उत्तर पूर्व : नदी, जंगल और बाउल की तान
– जितेन्द्र भाटिया
पश्चिम बंगाल का बागडोगरा हवाईअड्डा और इससे सटकर फैला सिलीगुड़ी शहर एक तरह से दार्जीलिंग, असम, सिक्किम और भूटान का सिंहद्वार है जहाँ से इनमें से किसी भी स्थल तक स्थानीय जीपों और कारों द्वारा कुछ ही घंटों के फासले से पहुंचा जा सकता है. न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही जीप चालकों और उनके दलालों का एक आक्रामक जत्था निरीह यात्रियों पर टूट पड़ता है. ‘शेयर टैक्सी’ द्वारा दार्जीलिंग, सिक्किम या रास्ते में रोंगटोंग, कलिम्पोंग पहुँचाने के आकर्षक दाम हवा में उछाले जाते हैं, मगर एक जीप में कितनी सवारियां बैठेंगी, इस बात को सफाई से गोल कर दिया जाता है. संभावित ग्राहकों से ज़बरदस्ती सामान छीनकर टैक्सी में डालने की कोशिश की जाती है और आखिरकार यात्रियों को किसी तरह जीपों में ठूंसकर काफिला चल निकलता है. कश्मीर के अस्थिर हालात के चलते यह प्रदेश अब देश का सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटक स्थल बन गया है. अकेले दार्जीलिंग में साढ़े तीन लाख स्थानीय और 30 हज़ार विदेशी पर्यटक हर साल जाते हैं. दूसरे स्थानों और सिक्किम या भूटान जाने वाले पर्यटकों को जोडऩे के बाद यह संख्या और बढ़ जायेगी. स्टेशन से सटकर बने बिहारी या बंगाली ढाबों की कतार में पारंपरिक बंगाली भोजन के अलावा अब पर्यटकों की रूचि के मुताबिक तंदूरी और पिज़्ज़ा-बर्गर भी मिलने लगा है, लेकिन उसके स्वाद में भी आपको सरसों के तेल का एक अनकहा बंगाली स्वाद मिलेगा, हमारे देश-भर व्याप्त ‘इंडियन चायनीज़’ की तरह!
भारतीय मध्य वर्गीय पर्यटक की तयशुदा मानसिकता के चलते आज नैनीताल से दार्जीलिंग और महाबलेश्वर से शिमला तक किसी भी लोकप्रिय पहाड़ी पर्यटक स्थल के बीच फर्क करना मुश्किल हो चला है. हर जगह उसी ‘पैसा वसूल’ करने की नियत से आयी बेहिसाब भीड़, खोमचे वालों/ फेरी वालों के हुजूम और बसों से लेकर नावों या घुड़सवारी अथवा केबल कार में चढऩे, बगीचे का टिकट खरीदने या होटल में कमरा पाने के इच्छुक लालायित चेहरों की लम्बी कतारें. और इन सबसे आगे हर जगह लापरवाही से फेंके जाते चिप्स, नमकीन, बिस्कुट, और पान मसाले के प्लास्टिक/ पन्नी/ खाली पाउच के अथाह बदसूरत अवशेष. अम्बानी साहब की कंपनी ने भले ही पिछले साल के मुकाबले अपने मुनाफे में आश्चर्यजनक वृद्धि कर ली हो, लेकिन उनके स्वचालित पेट्रोकेमिकल कारखानों से दिन रात उगला जाने वाला यह प्लास्टिक एक दिन अपने साथ समूचे देश को ले डूबेगा.
दार्जीलिंग या सिक्किम की चिल्ल-पों वाली ट्रैफिक से पटी सड़क से दूर, सिलीगुड़ी के पूर्वी बाईपास और बैकुंठपुर जंगल में शाल के खूबसूरत पेड़ों से गुज़रते हुए आप गाजोलडोबा पहुंचेंगे. यहाँ तीस्ता के पानी को बराज से बाँध दिया गया है. बाँध के पानी से डूबा क्षेत्र गाजोलडोबा है जहां खुले मौसम में पानी के पीछे सुदूर कंचनजंघा की बर्फ से ढँकी चोटियाँ किसी तिलिस्म की तरह दिखाई दे जाती हैं. यहाँ के उथले पानी में चप्पुओं की पारंपरिक नाव में समय जैसे ठहरा हुआ सा है. सर्दियों में दूर-दराज़ से आए पक्षियों का कलरव जलकुम्भी के झुरमुटों से उभरता है.
