मैं जब भी यथार्थ का पीछा करता हूं देखता हूं वह भी मेरा पीछा कर रहा है मुझसे तेज़ भाग रहा है.
उस रोज़ कौन जानता था कि वो नये सफ़र पर निकलने वाले थे. ये न घर का रास्ता था न कोई आवाज़ थी न कोई जगह थी. ‘यथार्थ बहुत ज़्यादा यथार्थ था’ और नौ दिसंबर को रघुबीर सहाय की जयंती के दिन, त्रिलोचन की पुण्यतिथि के दिन मंगलेश डबराल, मेरे चाचा ने उस बक्से के भीतर आखिरी सांस ली जो कहते हैं प्राण वायु सप्लाई करता था. ऑक्सीजन, ऑक्सीजन, ऑक्सीजन. चाचाजी की एक कविता भटक रही थी- घटती हुई ऑक्सीजन. कैसा विकट दिल तोड़ता संयोग!
(Tribute to Manglesh Dabral)
अस्पतालों में दिखाई देते हैं ऑक्सीजन से भरे हुए सिलिंडर
नीमहोशी में डूबते-उतराते मरीज़ों के मुँह पर लगे हुए मास्क
और उनके पानी में बुलबुले बनाती हुई थोड़ी सी प्राणवायु
ऐसी जगहों की तादाद बढ़ रही है
जहाँ सांस लेना मेहनत का काम लगता है
दूरियां कम हो रही हैं लेकिन उनके बीच निर्वात बढ़ता जा रहा है
हर चीज़ ने अपना एक दड़बा बना लिया है
हर आदमी अपने दड़बे में क़ैद हो गया है
धुकधुकी और बुरी खबर से पीछा छुड़ाने और उसे बचे रहने के लिए जैसे केक हम ले आए थे. चिप्स भी, फेरो रोशो भी और गुब्बारे भी. गुब्बारे फुला दिए थे करीब 10-12. पहली बार लाइट वाले गुब्बारे मिले थे. मैं इसलिए भी फुला रहा था कि फेफड़ों की एक्सरसाइज़ होगी. मैं कांपता रहा. मुझे नहीं मालूम था कि मेरी इस थरथराहट के कुछ भयानक संकेत है, कुछ घटने वाला है- मैंने कहना चाहा सबसे. मैं एक तेज़ भभका सा देखा आंखों के सामने, एक दीया सहसा बहुत तेज़ जला और भक्क से बुझ गया. रघुबीर सहाय के शब्दों में ‘एक हौल बैठ गया मन में.’
नौ दिसंबर 2020 देर शामः प्राण-पखेरू उड़ चुके थे. एक तीव्र आघात को अपने अपने दिलों में जज़्ब करते हुए प्रियजनों की दुनिया में, कविता की दुनिया में, पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में अंग्रेजी के तीन शब्द और हिंदी के तीन शब्द नौ दिसंबर की देर शाम एक लंबे समय तक बने रहने वाले मातम की तरह टंग गए थे. मंगलेश इज़ गॉन, मंगलेश नहीं रहे. असद ज़ैदी को ये शब्द लिखते हुए न जाने कितने पहाड़ कितने दरिया कितने दर्रे पार करने पड़े होंगे. कुछ सप्ताह बाद एक रोज़ उन्हें उन्हें अपने आसपास सबकुछ खाली खाली सा लगने वाला था. शायद जैसे अपने ही अंदर से कुछ जाकर गिर गया कहीं. कोई अंग जैसे, और सहसा उन्हें फफक उठना थाः समझ नहीं आता मुझे अब कविता पर किससे बात करूंगा शिवप्रसाद. लेकिन चंद दिन पहले जब ये सूचना जारी करने का जिम्मा उन पर आन पड़ा था तो अपने अंदाज़ में उन्होंने कई बार बालों पर हाथ फेरे होंगे. सिर खुजलाते हुए बालों को तितरबितर किया होगा. क्या उनकी निढ़ाल, उनींदी और इंजेक्शन और उपचार से चल रही आँखें बंद रही होंगी और की-पैड पर सिर्फ़ अंगुलियां अपना काम करती होंगी. या ये सब कुछ एक झटके में लिखा जा चुका होगा. जैसे रेंगता हुआ आ गया कोई कीड़ा और उसे फ़ौरन झटक देने का दिमाग का आदेश. पलक झपकते ये संदेश वर्चुअल दुनिया में उतर आया होगा जैसे चाचा की देह से प्राण उतर कर दूसरे समय में खिसक गया होगा. वो संदेश- संशय, दुख, आशंका से स्थिर तालाब में एक कंकड़ की तरह गिरा. शोक और उदासी की आवृत्तियां फैलने लगीं और वे फैलती ही चली गयीं. वे फैलते फैलते हमारे दिलों दिमागों में चली आयीं. इन आवृत्तियों ने उस शाम बेटी के जन्मदिन को भी घेर लिया. दिलों में पछाड़ें उठने और गिरने लगीं, गुब्बारे सहसा तेजी से जलनेबुझने लगे, अंधकार जैसे रिसता हुआ कमरे में दाखिल होने लगा और हमारी आंखों में छाने लगा. हमें जीर्णशीर्ण काया मे पुकारता हुआ एक मनुष्य दिखा. उसे चाय चाहिए थी एक ढंग की कॉफ़ी, उसे कुछ नहीं मिल पा रहा था वह कुछ खा पी नहीं सकता था. हम उसे छू भी नहीं सकते थे.
दम घुटने सा लगा था. अलमा और प्रमोद भैजी और चाची कैसे सह रहे होंगे, सारी औपचारिकताएं सारी रस्में पूरी करते हुए. एक अलगथलग और क्रूर समय का अंतिम संस्कार. वायरसनिरोधी विशेष वस्त्रों को पहने हुए. सफेद कपड़े में लिपटी देह को चिता पर रखते हुए. समझना कठिन था वो कौन था, किसकी चिता जल रही थी. कौन लोग थे और दिल टुकड़े टुकड़े क्यों हुआ जा रहा था. मेरी मामी और कॉमरेड मामा आंसू बहा रहे थे. उनके लिए जैसे ये भाई और साले की नहीं, बेटे की मौत थी, ठीक जैसे सुरेंद्र पाल जोशी के दो साल पहले हुए असमय निधन ने मंगलेश चाचा को तोड़ दिया था. मामी का विलाप जैसे आग की लपटों से भी ऊंचा और भारी और तीक्ष्ण था. चाची का दुख उतना ही गहरा और ज़मीन मे न जाने कितना नीचे धंसा हुआ था. हम वहां तक कभी नहीं पहुंच सकते थे. वो सैलाब दिखता न था. बस हम सबने वे दृश्य देखे. यह एक बहुत अचम्भित कर देने वाला समय था सबके लिए. एक बहुत अप्रत्याशित चोट. प्रमोद भैजी ने कहा उस कमरे में दीया है और मेरे जाने की हिम्मत नहीं हो रही है कि कैसे मान लूं कि वो नहीं है वहां. मृत्यु से जगह खाली नहीं होती है वह और भर देती है उस जीवन को उस स्पेस में. और लगता है कोई मृतक वहां लगातार कुछ बोल रहा है. हमसे कुछ कहना चाहता है. कोई कहता है कि जीवन का स्वागत करते हो मृत्यु पर इतना विलाप क्यों. वह भी तो सच्चाई है. यथार्थ है. हां बिल्कुल वह भी यथार्थ है. लेकिन यह विलाप भी यथार्थ है. जीवन के सुख की धूम मचाते हैं तो इस मृत्यु के दुख की अभिव्यक्ति क्यों न होगी. इसमें यादें हैं इतने सारे प्रियजन हैं और रिश्तों की थरथराहट है एक कांपती हुई सांस है. इसे लिखा ही जाना चाहिए.
