19 सितम्बर 2018 के दिन अशोक पांडे की फेसबुक वाल से :
अलविदा विष्णु खरे – 1
जबरदस्त कवि, बड़े सम्पादक, सिनेमा और संगीत के अध्येता, गंभीर पाठक, भाषाओं और यारों के धनी उस आदमी की महाप्रतिभा का हर कोई कायल रहा. असाधारण उपलब्धियों और आत्मगौरव से उपजे उनके नैसर्गिक दंभ का भी मैं दीवाना था. उनका दंभ उन पर फबता था. ऐसा कोई दूसरा आदमी अभी मिलना बाकी है जिसके बारे में ऐसा कह सकूं.
उनके अद्वितीय जीवन का विस्तार इतना विराट था कि भले-भलों की कल्पना तक वहां नहीं पहुँच सकती. बौनों से भरे साहित्य-संसार दुनिया में वे एक गुलीवर थे. याद पड़ता है अभी कुछ ही समय पहले हिन्दी के कुछ वीरबालकों ने उनको लेकर बहुत फोश और घटिया चीज़ें फैलाई थीं. उनसे इसका ज़िक्र किया तो हंसते हुए बोले – “इसका अपना मज़ा है.” फिर एक पॉज़ के बाद बोले – “ग़ालिब का बाज़ीचा-ए-अत्फाल समझते हो न?”
जीवन में पहली बार नीट जिन में मिलाकर नीट वोदका उन्हीं के साथ पी. जब उस विकट विलयन में पानी-सोडा मिलाने की बात चली तो तमक कर बोले – “जो जिन और वोदका में पानी-सोडा मिलाये उसे गोली मार देनी चाहिए!”
2000 या 2001 की बात है. मैं वियेना में था और वे फ्रैंकफर्ट में. एक शाम उन्हें फोन किया. Shrek फिल्म में गधे के पात्र की एडी मर्फी द्वारा की गयी शानदार डबिंग से शुरू हुई हमारी बातचीत कुंदनलाल सहगल और जगमोहन से होती हुई मुहम्मद रफ़ी पर निबटी. उन्होंने मुझे रफ़ी का मेरा पसंदीदा गीत गाकर सुनाया – “हुई शाम उनका ख़याल आ गया.” उन्हें गीत के बोल याद थे. उन्हें सब कुछ याद था – धुन-संगीत की एक-एक बारीकी और फिल्म में कहाँ किस पर फिल्माया गया है वगैरह. मैं उनकी इस प्रतिभा से पहली बार रू-ब-रू होने की हैरत से भर ही रहा था जब वे गा रहे थे – “वो चल कर क़यामत की चाल आ गया”
हल्द्वानी में एक आयोजन में वे आए थे. मंगलेश दा, वीरेनदा सब आये थे. ज़ाहिर है शाम को पार्टी हुई. पार्टी लम्बी चलनी ही थी. खाना खाने शमा रेस्टोरेंट गए. मुझे सीढ़ियों पर किसी का धक्का लगा और मैं उलटा गिरा. मेरी खोपड़ी पीछे से फट गई. अस्पताल गया, टाँके लगे. वे हर जगह मेरे साथ रहे. एक दोस्त ( संजय ढिंगरा ) से टीशर्ट उधार माँगी और मैं फिर से तैयार था. वे बोले – “रात की आवारागर्दी में हमारे साथ कौन चलेगा?” वीरेनदा जैसा उत्साही इंसान भी थक गया था. रोशन और भूपेन ने हामी भरी. हमने तीन बजे रात तक रोशन की गाड़ी में आवारगी की. उस आवारगी में हमने जाना वे कितने बड़े इंसान थे. हम लड़कों को बराबर इज्ज़त बख्शी उन्होंने.
