पर्यावरण

कुकुरी बाघ कैसे बनता है आदमखोर बाघ

दरसल अधिकतर लोगों को बाघ, शेर, चीता और तेंदुआ में भ्रम रहता है. पहाड़ों में यह भ्रम इस कदर व्याप्त है कि यहां तेंदुए को ही बाघ कहा जाता है. पहाड़ में बाघ से जुड़ी बहुत सी घटनायें बहुत आम हैं. यहां घर-घर में आपको बाघ से जुड़े किस्से मिल जायेंगे और इन्हीं किस्सों में जिक्र मिलेगा कुकुरी बाघ का.

अगर आप उत्तराखंड से हैं तो कुकुरी बाघ आपके शब्दकोष का एक जरूरी हिस्सा होगा. उत्तराखंड के पहाड़ों में बाघ नहीं होते हैं लेकिन तेंदुए यहां खूब पाये जाते हैं. जब तक पहाड़ में लोग रहा करते थे आये दिन गावों से तेंदुए द्वारा कुत्ते उठाये जाने की खबरें आती थी.

देखने में बाघ, तेंदुए से काफी बड़े होते हैं और न ही ये बाघ जितने फुर्तीले होते हैं. चालाकी में तेंदुए, बाघ से एक अंगुल आगे कहे जा सकते हैं. तेंदुए के पिछले पैर काफी मजबूत होते हैं इनकी मदद से वह अपने शिकार को पेड़ में भी खींच कर रखते लेते हैं. तेंदुए की एक ख़ास आदत यह होती है कि वह कभी एक बारी में अपना शिकार पूरा नहीं खाता.

पहले गावों में महीने पन्द्रह दिन में एक कुत्ते के गायब होने की ख़बर आती जिसका मतलब था कि बाघ ने उसे अपना शिकार बना लिया है और यहीं से तेंदुए के लिये पहाड़ों में एक शब्द आ गया कुकुरी बाघ.

कुकुरी बाघ के अलावा पहाड़ों में मैसी बाघ, शब्द का भी प्रचलन है. मैसी बाघ का मतलब है आदमखोर बाघ. पहले पहाड़ों में सालों में एक मैसी बाघ की ख़बर आती थी अब तो आये दिन मैसी बाघ की बातें रहती हैं. जब पहाड़ों में किसी क्षेत्र में मैसी बाघ का खौफ़ रहता है तो इस घटना को पहाड़ में बाघ लगना, कहते हैं.

पिछले एक दशक में उत्तराखंड में इंसानों और जानवरों के बीच संघर्ष बड़ा है. जिसका एक मुख्य कारण गावों के लगातार खाली होने से बने सैकेंडरी जगलों बनना है. अगर हम तेंदुए की इटिंग हैबिट को ध्यान में रखेंगे तो हम पाते हैं कि तेंदुआ हमेशा आसान शिकार को चुनता है ऐसे में तेंदुए का शिकार के रूप में चुनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

जिम कार्बेट ने अपनी किताब ‘द मैन ईटर ऑफ़ रुद्रप्रयाग’ में तेंदुए के आदमखोर बनने के कारण के बारे में लिखा है कि बीसवीं सदी में जब हैजा नामक बीमारी फैली. संक्रामक बीमारी होने के कारण लोगों ने उसका दाह संस्कार करने की बजाय लाश के मुंह में कोयला डालकर जंगल में पहाड़ियों से नींचे फैंकना शुरू कर दिया. जहां उसे तेंदुए खाया करते थे, यहीं से इनके आदमखोर होने की शुरुआत होती है. संक्रामक रोग कम होने के बाद जब लाशों की संख्या कम हुई तो इन्होंने जंगलों से गावों का रुख शुरू किया.

विश्व में जहां भी मानव और तेंदुए के बीच संघर्ष देखने को मिलते हैं वहां जिम कार्बेट द्वारा बताये गए इस माडल को स्वीकारा जाता है.