एक मरा हुआ मनुष्य इस समय
जीवित मनुष्य की तुलना में कहीं ज़्यादा कह रहा है
उसके शरीर से बहता हुआ रक्त
शरीर के भीतर दौड़ते हुए रक्त से कहीं ज़्यादा आवाज़ कर रहा है
एक तेज़ हवा चल रही है
और विचारों स्वप्नों स्मृतियों को फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ा रही है
क्या मेरे साथ संयोग कुछ पहले से घटित होने लगे थे जिनमें सबसे पहला संकेत सबसे पहला आभास भी छिपा था कि स्मृति में मैं अपने चाचा को क्यों याद कर रहा हूं. उस्ताद अमीर ख़ां साब की जयंती आती है अगस्त में एक लेख लिखा था जनचौक के लिए उसमें चाचाजी की भी एक याद है, राजीव मित्तल ने बहुत पहले उन्हे भेजा एक लेख शेयर किया जिसमें जिक्र था कि कैसे चाचा जी के पास रहकर संगीत से नजदीकी हुई थी और गायकों, वादकों और उस्तादों को जाना था. फिर कमरों की याद करते हुए गढ़वाल से ग्लोब तक कैसे कैसे कमरे एक लेख काफल ट्री में अशोक पांडे ने लगाया. अगस्त में पुराने दिनों की उनकी याद क्यों करने लगा था मैं. क्यों हर लेख में उनका उल्लेख करने लगा था. क्या मायने थे इसके. क्यों हो रहा था ऐसा. क्या मैंने पुरानी स्मृतियों को उतारकर ठीक नहीं किया.
(Tribute to Manglesh Dabral)
अलमा के साहस और धैर्य को सलाम है. कितने काम निपटाए जाने थे. हिसाबकिताब की एक नयी, अजीब और बेरहम दुनिया. उसे शायद ठीक से रोने का समय भी न मिला होगा. पिता कितना चाहते थे उसे- दुनिया की सबसे अच्छी बेटी. आज उस जनसत्ता अपार्टमेंट के उस फ्लैट में अनुपस्थिति कितनी विकराल हो उठी होगी. उनका निधन हुए पांचवां दिन था. क्या करूं क्या करूं. मनोहर नायक को फ़ोन मिलाया. उनका बरसों पुराना दोस्त. लेकिन वो तो आख़िरकार वास्तव में मृतकों के जीवन में चला गया था- कामना थी उसकी कि जो नहीं है उनकी जगह ले लूं, उनकी बात कहूं. कवि का अकेलापन डायरी में उसने लिखा थाः
मृतक मेरे, ”कन्सायन्स-कीपर” हैं. मृतकों का अपना जीवन है जो शायद हम जीवितों से कहीं ज़्यादा सुंदर, उद्दात और मानवीय है. इतने अद्भुत लोग, और जिंदगी में उन्होंने कितना कुछ झेला और वह भी बिना कोई शिकायत किए. जो नहीं हैं मैं उनकी जगह लेना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ वे मेरे मुंह से बोलें.
कोई किसी को नहीं बनाता वाली अति-व्यवहारिक दुनिया की दलील मुझ पर लागू नहीं हो पाती. मैं उन्हीं का गढ़ा हुआ हूं. उन्हीं का बनाया हुआ. झपझपाती आंखों और एक हैरान उत्तेजित काया के साथ एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से उठ कर आया हुआ. अक्सर सोचता हूं कि मेरी शख़्सियत में सबसे ज़्यादा मंगलेश दिखते होंगे. गोष्ठियों, पुरस्कारों, भाषणों, आंदोलनों, कविता-पाठों और सोशल मीडिया पर बहुत विज़िबल मंगलेश नहीं, वही पुराने संकोची चुप पीछे खड़े हुए से मंगलेश. ये गुमान में नहीं कहता हूं, बोध में कहता हूं. बड़े मामा कॉमरेड बच्चीराम कौंसवाल की सलाह और कवि पत्रकार प्रमोद भैजी के अपने मामा मंगलेश को भेजे एक पोस्टकार्ड की बदौलत मैं चला आया दिल्ली, पीएसी में पुलिस अधिकारी की लगभग तय होने जा रही नौकरी को ठुकराकर पत्रकारिता की शिक्षा लेने भारतीय जनसंचार संस्थान, आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए. ख़्वाब और उम्मीदें लेकर मैं देहरादून से चला 1993 के किसी रोज़. दिल्ली जब आपको पीलिया हुआ था तब मैं प्रेम में पीला पड़ा हुआ था. प्रेम के दिनों में चाचाजी एक दोस्त की तरह आगे आए. आगे चलकर एक अंतर्जातीय, अंतर्राज्यीय विवाह कभी संभव न हो पाता. असद ज़ैदी जैसा इंसान न मिल पाता, उन्होंने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की पत्रिका में प्रूफ पढ़ने कुछ समीक्षा जैसा करने और कुछ रिपोर्टे लिखने का काम सौंपा था, उससे मिले पारिश्रमिक से आईआईएमसी की फीस भरी गयी थी. नभाटा में रब्बी जी और राजकिशोर जी, हिंदुस्तान में मृणाल जी- क्या संपादक थे वे, समर्थन और प्रेरित करते रहने के लिए कैसे तत्पर, मृदुल, मानवीय लोग आपको अहसास ही न होने दे कि आप नौसिखिया हैं, स्वतंत्र पत्रकार हैं, बेरोजगार हैं, गरिमा सिखाते थे.
हमारे प्रिय कवि और दोस्त राजेश सकलानी ने फोन पर याद किया कि वो आईटीओ जनसत्ता के दफ्तर में चाचा से मिलने आए थे और कैसे मैं भी वहीं पर मिला था. और कैसे चाचा ये कहते हुए मेरे साथ निकल रहे थे कि इसे कोट दिलाना है. कोट खरीदा था आईटीओ के फुटपाथ से. क्या शानदार एक्सपोर्ट वाला कोट घिसा हुआ हल्का सा पर गरम और भव्य. 200 या 250 रुपये का था. मैंने लिखकर कमाए थे. खुद्दारी ऐसे चुपचाप सिखायी जा रही थी. और उम्र के हर पड़ाव पर सीखनी पड़ती है. मैंने उनकी कविता पर 2007 में जर्मनी में रहते हुए एक लंबा सा लेख लिखा और उसमें संगीत, चित्र आदि भी रखे और एक मल्टीमीडिया सी फाइल बनायी और उन्हें भेजी तो उनका पहला रिएक्शन आयाः थोड़ा तारीफ़ हो गयी. मुझे बहुत खिन्नता हुई. तारीफ़ कर रहा था मैं?!. झक मार रहा था मैं?! तारीफ़ कहते हैं इसे?! मैंने उसे किनारे रख दिया. और पिछले ही दिनों उन्होंने कहा एक किताब की योजना है तुम्हारा जो मुझ पर लेख है उसे फिर से देखो और भेज दो. मैंने कहा अच्छा. बाज़ मौकों पर एक दीवार बना लेते थे अपने आसपास. जब उन्हें जंचे तो खुलकर बात कर ली, खिंचाई भी कर ली और जब न जंचे तो चुप करा दिया. ठीक है ठीक है कहकर टाल दिया. अकेलेपन को भेद पाना असंभव था. चिढ़ होती थी. मेरी पहली तारीफ़ उन्होंने एक रात अपने दोस्तों के साथ खा पीकर कमरे से निकलते हुए की थी. मैं डाइनिंग टेबल पर कुर्सी पर बैठा-डूबा मार्केस की वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड को पढ़ रहा था. उन्होंने झूमते हुए और अपनी हल्की सी गर्वीली हंसी में अपने दोस्तों से कहा- ये लड़का लगभग तपस्या की तरह मार्केस को पढ़ रहा है.
गर्व और ख़शी से मुझे झुरझुरी हो आयी. ब्युनदिया खानदान उन रोओं पर उतर आया.