मैं विएना से लौटा था. हवाई अड्डे पर मुझे लेने सुन्दर आया था. उस शाम सफदरजंग एन्क्लेव के एक होटल में हम सब साथ रहे – मंगलेशदा थे, वीरेनदा थे, आलोक धन्वा थे और वे भी थे. उन्हें छोड़कर सब सुन्दर की गाड़ी में होटल पहुंचे थे. विष्णु जी अपने पुरातन खटारा स्कूटर से आये थे. देर हो गयी तो सारे उसी होटल में ही टिक गए. सुबह तक बाहर खुली पार्किंग में खड़ा उनका स्कूटर धूप की वजह से खासा गर्म हो गया था. सुन्दर ने कहा कि वे गाड़ी ले जाएं स्कूटर वह ले जाएगा. इस पर बात चल ही रही थी जब अचानक पीछे से वीरेनदा आया और बोला – “आप अपना हेलमेट पहनिए तो विष्णु जी!” उन्होंने हैरत से देखा तो वीरेनदा ने इसरार से कहा – “पहनिए ना भाईसाहब!” उन्होंने वैसा ही कर लिया. “अब थोड़ा झुकिए” – वीरेनदा बोला. वे झुके तो वीरेनदा ने उनका पहना हुआ हेलमेट आत्मीयता से चूमते हुए कहा – “आप बहुत गज़ब के आदमी हैं भाईसाहब! मैं आपको सलाम करता हूँ.”
यह वो ज़माना था जब कवियों में खुलेआम मोहब्बत बांटने का रिवाज़ था.
गोश को होश के टुक खोल के सुन शोर-ए-जहां
सबकी आवाज़ के परदे में सुख़नसाज़ है एक
उस्ताद बाबा मीर तक़ी मीर के इस शेर को मैंने विष्णु जी के संग्रह ‘सबकी आवाज़ के परदे में’ के छप कर आने के बाद और ज़्यादा गहराई से समझा था. एक रात बरेली में वीरेनदा के साथ उस किताब की अनेक कविताओं का पाठ हुआ. ‘जो मार खा रोई नहीं’ और ‘दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’ जैसी कविताओं ने रुलाया भी और हैरत से भी भरा. वह एक बिलकुल नए संसार का खुलना था. कहन के उनके उस नवेले अंदाज़ से साक्षात्कार होने के बाद यह संभव ही न था कि आपको उनसे मोहब्बत न हो जाए.
बीस साल की उम्र में उन्होंने टी. एस. एलियट की ‘वेस्ट लैंड’ और कई कविताओं का अनुवाद कर दिया था. वे इस अनुवाद की भूमिका तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लिखवाना चाहते थे क्योंकि वे उन्हें ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया का लेखक पहले मानते थे प्रधानमंत्री बाद में. उन्होंने इस बाबत पीएम ऑफिस के नाम एक चिठ्ठी भी लिखी.
उन्हें प्रधानमंत्री के सचिव ने उत्तर लिखकर बताया था कि नेहरू जी व्यस्त होने कारण ऐसा नहीं कर सकेंगे अलबत्ता उनकी भूमिका लिखने को रामधारी सिंह दिनकर से आग्रह किया जा सकता है. ‘वेस्ट लैंड’ की भूमिका दिनकर जी ने ही लिखी.
वे हंसते हुए बताते थे – “दिनकर जी सोचते रहे होंगे विष्णु खरे छिन्दवाड़ा में रहने वाला कोई बुजुर्ग कवि-लेखक टाइप का आदमी होगा! उन्हें क्या पता यह एक लड़के की कारस्तानी थी.”
उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था – “हम एक आलसी समाज तो हैं ही. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कितना काम किया ज़रा सोचिये … कबीर को उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया … दिक्कत यह है कि मेहनत कौन करे? इतनी दिलचस्पी कौन ले. हमारे जो मध्ययुगीन काव्य हैं कौन पढ़ता है उन्हें? कुतुबन को, जायसी को कौन पढ़ता है? या पृथ्वीराज रासो को कौन पढ़ता है? …”
विष्णु जी की दिलचस्पी का दायरा विशाल था उन्होंने कितना पढ़ा और कितना विषद काम किया उसकी थाह लेना मुश्किल है. बहुत कम लोग जानते होंगे उन्होंने फिनलैंड के लोक महाकाव्य ‘कालेवाला’ का अनुवाद भी किया था. पौने आठ सौ पन्ने की इस किताब के लिए उन्हें फिनलैंड की सरकार ने अपना सबसे बड़ा नागरिक सम्मान दिया था.
उन्होंने हंगरी के कवि अत्तिला योज़ेफ़ की कविताओं का अनुवाद किया था जो ‘यह चाकू समय’ के नाम से छपा. वे धाराप्रवाह जर्मन बोलते थे. बेहतरीन अंग्रेज़ी बोलते थे. उन्हें और भी भाषाएँ आती होंगी पर उन्होंने इसका ढोल कभी नहीं पीटा. उन्होंने काम किया. उन्होंने बहुत काम किया!