यह ‘दीदी’ का $खास इलाका है जहां एक बहुत बड़े पर्यटक केंद्र का नक्शा तैयार को रहा है जिसमें दूसरी चीज़ों के अलावा एक नौ कोर्स का गोल्फ मैदान भी होगा. निजी कंपनियों के पर्चे दाखिल किए जा चुके हैं और देखा जाए तो विकास के इस भव्य मास्टर प्लान को सुदूर देशों से उड़कर गाजोलडोबा आने वाले इन निरीह पक्षियों के लिए खतरे की घंटी भी समझा जा सकता है. लाल सिर वाली पोचार्ड बत्तखों को नज़दीक से दिखाने के लिए हमारा नाविक रहीम अपने चप्पुओं को रोक देता है और हमें भी बिना हिले-डुले नीचे झुकने के लिए कहता है. लेकिन ज़रा सी सरसराहट से ही पक्षियों का सारा झुण्ड उड़ जाता है और हमारे भारी कैमरे धरे के धरे रह जाते हैं. मनुष्य की हर छोटी बड़ी हलचल को संदेह से देखने वाले इन पक्षियों के चित्र लेने के लिए असीम धैर्य और स्थिरता की ज़रुरत है. हम शहर वासियों में इन दोनों ही गुणों की भारी कमी है.
आखिरकार थककर हम उपकरण एक ओर रख देते हैं तो हमारी तफरीह को महसूस करते हुए रहीम नाव घुमा लेता है. रहीम के पुरखे तीस्ता नदी में नाव चलाते थे. उसे पानी से खास लगाव है और वह सारा जीवन इसी नाव पर धीमे धीमे चप्पू चलाए व्यतीत कर सकता है. गाजोलडोबा का यह इलाका लातिन अमरीकी लेखक रोसा की अमर कहानी ‘नदी का तीसरा किनारा’ की याद दिलाता है जहां जलकुम्भी के झुरमुटों के पीछे सारी उम्र किसी नाव में बैठे हुए काटी जा सकती है.
अपने कैमरे संभाले हम नाव से उतरते हैं तो किनारे पर एक बूढ़े की आवाज़ में तैरती कोई परिचित लम्बी तान हमें चौंका देती है. वह तान किसी पहेली की तरह बेहद पहचानी हुई है लेकिन उसके आगे के शब्द और उनमें गुंथी धुन बिलकुल अलग है. नहीं, यह सचिन दादा की भटियाली नहीं है. फिर ऐसा क्या है इसमें जो बरबस हमें किसी भूले हुए अतीत की ओर खींचे लिए जाता है?
बूढा अपना दोतारा हमें दिखाते हुए बताता है कि यह लालन फकीर का एक पारंपरिक बाउल गीत है – ‘आमी एकटा आसोल पागोल पेलाम ना, शेई जोन्ने आमी पागोल होलाम ना… ‘बीरभूम के केंदुली गाँव के ‘टोहोल’ (भिक्षा) पर निकले फकीरों से लेकर बांग्लादेश के मल्लाह सब इस गीत को दोतारे पर ‘खोमोक’ के साथ बजाकर गाते हैं. हम बूढ़े को एक बार फिर उस गीत से पहले की तान को छेडऩे के लिए कहते हैं तो अचानक याद आ जाता है कि यह वही तान है, जिसके एक हिस्से का इस्तेमाल शंकर जयकिशन ने रफी की आवाज़ में फिल्म ‘श्री चार सौ बीस’ के गीत ‘रमैया वस्तावैया’ के अंत में किया है और जिसे उस वक्त हम ‘हीर’ की धुन समझने की भूल कर बैठे थे…. बूढ़े की कंपकंपाती आवाज़ में उस गीत को सुनना उस पूरी तान के वास्तविक स्रोत तक पहुँचने की तरह विस्मयकारी है…
मछुआरों की भटियाली और फकीरों के बाउल गीतों का इस धरती के साथ एक अनाम रिश्ता है. मुझे याद आता है अजय नदी के किनारे बसा छोटा सा उनींदा केंदुली गाँव जो माघ की पहली पूर्णिमा के दिन अचानक जैसे किसी लम्बी नींद से जाग उठता है. प्रदेश के बूढ़े और नौजवान बाउल गायक यहाँ हर साल लगने वाले केंदुली जयदेव मेले के लिए दूर दराज़ से इकठ्ठे होते हैं.