हमने बातें भी ख़ूब की. चाचाजी की बहुत सी बातें. क्या कहें क्या न कहें. न जाने कितने सारे उनके दोस्तों के पास कितनी सारी बातों का कितनी सारी बैठकों का ऐसा खज़ाना होगा. कितनी सारी यादें होंगी अपने अपने ढंग की- कितने सारे लोग थे उनके, कितने सारे दोस्त. कितने सारे प्रियजन. जो उनसे दूर हुए वे भी दूर न रह सके. मंगलेश डबराल सबका इतना प्रिय कैसे बन गया था. क्या करामात थी उसके वजूद में. विपुल आत्मीयता से भरा हुआ. रब्बीजी ने कहा, वो हमारी धुरी था, हमारा चुंबक. और अपने काम के प्रति कैसी निष्ठा, कैसा पेशेवर अंदाज़, रविवारी जनसत्ता एक मील का पत्थर बना तो उसमें आप और आपकी टीम का योगदान था- भला इससे कौन इंकार करेगा. पुष्प विहार वाले घर में कुछ समय पूर्वा भी रहने आयी थीं. नरेश जी की बेटी. कितना भरोसा था आप पर नरेश जी और उनकी पत्नी को. पूर्वा को शायद बीए बीकॉम आदि में दाखिला लेना था डीयू में किसी कॉलेज में. वो पखावज बजाती हैं, शास्त्रीय संगीत और सिनेमा जानती हैं कैसी धुन थी. कैसा जीवन था, चाचाजी ने कैसे सबको जोड़ा हुआ था. छह लोग हम रहते थे एक यूनिट की तरह. और एक दो रात के लिए आने वाले मेहमान तो जो थे सो थे. मोहित अलमा ने मेरा नाम रखा था “दाढ़ी”…दाढ़ी भैया दाढ़ी भैया कहकर चिढ़ाते रहते थे, उनका फ़ितूर! ये सब सोचता हूं तो अकल्पनीय लगता है कि क्या कोई परिवार अब ऐसे रह पाएगा. कोई इतने सारे लोगों को अपने घर में आसरा देगा, हर तरह की मदद करेगा- पैसों से लेकर कपड़ों तक. मुझसे पहले सुरेंद्र पाल जोशी, प्रमोद भैजी, सुशील, मुकेश भाई. नौजवानों के अलावा इलाज कराने वाले रिश्तेदारों परिचितों दोस्तों का तो आना लगा ही रहता था. दिल्ली में नौकरी लगते ही अलग कमरा करने के बाद भी वहां किसी का आना रुका नहीं. छात्र, कवि, पत्रकार- लोगों की ऐसी गहमागहमी मैंने देहरादून मे मां पिताजी के जीवन मे ही देखी थी- किराए के घरों से लेकर पिताजी का अपना दो कमरों का एक कच्चा पक्का मकान हो जाने तक.
(Tribute to Manglesh Dabral)
वीरेन जी आते तो पूरे फ्लैट में एक अलग ही हवा बहने लगती. जैसे कमरे, पर्दे, दीवारें तक सब अपनी अपनी जगह से उतर कर उनके पास जमा हो आए हों. उन्हें मैं ग़ौर से देखता रहता था, और वो बहुत स्नेह से मेरा हाल मेरी पढ़ाई मेरा लिखना पूछते थे. कुछ दिन रुके थे, उन दिनों चाचाजी और मैं ही थे, वीरेन जी आए हुए थे. मैं काम निपटाकर दिन में निकला तो पीछे से आवाज़ आयीः जा रहे हो शिवा, प्यार करने. ठीक है जाओ जाओ, ठीक से रहना अच्छा…मैं भागा. आवाज़ की वो मिठास वो अपनापन वो चहक और वो नटखटी अंदाज़, जब भी याद आता है तो मानो उन्हीं प्रचंड तूफानी लेकिन प्यारे से दिनों में धकेल देता है, कहां चली गयी हैं ऐसी आवाज़ें, आपके पीछे से आने वाली रोशनी की तरह आपको रास्ता दिखाती हुई. कहां हैं वे आत्माएं. पत्रकार लेखक अनुवादक मोहन थपलियाल ने भी कुछ समय गुज़ारा हमारे साथ. वो दिल्ली आए थे एक बार फिर नौकरी की तलाश में और चाचाजी ने उन्हें और मुझे भेजा था माया में. क्या दिन थे. मैं खुद को मोहन थपलियाल के बराबर समझने लगा था. और क्या आदमी था वो. ज़रा भी अहसास नहीं होने देता कि बच्चे हो तुम. कितना प्यारा खुद्दार इंसान. कितना मेहनती और धैर्य से भरा हुआ. बस में आते जाते उनसे मैंने कितना सीखा. सबसे बढ़कर विनम्रता और एक प्रखर स्पष्टता. माया पत्रिका में उन्हें काम मिल गया. और मुझे सिंह सर ने एक दो रिपोर्टे एसाइन कर दीं. चाचीजी को सलाम है और हैरानी होती है कि कैसे करती थी वो खानापीना सबका. उस समय तो सूझता ही नहीं था. बाद में सोचता था कि चाची न होती तो क्या चाचा इतने खुले दिल से अपना दरवाजा हर ज़रूरतमंद के लिए खुला रख पाते. और उन्हीं साढ़े तीन कमरों में आना जाना मेहमान बच्चों की पढ़ाई मैं. एक अबूझ समय था. क्या बताएं. जेएनयू में एक रात उनके कविता पाठ के बाद हम अधचीनी में बस से उतरे. एक कोने पर अंडों का ठेला लगा था. चाचाजी ने कहा भूख लगी है अंडे खाते हैं फिर हमने गरम गरम अंडे उस यादगार नमक के साथ खाए.
लिखाते थे कई बार. जनसत्ता का पहला फीचर जीन्स पैंट की खोज पर था. जीन्स कहां से आयी कैसे आयी और फिर उस फैब्रिक के साथ क्या क्या न हुआ. अमेरिकी समाजशास्त्री जॉन फिस्के की किताब आयी थी, अंडरस्टैंडिग पॉपुलर कल्चर, उसमें जींस को लेकर दिलचस्प समाजशास्त्रीय विवेचना की गयी थी. लेख लिखने के लिए पहले उस किताब को पढ़ना था. दो तीन बार वो किताब पढ़ीं. कुछ नोट्स बनाए. अमेरिकन सेंटर की लाइब्रेरी भी गया. फिर लेख लिखा. चौथी पांचवी बार लिखने के बाद स्वीकार किया गया. स्पान पत्रिका में अमेरिकी अट्टालिकाओं पर प्रकाशित एक फीचर पर आधारित था. और उसे भी चार बार लिखने के बाद फाइनल स्वीकृति मिल पायी थी. हाथ दुख जाते थे, बॉल पेन चलाते चलाते. जैसे खेत में फावड़ा चलाने का काम हो. यही प्रक्रिया हर लेख के साथ चलती. कुछ छपते कुछ एक्सरसाइज़ की तरह हां ना अच्छा कहकर किनारे रख दिए जाते. मैं उन्हें बेशकीमती सामान की तरह अपनी फाइल में घुसा देता. मेरी कमाई थी वो. साकेत के पुष्प विहार में चौथी मंजिल पर हम रहते थे. पढ़ना लिखना संगीत सुनना और दिल्ली को अपने भीतर ढालते जाना. मदर डेयरी, बस नंबर 601, 501, 502, 512. आईटीओ, मंडी हाउस, आईआईएमसी, एनसीईआरटी क्वार्टर.
आज के बुलंद और प्रसिद्ध रविश हों या गुरदीप सप्पल- अपने सभी पूर्व दोस्तों- भावी पत्रकारों, भावी प्रबंधकों, भावी लेखकों के लिए मैं शुरू में कुछ समय एक धागा भी था चाचाजी से जुड़ाव और उन तक आवाजाही का. वे मेरे दोस्त थे और मेरे दोस्त चाचाजी के भी दोस्त थे और भतीजे बन गये थे, आईआईएमसी के साथी, संगीता, सर्वेश सब चाचाजी बुलाते थे. सुनील भट्ट, संदीप नौटियाल, अजय सूद, भूमेश भारती, देहरादून से एसएफआई के साथी आते और सब भतीजे हो जाते. पहले गुरदीप ने फिर सुनील ने मोहित को अलग से पढ़ाया. बाद में कुछ दिन हमारे एक मित्र संबंधी गंगाप्रसाद ने उन्हें ट्युशन पढ़ायी जो सिविल सेवाओं की तैयारी के लिए देहरादून से दिल्ली आए थे. बाल मोहित को पढ़ाना पहाड़ चढ़ने जैसा होता था. चाचाजी चाचाजी चाचाजी- क्या रोमान था इस नाम का. मेरा धागा स्मृति की एक लकीर की तरह मेरे ही अंदर लहराता आ रहा है.
