यात्रायें क्या हैं?
किसी के लिए उदेश्यों की पूर्ति, किसी के लिए परिस्थितियों से भागना, किसी के लिए हवाख़ोरी, किसी के लिए नये परिवेश और वहां की ज़मीन और आब-ओ-हवा को समीप से महसूस करना. (Travelogue of Lohaghat to Nainital)
दरअसल यात्रायें सौंदर्य बोध का लेखा-जोखा और जिज्ञासु वृत्ति को खाद-पानी जुटाने के लिए की गयी घुमक्कड़ व्यवस्था भी है. किंतु सभी के लिए यात्राओं का हासिल केवल ज्ञान अर्जित करना ही नहीं महज़ तफ़री भी हो सकती है, किसी के लिए मौसमों का मिजाज़ जानने और स्वयं के मिजाज़ में बड़ी तब्दीली के लिए भी यात्रायें तय की जा सकती हैं.
अपनी यात्रा के संदर्भ में कहूं तो मेरे द्वारा तय किये गये सफ़र किसी उदेश्य की पूर्ति के लिए नहीं किये गये किंतु प्रकृति प्रेमी होने के नाते मेरे सफ़र मेरे भीतर के प्राकृतिक सौंदर्य बोध की वृत्ति का ही परिणाम हैं, यही कारण है कि ट्रेवल सिकनेस के बावज़ूद भी मैंने हमेशा शहर से गांवों और प्रकृति के सघन क्षेत्रों में ही यात्रायें आयोजित की हैं स्वयं के लिए.
यात्रायें और सफ़र ज़रूरी होते हैं. ज़िंदगी में कुछ अर्जित करने हेतु ताकि दिमाग की कोशिकाओं को शिथिल होने से समय-समय पर बचाया जा सके. दरअसल दिमाग की उर्वरता को बनाये रखने हेतु इसे समय-समय पर खाद-पानी देना नितांत ज़रूरी है.
हालांकि इस नियमावली का अनुसरण सभी के लिए अपरिहार्य नहीं है कुछ के लिए यह सफर उदेश्यहीन, मौसमों की फितरत जानने, अपने व्यवहार में तब्दीली लाने और महज विश्रांति के लिए भी हो सकती है.
सन 2006 में मेरे द्वारा उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं जिले के लोहाघाट से नैनीताल तक की गयी यात्रा के दौरान कहां मुझे भान था ? कि तय किये गये सफ़र महज़ घुमक्कड़ी ही नहीं अपितु प्राकृतिक, भौगोलिक, एतिहासिक, प्रागैतिहासिक, परंपराओं, संस्कृति, सभ्यताओं धरोहरों, मंदिरों, वन संपदाओं, पारिस्थितिकी, जैवविविधता अथार्त चर-अचर को जानने का बहुआयामी सुअवसर भी हैं. या यूं कहूं कलम यात्राओं के हासिल को किस व्यापकता तक समेट कर परिभाषित कर सकती हैं यह प्रसंग मेरी चेतना से परे था.
देहरादून से लोहाघाट जाकर, नैनीताल तक की गयी उस रोमांचक यात्रा को अपनी स्मृतियों के पटल से कागजों में सिरेजने का प्रयास कर रही हूं. जाने-अनजाने और अवचेतन में जो भी था, जैसा भी था उस समय जितना भी सहेज पायी आज ज़ेहन पर ज़ोर देकर उन धुसर स्मृतियों को मेरी नज़र से आप सभी पाठकों के हवाले कर रही हूं.
यात्रा वृत्तांत से पूर्व पाठकों को लोहाघाट के परिचय से रुबरु कराना ज़रूरी है मेरे लिए जिसका कि एक-एक पल तो जिया है मैंने किंतु इतने सालों बाद पाठकों को अपनी आंखों के वितान से घूमा पाने में कितना सफल हो पायी यह तो आप सभी पर ही निर्भर करेगा.
लोहाघाट चंपावत जिले में लोहावती नदी के तट पर स्थित एक पर्यटन स्थल है. 1754 मीटर की ऊंचाई पर स्थित लोहाघाट पिथौरागढ़ से 62 किलोमीटर की दूरी पर है. लोहाघाट के इस प्राचीन शहर के एतिहासिक व पौराणिक महत्त्व का इसी बात से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि लोहाघाट के भीतर ही बहुत से पर्यटन स्थल हैं जिसमें देवीधार,फोर्ती,मायावती आश्रम,एबटमाउंट,ज्ञानेश्वर,बाणासुर का किला,झूमाधुरी आदि विशेष स्थल हैं.
