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बेहद ख़ास है कुमाऊनी रायता

रैत यानी कि रायता. कुमाऊं में इसका ख़ास महत्व है. जिस तरह मैदानों में पनीर की किसी सब्जी या दाल मखनी के बगैर कोई भी थाली अधूरी है, उसी तरह कुमाऊं की थाली भी रैत के बिना अधूरी है. कुमाऊनी रायता जिसे रैत कहते हैं वो अन्य जगहों के रायते से बिलकुल अलग है. ये एकमात्र ऐसा रैत है जिसमें हल्दी पड़ती है और राई का तड़का न लगाकर पीसकर डाली जाती है. यही विशेषता इसको अन्य रायतों से स्वाद में भी बिलकुल अलग कर देती है.
(Traditional Kumaoni Raita Recipe Uttarakhand)

सबसे पहले काठ की ठेकी में जमाया हुआ दही लिया जाता है और उसे हल्का मथकर उसमें ककड़ी को कद्दूकस करके मिलाया जाता है. यहां पर ककड़ी में भी विशेषता है, ककड़ी पहाड़ में खीरे की एक प्रजाति को कहते हैं. मैदानी खीरा एक निश्चित आकार का ही होता है पर पहाड़ी ककड़ी वहां से शुरू होती है जहां मैदानी खीरा बढना बन्द कर देता है. ककड़ी पहले हरी होती है उसके बाद आकार बढने के साथ पीली हो जाती है जिसको पींगई रई काकड़ कहते हैं.

इसके बाद आती है पीगई ककड़ी के हल्का भूरापन लेने की अवस्था जिसे कहा जाता है करड़ी रई काकड़. करड़ी रई काकड़ यानी कि पूर्ण या परिपक्व ककड़ी. ये करड़ी ककड़ी रैत के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है. अगर ये उपलब्ध न हो तो पिगई (पीला) या हरी ककड़ी भी विकल्प है पर पूरा स्वाद तो करड़ी ककड़ी से ही आएगा. पहाड़ में रैत की अनिवार्यता के कारण ही पहाड़ के लोग ककड़ी को कोरकर उसकी रोटी सुखाते या झुल्योर बनाकर रख लेते थे ताकि ककड़ी का सीजन न होने पर इसका रैत बन सके. वैसे करड़ी ककड़ी साबुत तीन चार महिने वैसे भी रख लो तो खराब नहीं होती.
(Traditional Kumaoni Raita Recipe Uttarakhand)

पहाड़ में ककड़ी के अलावा, कच्चे पपीते, लौकी, क्वैराल के फूलों का और पके केले का भी रैत बनता है पर रैत का राजा तो ककड़ी का रैत ही हुआ. ककड़ी को कद्दूकस करने के बाद बीज हटाकर खूब दम लगाकर निचोड़ लेना होता है ताकि ककड़ी की पण्यैनि (पानी का स्वाद) निकल जाय. कद्दूकस को भी कुमाऊनी में रैत्तू कहा जाता है मतलब रैत बनाने वाला. मतलब कुमाऊनी लोगों के लिए इसका सबसे प्रमुख काम रैत के लिए ककड़ी कोरना ही है. अब दही में कोरी (कद्दूकस की हुई) हुई ककड़ी मिलाकर उपर से हल्दी और स्वादानुसार नमक मिला दिया जाता है. अब आती है इसकी मुख्य सामग्री मिलाने की बारी यानी राई मिलाने की. राई को सिलबट्टे पर पीसकर एक निश्चित मात्रा में मिला दिया जाता है. ये राई ही तो है जिसके कारण इस व्यंजन का नाम रैत पडा. राई मतलब कुमाऊनी में रै.

अब अगर हरे धनिये का सीजन हुआ तो हरे धनिये की पत्तिया इस रैत के उपर डाली जाती हैं. अन्य जगहों की तरह पहाड़ में हर सीजन में धनिया नहीं मिलता था तो ये हो जरूरी नहीं हुआ.
(Traditional Kumaoni Raita Recipe Uttarakhand)

परम्परागत तरीके से रैत बनाने का यही तरीका हुआ. इसमें न तो कोई मसाला धनिया जीरा पावडर या हरी मिर्च कुछ नहीं डाली जाती थी. बाद में कुछ लोग हल्का मीठा, हरी मिर्च, गरम मसाला मिलाने लगे पर मेरे विचार से यह तो स्वाद को मारते ही हैं.