साकेत पुष्पविहार के उस घर में जब दोपहर बाद क्लास कर लौटा तो जगूड़ी जी बैठे थे कमरे में और कह रहे थे शिवा यार बहुत सुंदर कविता लिख दी है तुमने, क्या मंगलेश को दिखायी है. मैंने कहा नहीं, उन्हें तो नहीं दिखायी. अरे कैसे उल्लू हो. उन्होंने काग़ज़ संभाले और कहा आने दो, बताता हूं उसे. मैं रोमांच में सिहरता रहा. देर शाम चाचाजी पहुंचे, जगूड़ी जी से नमस्ते आदि हुई और जगूड़ी ने कहा, यार मंगलेश एक और कवि बन रहा है यहां तो. चाचाजी वही अपनी चिरपरिचित मुस्कान में बोले- लिखता तो है. जगूड़ी ने कहा देखो क्या लिखा है. एक बच्ची को चिट्ठी. और जगूड़ी जी ने खुद पढ़ कर सुना डाली. उस कविता को साकेत से विदा होते होते और मालवीयनगर में नया किराये का मकान बदलते बदलते नया पथ में राजेश जोशी को भिजवा दिया गया. बात ये 1995-96 की है. कुछ सप्ताह गुज़रे तो राजेश जी का पोस्टकार्ड मिला. चाचाजी ने दिखायाः कविता अच्छी है. अगले अंक में लेंगे, आखिर नये कवि को इंतज़ार करना तो सीखना ही चाहिए.
(Tribute to Manglesh Dabral)
थोड़ी निराशा और बहुत से उल्लास के बीच वो पोस्टकार्ड ले गया मैं शालिनी को दिखाने. वो कविता आ गयी. नया पथ का ना जाने कौनसा अंक था वो. वो गॉडफादर नहीं थे, गुरू और सर नहीं थे. उस्ताद नहीं थे. न हम जैसे लोग उनके शागिर्द और शिष्य और चमचे. एक अलग ही नातेदारी थी, पिता पुत्र जैसी धीरे धीर जो घनिष्ठ मित्रता में तब्दील हो रही थी. और निस्पृहता- ये रिश्ता बहुत कड़ा और एक डिस्टेंस का रहा एक मज़बूत तार की तरह. इसमें तनाव भी थे विरोध भी और हल्कीफुल्की कहासुनी थोड़ा आलोचना परिवार के अन्य लोगों के साथ कुछ बहुत निकटस्थ मित्रों के बारे में कुछ उनके साथ. कुछ बहुत थोड़े से मौके थे जब उन्होंने रातों को विह्वलता और बेकली में फ़ोन किए थे और झिंझोड़ दिया था. हम दूर थे सिर्फ़ कुछ शब्द ही बोल सकते थे, ठीक वैसे जैसे आज हम दूर हैं और वे फ़ोन पर हमसे मिलना चाह रहे हैं और हम कुछ नही कर सकते हैं. अभिशप्त कवि तुम्हारा जंजाल हम कैसे मिटाएं.
जब इंटर बीएससी का छात्र था तो देहरादून में कॉलेज में उनकी कविताएं सुनाता था. बड़े से आईने के टूटे हिस्से में गत्ता फंसाकर और उस पर स्केच पेन से रगड़रगड़ कर कविता चिपका दी थी उनकी. संयोग से एक रोज़ वो और मामाजी हमारे घर आए थे. बचपन में भी देखा होगा याद नहीं, ममता दीदी, मनु भैजी और प्रमोद भैजी की शादी में भी मिले थे, बस दूर दूर से ही. कौन जाता इतने बड़े आदमी के पास. लेकिन वो दिन ख़ास था और मेरे लिए थ्रिल था. वे आंगन में बैठे थे और खिड़की पर शीशा टंगा था और वो कविता दूर से ही दिख जाती थी. चाचाजी की निगाह उस ओर उठी, थोड़ा शर्माते और अटकते-हकलाते हुए उन्होंने कहाः अरे मेरी कविता!
सुख दिन में नदी की तरह था दुख रात में नदी की तरह डूबे जाते थे हम.
एक दिन ऐसा भी आना था जब मुझे उनके साथ बैठकी के कई अवसर मिल जाने वाले थे. “दो पैग के बराबर है ये पैमाना,” कांच के धुंधले और लगभग पीले से पड़ चुके एक पैग में व्हिस्की की बूंदे डालकर वो कहते. उठते उठते मैं तीसरा कमा ही लेता. पता नही तीसरे में वो चौथा होता होगा. बैठकी से अधिक बातों का महत्त्व था. सूत्र मिलते थे. अपनी बात रखने का अवसर और राजनीति और कविता और घरपरिवार की बातें. दिल्ली से तो हम 2001 में चले आये देहरादून, रहे नहीं लेकिन जब भी मैं आपके पास आया और कोई आयोजन निकला तो कहा चलो. मुझे कहीं जाने में हमेशा संकोच रहा है. हिंदी के संसार में तो जैसे आगे जाता हुआ नहीं पीछे लौटता हुआ हो जाता हूं. जैसे अपने आप को ही धक्का दे रहा हूं. निकलो निकलो निकलो. चाचाजी कहते थे आओ आओ. फिर उन्होंने देखा कि ये नहीं आएगा तो उन्होंने भी ज़ोर डालना बंद कर दिया.
आप भावुक नहीं होने देते थे. आप ठेलते थे. जर्मनी जाते हुए आपके गले लगकर थोड़ी देर रोने भी नहीं दिया आपने. गले लगाया दूर जाने की रुलाई फूटती इससे पहले आपने झटककर दूर कर दिया. बेरहम. आपने मृत्यु को बहुत देर तक ठेला होगा. कितना दुस्साहस. वो आपके आसपास ही मंडरा रही होगी. आपके भीतर जमा दुख क्लेश आक्रोश और अफ़सोस और चिंता और तड़प और बेकरारी को उसने देख लिया होगा. वो बिल्ली की तरह वहीं कहीं होगी. दबे पांव आतीजाती होगी. आपको अल्मारी से निकालकर आयुर्वेद की दवाओं होम्यपैथी की दवाओं एलोपैथ की गोलियों को निगलते देखा होगा. आपकी आल्मारी में कपड़ों के ढेर के पीछे पड़ी बॉटल्स देख ली होंगी. पैग लेते देखा होगा. आपकी सिगरेट का पैकेट देखा होगा. दराज में.
(Tribute to Manglesh Dabral)
मंगलेश डबराल की कविता में दुख और निराशा का संसार मृत्यु के शिकंजे में न आने पाता था. प्रेम और अवसाद और स्मृति एक बहुत बड़ी कथा का हिस्सा थे. उन कविताओं में नदी संगीत रात पत्थर मां पिता पत्ते बच्चे तस्वीर बर्फ़ बारिश आईना सिनेमा चुंबन, स्त्री की कांपती सिहरती हुई दुनिया थी तो नये युग में शत्रु की शिनाख्त को समझने के सूत्र भी, वहां संकोच में डूबा संगतकार भी था तो जीवित दुनिया को पुकारता गुजरात के एक मृतक का बयान भी. उनकी कविता छूटते जाने का एक विरल गान है, एक ऐसी सिम्फ़नी जो कई उदास दरवाजों से होती हुई बर्फ़ में एक लकीर बन कर उतर जाती है. जब हिंदी में उत्तरआधुनिकता और नवरूपवादी विमर्शो का शंखनाद करते हुए प्रतापियों, सह-प्रतापियों और उनके डिप्टियों और प्रशिक्षुओं के बेड़े घिर आए थे, तब जो बहुत थोड़े से कवि समकालीन पॉलिटिक्ल इकोनमी को सामाजिक विसंगतियों, हादसों और दुर्दशाओं के हवाले से अपनी कविता में उठा रहे थे, प्रतिरोध बना रहे थे, अपने समय के पॉलिटिक्ल सोशल यथार्थ को और आने वाले वक्तों के ख़तरों की आहटों पर लिख रहे थे- उनमें मंगलेश डबराल भी एक थे. बल्कि रघुबीर सहाय के बाद एक तरह से वे ही सबसे प्रमुख कवि हो चुके थे.
