1999 में फ्रेंच फिल्मकार एरिक वाली ने एक फिल्म बनायी, ‘हिमालया’. नेपाल के ट्रांस हिमालय के नमक संग्रह करने वालों की अद्भुत कहानी. एक ऐसे समुदाय की कहानी जो हिमालयी मरुस्थल में रहते हैं और कठिन चट्टानों से नमक इकठ्ठा कर निचली घाटियों में जाकर उसके बदले अनाज लाते हैं. इस फिल्म में एक किशोर उम्र का लामा है जिसका बड़ा भाई कठिन सफ़र में मर गया है और अब उसे नमक की तिजारत की कठिन यात्रा करनी है. यह लामा ऊंची पहाड़ी पर बसे एक मठ में चित्रकारी करता है और एक दृश्य में वह पेड़ बनाता हुआ दिखाया गया है. लेकिन उसके बनाये पेड़ में अनुभूत सत्य का सार नहीं इसलिए बेहतरीन कला कौशल के बाद भी चित्र बेजान लगता है.
(Traditional Forest Conservation Uttarakhand)
यह रोमांचक कहानी जब अपने अंत में पंहुचती है तब लामा एक और पेड़ बनाता है लेकिन इस बार वह पेड़ बड़ा सजीव लगता है. तब लामा बताता है कि उसने जीवन में पहले पेड़ देखा ही नहीं था, बस बाकी लामा पेड़ बनाते तो उन्हें देखकर पेड़ बना लिए. लगभग अंतिम दृश्य में लामा अपने भतीजे के साथ खड़ा है और एक पहाड़ी की ढाल में एक भोज का पेड़ है जिसे वह देखे जा रहे हैं.
भोज का पेड़ इन ठन्डे पहाड़ों का सबसे ऊंचे उत्तरजीवी वृक्षों में से एक है. इसके बाद कुछ छोटे झाड़ और अधिकतर पौधे ही खुद को खड़ा रख पाते हैं. दुनिया भर के ठन्डे इलाकों में इस पेड़ ने खुद को सर्वाइव किया है और सभ्यताओं को भी संबल दिया है. इसकी सपाट और मजबूत छाल में इबारतें लिखी गयी और इतिहास अंकित किया गया. इसकी सीधी शाखाओं के बल्ली और खम्बे बने और उनपर पर्वतवासियों के आशियाने बांधे. इसकी सूखी टहनियों ने बर्फ के बीच इन आशियानों को गर्म रखा. इसकी सीधी ऊंची शाखों पर नेजे बांधकर हमने अपने देवता खुश किये. छोटे बच्चों के गले में लटकती चांदी की तबीज के अन्दर इसकी सफ़ेद छाल में लिपटे जंतर छिपे रहे.
मेरा इस पेड़ से बहुत छुटपने का रिश्ता है. हमारे घर में कुछ पुराने पोथी पत्रे थे जो भोज में लिखे थे, साथ ही कुछ कोरी छालें भी हमारे घर में हमेशा रहती. हलकी भूरी रंगत लिए सफ़ेद चाल में कहीं कहीं पर भूरी आँखें होती जिसपर लिखने में बड़ा मजा आता. जब मैं पहली बार ऊँचे हिमाल की और गया तो सबसे पहले मुझे यह जोहार में रिलकोट से नीचे नजर आया. छोटे- छोटे पेड़ जिनकी मोटाई को हाथों में पकड़ा जा सकता था. फिर यह बहुतायत में मिला मर्तोली के ऊपर के जंगल में जहाँ इसके साथ हलके गुलाबी-सफ़ेद बुरांश गलबहियां डाले पनप रहे थे. इस घने जंगल में बहुत अन्दर तक भटका और सैकड़ों अनजाने फूल पौधों से मिला. भीषण जहरीला नीला गोबर्या विष या नीला अतीस, दूधिया रंगत वाला अतीस, कड़वी जड़ वाली अमृत सामान कुटकी और न जाने क्या क्या इस गहन वन में मिला.
व्यास में ज्योंलिंग्कोंग की और जाते हुए कुंडकांग के बुग्याल में बर्फ और हवाओं से लड़ते लड़ते पहाड़ की ढलान की साथ झुका आखिरी भोज मिलता है, दावे की तरफ भी ऐसा कोई अकेला पेड़ होगा और आँचरी ताल की ओर भी. इन घाटियों में घर गाँव के ऊपर कोई न कोई जंगल जरूर है चाहे वह भोज के ऊंचे पेड़ों का हो या जुनिप्रस की छोटी घनी झाड़ियों का.
हिमालय के जवान होते भूगोल का स्वभाव बहुत स्थिर नहीं है और इन घाटियों में तो जमीन वैसे भी तेज धूप और भीषण ठण्ड के तेज तापान्तर के कारण और भी अस्थिर है. भारी सी दिखने वाली चट्टान भी बहुत भुरभुरी होती है. ऐसे में पहाड़ियों की तलहटी में बसे इन गाँवों को भूस्खलन जैसे खतरों से कौन बचाता है? आप किसी भी गाँव में चले जाएँ एक बात सब जगह मिलती है कि गाँव के ऊपर का इलाका ऐसा होता है जहाँ से आम तौर पर कोई भी पेड़ नहीं काट सकता. पेड़ काटना तो क्या कोई झाड़ी या सूखी लकड़ी भी नहीं उठा सकता. लोगों को ऐसा करने से रोकता कौन है? कोई कानून? कोई जुर्माना? नहीं. इसके लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं. जो भी व्यवस्था बनी है उसे लोगों के पीढ़ियों से जीते हुए बनाया.