केंदुली बारहवीं शताब्दी में ‘गीत गोविन्द’ की रचना करने वाले कवि जयदेव का जन्म स्थल भी है और यह मेला पुरातन काल से उन्हीं के नाम से जाना जाता है. जयदेव का बाउल से आखिर क्या रिश्ता था? शायद बहुत कुछ, शायद कुछ भी नहीं! जयदेव उस समय के राजा लखन सेन के दरबार में राज्य कवि थे. बाउल इतिहास के जानकार अमित गुप्ता कहते हैं कि जयदेव के समय से भी पहले उस प्रदेश में बाउल लोकप्रिय थे और जयदेव स्वयं इसके गायकों और गीतकारों को न सिर्फ सम्मान देते थे, बल्कि उन्होंने राज्य स्तर पर इसे लोकप्रिय बनाने में काफी योगदान दिया था. केंदुली की बाउल गायकी के साथ जयदेव का नाम तब से ही जुड़ा है. केंदुली में ही स्थित है वहां का प्रसिद्ध राधा विनोद मंदिर जिसे प्रदेश की महारानी ने जयदेव की मृत्यु के कोई दो सौ साल बाद बनवाया था और जहां आज भी आपको राधा कृष्णा की मूर्तियों के साथ-साथ उसी सम्मान के साथ जयदेव और उनकी पत्नी की मूर्तियाँ भी मिल जाएँगी.
बाउल एक तरह से पश्चिमी बंगाल और बांग्लादेश की साझी संस्कृति का भी एक अभिन्न हिस्सा है. इस ओर के गायक एक अरसे तक एकतारे के साथ बाउल गाते थे जिन्हें बांग्लादेश के गायकों ने दोतारा बनाना और बजाना सिखाया. आज इसमें कई और वाद्य यंत्र जुड़ गए हैं और शहरी बाउल गायन में तो बांसुरी और हारमोनियम ही नहीं, सिंथेसाईज़र का प्रयोग भी होने लगा है.
केंदुली एक तरह से बाउल गायकी की राजधानी है जहां मेले की रात, देर तक तानों, दोतारे की लय और खोमोक तथा ‘आनंद लहरी’ एवं ‘गबगुबी’ के साथ गायकों को झूमते देखा जा सकता है. इसकी लय में आपके पैर खुद बखुद नाचने लगेंगे. जानकार कहते हैं कि इस गायकी को सिखाया नहीं जा सकता, यह आपके भीतर से स्वयं फूटकर बाहर आती है. यह प्रेम एवं बन्धुत्वता के अलावा किसी धर्म, किसी सम्प्रदाय को नहीं मानती. इसका ‘सहजिया’ पंथ बहुत सादा मगर फिर भी एक मुश्किल रास्ता है जिसके ब्रह्माण्डवाद में ईश्वर को एक आराध्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता. बाउल मानता है कि मनुष्य अपने आप में ही अंतिम सत्य है, इसके शरीर के तत्वों को समझना ही सत्य को पाना है. इसीलिये बाउल एक गीत से अधिक एक मानसिक अवस्था, एक मन:स्थिति है, जिसका कभी अंत नहीं होता, जहाँ संगीत और शब्द अपनी स्वयं की खोज में निरंतर कुछ ढूंढते नज़र आते हैं….
धूप के चढऩे के साथ ही हमें भूख लग आयी है. रहीम हमें तीस्ता के किनारे बने छोटे से झोंपड़ीनुमा ढाबे में लिए चलता है, जहाँ हमारा इंतजार कर रही है दाल-चावल के साथ सरसों के तेल में तली स्वादिष्ट मछली बोरोली! रहीम बताता है कि बड़े बड़े जालों से बोरोली और चपिला मछलियाँ ट्रकों में भर भरकर सिलीगुड़ी और वहां से दूसरी जगहों तक पहुंचाई जा रही हैं, जिसके चलते बंगालियों द्वारा बेतरह पसंद की जाने वाली तीस्ता की ये दोनों $खास मछलियाँ आज विलुप्त होने की कगार पर हैं. पक्षियों और मछलियों के विनाश के बाद शायद अगला अधिक बड़ा संकट यहाँ के जल पर आने वाला है. नदी पर बने बांधों के कारण मुख्य तीस्ता का पानी पहले से बहुत कम हो गया है.