दुनिया में मंगलेश डबराल की कविता की जगह उनके ही एक संग्रह के नाम की तरह और उनकी एक कविता की पंक्ति की तरह ही है. आवाज़ भी एक जगह है. उसी तरह उनकी कविता भी एक जगह है. या कहें कि उनकी कविता एक आवाज़ है जिसकी जगह उस पब्लिक स्फ़ीयर में बनी है जो पूरी दुनिया की कविता कला संगीत सिनेमा और संघर्ष के ज़रिए बना है. उन्होंने कविता को न सिर्फ़ बोलने में प्रकट किया है अपने चलने में चौथे माले पर किराए के न जाने कौनसेवें मकान की बहुत सारी सीढ़ियां उतरने और चढ़ने में फ़ोन रिसीव करने बात करने और फ़ोन रखने में मिलाने के लिए हाथ बढ़ाने में दरवाज़ा बंद करने में पर्दा सरकाने में कुछ ढूंढने में कूलर के लिए खिड़की की ग्रिल पर गत्ते फंसाने में अपने बिस्तर को सहेजने किताबों की आल्मारी की झाड़पौंछ करने सिगरेट का कश लेने निष्ठा और दृढ़ता और अनुशासन से अपना गिलास उठाने में किलक कर हंसने में अपनी चुटीली विट भरी टिप्पणियों में अपनी प्रशंसा को बहुत स्थिरता और उदासी से सुनने में किसी बहुत अहम ख़ुशी को शर्मीली हंसी से झिड़क सा देने में किसी को आवाज़ देने में लिखने में कमरों में इधर से उधर चलने भटकने रुकने में ऑटोरिक्शा से कहीं जाने को किराया तय करने में बस से आईटीओ जाते हुए किताब पढ़ने में मेट्रो में खड़े होने या बैठने में और कुछ सोचते जाने में रोज़मर्रा के कामों को निपटाने की एक धुन में और सबसे बढ़कर देखने में कविता आती जाती है.
(Tribute to Manglesh Dabral)
उनकी कविता में इतना कांपना सिहरना भूलना गिरना ठोकरें खाना इतने दृश्य इतनी आवाज़ें और अचरज और अफ़सोस से इतना देखना है कि वो मानो पूरी दुनिया की कविता की बानगी दिखाने वाली कविता-फ़िल्म हो. हिंदी कविता में अंतरराष्ट्रीय कविता की इतनी झलकियां अगर सबसे ज़्यादा कहीं दिखती हैं तो वे मंगलेश की कविता में हैं. वहां आवाज़ों और दृश्यों का बोलबाला है. पर कोलाहल नहीं है. जैसे वो जगह एक साथ कई कलाओं का मिलाजुला रियाज़घर हो अपनी शांति और अपनी बैचेनियों से घिरा हुआ. ठीक ही है…ठीक ही है…शायद…शायद…बुदबुदाता हुआ, माथे को रगड़ता हुआ और रह रह कर गर्दन सीधी करता हुआ एक कवि कारीगर वहां रहता आता है. रिवर्सिबिलिटी और फिर इररिवर्सिबिलिटी वाले कई सारे फ़्रेम्स की कविता है वो. वो ऐसे शुरू होती है जैसे हमेशा से वहां हो. वो अपने ही भीतर चली जाती है. गुमशुदगी उसका एक लक्षण है. और फिर वो सहसा प्रकट हो जाती है आंसू के रूप में या धूप धूल या आवाज़ के रूप में. वो शब्द से दृश्य में दृश्य से आवाज़ में और दृश्य से शब्दों में और वहां से आवाज़ में लौट आती कविता है. आवाज़ शब्द दृश्य. कभी स्थिर कभी गतिशील. कभी इतना गुंथी हुई कि अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि आपने पहले कुछ सुना या पहले कुछ देखा या पहले कुछ पढ़ा.
वे विरोध करती थीं
दूर जाने लगती थीं वहीं से पुकारती थीं
दूर से फेंकती थीं अपनी चमक अपनी परछाई
वे बार-बार ठुकराती थीं उपलब्ध जीवन को
मंगलेश डबराल की कविता वह दृश्य है जो अदृश्य है, वह कविता एक ऐसे अकेलेपन की याद है जो किसी और अकेलेपन में आती है. उनके यहां उदासी और अवसाद धीमे धीमे धधकता रहता है. उनकी रचनाओं में अकेलापन, सिहरन, भटकन और बहुत दूर तक खिंची हुई उदासी और करुणा की लकीरें हैं. मंगलेश की कविता प्रेम से उपजे दर्द और एकाकीपन को समझने वाली कविता है. वहां प्रेम की सामर्थ्य को उसकी बैचेनियों और मासूमियतों और रोज़मर्रा की तक़लीफों के ज़रिए पकड़ा गया है, उनकी कविताएं बहुत ख़ुशी बहुत उत्साह बहुत उम्मीद नहीं ज़ाहिर करतीं. अत्यधिक के विरुद्ध है उनकी कविता का संघर्ष. प्रेम का आधिक्य भी वहां सवालों के घेरे में आने लगता है.
कविता से मंगलेश डबराल के व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है. कविता के पर्दे के भीतर वो रहते हैं और पर्दे के बाहर आते हैं दुनिया में रहते हैं. उन्होंने लिखा भी है कि कवि अपनी कविता के भीतर रहता है और बाहर भी रहता है. ये कोई अजीबोग़रीब बात नहीं है. ये कोई कथित जादुई और टच मी नॉट क़िस्म की कोमलता औऱ शर्मीलापन भी नहीं है. ये रचना की तहों में ही अपने होने की सामर्थ्य है. वहां अपना प्रकाश अपना अंधकार है. विनम्रता और एक अधूरापन है. लाचारी है, साहस है और एक धक्का है.
उनके भीतर था बहुत सा कबाड़ कई घरेलू रहस्य
एक आतशी शीशा
जो इकट्ठा करता था सूरज की रोशनी को
उनमें एक साथ जन्म और मृत्यु का वर्णन था
वे छिपाए रहती थीं अपना शोक
लाचारी को भी इस तरह बतलाती थीं
जैसे वही हो अकेली सामर्थ्य
वहां मनुष्य की नैतिकता उसके जीवट अन्याय से लड़ते रहने की उसकी अदम्यता के लिए एक करुण पुकार है. एक बहुत सरल पर पक्का आह्वान. कविता का ये पर्दा धिक्कार की तरह शोषकों, अत्याचारियों, सांप्रदायिकों और बेईमानों और लालचियों पर गिरता रहता है.
उदासी का एक पर्दा दीवारों से उतरता है
इस तरह बाहर के दृश्य भीतर प्रवेश करते हैं
भीतर की तस्वीरें एक पर्दा हटाकर बाहर जाती हैं
उनकी कविता नाइंसाफ़ी को बेपर्द कर देती है, उसे सामने ले आती है, इसके लिए उसे कभी ढह जाना होता है. वो अकेली रह जाती है. इस अकेलेपन में एक ऐसी नोक है जो टूटकर बर्बरताओं को ठीक वहीं और उसी वक़्त पहचानकर उसे तोड़ने के लिए धंस जाती है. वो चालाकियों और षडयंत्रों को काटती एक नैतिक फांक है. उनकी कविता अपनी बुनावट का अकेलापन नहीं समस्त मनुष्य प्रतिरोध का अकेलापन है.