खलील जिब्रान ने एक जगह लिखा है – “जब तुम दुखी होओ तो दोबारा से अपने दिल के भीतर झांकना, तुम पाओगे कि सच में तुम जिस के लिए रो रहे हो वह कभी तुम्हारी खुशियों का कारण बना था.”
विष्णु जी की कविता – ‘दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’ – जितनी बार पढ़ी है, उतनी बार खलील जिब्रान की यह पंक्ति, जिसे मैंने लड़कपन में अपने स्कूल हॉस्टल के वार्डन की मृत्यु के बाद अपनी डायरी में दर्ज किया था, मन के किसी गुप्त हिस्से से तैरती चली आती है. खलील जिब्रान की कही इस बात को विष्णु जी की इस कविता में बहुत ड्रामाखेज़ अंदाज़ में लिखे जा सकने का न केवल पूरा स्कोप था, ऐसा किये जाने की लम्बी परम्परा भी रही है. भारतीय मध्यवर्ग के पारिवारिक संबंधों की प्रगाढ़ता और उनसे उपजने वाली अपरिहार्य करुणा जैसी मुश्किल विषयवस्तु के साथ जिस तटस्थता के साथ विष्णु जी ने बर्ताव किया है, उसने मुझे हैरत में भी डाला है और कदाचित उदास भी किया है. यही विष्णु जी के कविकर्म की अद्वितीयता है जो उन्हें हिन्दी में अपनी किस्म का अकेला कवि बनाती है.
पिता होते तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
उन्हें देता वह छोटा कमरा
जिसके साथ गुसलखाना भी लगा हुआ है
वे आज इकहत्तर बरस के होते
और हमेशा की तरह अब भी उन्हें
अपना निर्लिप्त अकेलापन चाहिए होता
लगातार सिगरेट पीना और स्वयं को
हिन्दुस्तानी गेय तथा वाद्य शास्त्रीय संगीत का अभ्यासी व्याख्याकार समझना
उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा था सो अब क्या छोड़ते
इसलिए उनके लिए यही कमरा ठीक रहता
सिर्फ़ रेडियो और टेलीविज़न उनसे दूर रखने पड़ते
माँ होतीं तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
माँ भी क़रीब सत्तर की होतीं
और दिनभर तो वे रसोई में या छत पर होतीं बहू के साथ
या एक कमरे से दूसरे कमरे में बच्चों के बीच
जो अगर उन्हें अकेला छोड़ते
तो रात में वे पिता के कमरे में
या उससे स्थाई लगी हुई बालकनी में उनके पैताने कहीं लेट जातीं
अपनी वही स्थाई जगह तय कर रखी थी उन्होंने
बड़ी बुआ होतीं तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
क्या वो होतीं तो अभी भी कुँआरी होतीं
और उसके साथ रहतीं?
हाँ कुँआरी ही होतीं – जब वे मरीं तो ब्याहता होने की
उनकी आस कभी की चली गयी थी
और अब अपने भाई के आसरे न रहतीं तो कहाँ रहतीं –
सो उन्हें देता वह वो वाला बैडरूम
जिसमें वह ख़ुद अपनी पत्नी के साथ रहना चाहता है
वैसे माँ के साथ वे भी दिनभर इधर से उधर होती रहतीं
घर की बड़ी औरतें मजबूरन ही
कुछ घंटों का आराम चाहती हैं
क्या छोटी बुआ होतीं तो वे भी अब तक कुँआरी होतीं?
