ति ने यह बताया था कि धान का यह बीज उसे चीन में एक चौराहे पर बिखरा पड़ा मिला था. जब लोगों को इस वास्तविकता का पता लगा तो इसका नाम ‘थापा’ द्वारा चीन से लाये ‘चुमई धान’ के आधार पर ‘थापचीनी’ रख दिया गया. तब से आज तक इस धान को ‘थापचीनी’ के नाम से जाना जाता है.
कुमाऊँ-गढ़वाल के अनेक क्षेत्रों में थापचीनी धान का बोया जाना यह इंगित करता है कि इसका फैलाव पारस्परिक आदान-प्रदान के माध्यम से एक गाँव से दूसरे गाँव होता हुआ कत्यूर से बोरारौ घाटी तथा फिर कुमाऊँ एवं गढ़वाल के अन्य क्षेत्रों तक हुआ. धार्मिक मान्यताओं के कारण इस प्रजाति के धान/चावल का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में वर्जित है, क्योंकि यह बीज मृत व्यक्ति के नाम पर अर्पित किया गया था.
(Types of Rice in Uttarakhand Kumaun)
‘थापचीनी’ का चावल अन्य धानों की अपेक्षा अधिक स्वादिष्ट होता है एवं इससे जानवरों के लिये पराल भी अच्छी मात्रा में मिल जाता है. यह द्विउद्देशीय किस्म है. इन्हीं गुणों के कारण ‘थापचीनी’ ने स्थानीय घाटियों में धान की खेती में अपना एक विशेष स्थान बना लिया है, परन्तु इसके तने कुछ कमजोर होने के कारण फसल पकने पर पौधे गिर जाते हैं, जिससे कत्यूर के किसान अब ‘थापचीनी’ की खेती को कम महत्व देने लगे हैं. शोध द्वारा इस प्रजाति में प्रध्वंस रोगरोधिता तथा टूटने की समस्या का निदान किये जाने पर इसका उन्नत रूप विकसित हो सकता है.
(Types of Rice in Uttarakhand Kumaun)
उन्नत बीजों की उपलब्धता कम होने के कारण कुमाऊँ-गढ़वाल के किसान अभी तक अधिकतर अपने घर के बीजों (स्थानीय प्रजातियाँ) का ही प्रयोग करते आ रहे हैं. यह परिस्थिति एक प्रकार से वरदान भी बनी, क्योंकि इसके कारण यह क्षेत्र जैविक विविधता के पूर्ण ह्रास से मुक्त रह पाया है. जैविक विविधता को बढ़ाने और सुरक्षित रखने का पूरा श्रेय इस क्षेत्र के किसानों को जाता है. किसानों द्वारा पारस्परिक बीज फैलाव की पद्धति अपनायी जाती रही है. इसका एक उदाहरण थापचीनी धान का यहाँ के सभी क्षेत्रों में बोया जाना है.
एटकिंसन (1882) द्वारा कुमाऊँ में बोयी जाने वाली अनेक किस्में उद्धृत की गयी हैं, परन्तु उक्त सूची में थापचीनी का उल्लेख नहीं है. इससे इंगित होता है कि एटकिंसन के सर्वेक्षण के बाद के वर्षों में ही थापाचीनी का प्रादुर्भाव और प्रसार हुआ. भौगोलिक जटिलता वाले पर्वतीय क्षेत्र में किसान से किसान बीज फैलाव’ की पद्धति का यह एक उल्लेखनीय उदाहरण है.
यह भी सिंचित धान की प्रचलित किस्म है. इसमें दाना नहीं टूटता तथा पौधे में कल्ले अधिक आते हैं. तना मोटा होता है तथा गिरता भी नहीं. यह स्वाद में थापचीनी की तरह होता है. बलुवाकोट में यह किस्म चीना चार कहलाती है.
(Types of Rice in Uttarakhand Kumaun)
इसका चावल सफेद होता है तथा छिल्का लाल-भूरा. भात विशेष अच्छा नहीं बनता, परन्तु कूटने पर इस किस्म का चावल टूटता नहीं, अतः नकद फसल के तौर पर इसे उगाया जाता है.
धुर (ऊँची पहाड़ियों) में इस प्रकार का धान विशेषकर बनकोट के सिंचित क्षेत्रों में बोया जाता है. असिंचित अवस्था में बोए जाने वाले धान कम हैं, अत: तलाऊँ (तल-नीचे अर्थात् पानी की उपलब्धता वाली सिंचित भूमि) में न बोकर ऊँचे स्थानों अर्थात् उपराऊँ में बोए जाने वाले धान की अच्छी किस्म धुरबासमती कहलाती है. अंचन, शकुन्तला, रैगुनी, थापचीनी, दौलतिया तथा पणदुध इसके अन्तर्गत आते हैं.
बलुवाकोट, धारचूला में छोटी क्यारियों में थोड़ी मात्रा में बोया जाने वाला यह धान च्यूड़े एवं सिरौले बनाने के काम आता है.
(Types of Rice in Uttarakhand Kumaun)
यह लेख पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक में छपे जगदीश चन्द्र भट्ट के लेख का अंश है. काफल ट्री ने पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से यह लेख साभार लिया है.
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