उसकी कविताओं में उनकी आवाज़ें हैं
जिनकी कोई आवाज़ नहीं थी
उसकी कविताएं मचाती रहीं एक महासंघर्ष का कोहराम
सर पर आसमान उठाए हुए वे चलती ही रहीं
अब वह सुन नहीं पाता बाहरी दुनिया की आवाज़
उसकी कविता के लोग थके-हारे आधे रास्ते में गिरे हुए
उसके भीतर पानी की तरह हलचल करते रहते हैं
(Tribute to Manglesh Dabral)
अपनी छायाएं नाम की कविता ऋंखला में ये भी एक कविता है. अपने अग्रजों के जीवन और विवरण के बारे में बताती हुई अंततः उनमें अपनी छाया की तलाश करती हुई. अपने को खोजने की ख़ुद को परखने की अपना अन्वेषण करने की ये प्रवृत्ति मंगलेश डबराल की कविता की है. वो दूसरों के सामने सवाल रखने से पहले ख़ुद से सवाल करती है. अपने से टकराती है. पर वहां रुदन नहीं है, भावुकता नहीं है, एक निस्पृह क़िस्म की उदासी और एकांत है. वहां ‘कोई रात है और वह आत्मविस्मृति है’ और इस खालीपन की आवाज़ है. और इस खालीपन में अवसाद भरा हुआ है.
मंगलेश डबराल अपनी कविता से जिस आवाज़ की रचना करते हैं उसी से उसकी छवि भी बनाते हैं. वे इमेज के कवि भी हैं. सिने प्रभाव या कहें विज़ुअल इफ़ेक्ट उनकी कविता में नुमायां होता रहता है. पर ये इफ़ेक्ट ही नहीं है ये एक अनुभव है. देखने की जो बिल्कुल एक्सक्लूसिव सी सामर्थ्य मंगलेश डबराल ने अपनी कवि-पत्रकार दृष्टि से विकसित की है उससे उनकी कविता में बरबस सिनेमाई तत्व प्रकट होते रहते हैं.
वह एक स्वप्न है उस जीवन का
जो हमेशा कुछ दिखता है कुछ ओझल रहता है
जिसका एक हिस्सा प्रकाश है एक अंधकार
यथार्थ होते ही नष्ट हो जाएगा
वह स्वप्न
और उसका वह यथार्थ
(Tribute to Manglesh Dabral)
मंगलेश डबराल की कविता उनकी आवाज़ से बनी हुई है. वहां बहुत कुछ और जानने की उत्कंठा हिचक कुछ कह पाने कुछ न कह पाने की हकलाहट और एक मानवीय हड़बड़ी है. आप उन्हें जब बोलते हुए ध्यान से सुनें तो उनकी कविता के अदेखे कोनों में झांक सकते हैं. अंत में मंगलेश की कविता है जो संगीत की ओर अग्रसर होती है. वो उसका बुनियादी स्वभाव है. लगता है उस कविता की रचना संगीत के किसी पानी से ही हुई है.
….नम ह्रदय होठों तक पहुंच गया है और आत्मा भी वहीं निवास करने लगी है. यह एक ऐसा क्षण है जब एक फूल खिलता है कोई छोटी सी चिड़िया उड़ान भरती है कहीं तारे चमकते हैं पृथ्वी के नीचे से पानी बहने की आवाज़ आती है लेकिन प्रकृति की ये सहज चीज़ें अस्तित्व को कंपा देनेवाले तरीक़े से घटित होती हैं.
गद्य से ही बनता था कविता का रास्ता. मंगलेश अपने गद्य के भीतर रहते हैं. यात्रा वृत्तांत एक बार आयोवा से लेकर एक सड़क एक जगह तक और शमशेर बहादुर सिंह की कविता और ऋत्विक घटक के सिनेमा से लेकर ज्ञानरंजन के एक निजी पोर्ट्रेट और अमीर ख़ान के सांगीतिक मूल्य तक, मंगलेश डबराल का गद्य जैसे कविता का ही एक पहाड़ी घर है. हमारे यहां दो मंजिलें होती हैं, उपर वाला बौंड और नीचे वाला ओबरा कहलाता है. ओबरा था उनका गद्य जिसकी सीढ़ियों से होते हुए कविता की एक जादुई तिबारी में हम पहुंचते हैं. आख़िर अपनी पहली और शायद अकेली कहानी “आया हुआ आदमी” की प्रशंसा में ज्ञानरंजन का पोस्टकार्ड भी तो वहीं पर मिला था आने वाले समय के कवि को- अपने उस काफ़लपानी गांव के उस घर में.
उनका जीवन उनके गद्य जैसा सरल सहज और प्रवाहपूर्ण नहीं था. वो कठिन था उसमें जटिलताएं और रोजमर्रा के अवरोध थे. वो बहुत खुरदुरा और थकान और उदासी से भरा हुआ था पर उसमें ज़ेहन की निराशा और दिल की उम्मीद भी भरी हुई थी. कह सकते हैं कि ऐसे ही उत्तप्त जीवन का ही हासिल था वो गद्य. पहाड़ों में खुरदुरी सख्त लेकिन घास और काई से ढकी हुई द्रवीली चट्टानों से बहता हुआ आता एक धारा, पानी की एक छोटी सी लकीर. हम कभी नहीं जान सकते कहां से वो पानी चला होगा. इतालवी दार्शनिक अंतोनियो ग्राम्शी के मशहूर उद्धरण “पेसिमिज़्म ऑफ द इंटेलेक्ट, ऑप्टिमिज़्म ऑफ द विल” को उन्होंने अपने शब्दों में “पेसेमिज़्म ऑफ माइन्ड ऑप्टिमिज़्म ऑफ हॉर्ट” लिखकर अपने फ़ेसबुक पेज के शीर्ष पर लगाया था.
(Tribute to Manglesh Dabral)
लिखते थे, लेख आदि भेजते थे, कविताएं भी और देशी विदेशी कवियों की अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद भी करते थे. लगातार काम. लगातार काम. लिखना. लिखना. हिंदी में शायद इतनी मेहनत करने वाले 70 पार वो बहुत थोड़े से कवि-लेखकों में रहे होंगे. लंबे समय तक किराए के मकानों में रहते आए, न कोई कोष, न पेंशन, न मानदेय. जद्दोजहद. मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बावजूद आंखों पर इतना ज़ोर. दिल से गुज़रती धमनियों का रास्ता बनाने के लिए स्टेन. दूसरी छिटपुट व्याधियां. न जाने कौनसी ऐसी विलक्षण ज़िद थी काम में डूबे रहने की. सबको सोशल मीडिया वाला मंगलेश ज़रूर दिखता रहा, लेकिन उस श्रमजीवी और कठिन हालात से जूझते हुए बूढ़े हिंदी कवि को भाषा का मुदित संसार कभी नहीं जान पाएगा. कवि अपनी कविता के ज़रिए बेशक दुनिया में रहता है और जाना जाता है लेकिन ये भी जान लीजिए वो कविता में ही नहीं सब कुछ उड़ेल कर रख देता. उसके जीवन की फ़िक्र किया जाना भी उतना ही अनिवार्य है जितना कि उसकी रचनाओं का आस्वादन. हिंदी में न जाने कब ये निस्वार्थ शुरुआत हो पाएगी.
