जो दिन अपैट बतूँछी, वी मैं हूँ पैट हौ.
जकैं मैं सौरास बतूँछी, वी म्यर मैत हौ
मायाक मारगाँठ आज, आफी आफी खुजि पड़ौ.
दुनियल तराण लगै दे, फिरि ले हाथ है मुचि पड़ौ.
जनूँ कैं मैंल एकबट्या, उनूँल मैं न्यार करूँं
जनूँ कैं भितरे धरौ, उनूँलै मैं भ्यार धरूँ.
बेई तक आपण, आज निकाऔ निकाऔ हैगे.
पराण लै छुटण नि दी, उठाऔ उठाऔ हैगे.
(Sher Singh Bisht Sherda Anpad)
जिस कविता का यह हिस्सा है उस कविता का नाम है ‘मुर्दाक बयान’. शेरदा ‘अनपढ़’ की कविता ‘मुर्दाक बयान’. पहली बार जब कविता पढ़ी तो सबसे पहले यही ढूंढा की क्या यह वाकई उसी शेरदा अनपढ़ की कविता है जिसकी कविताओं पर उत्तरायणी के मेले और शरदोत्सव में हजारों की भीड़ के लोट-पोट होने के किस्से कहे जाते हैं.
इसके बाद शेरदा की मौत और मनखि, एक स्वैण देखनऊं जैसी कविता पढ़ी तो समझ आया कि आदमी केवल हास्य कवि तो कतई नहीं है. सालों पहले एक कैसेट आई थी ‘हसनै बहार’. आकड़ों का पता नहीं लेकिन मुझे लगता है 90 के दशक में सबसे ज्यादा बिकने वाली कैसेट में एक होती होगी.
(Sher Singh Bisht Sherda Anpad)
इसके कवर में मोटे चश्में वाला शेरदा होता था. गानों से पहले शेरदा की आव़ाज. टेप के उस दौर में जब किसी घर में कैसेट चलता तो औरतें पीठ में गोबर का डोका हो, घास की भारी हो या लकड़ी की भारी, बड़ी तन्मयता से उसे सुनती. गाना खत्म होने तक उनकी आँखें नम होती और होठों पर मुस्कान. आग लाग ज्यो शेरदा कहकर वो आगे निकल जाती.
हम जैसे कस्बों में पले-बड़े लोगों के लिये इस संबंध को समझना मुश्किल है लेकिन शेरदा के इसी अंदाज ने उसे दुनिया के एलीट कवियों में शामिल न कर पहाड़ के मेहनती लोगों का सबसे लोकप्रिय कवि बनाया.
(Sher Singh Bisht Sherda Anpad)
1977 के वन आन्दोलन के दौरान शेरदा का लिखा एक गीत पढ़िये. समझ आयेगा शेरदा केवल एक हास्य कवि तो कतई नहीं थे :
बोट हरीया हीरूँ का हारा, पात सुनूँ का चुड़
बोट में बसूँ म्यर पहाड़ा, झन चलाया छुर
ठ्यकदारों तुम ठ्याक नि ल्हिया, ख्वार फुटाला धुर
जथकैं हमारा धुर जंगला, उथकैं हमर सुर
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