जोहार में सिंगुल नाम की व्यवस्था है जो बताती है कि गाँव के ऊपर का इलाका देवता समान है, देवता ही है. इसे छेड़ना काटना, उसमें व्यवधान करना सांस्कृतिक रूप से वर्जित माना जाता है. जोहार के बिल्जू गाँव के ऊपर तो डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा उम्र के बिल्ल के झाड़ीदार झुण्ड पाए जाते हैं. इन घने झुंडों के भीतर एक पूरा पर्यावास है हिमालयी परिंदों, रोडेंट और शिकारियों का.
व्यास-दारमा में ऐसे जंगलों को देवता को चढ़ाया गया है या फिर पूरा इलाका की देवीय मान लिया गया है. व्यास में पेयर (ह्या रो सै), कुटी में करबे का बुग्याल, तिदांग में हम्बाल सै, सिपू में महादेव खोला आदि ऐसे अनेक जंगल और बुग्याल हैं जिनको दैवीय मान कर संरक्षित किया गया है. इन इलाकों में जाने के लिए तमाम वर्जनाएं और कायदे रचे गए और कम से कम मानवीय दखल को सुनिश्चित किया गया. इस तरह के संरक्षित इलाकों का सबसे बड़ा उदाहरण तो छिपला केदार का बुग्याल है. निचले इलाकों में भी हमने देवताओं और देवियों को जंगल चढ़ा कर उन्हें वर्जित कर कुछ हद तक बचाया और सरकारी अमले की मुकाबले कहीं अधिक सफलता से बंजर हरे किये हैं. यह हमारे पुरखों की ऐसी थाती थी जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते थे. वह पुरखे जिन्होंने खुद को प्रकृति का स्वामी कभी नहीं माना. वह जो एक भरल की सी कुशलता से पहाड़ चढ़ सकता था, अहंकारी एन्थ्रोपोसेंट्रिक विचार के आने से पहले कभी सागर माथा और नंदा के सर पर सवार नहीं हुआ.
(Traditional Forest Conservation Uttarakhand)
आज भी बिना इन रहवासियों के कोई भी इन पहाड़ों में नहीं चढ़ पाता. जहाँ चढ़ने में आज के एडवेंचर प्रेमी साहसी हजारों के जूते और लाखों के सुरक्षा उपकरण लिए पंहुचते हैं वहां पर एक अण्वाल त्रिपाल का तम्बू डाले, चप्पल पहने आराम से बीड़ी फूंकता मिल जाता है. जब शैलानी बिरथी फॉल के नीचे ढाई फुट के पत्थर पर चढ़कर फोटो खिंचाकर खुद को एडवेंचरस घोषित करता है ठीक उसी वक्त उससे सत्तर मीटर ऊपर नब्बे अंश की खड़ी ढाल में एक पचास साल की अम्मा घास काट रही होती है. तब इस सबसे अनजान कहीं दूर बुग्याल के छोर में कोई अकेला भोज का पेड़ अपने साथ सभ्यताओं की गाथाएँ समेटे हवाओं से जूझता है.
मानसून के बीचों-बीच तेदांग गाँव में उस बूढ़े पेड़ के नीचे रखे कुछ गोल काले पत्थरों के पास दिया जलाकर वह बुजुर्ग हमें बताते हैं कि हम आज भी अपने गाँव के ऊपर के जंगल से कोई पेड़ नहीं काट सकते. यहाँ तक कि देवता को चढाने के लिए आलम समो भी कुछ मील दूर किसी और जंगल से लाते हैं. कहते हैं इस पेड़ की उम्र इस गाँव के बराबर है. जब उनके पुरखे यहाँ आये तो यहाँ पर उन्होंने एक ठोस लकड़ी की बल्ली पर एक दूसरी लकड़ी को तेजी से गोल गोल घुमाकर आग जलाई. इस बल्ली पर इससे एक घाव हो गया. अगले साल फिर उसी बल्ली पर ऐसे ही आग जलाकर इस पेड़ के नीचे पूजा की, बल्ली पर एक और घाव हो गया. पीढियां बीत गयी, हर साल ऐसे ही पूजा होती रही और एक नया घाव बल्ली पर बनता गया. छोटा सा भोज बूढ़ा हो चला, लकड़ी की बल्ली आधी जल गयी वरना इसकी उम्र का अंदाजा लगाना आसान होता.
(Traditional Forest Conservation Uttarakhand)
आज इस गाँव के ऊपर एक रास्ता बदलने वाले खतरनाक नाले का संकट मंडरा रहा है और नीचे से धौली इसे काट रही है. बुजुर्ग उदास आँखों से मलवे में दबे खेतों को को देखता है, फिर बूढ़े भोज को देखता है और फिर शून्य में आखें गढ़ाए खामोश हो जाता है. इस ख़ामोशी में दबी गहरी उदासी हमारे मन के तल में बैठ जाती है और हम मौसम को भांपते हुए अगले पड़ाव की ओर जाने की योजना बनाते हैं. आसमान घिर आया है. ऐसा लगता है यह बादल दिन में ही रात कर देना चाहता है. हम आधे महीने से नीचे की ख़बरों से अनजान हैं. पता नहीं वहां मानसून क्या कुछ कर रहा है. न जाने कहाँ बादल फटा है और कोई बूढ़ा पेड़ अपनी जड़ों से उखड़ा है.
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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1 Comments
दीप चंद्र पांडेय
हमारी सभी मान्यताओं के पीछे एक गहरी सोच है जिसे आर्थिक, लैंगिक, या सामाजिक समानता की ओट में नकारा नहीं जा सकता।