उनका जर्नलिज़्म! ये आदमी मानो सृजनात्मक सामर्थ्य का पहाड़ लेकर उतरा था. और लेखन और संपादन का अद्वितीय कौशल हासिल करने की अपनी लगन का ही नतीजा था कि वो यूं तो लखनऊ में अमृत प्रभात से जान लिए गए थे लेकिन दिल्ली में रविवारी जनसत्ता की अपार लोकप्रियता, विश्वसनीयता और सफलता के प्रथम नायक-संपादक के रूप में वो प्रतिष्ठित हैं. फिर कुछ समय उसके संपादकीय पेज के प्रभारी भी रहे. राष्ट्रीय सहारा, सहारा समय को अपना जादुई स्पर्श और पेशेवर संपादकीय कौशल देकर, पब्लिक एजेंडा जैसी पत्रिका को जीवंत बनाकर उसे हिंदी के पाठकों और इंडिया टुडे हिंदी, आउटलुक हिंदी जैसी पत्रिकाओं के बीच खड़ा कर दिया था. क्या शीर्षक क्या खबरें क्या चयन. और फिर शुक्रवार- पत्रिका की मानो पूरी रंगत ही बदल गयी थी. ये महज प्रशंसाएं नहीं हैं, ये तथ्य हैं और देखे जा सकते हैं. दस्तावेज हैं, साक्ष्य हैं और पाठकों की स्मृतियां हैं. लेखकों की भागीदारी है. इन पत्रिकाओं के सफल संपादन के बाद उन्होंने बता दिया था कि वो महज साहित्य के संपादक नहीं थे. भाषा, संस्कृति और वृहद राजनीतिक चेतना से संपन्न रचनाधर्मी थे. वो ठेठ पॉलिटिक्ल खबरों को शीर्षक फोटो और उसकी भाषा में पठनीयता और रोचकता पैदा कर सकने का कमाल जानते थे. वो व्याकरणीय शुद्धतावाद और पांडित्य प्रदर्शनप्रियता से बहुत दूर रहते थे. उन्होंने भाषा को सवर्णवादी नैरेटिव से मुक्त कराने में अपना रोल निभाया था. आने वाले समय में संभव है कोई जिज्ञासु शोधकर्ता, रविवारी जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा से लेकर पब्लिक एजेंडा और शुक्रवार जैसी पत्रिकाओं में उनके संपादन काल का अध्ययन करे.
लोग अक्सर उन्हें सोशल मीडिया पर सक्रिय व्यक्ति के रूप में देखते होंगे लेकिन उनके कम्प्यूटर स्क्रीन के आसपास कितना काम कितना अनुवाद कितनी योजनाएं बिखरी हुई थीं. आज यहां लेख, कल वहां अनुवाद, किताब का अनुवाद, किसी संकलन की तैयारी- पैसा कमाना तो ज़रूरी था ही- हिंदी से इतर साहित्यिक संसार में आवाजाही भी ज़रूरी थी. चाचा के लिए ये एक पॉलिटिक्ल कार्रवाई थी. ये दिनरात की हाड़तोड़ मेहनत जरूरी थी. श्रम और पसीना ज़रूरी था. वो लिखकर और बोलकर प्रतिगामी ताकतों को, साम्प्रदायिकों और फ़ाशिस्टों को जवाब देने की कोशिश कर रहे थे. वो लगातार नज़र रखते थे विश्व कविता में नया क्या लिखा जा रहा है. कौन कहां युवा कवि हैं, विदेशी कवियो से संपर्क में रहते थे. अमेरिका और यूरोप के समकालीन साहित्य हल्कों में उन्हें और करीब से देखा जाने लगा था, उनकी कविताएं अंग्रेजी और यूरोपीय भाषाओं में अनूदित होकर आदर से याद की जाने लगी थीं. एक जर्मन शहर ने उन्हें अपने ही ढंग से याद किया था. भारतीय भाषाओं के कवियों से भी उनका दोस्ताना था. ये अनायास नहीं है कि वो भारतीय भाषाओं में भी लोकप्रिय थे और वहां के कवियों और पाठकों में जाने जाते थे. आईआईटी मद्रास में बेटे की अंग्रेजी प्रोफेसर और मशहूर अंग्रेजी कवि के श्रीलता ने उनकी बीमारी की वायरल हुई सूचना देखकर उसे ईमेल किया था कि मंगलेशजी क्या बहुत बीमार हैं और उनके लिए दुआ की थी. उनके चले जाने से वो भी स्तब्ध थीं. संयोग ही है कि 2019 में पहल के एक अंक के लिए, श्रीलता जी की अद्भुत कविताओं का अनुवाद उन्होंने ही किया था. और श्रीलता अभिभूत थीं. आज उनके न रहने की देशव्यापी निराशाएं और अफ़सोस उमड़ आया था, बहुत से लोग अपने अपने कोनों में अपने अपने दिलों में बिलख उठे थे.
(Tribute to Manglesh Dabral)
27 नवंबर 2020 को अस्पताल ले जाए जाने से पहले तक फेसबुक पर न सिर्फ सक्रिय थे बल्कि लगातार अपनी उपेक्षा भी कर रहे थे. वो पता नहीं क्यों जैसे एक ज़िद की तरह अड़े हुए थे. जैसे आगामी मृत्यु की आखिरी चालें उनके तर्क, विवेक और निर्णय के रास्ते में आ गयी थीं और मंगलेश उनसे जूझ रहे थे. वो क्यों परीक्षण न कराने पर आमादा से थे. अपने हाल के प्रति इतना विश्वस्त रह पाने और उस दुस्साहस में भी न जाने कैसा रोमान था. लेकिन क्यों. क्यों. क्यों. आज ये सवाल हथौड़े की तरह बज रहे हैं. एक भीषण आघात उनके प्रियजनों के दिलों पर आ गिरा है- इसका लंबे समय तक हटना नामुमकिन है और ये किसी तरह जब हटेगा तो अपने निशान छोड़ जाएगा, हमेशा के लिए. 23 नवंबर को रात पौने नौ बजे उन्होंने फ़ेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी बुखार पर. इस लंबे पोएटिक नोट का अंश भी आसन्न मृत्यु से घिरे कवि-गद्यकार के लेखन का एक उत्कृष्ट उदाहरण बन गया, उनकी रचनाशीलता का मॉमेंटम, साहस, ताप और ताज़गी बीमारी के उस हाल में भी बनी हुई थी और निजी व्यथाओं की भावुकता और घबराहट और हायहाय से निकालकर कैसे उन्होंने स्मृति और समय के दूसरे छोरों पर फड़फड़ाने के लिए अपने उस कोमल सांगीतिक गद्य के कांपते तार में टांग दिया था. कवि मंगलेश ने अंतिम समय के बुखार का गद्य लिखा.
बतौर कवि गद्यकार ही नहीं, बतौर पब्लिक इंटेलेक्चुअल भी अंतिम समय तक मुस्तैद थे. 2014 पश्चात् उनकी सामाजिक राजनीतिक सक्रियता में नये तेवर देखे जा सकते हैं, एक नया उफ़ान. पिछले कुछ साल से सोशल मीडिया पर वे उस विशाल वर्चुअल कुएं में झांकने का साहस करते हुए संभवतः किसी उपचार की तलाश में थे जिसे ही दुनिया समझकर लिबरल कही जाने वाली लेकिन मौकापरस्त और अपनी वैचारिक और नैतिक ज़मीन से लुढ़कती रहने वाली लेखकों-बौद्धिकों की बिरादरी यहां से वहां भेस बदलबदल कर आ जा रही थी. क्या उन्हें भी अंदाज़ा होने लगा होगा कि वे चूल्हे के लिए आग गलत घरों में खोज रहे थे. और जब उन्हें हृदय से चाहने वाले लेकिन उन पर कभी जाहिर न होने देने वाले साथियों, उनके सच्चे प्रशंसकों ने उन्हें ये बताने की कोशिश की तो वे थोड़ा बिगड़े, तुनक गये, चिढ़े, क्षुब्ध हुए. उन्हें लगता था कि एक व्यापक पॉलिटिक्ल पब्लिक इंटरेस्ट के लिए उनका स्टैंड सही है. मंगलेश डबराल का एक निजी मार्क्सवाद था. इस मार्क्सवाद में बाहर देखने वाली खिड़कियां थीं लेकिन उनसे अंदर भी देखा जा सकता था- वो एक विषम समय और एक कठिन लड़ाई, अंतर्विरोध, अपमान, छींटाकशी, आरोप, विवाद और वित्त से बस जूझते रहे. जूझते रहे.