साल 2006 में दूसरी बार उम्मीद से हूं, सातवां महीना है. पांच महीने तक गर्भावस्था के दौरान शरीर और प्रतिकूल स्वास्थय की विषमताओं से लड़कर थोड़ा अच्छा महसूस कर रही हूं. यह तो याद नहीं कि इस परिस्थिति में इतना दूर लोहाघाट क्यों जाना हुआ? एक मुख्य कारण निश्चित तौर पर तो यह ही था कि जीजाजी जो कि वन अधिकारी हैं और उस समय लोहाघाट पोस्टेड थे उन्हीं के बुलाने पर हमारा वहां जाना हो पाया होगा.
मेरे लिये यात्रायें केवल शारीरिक गतिशीलता ही नहीं किंतु मानसिक उथल-पुथल भी रही हैं. ट्रैवल सिकनेस के कारण बहुत सतर्कता से कई दिन पहले स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करना होता है फिर कल सुबह निकलने से एक-दिन पहले ही उल्टी की दवा लेकर शरीर और मष्तिष्क को सफ़र के लिए दुरुस्त करना होता है. कभी-कभी ये दवा भी असर नहीं करती और अधिकांश सफ़र निढाल और उनींदी आंखों से तय करने के परिणामस्वरूप मेरे अधिकतर सफ़र अर्थहीन व बेजान ही साबित हुए हैं.
अपनी महिला डाक्टर से सलाह लेकर सारी हिदायत को अपने साथ बांधे मैं बड़ी बेटी, पतिदेव, बीच वाली बहन और उसका बेटा सुबह पांच बजे अपनी कार से लोहाघाट के लिए रवाना हो गये. देहरादून से लोहाघाट लगभग ग्यारह घंटे का सफर है इससे ज़्यादा भी हो सकता है इस बात से हम अच्छी तरह से वाकिफ़ थे. डाक्टर की हिदायत के अनुसार मुझे पूरे सफ़र के दौरान कार में कमर पर तकिया टिकाकर चलना है. बहन का बेटा देहरादून क्रास करते ही पूछने लगता है, “अभी कितना दूर है मौसाजी ? “सुनकर हम सभी को हंसी आ जाती है. उसके मौसाजी कहते हैं, “बेटा अभी मुंह बंद करके बैठे रहोगे तो अच्छा है मुझे स्वयं नहीं मालूम कि कब हमें हमारी मंजिल का छोर मिल पायेगा.”
सड़क लगभग खाली है और हम सुबह-सुबह तेज रफ्तार से चल रहे हैं ताकि जितना हो सके धूप की गैर मौज़ूदगी में रास्ता तय कर सकें .नजीबाबाद तक सुबह की छांव ने हमें शरण दी हुई थी किंतु रूद्रपुर तक पहुंचते-पहुंचते सुबह ने हमारा हाथ छिटक कर तेज धूप और भीषण गर्मी को सौंप दिया, वहां पर गाड़ी रोककर हमने कुछ ठंडा पेय और ताज़ा फल लिये यह सोचकर कि आगे अब कहीं नहीं रूकेंगे पतिदेव से पूछने पर पता चला कि रुद्रपुर के बाद अगला गंतव्य टनकपुर है टनकपुर का नाम सुना ही है आज गुजरेंगे वहां से.इतना भर सुना है कि टनकपुर पूर्णागिरी मेले के लिए प्रसिद्ध है.रुद्रपुर की दोपहर की चिलचिलाती, झुलसाने वाली गर्मी है हम सभी पसीने से तर-बतर कार में बैठे-बैठे परेशान हो गये हैं. सड़क के किनारे फैक्ट्रियां ही फैक्ट्रियां रूखा सा इलाका फिर काशीपुर सामान और सवारियों से लदे ट्रैक्टर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हमसे होकर गुज़र रहे हैं. न जाने कितना चलना होगा लोहा घाट के लिए अभी?