2018 में बीबीसी हिन्दी में अनंत प्रकाश ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि

राजाजी नेशनल पार्क की रायवाला रेंज में साल 2014 के बाद से लगातार इंसानों पर तेंदुओं के हमले की घटनाएं सामने आ रही हैं. आधिकारिक रूप से ये आंकड़ा 19 लोगों की मौत का है. हमारी रेंज में ही 19 किलिंग हैं, साथ की चीला रेंज में भी एक किलिंग हुई है.

उत्तराखंड में आदमखोर बाघ की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. वर्तमान में यहां केवल तीन रेस्क्यू सेंटर जबकि तेंदुओं की संख्या बहुत अधिक है. ऐसे में वन विभाग इन्हें दूर किसी जंगल में छोड़ने का प्रबंध करता है. यहां नई टेरीटरी से सामंजस्य न होने के कारण तेंदुआ और अधिक भयानक हो जाता है.

-काफल ट्री डेस्क

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Girish Lohani

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  • उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जिस ढंग से वनों का दोहन हो रहा है वह अभूतपूर्व तो है ही साथ ही साथ पूरे देश में सबसे अधिक गति से दोहन भी हो रहा है . इसके पीछे वन विभाग की लापरवाही और उस विभाग में फैला भ्रष्टाचार और निकम्मापन है, रिपोर्ट बनाते समय कागजों में वृक्षारोपण और कागजों में ही वनों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है. पर धरातलीय सत्यता भिन्न है जिसे तेंदुवे बता रहे हैं . वनों के संरक्षण के लिए जो अधिकारी तैनात हैं , उन्हें अब तेंदुओं के , नरभक्षी होने पर जनताके दबाव में इन वन्य जीवों को मारने या पिंजड़े में कैंद करने की बुद्धि ही आ रही है . पर बंदरों के भोजन का क्याह्प्गा , पक्षियों का होगा बिना जंगल के ? इनमें से कोई इस सोच को बाहर आकर बोलना नहीं चाहता . जनता इतनी व्यस्त और मस्त है कि उसे भी सोचने का समय नहीं है. वनों की नाम पर ये फर्जीवाडा ही तेंदुवा दिखा रहा है मानव आबादी में आकर . वन पंचायतों की जमीनों में अतिक्रमण कर वहाँ रिसोर्ट और फैक्टरियाँ लागाई जा रही हैं और वन्य जीवों के रहने- छिपने के स्थान और खाने के सामान की कमी हो रही है. जंगलों में सुनियोजित ढंग से आग लगाईं जाती है और फिर वनस्पति शून्य होने पर उसमें खनन होता है और फिर लेवल आने पर उसमें मकान बना दिया जाता है और फिर उसे बेच दिया जाता है . प्लाट काटे जा रहे हैं वनों की जमीनों पर . पर उत्तरदायी अधिकारी मुंह नही फेरते तो ये वनों का नुकसान न होता. यदि कार्यवाही हुई होती तो ये स्तिथि नहीं होती . खुले आम देवदार के पेड़ सुखाये जा रहे हैं , पर नज़रों में पर्दा है , यदि कोई पत्र भेजता भी है तो उस पत्र का फुटबॉल बनाकर इधर- उधर करते ये लोग कुकुरी बाघ को मैसी बाघ बना देते हैं .... कोई चर्चा नहीं होती कोई परिचर्चा नहीं होती , मीडिया बन्धु लिखते हैं पर उत्तरदायी लोगों पर लॉबी हावी है ...जब सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का वाली कहावत चल पड़ती है . निष्ठावान अधिकारियों को पीछे धकेल दिया जाता है और उनको हतोत्साहित किया जाता है तो जंगल बचेंगे कैसे ? जब अक्ल के पीछे लठ्ठ लेकर घुमने वाले लोग हावी हो जाएंगे तो तेंदुवे आयेंगे बाघ आयेगा तो असामयिक मौत तो आयेगी ही मानवता को ....

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