(Tribute to Manglesh Dabral)
और आख़िरकार अस्पताल के बिस्तर पर मृत्यु से जैसे कुछ समय और देने की एक खुद्दार मांग करते हुए आपने फोन पर फेसबुक खोल ही डाला और कांपती अंगुलियों से कुछ शब्द लिखने की कोशिश की. एक दिसम्बर को शाम के साढ़े सात बजे थे. उनका हाथ अपने उस फोल्डर पर गया होगा. उनका कोई एल्बम फोल्डर था 17 नवंबर 2016 को हुए मुंबई पोएट्री फेस्टिवल का (जिसमें भारतीय कवियों की वर्कशॉप थी और परस्पर अनुवाद का काम भी उसमे शामिल था. बहुत ख़ुश थे वो उस आयोजन से) कम्प्यूटरों और मोबाईल फोनों की स्क्रीन पर गड्डमड्ड अक्षर उभरे वे भी मानो मंगलेशीय दर्शन के सूत्र बन गयेः ,e by see P.
एम्स के बिस्तर से अगले रोज़ आपने असद ज़ैदी को कोई कविता सुनायी टूटीफूटी हांफती आवाज़ में. असद जी बोलेः ओह कवि, कविता यहां भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती. आपने प्रमोद भैजी को कहाः प्रमोद ग्लेनलिवेट कितने की होगी, लाकर रखवा दो. अलमा से कहाः मैं थक गया हूं. चुनिंदा घनिष्ठों और अपनी कुछ बहनों को फोन भी उन्होंने बैचेनी और व्यग्रता में कर डाले थे उस दिन. डॉक्टरों ने कहा फ़ोन से वो स्थिर नहीं रह पा रहे हैं. हटाना होगा. लेकिन एक चीज़ तो उस भीषण आईसोलेशन में थी जो उन्हें बाहरी संसार से अपने संसार से जोड़े हुए थी- वो कैसे हटाया जा सकता था- अलमा ने वहीं रहने दिया. अलबत्ता ये अपील रवींद्र जी के ज़रिए करवा दी गयी कि चिंतित प्रियजन उन्हें फोन न करें. खैर अगले रोज़ ही तो वो वेंटिलेंटर पर रख दिए गए.
पांच दिसंबर. आपने मुझे भी फ़ोन मिला दिया थाः शिवा, शिवा कैसे हो बेटा, शालिनी जयत सिद्धि कैसे हैं, तुम सबको बहुत याद करता रहता हूं. निमोनिया हो गया है. ठीक तो हो जाऊंगा बहुत समय लगेगा. और और जयत का संगीत भेजो मुझे. उसका गायन सुनूंगा. ये सब हांफते हुए बोले जा रहे शब्द थे, अटक अटक कर जैसे मृत्यु को छकाने के लिए कोई गोरिल्ला कोशिश, दीवार फांदने की जुगत. और इधर कैसा संयोग था कि दूसरे कमरे में जयत अपना रियाज़ कर रहा था. और इस कमरे में हूक से बंधा हुआ मैं था. रुलाई को ऐसे थामे हुए जैसे आईटीओ से साकेत आती ठसाठस भरी बस में रॉड से लटके हुए आपके पास खड़े हुए मैं और आप अपने अपने झोले संभाले रहते थे, अब गिरे कि तब. कभी नहीं गिरे. कस कर थाम रहे. रुलाई को मैंने आपकी कांपती आवाज की छड़ पर बांध दिया जिस पर आपने अपना साहस और अपनी ज़िद बांधी हुई थी, क्या आपने वो सुना मैंने अपनी आवाज़ में आपको फ़ैज़ की नज़्म (मुलाक़ात) रिकॉर्ड कर भेजी हैः (…ये ग़म जो इस रात ने दिया है, ये गम सहर का यक़ीं बना है. यक़ीं जो ग़म से करीमतर है, सहर जो शब से अज़ीमतर है.) नहीं कहां सुन पा रहा हूं, ये मुझसे खुल ही नहीं रहा. मैंने रुंधे गले से कहा हम नये साल का जश्न साथ मना रहे हैं. आप ये जान लीजिए. बस आप मनोबल बनाए रखिए. और एक हल्की सी हांहूं हम्म.. और फोन कटा. फिर तीन बार घंटी बजी. नाम स्क्रीन पर उभरा, कॉल रिसीव की और उधर से कुछ मशीन खिसकाने कुछ खटरपटर की आवाज कुछ अजीब सी आवाज़ें- कहां की थी वे आवाज़ें, कहां से बात कर रहे थे आप- क्या दूसरी जगह चले गये थे. क्या आपने हेडऑन करने की ठान ली थी मृत्यु से, आमनेसामने की दुस्साहसी लड़ाई एक शक्तिशाली शत्रु के ख़िलाफ़. मैंने हलो हलो हलो किया फिर फोन काट दिया फिर फोन आ गया फिर रिसीव किया और फिर वही आवाज़ें वही डरावनी भुतहा सी आवाज़ें. और फिर फोट कट गया. क्या कहना चाहते होंगे आप और कोई न रहा होगा जो आपको फोन मिलाकर दे देता. मैंने फ़ौरन जयत का कुछ रियाज़ भेज दिया. राग भोपाली में गायी निराला की गहन है अंधकारा कविता भी. और अलमा और प्रमोद भैजी को ताकीद कराता हुआ एक मैसेज भी कि अगर सुन पाएं और डॉक्टर अनुमति दें तो उन्हें सुना दें और चाचाजी के लिए एक संदेश भी लिख दिया कि भारत के कोने कोने से लोग आपके लिए दुआएं कर रहे हैं, आपको सब बहुत प्यार करते हैं, आपकी सलामती चाहते हैं. और दिल में ये कामना कि आप इसे पढ़ लेना चाचाजी- प्लीज़ पढ़ लेना.. मेरी कामना रह गयी. अगले रोज़ वे वेंटिलेटर में रख दिए गए. यह संताप जीवन भर रहेगा. न जाने कितने ऐसे अपनों के संदेश पढ़े बिना वो गये.
(Tribute to Manglesh Dabral)
चाचाजी अपनी कविता की तरह गये आप, वो जैसे कहीं बीच में अटके हुए पत्ते अटके हुए आंसू अटकी हुई बूंद और अटके हुए पत्थर की तरह. आया तो वो एक सिलसिले की तरह होगा लेकिन सबको यही लगा होगा कि एक तेज़ झपट्टा आपको इस समय से खींच ले गया. आपने फिर से जन्म ले लिया है और आप यहीं हैं एक बार फिर काफलपानी वाले घर से उतरते हुए सड़क पर रोडवेज़ की बस में बैठते हुए शहरों की धूल फांकने के लिए आते हुए. कोई यहां कैसे रह सकता है अचरज करते हुए और फिर वहीं रह जाते हुए. स्मृति का पत्थर जसकातस पड़ा रहेगा. उसे कोई नहीं हिला पाएगा. न तूफान न बारिश न कोरोना न मृत्यु.
गुब्बारे जलबुझ रहे हैं, नीले गुब्बारे के भीतर लाल प्रकाश फूट रहा है और हरे गुब्बारे के भीतर भी और लाल गुब्बारे के भीतर भी लाल प्रकाश जगमग जगमग कर रहा है. जलती बुझती इस रोशनी से हमारी नींद में बाधा आ रही है. हमारी आंखें फूली हुई हैं, हमारे दिल भरे हुए हैं हमारे गुर्दे और फेफड़े चल रहे हैं. चाचा जी हम लोग ग़म खा रहे हैं. और खाना चबा रहे हैं. जीवन चल रहा है. किताबें बन जाएंगी आपको याद करते हुए, आपकी कविता, आपका गद्य, आपकी पत्रकारिता, आपकी सामाजिकता, आपका सोशल मीडिया, आपका एक्टिविज़्म. लेकिन जो किताब नहीं लिख पाएंगें जो कागजों में अपनी याद नहीं दर्ज करा पाएंगें, जो फेसबुक या वॉटसऐप या ट्विटर नहीं जानते, वे क्या करेंगे, वे किससे अपना दुख कहेंगे किसे बताएंगें कि वे मंगलेश को कितना चाहते थे. और उन्हें उसका जाना समझ ही नहीं आ रहा है. जैसे कोई फ़िल्म सहसा ख़त्म हो जाए.
(Tribute to Manglesh Dabral)
शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं. संपर्क: joshishiv9@gmail.com
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