तीस्ता से मिलते जुलते नाम वाली दूसरी नदी तितास है जो त्रिपुरा से निकलकर बांग्लादेश में मेघना नदी से मिलती है. इसी नदी के तट पर पले-बढ़े बंगला लेखक अद्वैत मल्ला बर्मन ने यहाँ रहने वाले गरीब मल्लाहों के जीवन पर अपना चर्चित उपन्यास ‘तितास एकटी नदीर नाम’ लिखा था जो उनकी मृत्यु के पांच वर्ष बाद प्रकाशित हुआ था और जिस पर अपने जीवन के अंतिम कालखंड में ऋत्विक घटक ने एक यादगार फिल्म बनायी थी. भारत की आर्थिक मदद से मेघना और तितास नदियों पर बने रेलवे पुलों को पार करती बंधन एक्सप्रेस अब सियालदह कोलकाता से बांग्लादेश के खुलना शहर तक हर रोज़ दौड़ती है. यह भी एक विडम्बना है कि मेघना और तितास नदियाँ को जहाँ दोनों देशों के बीच मित्रता का प्रतीक समझा जाता है, वहीं गाजोलडोबा बराज से गुज़रती तीस्ता का जल भारत और बांग्लादेश के बीच कलह का सबसे बड़ा कारण है.
भारतीय धरती पर स्थित बांधों से गुज़रती तीस्ता सिक्किम से उत्तरी बंगाल होती हुई बांग्लादेश और उससे आगे अंतत: ब्रह्मपुत्र में मिलती है. गाजोलडोबा में बराज के उस ओर अब पानी लगातार कम होता जा रहा है और बांग्लादेश के लोग पानी के इस अनुचित बंटवारे से बेहद असंतुष्ट है. फिलहाल भारत इसके पानी का आधे से अधिक हिस्सा बांधों के ज़रिये खींच लेता है, जबकि बांग्लादेश की मांग है कि उसे तीस्ता के पानी में बराबरी का हिस्सा मिले. लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने हिस्से के पानी की एक बूँद भी छोडऩे के लिए तैयार नहीं. लिहाजा यथास्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है. देखा जाए तो नदियों के जल का बंटवारा आजकल सम्बंधित प्रदेशों, राज्यों और देशों के बीच की राजनीतिक आबोहवा को भी निर्धारित करने लगा है, फिर चाहे वह कर्नाटक और तमिलनाडु हो या बांग्लादेश, भारत अथवा हमारा पड़ोसी देश चीन.
ब्रह्मपुत्र नदी एक लम्बे अरसे से भारत और चीन के बीच तकरार का कटु मुद्दा रही है. चीन में विश्व की 20 प्रतिशत आबादी रहती है जब कि वहां मीठे पानी के स्रोत मात्र 7 प्रतिशत हैं. यही नहीं, वहां के मीठे पानी के प्राकृतिक स्रोतों का बड़ा हिस्सा तिब्बत में है. इस प्रदेश के पानी को सारे देश तक पहुंचाने के लिए चीन ने तिब्बत से निकलने वाली नदी यारलुंग त्सांगपो (ब्रह्मपुत्र) पर बेहिसाब बाँध बना डाले हैं जिससे भारत और बांग्लादेश पहुँचने वाले नदी के जल में न सिर्फ कमी आयी है, बल्कि इसकी अनियमितता से कभी सूखे तो कभी बाढ़ का संकट काफी बढ़ गया है. ब्रह्मपुत्र का जल बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे देश में नदियों के जल का 29 प्रतिशत ब्रह्मपुत्र से आता है और बिजली बनाने वाली हाइड्रोपॉवर योजनाओं में से 44 प्रतिशत का भविष्य भी इसी नदी और इसकी विभिन्न धाराओं से जुड़ा है.