टनकपुर के बाहर-ही बाहर क्रास होना था हमें मगर यह क्या? हम कौन सी जगह पहुंच गये हैं?यह तो पूरा का पूरा आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ाये संभ्रात गांव नज़र आ रहा है.ऐसा गांव गोया अनुशासन में ढला हुआ. करीने से पांत में लगे हुए घर, हर घर के आगे एक हैंडपंप और एक ट्रैक्टर खड़ा हुआ है. सड़क के दोनों तरफ गन्ने के खेत ही खेत.सूर्य प्रचंड है, धूप अपने चरम पर किंतु गन्ने के खेतों का सीना चीरती हुई सड़क और उस पर दौड़ती हमारी कार सुखद तो है इस गांव के बीच में होना किंतु हम सभी को महसूस हो रहा है कि जहां से हम चलते हैं दोबारा फिर वहीं पहुंच जाते हैं. ऐसा एक नहीं दो-तीन बार हो गया है. हम इस गांव से बाहर मुख्य सड़क तक पहुंच ही नहीं पा रहे हैं. अभी बहुत दूर जाना है. ख़ामख़्वाह वक्त ज़ाया हो रहा है आलम यह है कि भीषण गर्मी के कारण गांव में एक परिंदा भी पर नहीं मार रहा है.सही रास्ता पूछें तो किससे पूछें?
सहसा सड़क के किनारे एक बुजुर्ग सिख हमारी ओर ही आते नजर आ रहे हैं, उन्हें समस्या बताने पर उनका जवाब था, “आप तो बहुत आगे आ गये हो, वापस मुड़ना होगा आप लोगों को.” उनके कहे अनुसार हम वापस मुड़ गये और जैसी कि उम्मीद थी हम मुख्य सड़क पर पहुंच गये थे. सीधे समतल टनकपुर से हम अब ऊपर की ओर चढ़ाई चढ रहे हैं. सूरज पेड़ों के झुरमुटों में कभी आगे कभी पीछे होकर लुका-छिपी कर रहा है. हम कभी उनींदे कभी नींद में हिचकोले खाकर लोहाघाट पहुंचने के लिए कृतसंकल्प होकर कार में सवार हैं. बच्चे थककर गहरी नींद में सो रहे हैं. पीली चिकनी,मिट्टी से बनी हुई घुमावदार सड़क, कहीं बुलडोजर और सड़क पर काम करते मज़दूर राहत की बात यह है कि सूरज नम पड़ गया है, जैसे-जैसे हम चढ़ाई चढ रहे हैं गर्म हवाओं में एक ठंडी सिहरन पैदा होती महसूस हो रही है, हमारे पसीने में भीगे हुए बदन सूखकर ठंडे होते जा रहे हैं. इतना लंबा समय तय कर लेने के बाद भूख भी बेकाबू हो रही है. अपने साथ जो आलू पूरी लेकर चले थे वह भी खत्म हो गया है. इस वीरान रास्ते में हम उम्मीद बांधे बैठे हैं कि शायद कुछ खाने को मिल जाये और उम्मीद ने हमें निराश नहीं किया थोड़ा आगे चले ही थे कि सड़क पर एक ढाबा नज़र आया. उससे उठता धुंआ हवा में घुलकर हम तक पहुंच रहा था. उम्मीद यही थी हमें कि कुछ तो हमें यहां मिलेगा ही खाने को. थके हुए और भूखे तो थे ही यहीं थोड़ी विश्रान्ति का मन बना लिया. हम सभी उतावले होकर एक-एक कर कार से उतरे शरीर की अकड़न कम करने हेतु लंबी अंगड़ाई ली. बच्चों ने दौड़कर ढाबे के भीतर जाकर देखा उनके लिए वहां कुरकुरे, चिप्स सबकुछ उपलब्ध था और क्या चाहिए था उन्हें? पतिदेव ने बाहर आकर बताया कि “छोले उपलब्ध हैं खाओगे?” हमने सहर्ष सहमति दे दी .
मैंने अपनी ज़िंदगी में महसूस किया है की कई मर्तबा कई चीजें हैसियत नहीं रखती हैं हमारे जीवन में किंतु एक विशेष परिस्थितीजन्य माहौल उन्हें खास तवज़्जो दे देता है. कहा जाये तो छोले साधारण ही बने हुए थे बहुत मिर्च मसाला और पानी ही पानी था उसमें किंतु स्टील की प्लेट में फैले हुए गरम-गरम छोले उनमें कटा हुआ प्याज डला हुआ कह नहीं सकती किस प्रकार की अद्भुत स्वादानुभूति दे रहा था ? जिसका परिणाम था कि हम दो तीन प्लेट एक साथ खा गये. उन छोलों का स्वाद जो उस यात्रा के दौरान मैंने अनुभव किया आज भी मेरी जिहृवा में जीवंत विद्यमान है.