हाँ कुँआरी ही होतीं – जब बड़ी बहन अनब्याही चली गयी
तो उन्हें ही कौन-सी साध रह गयी थी सुहागिन होने की –
सो छोटी बुआ भी रह लेतीं बड़ी बुआ के साथ
जैसे मौत तक उनके साथ रहीं
जब जवानी में दोनों के बीच कोई कहा-सुनी नहीं हुई
तो अब क्या होती भाई-भौजाई बहू और नाती-नातिनों के बीच
इस तरह माता-पिता और बुआओं से और भर जाता घर
इस घर में और जीवित हो जाता एक घर बयालीस साल पुराना
वह और उसकी पत्नी और बच्चे तब रहते
बचे हुए एक कमरे में
जिसमें बेटियों के लिए थोड़ी आड़ कर दी जाती
कितने प्राण आ जाते इन कमरों में चार और प्राणियों से
लेकिन वह जानता है कि हर आदमी का घर
अक्सर सिर्फ़ एक बार ही होता है जीवन में
और उसका जो घर था
वह चालीस बरसों और चार मौतों के पहले था
कई मजबूरियों और मेहरबानियों से बना है यह घर
और शायद बसा भी है
बहरहाल अब यह उसकी घरवाली और बच्चों का ज्यादा है
अब इसका क्या कि वह इसमें अपने उस पुराने घर को बसा नहीं सकता
जिसके अलावा उसका न तो कोई घर था और न लग पाएगा
इसलिए वह सिर्फ़ बुला सकता है
पिता को माँ को छोटी बुआ बड़ी बुआ को
सिर्फ़ आवाज़ दे सकता है उस सारे बीते हुए को
पितृमोक्ष अमावस्या की तरह सिर्फ़ पुकार सकता है आओ आओ
यहाँ रहो इसे बसाओ
अभी यह सिर्फ़ एक मकान है एक शहर की चीज़ एक फ़्लैट
जिसमें ड्राइंग रूम डाइनिंग स्पेस बैडरूम किचन
जैसी अनबरती बेपहचानी ग़ैर चीज़ें हैं
आओ और इन्हें उस घर में बदलो जिसमें यह नहीं थीं
फिर भी सब था और तुम्हारे पास मैं रहता था
जिसके सपने अब भी मुझे आते हैं
कुछ ऐसा करो कि इस नए घर के सपने पुराने होकर दिखें
और उनमें मुझे दिखो बाबू, भौजी, बड़ी बुआ, छोटी बुआ तुम.
नवभारत का निर्माण करने को आतुर एक अतिलोकप्रिय संस्था ए.आई.बी. ( AIB ) के बारे में ज़्यादातर लोगों को पता ही होगा. इस संस्था के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने को हमारे देश की संस्कृतिहीन और दयनीय सेलेब्रिटीज लालायित रहती हैं. बहुत घटिया ह्यूमर और टुच्ची गालियों से अटे इन कार्यक्रमों की नेट-व्यूअरशिप करोड़ों में बताई जाती है. इनमें महिलाओं को ‘कन्ट’ पुरुषों को ‘आसहोल’ और मोहब्बत जैसी हर खूबसूरत चीज़ को ‘फक’ की उपाधियों से संबोधित किये जाने की परम्परा है. याद नहीं पड़ता ऐसे खतरनाक और सस्ते भौंडेपन के लेकर किसी लेखक-महाकवि ने कुछ कहने की हिम्मत दिखाई हो. इनकी बखिया उधेड़ते हुए तीन बरस पहले विष्णु जी ने एक लेख में लिखा था –
“हालाँकि मुझे यह लगता है इनकी अंतरात्मा, यदि ऐसी कोई फालतू चीज़ इनके पास है तो, शायद हर तरह की हत्या और बलात्कार को भी अपनी सहिष्णुता, उदारता, प्रबुद्धता, आधुनिकता, ’सैंस ऑफ़ ह्यूमर’ आदि का अंग मानती होगी. ऐसे परिवारों के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि किस तरह से हर शाम डाइनिंग-टेबल पर इनके हर छोटे-बड़े एक-दूसरे को देशज हिंदी या झोपड़पट्टी अंग्रेज़ी में प्यार से ‘योनि’, ‘लिंग’, ‘गुदा’, ‘स्तन’, ‘नितम्ब’ आदि कहकर पुकारते होंगे, बात-बात में ‘सम्भोग-सम्भोग’ (‘फ़’ ‘फ़’) का रिवायती हॉलीवुडी तकियाकलाम वापरते होंगे और डिनर के बाद सामूहिक रूप से सनी आंटी की ही एकाध क्लासिक फिल्म देख कर आपस में क्या करते होंगे.”
विष्णु जी ने अपने लेखन में दम ठोककर उन सारे ज़रूरी विषयों को उठाया जिनसे हमारी गोबरपट्टी के बौद्धिकजन हमेशा बचते आये हैं. इसी वजह से मैं उनके सबसे बड़े प्रशंसकों में रहूँगा और जहां तक जब तक होगा इस बात को बार-बार रेखांकित करता जाऊँगा. वे हमारी हिन्दी के उँगलियों पर गिने जा सकने वाले लेखकों में थे जिनके साथ बात करने के लिए आपके भीतर उस तत्व का होना एक ज़रूरी शर्त थी जिसे अंग्रेज़ी में ग्रे मैटर कहा जाता है.
-अशोक पांडे
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जिज्ञासावश पूछ रहा हूं।