दुर्भाग्यवश भारत और चीन के बीच ब्रह्मपुत्र के पानी के बंटवारे का कोई समझौता नहीं है, लेकिन फिर भी चीन ने दोनों देशों के साथ एक समझौता ज्ञापन (मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके अंतर्गत चीन की ज़िम्मेदारी है कि वह नियमित रूप से नदी के पानी के इस्तेमाल सम्बन्धी समस्त आंकड़े भारत और बांग्लादेश के साथ बांटे ताकि वे इसके आधार पर अपनी योजनाएं बना सकें. लेकिन डोक्लाम के विवाद के बाद से ही चीन ने भारत को ये आंकड़े उपलब्ध कराना बंद कर दिया है. दृष्टव्य यह भी है कि चीन ये आंकड़े बांग्लादेश को अब भी निरंतर दे रहा है. हालाँकि चीन ने अधिकारी स्तर पर इसे आंकड़े इकठ्ठे न कर पाने की असमर्थता कहा है, लेकिन जानकार चीनी सूत्र कहते हैं कि ‘चीन एक ज़िम्मेदार देश है, लेकिन जब कोई (भारत) हमारी ज़मीन की संप्रभुता को ही नकार रहा हो, तब ये आंकड़े कैसे दिए जा सकते हैं!’ ज़ाहिर है की पानी पर यह घमासान आने वाले दिनों में किसी बड़े युद्ध का कारण भी बन सकती है.
सुदूर अरुणाचल में लोहित नदी पर स्थित अरुणाचल प्रदेश का सबसे पूर्वी गाँव डोंग है जिसका ज़िक्र हम एक बार पहले भी कर चुके हैं. यहाँ से लोहित नदी चीन से भारत में प्रवेश करती है. नदी के चीनी हिस्से पर कई बाँध बन चुके हैं और दोनों देश के बीच समझौता ज्ञापन के बावजूद पानी के रोकने या छोड़े जाने की कोई जानकारी चीन नहीं देता, जिसके चलते लोहित का पानी कब सूख जाएगा और कब चीन अचानक बहुत सा पानी छोड़कर हमारे यहाँ बाढ़ की स्थिति पैदा कर देगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. इस स्थिति से निबटने के लिए सरकार ने पानी अधिकारी बूढ़े दास बाबू को वहां चौबीसों घंटे पानी का तल मापने वाले यंत्रों के साथ ड्यूटी पर बैठा रक्खा है, जहाँ वे घंटे दर घंटे पानी का तल मापकर ये आंकड़े तिनसुखिया के बड़े दफ्तर भेजते हैं.
हम वोलोंग गाँव से जीप में सूरज के ढलने के आसपास वहां पहुंचे थे और अँधेरा घिर चुकने के बाद अब रात वहीँ गुज़ारने के सिवा कोई चारा हमारे पास नहीं रह गया था. दास बाबू शर्मिंदा थे कि उनके पास हमें देने के लिए बिस्तर तक नहीं था. इलाके के सहृदय $फौज वालों की मदद से हमें नज़दीक के मिलिट्री डिपो से ‘स्लीपिंग बैग’ उधार पर मिले तो दास बाबू ने एक बंद कोठरी खोलकर हमारे लिए खुद ताज़ा दाल चावल बनाए. फिर वे पानी के माप की सरकारी बहियों के बीच हमें देर रात तक अपने एकाकी जीवन की कहानियां सुनाते रहे थे.
अलस्सुबह चलने से पहले हमने नदी के खूबसूरत तट को देखा था तो दास बाबू ने मुस्कराकर कहा था कि इन्हें कैद कर लीजिये, ये देश पर गिरने वाली सूरज की पहली किरणें हैं. यहीं से कुछ आगे मशाई के पास सीमा सड़क संस्थान का बोर्ड लगा था—भारत की सबसे पूर्वी सड़क!
जिस तरह ब्रह्मपुत्र असम को उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों में काटती है, कुछ उसी तरह लोहित पूर्वी अरुणांचल प्रदेश को दो भागों में विभक्त करती है. लोहित नदी के सुदूर तटों के अलावा भी उत्तराँचल प्रदेश काफी बड़ा है और इसके पश्चिमी इलाकों को छानने का हमारा सफर अभी बाकी है. चीन एक अरसे से इस सारे प्रदेश को अपना बताता रहा है और इस संघर्ष के चलते पूरे प्रदेश में सेना की भारी मौजूदगी है. यह मौजूदगी चीन की सीमा से सटे इलाकों में तो पागलपन की हदों तक पहुँच जाती है.