उस एकांत ढाबे के छोले और चाय पीकर हम सभी अब स्फुरित होकर उद्दत हुए अपने गंतव्य की ओर. अब जाकर राहत महसूस हो रही है आगे कि ओर बढ़ने में. एक तो शाम उतर आयी है सड़क पर, हरे-भरे चीड़ और देवदार के पेड़ हमारे चारों तरफ चक्कर काट रहे हैं दीगर हम सभी गर्मी और भूख से बेहाल नहीं है बल्कि हमारे किसी के चेहरे पर म्लानता नहीं है, बच्चे और हम सभी चहक रहे हैं यात्रा तय करते हुए.
दृश्यावली बहुत ख़ूबसूरत और रमणीय है. सड़क के किनारे हरे-भरे कार्पेट सदृश्य कहीं सपाट मैदान, कहीं पक्के सीमेंट के बने घर और बाज़ार. ऐसा महसूस कर रही हूं यह जो भी जगह है प्राचीनता और आधुनिकता का सम्मिश्रण है. सब कुछ सुलभ सा महसूस हो रहा है यहां. सोचती हूं कितने भाग्यशाली हैं यहां पर लोग ?प्राकृतिक विचरण और विकास से भी निरंतर जुड़े हुए.
ऐसा महसूस हो रहा है मानो हम सभी अब गोलाई में चढ़ाई पर जा रहे हैं अब तो हर तरफ हरा ही हरा नज़र आ रहा है, जंगलों का व्यापक घनत्व, देवदार के पेड़ो से चारों तरफ से घिरा हुआ, घास के बुग्याल ही बुग्याल, एक दम गोल परिधि वाली जगह पहुंच गये हैं हम. बेहद ख़ूबसूरत पहाड़ी बाजार की भीड़भाड़ वाली जगह दुकानों और मिष्ठान भंडारों दो से भरी हुई, न ही यह गांव है न ही शहर की तर्ज़ पर टिका हुआ, हां विकास की सीढ़ी पर खड़ा हुआ एक मनोरम, नयनाभिराम स्थल. जगह-जगह दुकानों पर आकर्षित करते पिछोड़े,मिठाई की दुकान से झांकती बाल मिठाई, विशुद्ध फल, सब्ज़ियां सब कुछ. क्या नहीं नज़र आ रहा था यहां ? बाज़ार अटा पड़ा था ज़रूरत की सभी चीजों से. अचानक से एक दुकान के बोर्ड पर नज़र गयी चंपावत लिखा हुआ था उस बोर्ड पर. हम सभी खुशी से उछल पड़े कि मंजिल के हम बहुत क़रीब हैं समय से हम पहुंच ही जायेंगे लोहाघाट.
चंपावत के बारे में पहले भी बहुत कुछ सुना और पढ़ा है इसलिए यहां पहुंचकर चंपावत से पुराने परिचय जैसा दुगना अहसास महसूस हुआ.
चंपावत उत्तराखंड राज्य में पूर्वी कुमाऊं प्रभाग में स्थित है. यह जिला भाषा,संस्कृति और परंपरा का मिश्रण है.चंपावत क्षेत्र के पूर्व में नेपाल, दक्षिण में ऊधमसिंह नगर जिला, पश्चिम में नैनीताल जिला और उत्तर पश्चिम में अल्मोड़ा जिला स्थित है. यह पढ़ा है मैंने की पूर्व में चंपावत पर चंद शासकों ने राज किया है. बालेश्वर, देवीधुरा, पंचेश्वर, पवनगिरी मंदिर कुछ ऐसे वस्तुशिल्प भवन हैं यहां जो चंद वंश द्वारा निर्मित है.
चंपावत से धीरे-धीरे हम आगे बढ़ रहे हैं लोहा घाट पहुंचने की ललक है. तहसील लोहाघाट, बालाकोट, पाटी, पूर्णागिरी, यह सभी चंपावत जिले के अंतर्गत ही आते हैं.
अब देवदार और चीड़ के जंगल और सघन हो गये हैं मुख्य सड़क से कटकर हमने जंगल के भीतर चौड़ी पक्की रोड पकड़ ली है, ऐसा महसूस हो रहा है हम जंगल के भीतर प्रकृति से बहुत करीब से साक्षात्कार करते हुए जा रहे हैं. जंगल के भीतर पूरी हष्ट-पुष्ट वन विभाग की कालोनी है बीच में वनविभाग का आलीशान बंगला.चूंकि पहुंचते-पहुंचते हमें रात हो गयी है अत: हम सभी कार से उतरकर भीतर की ओर प्रवृत्त हो गये हैं. उत्सव का माहौल है भीतर, देर रात तक हम सभी सफ़र की थकान उतारते हुए हंसी-ठहाके के बीच बातचीत में मशग़ूल रहे.