रैत बनाने के बाद इसको तुरन्त खा लिया तो भी इसका स्वाद नहीं आता. बनाने के बाद कम से कम चार पांच घंटा इसको रख दिया जाता है और इसका स्वाद उभरता रहता है.

पहले गांवों में घर की हल्दी, डली वाला नमक होता था. बड़े बुजुर्ग कहते थे- जरा लूण छोईण दिओ और हल्द क रंग उण दिओ तब अन्ताज आल. पहाड़ की हल्दी तुरन्त रंग नहीं देती है. फिर वैसे भी हल्दी सिर्फ रंग ही नहीं देती इसका अपना स्वाद भी होता है. जो भीगने पर ही आता है. ऐसा ही रै यानी राई के साथ भी होता था. रैत में राई मिलाने के बाद तीन चार घन्टे बाद ही राई अपना स्वाद दे पाती है, इसको रै चढना बोलते हैं. रैत में से एक विशेष महक आने लग जाती है और आस-पास पता चल जाता है कि रैत बना है.

रैत की विशेषता है कि इससे खुश्याणी की झौय न लगकर राई की झुनैन लगनी चाहिये. तीखापन मुंह में न लगकर बरमान चढना चाहिये. यही रैत का स्वाद हुआ. पहाड़ी रैत की एक विशेषता ये भी है कि ये चाय पकौड़ी की दुकानो में भी बिकता है. आप चाहे रायता पकौड़ी लें, चना रायता लें या आलू के गुटके रायता. सब जगह खपेगा.
(Traditional Kumaoni Raita Recipe Uttarakhand)

कोई मेहमान आ जाय और दूसरी सब्जी का विकल्प नहीं है तो रायता बना लिया जाता है. इसका थाली में होना सब पूर्ति कर देगा. सुबह नाश्ते में किसी चीज के साथ हो या दिन के दाल-भात के साथ या फिर रात की रोटी के साथ सब जगह इसका महत्व है.

भात के साथ मिक्स गुदी दाल और टपकिया हो इसके उपर रैत डालकर ओला जाय और दे सपोड़ा-सपोड़ी मजा ही आ जाता है. ख़ास मेहमान के लिए बनने वाली सिगल पुवे के साथ रैत बनाओ सिगल पुवे का स्वाद दोगुना बढ जाता है.

कुछ समय पहले तक पहाड़ के मेलों में ठेकी में रैत बिकने को भी आता था. केले या तिमूले के पत्तों में पांच पैसे दस पैसे का मिला करता था. पांच पैसे का एक डाडू. अगर किसी की बहन या बेटी नजदीक के गांव में ब्याही हो तो उसकी भिटौली में रैत भी जाता था, ठेकी को रस्सी से लटकाकर रैत भरकर ठेकी ही बाट् लगा ली जाती थी.

हर काम काज में रैत बनाना जरूरी हुआ यह शगुन माना जाता था. खाने की पंगत में सबसे पहले थाली में मांस की दाल का बड़ा, भूटी खुश्याणी और रैत ही परोसा जाता था. खाना उसके बाद आता था. बड़ा, रैत और खुश्याणी जब थाली में आती तो यकीन मानिये खाने वालों की राव टपकनी शुरू हो जाती थी. बच्चे को तुरन्त खा जाते पर बड़े लोग पंगत के प्रोटोकाल के तहत खा नहीं पाते तो उनके हाथ बड़े और रैत में हरकत तो जरूर करने लग जाते.
(Traditional Kumaoni Raita Recipe Uttarakhand)

कभी-कभी जब सब्जी हमारे मतलब की न बनी हो हम पूरी रोटिया रैत के साथ ही खा जाते बल्कि कई बार भूख से ज्यादा. मेहमान जब खाना खा चुके होते तो उनसे आग्रह किया जाता था- एक रोट रैत दगाड़ खाना कन्. नये-नये दामाद को तो रैत के साथ लास्ट में एकाद् रोटी फालतू ठूसनी ही पड़ती. साग कस हैरौ या भात कस हैरौ न पूछकर रैत कस हैरौ जरूर पूछा जाता था. रैत पर तो कई गीत भी बने हैं- धणियों धूस रैत में, लटकी रैछै मैत में.. पर यह धणियों धुस गीत में ही अच्छा लगता है रैत में नहीं. रैत को तो ये भुसैन ही लगता है.

विनोद पन्त

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वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

इसे भी पढ़ें: फसल का पहला भोग इष्टदेव को लगाने की परम्परा: नैंनांग

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