डोंग तक की हमारी यात्रा पूर्व नियोजित नहीं थी और हम पहले वोलोंग से ही वापस लौट जाने वाले थे. कुछ दुर्लभ पक्षियों की तलाश हमें यहाँ तक खींच लायी थी और अब वहां से लौटते समय हमारे पास खाने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा था. उत्तर पूर्वी इलाकों में कम से कम ‘मेगी’ या ‘वाई वाई’ के नूडल छोटे से छोटे ढाबे या खोखे पर भी मिल जाते हैं और इसीलिये हम भोजन को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं थे. लेकिन जब सामने वाले हिस्से में दुकान चलाने वाले तीन चार घरों में चीनी चेहरे वाले बाशिंदों और औरतों ने शिद्दत से सिर हिलाकर हमें चले जाने को कहा तो आश्चर्य होना स्वाभाविक था. बाद में पता चला कि वहां अजनबी चेहरों को (जो चीन के जासूस भी हो सकते थे) भोजन खिलाना फौज वालों से दुश्मनी मोल लेने के बराबर था और यह खतरा कोई भी नहीं उठाना चाहता था.
हमने सुबह से कुछ नहीं खाया था. जब भूख बर्दाश्त के बाहर हो गयी तो एक फौजी डिपो के बाहर खड़े बंदूकधारी सिपाही से हमने खाने के लिए कोई जगह पूछने का इरादा बनाया. वह सिपाही कुछ भी कहने की जगह हमें वहीँ छोड़ भीतर चला गया. मिनटों के बाद वापस लौटने पर उसने जीप को वहीं छोड़ हमें भीतर कमांडेंट से मिलने को कहा. कमांडेंट जौनपुर का एक बाशिंदा था जिसका हाल ही में वहाँ तबादला हुआ था. उसने हमें बताया कि कहीं बाहर भोजन ढूंढना बेकार है क्योंकि यहाँ लोग फौज वालों से बहुत डरते हैं. किस्सा कोताह यह कि कमांडेंट ने डिपो के तीन चार अन्य साथियों के साथ हमें न सिर्फ लंच रूम में रविवार के दिन पकने वाला विशेष भोजन खिलाया, बल्कि एक डेढ़ घंटे तक भोजन के साथ जौनपुर, इलाहाबाद और जयपुर के कई व्यक्तिगत अनुभव भी उसने हमारे साथ बांटे. लेकिन भोजन कक्ष में ले चलने से पहले कमांडेंट ने हमें सख्त ताकीद दी थी कि हममें से कोई भी यह नहीं पूछेगा कि वे वहां क्या काम करते हैं क्योंकि इसके बारे में कुछ भी बोलने की उन्हें इजाज़त नहीं है. फौज की इस जवाबदेही के साथ साथ उसके अत्यंत मानवीय पक्ष को जानना सचमुच सुखद था. भोजन के बाद वे सब हमें बाहर जीप तक छोडऩे के लिए आए और जीप के चल चुकने के बाद भी देर तक उनके हाथ हवा में हिलते रहे.
बाहर से उत्तर पूर्व आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए वहां के जीवन में ब्रह्मपुत्र के महत्वपूर्ण स्थान को समझना बहुत मुश्किल नहीं है. इसका प्रवाह एक तरह से सड़कों के जाल को निर्धारित करता है. यह नदी एक तरह से पूरे प्रदेश की प्राण शक्ति है.
हमारे यहाँ नदियों के नाम पारम्परिक रूप से स्त्रीलिंग होते हैं लेकिन एशिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक ब्रह्मपुत्र इसका एकमात्र अपवाद है. असमिया भाषा में इसे पुरुषवाचक ‘ब्रह्मपुत्र नद’ कहा जाता है और असम के बोडो आदिवासी इसे अपने पारंपरिक नाम बुर्लुंग बुथुर से जानते हैं. कई नामों वाली ब्रह्मपुत्र एक तरह से उत्तर पूर्व भारत और बांग्लादेश की तमाम नदियों को अपने भीतर समेटे हुए है.