सुबह सभी जल्दी उठ गये हैं बच्चे तो न जाने कब उठकर पूरी फारेस्ट कालोनी भी घूम आये हैं. हम सभी बाहर आंगन में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ बतियाते हुए प्रकृति के सानिध्य में आज के घुमने की रूप-रेखा तैयार कर रहे हैं. जीजाजी का यह घर चीड़ और देवदारों के सघन जंगलों के बीच बना है. नीचे ढलान ही ढलान और जमीन पर पसरा हुआ पिरूल ही पिरूल और पेड़ों पर उछल-कूद करते बंदर हम सभी का यह सब नज़दीक से देखना किसी स्वपन से कम नहीं था.
आखिर तय हुआ कि पहले मायावती आश्रम यानि कि अद्वैत आश्रम जाना है जोकि लोहाघाट से महज़ 9 किमी की दूरी पर है हम सभी जल्दी-जल्दी तैयार हो गये हैं. नाश्ते के साथ-साथ दिन के लिए पुलाव भी बनवा दिया है ताकि समय का सदुपयोग करके हम बाकि की कुछ जगह भी घूम सकें यानि कि एक तरह से पिकनिक भी हो जायेगी.
हम मायावती आश्रम पहुंच गये हैं बहुत शांत व अध्यात्मिक माहौल है यहां सुना है कि यहां विदेशों से भी लोग अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त करने आते हैं.मायावती के इस आश्रम यानि कि अद्वैत आश्रम में पुराने चाय के बागान है, एक पुस्तकालय और एक छोटा सा संग्रहालय भी है यहां फुलवारी में कई तरह के फूल खिले हुए हैं. हमने पूरा मायावती आश्रम देखा ख़ूब फोटूएं खिंचवाई और सीढ़ियों से वापस उतर आये मुख्य सड़क की ओर.
आश्रम से लौटकर कुछ दूर चलकर मोड़ से आगे हम किसी ऊंचाई वाली जगह पर कार से उतरकर खड़े हो गये हैं नीम स्मृतियों में याद है मुझे की यहां से हमने हिमालय की गोद में एक लंबी बर्फ आच्छादित पर्वत श्रंखला को देखा कुछ याद नहीं है शायद वही एबट माउंट हो?
मायावती आश्रम से वापस लौटते हुए हल्की बारिश शुरु हो गयी है. दो कारों में हम सभी सवार हैं लग रहा था कि किसी हरे से बुग्याल में पिकनिक मनाने की हमारी ख़वाहिश बारिश के कारण आज अधूरी ही रह जायेगी. बारिश रिम-झिम बरस ही रही थी अब तक भूख भी लग आयी थी, यहां-वहां बारिश में घुमने के बाद यह तय हुआ कि कारों के भीतर ही बैठकर खाना खा लिया जाये तभी पतिदेव को नया आइडिया सूझा कि क्यों न कारों की डिक्कियों को खोलकर उनके ऊपरी हिस्सों को एकसाथ मिलाकर एक बड़ा शेड तैयार कर लिया जाये बारिश से बचाव के साथ पिकनिक का आनंद भी हो जायेगा. यह आइडिया सभी को बहुत पसंद आया और उम्मीद से परे हमारी पिकनिक मनाने की इच्छा फलीभूत हुई.
बारिश कम हो गयी है, दिन भी ढलने को है लोहाघाट बाज़ार के बीच से होकर हम पैदल यहां-वहां घूम रहे हैं. लोहाघाट का पहाड़ी बाज़ार बहुत खूबसरत है. उतरती ढाल पर बाल-मिठाई और पकोड़ी चाय की छोटी-छोटी दुकानें,कहीं ऊंचाई पर सुनार की दुकान पर लगी भीड़, यहां सुनार की दुकान में हमने बड़ी सी कुमांऊनी नथ के बारे में विस्तृत जानकारी ली जो अपनी गढत में हमारी तरफ़ गढ़वाल की नथ से कई गुना ख़ूबसूरत थी. कहीं रंग-बिरंगे पिछौडों को मुलाती गांव की तरुणिया, बाज़ार की यह रौनक मन को बहुत भा रही थी अंततः हमने एक दुकान में चाय पकौड़ों का आनंद लिया और वापस घर की ओर लौट गये.
बारिश अभी भी मुसलसल है दूसरे दिन का प्रोग्राम मुनस्यारी जाने का था किंतु बारिश के तेवर बदले नहीं हैं बनिस्बत और उग्र हो गयी है वह. मैं लेटे-लेटे सोच रही हूं कि क्या आज दूसरे दिन हमें घर पर ही कैद होकर रहना होगा? आसार तो यही हैं.
बारिश का सिलसिला जारी है खिड़की से बाहर देवदार और चीड़ के पेड़ों से पानी ऐसे धारा प्रवाह बह रहा है जैसे खड़े पहाड़ों से उतरता कल-कल झरना. लेकिन घर में साथ रहने का भी अपना ही मज़ा है कुछ खास काम नहीं है हमारे पास, नहा-धोकर हम सभी बैठकर बतिया रहे हैं. देखा जाये तो ऐसे मौके भी कब-कब आते हैं ज़िंदगी में? सभी तो मशग़ूल हैं अपनी-अपनी ज़िंदगीयों में, विरल है सभी का इस तरह साथ एकत्रित होना. शाम को चाय के साथ हलुए का आनंद लिया हमने. बारिश शाम के समय लगातार बरस कर,थककर कुछ धीमी तो पड़ गयी है किंतु रुकी नहीं है.
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लेकिन दूसरे दिन आकाश नीरभ्र है. सुबह-सुबह सूरज की रश्मियां गोया धीरे-धीरे भीगकर बुत बने देवदार और चीड़ के पेड़ों को ताबीश दे रही हैं. मौसम ठीक होने से हमारे सबके दिलों में आज फिर से लोहाघाट घूमने की उमंगे हैं क्योंकि अगले दिन हम सभी का लोहाघाट से नैनीताल निकलने का प्रोग्राम है.
सुबह फिर विमर्श हो रहा है घर में कि और कौन सा सबसे पास का पर्यटन-स्थल है? बाणासुर का किला देखने की सबकी सहमति बनी है.
बाणासुर का किला लोहाघाट से लगभग 7 किमी की दूरी पर कर्णरायत नामक स्थान के पास स्थित है. कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने यहां पर वाणासुर नाम के दानव का वध किया था.मेरे लिए हालांकि अपनी इस दोहरावस्था में इतनी ऊंचाई पर चढ़ना मुश्क़िल ही नहीं नामुमकिन भी था और किसी अनहोनी का भी तो डर था अतः मुझे छोड़कर बाकि सब लोगों ने वाणासुर की चढ़ाई तय की और मैं कार में ही बैठी रही किंतु वापस आकर उन सभी ने वाणासुर किले के ऊपर से मायावती आश्रम और हिमालयी श्रृंखलाओं के विहंगम दृश्य के बारे में बताया. मुझे तो यह मात्र किसी पुराने किले का भग्नावशेष ही नज़र आ रहा था नीचे से, शायद वहां तक न जाने की खीझ थी मुझे.
आज के लिए इतना ही पर्याप्त था सभी बहुत थक जो गये थे सोचा कल नैनीताल के लिए प्रस्थान करने से पहले पूर्ण विश्राम ज़रूरी है. हम सभी घर पहुंच कर निढाल लेट गये जल्दी खाना खाया,सामान की पैकिंग की और सभी जल्दी सो भी गये.
अगले दिन सुबह हम सभी में उठकर तैयार होने की अफ़रा-तफ़री मची है, नैनीताल यहां से काफी दूर जो है और रास्ते में पहले देवीधुरा का मंदिर भी देखना है जो कि अल्मोड़ा -लोहाघाट मार्ग पर स्थित है जिसकी पौराणिक व धार्मिक सभ्यता से हम परिचित नहीं हुए तो फिर कुमाऊं क्या देखा?
देवीधुरा का शाब्दिक अर्थ है देवी का पहाड़. देवी धूरा मां का बाराही धाम ऊंचाई पर स्थित है यहां का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है.आंगन के प्रांगण में बिखरे हुए अवशेष कत्यूरी शैली के मंदिरों की कहानी बयां करते हैं. देवीधुरा स्थल महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास से लेकर अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं से संबद्ध है.