तिब्बत के आंग्सी ग्लेशियर से निकलने वाली चीनी नदी यारलुंग त्सांगपो जब भारत के अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है तो इसका नाम बदलकर सियांग हो जाता है और इससे कुछ आगे मैदानों में उतरने पर यह दिहांग हो जाती है. यहाँ से कुछ फासले पर जब दिबांग और लोहित नदियाँ इसमें मिलती हैं तो इसे अपना नया शक्तिशाली नाम ब्रह्मपुत्र मिलता है. असम में अपने प्रवाह के दौरान पहाड़ों की अनेकानेक तूफानी नदियाँ कामेंग, भरेली, मानस, चम्पावती, बूढ़ी दिहिंग, दिसांग, दिखू आदि इसमें आ मिलती हैं. असम में कहीं कहीं तो इसका पाट बरसातों में 8 किलोमीटर तक चौड़ा हो जाता है. हर साल तटों की दिशा बदलता ब्रह्मपुत्र का उद्दंड चौड़ा पाट बाढ़ का एक बड़ा कारण बनता है. इसी ब्रह्मपुत्र पर देश का सबसे लम्बा 9 किलोमीटर का पुल हाल ही में बनकर तैयार हुआ है. और इसी के भीतर दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप मजुली फैला है जो अब एक पूरा जिला है. किसी समय इसका क्षेत्रफल 1250 वर्ग किलोमीटर था जो अब नदी के भूस्खलन से घटकर 350 वर्ग किलोमीटर रह गया है.
बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र में तीस्ता आ मिलती है और इससे आगे नदी दो शाखाओं में बांट जाती है—पूर्वी शाखा यमुना (बांग्लादेश) जिसमें ढाका के नज़दीक मेघना का संगम होता है; और पश्चिमी शाखा जिसमें दक्षिणी गंगा आ मिलती है और तब नदी का नाम पद्मा हो जाता है. कुछ और दक्षिण पहुँचने पर ये दोनों शाखाएं फिर मिल जाती हैं और अपने अंतिम रूप में मेघना नाम से यह नदी बंगाल की खाड़ी में समा जाती है. पश्चिम में कोलकाता की हुगली नदी से पूर्व में मेघना नदी तक फैला गंगा-ब्रह्मपुत्र का नदीमुख (डेल्टा) सुंदरबन दुनिया में सबसे बड़ा और कदाचित दुनिया का सबसे उपजाऊ प्रदेश है.
ब्रह्मपुत्र और इसकी सहायक नदियों ने इस समूचे प्रदेश को सांस लेने वाले यादगार घने जंगल दिए हैं जिनके भीतर धूप शायद ही कभी ज़मीन तक पहुँच पाती होगी. जल, आर्द्रता और धूप की ऊष्मा पता नहीं कितनी सदियों से इन जीवित जंगलों में विलक्षण पेड़ों, जीवों, पक्षियों, साँपों, तितलियों और कीड़े मकोड़ों को एक प्राकृतिक कवच देती रही है. इस शामियाने तले मनुष्य का प्रवेश इन जंगलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. प्रकृति जिस विरासत को सदियों से बरकरार रक्खे हुए है, उसी को कुछ ही वर्षों में पूरी तरह नष्ट करने की काबिलियत इंसान के पास है. उसके बांधों ने प्रकृति की दिशा को बदल दिया है और खेती के निरंतर दबाव में बहुत से जंगल कई मीलों तक छंटनी और जलाए जाने के बाद मृत ठूंठों के कब्रिस्तानों में बदल गए हैं. विडम्बना यह है कि इस विनाश को हम विकास की संज्ञा देकर लगातार जायज़ ठहराने की कवायद में जुटे रहते हैं.
गाजोलडोबा के किनारे पर सुनी उस पुरअसरार बाउल की धुन में शरीर और इसके इर्दगिर्द सब जगह व्याप्त प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने का ‘सहजिया’ पंथ निहित था. हम सोचते रहे कि क्या कोई सूरत ऐसी भी हो सकती है कि किसी चमत्कारी अलौकिक क्षण में इंसान की समूची भूमिका प्रकृति की इस हरी चादर, इसकी प्राणदायी नदियों को नष्ट करने वाले खलनायक से बदलकर इसकी रक्षा करने वाले ‘टोहोल’ पर निकले किसी चिरंतन बाउल गायक सी सहज और पूरक बन जाए? लेकिन सवाल है कि तब हमारे तथाकथित विकास और उससे जुड़ी हमारी महत्वाकांक्षा, हमारी राजनीति, हमारी अधिग्रहण की अनंत भूख का क्या होगा?