देवीधुरा मंदिर जिस प्राचीन परंपरा के लिए विख्यात है वह है श्रावण-शुक्ल एकादशी से श्री कृष्ण जन्माष्टमी तक लगने वाले मेले के बीच रक्षाबंधन पूर्णमासी के दिन होने वाली बग्वाल यानि की “पाषाण युद्ध” जिसे देखने देश-विदेश से श्रद्धालु यहां एकत्रित होते हैं.
जिस दिन हम देवीधुरा दर्शनार्थ गये हमें ऐसा महसूस हुआ कि उस दिन भी यहां किसी पर्व या किसी परंपरा का निर्वाह हो रहा था. गांव की बुज़ुर्ग औरतें और तरुणियां सज-धजकर कर साड़ी के साथ पिछोड़ा ओढ़े और बड़ी सी कुमांऊनी नथ पहने मंदिर के प्रांगण में एकत्रित थीं. छलिया नृत्य (जिसे छोलिया नृत्य भी कहा जाता है, जो ख़ासकर चंपावत, पिथौरागढ़, बागेश्वर और अल्मोड़ा जिले में लोकप्रिय है) की पारंपरिक पोशाक पहने कुछ लोग मंदिर के परिसर में ही एक जगह एकत्रित थे शायद धार्मिक आयोजन के उपरांत मंदिर के प्रांगण में छोलिया नृत्य के आयोजन की भी व्यवस्था हो? मंदिर के भीतर के परिसर में औरत और आदमियों का जमावड़ा था. पंडित जगह-जगह मंत्रोच्चार कर रहे थे. धुंधली स्मृतियों में इतना याद है कि देवी के दर्शन करके संकरे रास्ते से होकर हम पीछे की ओर गये वहां बहुत सारे भैंसें लाये गये थे चूंकि मैं सबसे पीछे थी मेरे सामने ही “खचाक” से एक भैंसें की बलि दी गयी. यह 2006 बात है अब वहां इन परंपराओं का निर्वाह होता है कि नहीं अनभिज्ञ हूं इस बात से. लेकिन उस समय उस अबोध भैंसे की नृशंस हत्या से मेरे दिलो-दिमाग पर बहुत दिन तक वितृष्णा के भाव की उत्पत्ति हो गयी थी ऐसा अजीब सा भाव जिसकी विस्मृति शायद अब भी असंभव है मेरे लिए.
देवीधुरा मंदिर के बाहर एक खास चीज़ ने जो मुझे आकर्षित किया वह बंदगोभी के पकौड़ों से सजी हुई छोटी-छोटी दुकानें ही दुकानें एक ख़ास शऊर में प्रत्येक दुकान के बाहर सजायी हुई. बंदगोभी के पत्तों के पकोड़े मैंने कभी खाये नहीं थे और न ही अब खाने का मन था क्योंकि मुझे उस भैंसें का बहता हुआ खून ही खून नज़र आ रहा था हर तरफ़. ज़्यादा संवेदनशील होना भी हानिकारक ही है ज़िंदगी में,रास्ते भर मैंने कुछ नहीं खाया सोचा कोई बात नहीं इन बंदगोभी के पकौड़ों को घर जाकर ट्राई ज़रूर करूंगी.
मुझे नैनीताल देखने की इतनी उत्सकता नहीं है जितनी की लोहाघाट से नैनीताल के बीच रास्ते में पड़ने वाले गांव, उनके परिवेश और पहाड़ी रमणीय बुग्यालों को करीब से महसूस करना, इसी लोभ के लिए रात में ही मैंने स्टुजिल दवा खा ली है ताकि ये सुअवसर कहीं मेरी आंखें न गंवा दें.
नैनीताल की ओर आते हुए ज़्यादा तो याद नहीं किंतु यादों की धुंध में इतना भर याद है कि लोहाघाट से नैनीताल के बीच रास्ते में भवाली अल्मोड़ा हल्द्वानी, भीमताल और फिर हरे-भरे सीढ़ीदार खेत उनके किनारे अवस्थित छोटे-छोटे पेड़ों पर पुलम,चूल्लू लटके हुए सर्पीली सड़कें उनके मोड़ों से आगे किनारे पर चुल्लू,पूलम और काफ़ल बेचते गांव के छोटे-छोटे बच्चे, बहुत सुखद था यह सब मेरे लिए देखना. ईश्वर की कृपा थी की देहरादून से लोहाघाट और लोहाघाट से नैनीताल होते हुए देहरादून तक की यात्रा मेरे लिए अहसासों और सजगता से भरी हुई संपूर्ण निर्विघ्न यात्रा थी क्योंकि मेरी देह और मेरे मस्तिष्क का इस यात्रा के दौरान मेरी कल्पनाओं से परे बेहतरीन तालमेल था.
रास्ते में जगह-जगह पड़ने वाले बुग्यालों की टपरी पर बैठकर हमने अनगिनत फोटो खिंचवाये, कहीं ढाबों में बैठकर चाय पी, कहीं भुट्टे खाये जिससे एक तो कार में निरन्तर बैठे रहने का निरंतर क्रम बीच में टूटता रहा और हमें थकावट भी महसूस नहीं हुई .
सहसा हवाओं का रुख़ जैसे बदलने लगा है घुमावदार सड़कें भी कोहरा ओढ़कर गीली हो गयी हैं थोड़ा और आगे बढ़े तो सड़कों ने आधुनिकता का जामा ओढ लिया है, कैफेटेरिया, रेस्टोरेंट और उनमें लगी सैलानियों की भीड़ यह इंगित कर रही है कि हमने नैनीताल की ड्योढ़ी पर दस्तक दे दी है.पर्यटन का सीजन है और होटल ढ़ूंढना भी मशक़्कत करने जैसा है, किसी तरह हमें मालरोड के पास ही होटल भी मिल गया है. नहा-धोकर फ्रेश होकर हमने सफ़र की थकान उतार ली है और फिर दिन और रात के संधि स्थल पर एक सूक्ष्म सफ़र मालरोड पर नैनी झील के किनारे निर्वयव घूमना अतीन्द्रिय था हम सभी के लिए. नैनी झील पर अटखेलियां करती, शोर मचाती हुई सूर्य की रश्मियों में ही हमने अविस्मरणीय नौका विहार किया और रौशनियों के मेले में अथाह भीड़ के बीच नैनी देवी के दर्शन करना फिर उसी से सटे हुए गुरुद्वारे में गरमा-गरम कढा प्रसाद छकना किसी अलौकिक अनूभूति से कम नहीं था हमारे लिए.
बच्चों के मनोरंजन का भी तो ख़्याल करना था हमें उन्हें झूले, राइडिंग कराकर, बेटी के लिए हेयर बैंड, चप्पल, खिलौने वगैरह खरीदकर जल्दी हम वापस अपने होटल लौट आये हैं. सुबह फिर देहरादून के लिए लंबा सफ़र भी तो तय करना है. सुबह मालरोड के किनारे नैनी झील के सानिध्य में हम सभी ने नाश्ता करने का मन बनाया है, थोड़ी बहुत शापिंग भी कल ही करेंगे. अगले दिन सुबह मालरोड पर मार्निंग वाक, नैनी झील के किनारे बैंच पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ झील की सुरधनु को निहारने पर उद्भभूत भाव अविस्मरणीय रूप से अंकित हैं मेरे मानस पटल पर जिसका हासिल यह है मेरे लिए कि सुरधनु का वही चिरपरिचित अहसास आज मेरी अनगिनत कविताओं का उद्गम भी हैं.
शापिंग के नाम पर हमने घर और रिश्तेदारी में बांटने के लिए सबसे पहले बाल मिठाई खरीद ली है. बाल मिठाई कुमाऊं की प्रसिद्ध मिठाई है.कुछ मोम के बने हुए गणेश, फैंसी मोमबत्तियां और कुछ पीतल से बनी हुए सजावट की सामग्री भी खरीद ली हैं जिसके लिए नैनीताल की प्रसिद्धि है. बाकि यहां कश्मीर पंजाब और भी अन्य राज्यों के स्टाल हैं जो मालरोड पर सभी जगह उपलब्ध हैं और मैं कश्मीर का आरी वर्क का कशीदाकारी वाला दुपट्टा खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पायी.
जब मैं लोहाघाट से नैनीताल की यात्रा कर रही थी वह महज़ मेरी मनोवृत्ति के बदलाव के लिए की गयी थी. नहीं जानती थी तब की मुझमें जिज्ञासु प्रवृत्ति के बीज उसी समय प्रस्फुटित हो रहे थे. अनजाने ही सही मेरे अवचेतन में एकत्रित यात्रा सामग्री का ही परिणाम है कि लोहाघाट से नैनीताल तक की यात्रा का यह वृतांत मुझसे बख़ूबी बन पड़ा है.
आज कहने की स्थिति में हूं कि यात्रायें हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं जाने-अनजाने जिनका हासिल कुछ न कुछ सार्थक जुटाना है. (Travelogue of Lohaghat to Nainital)
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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