भूटान और भारत की सीमा रेखा पर बहने वाली मानस नदी के दोनों ओर फैला, दुनिया के सबसे खूबसूरत जंगलों में से एक- मानस अभयारण्य, हमें इस सवाल का जवाब देता है. भयानक क्षरण के बाद इस जंगल की रक्षा की जिम्मेदारी उन्हीं स्थानीय आदिवासियों और बोडो प्रतिनिधियों को सौंप दी गयी थी जिन्होंने कुछ वर्ष पहले इसे तहस-नहस किया था, और सत्ता स्थानान्तरण का यह प्रयोग काफी हद तक सफल रहा था. इन्हीं प्रयासों के कारण आज भी इसके गगनचुम्बी पेड़ों की ऊंची डालों पर एक पेड़ से दूसरे पर आश्चर्यजनक छलांगें लगाते हूलोक बंदरों और बेहद बड़े आकार की मलेशियन गिलहरी के रोमांचकारी करतब देखे जा सकते हैं. हाथियों के झुण्ड यहाँ निर्भीक घूमते हैं और मानस नदी का नीला पानी उसी तरह इसके तट की सुनहरी रेत को दुलारता बहता चला जाता है.
यह कायापलट कैसे हो पाया? मानस के रहस्यमय जंगलों से जो किम्वदंतियां और लोककथाएं जुड़ी हैं उनमें स्थानीय लोगों का गहरा विश्वास है. यह विश्वास उन्हें एक धरातल पर जंगल को बचाने की प्रेरणा और प्राणशक्ति भी देता है. इनमें सबसे व्यापक और प्रचलित कथा ‘मानस की बेटी’ की है जो जंगल की रक्षक है. लोगों के अनुसार यह श्वेत परिधान वाली एक स्त्री है जिसे सचमुच देखने का दावा कई लोग कर चुके हैं. उनका कहना है कि यह देवी हमेशा जंगली हाथियों के झुण्ड के साथ रहती है और वे हाथी किसी बच्चे के तरह उसे अपनी माता समझकर उसके पीछे चलते और उसका हर कहा मानते हैं. कुछ का कहना है कि ये जंगल उसी मानस देवी ने बनाए हैं और वही उनकी संरक्षक है. ये लोग यहाँ जंगल के जानवरों या इसके वृक्षों को मारने या नष्ट करने वालों पर आयी भयानक विपदाओं और दुष्परिणामों का ज़िक्र भी करते हैं. कुछ अन्य धार्मिक लोग उसे शिव की पुत्री साँपों की देवी मनसा से जोड़ते हैं. साठ के दशक में हाथियों को पालतू बनाने वाले ट्रेनर कुमुद कुमार चौधुरी कहते हैं कि स$फेद परिधान वाली वह स्त्री सचमुच थी और एक बार उन्होंने उसे बहुत नज़दीक से देखा था, वह मनुष्यों की भाषा नहीं समझती थी और उन्होंने जब उसे भोजन देने की कोशिश की थी तो उसने इनकार कर दिया था. मानस की वह देवी सचमुच थी या नहीं, यह सवाल दीगर है. बल्कि यह सवाल लातिन अमेरिका साहित्य के जादुई यथार्थ की याद दिलाता है जहाँ एक किंवदंती वास्तविक यथार्थ को एक ऐसे जादुई यथार्थ से जोड़ती है जो है नहीं, पर जिसे अवश्यम्भावी तौर पर ‘होना चाहिए’! इन अर्थों में श्वेत परिधान वाली उस वन देवी का अस्तित्व उस शाश्वत कामना से जुड़ा है कि जंगल हर हाल में बचाए ही जाने चाहिए. माक्र्वेज़ कहते हैं कि उनकी दादी अपनी हर जादुई कहानी इस विश्वास के साथ सुनाती थी कि उन्हें स्वयं उन कथाओं पर यकीन होने लगता था. कुछ इसी तरह यदि सब लोग मानस की उस देवी के अस्तित्व में यकीन करने लगें तो निस्संदेह ये नदियाँ, ये जंगल और ये पेड़ हमारी आने वाली पीढिय़ों के लिए सचमुच बचे रह जाएंगे!
[वरिष्ठ लेखक जितेन्द्र भाटिया का यह यात्रावृत्त पहल पत्रिका से साभार लिया गया है]
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