पिज्जा, बर्गर और फास्ट फूड के इस दौर में यदि उत्तराखण्ड के परम्परागत व्यंजनों की बात करें तो आधुनिक पीढ़ी को ताज्जुब नहीं होना चाहिये कि उस दौर में रिश्तेदारी में जाने के लिए भी ये ही पकवान मिठाई की जगह थे. मिठाई जैसी चीजें जब बड़े शहरों तक ही सीमित थी तो उत्तराखण्ड के लोगों ने इसके विकल्प तलाश लिये थे. बिस्कुट तो ब्रितानी दिमाग की उपज थी , लेकिन पहाड़ियों ने इसका विकल्प निकाला – खजूरे. बिस्कुट की तरह ही टिकाऊ तथा स्वाद में लजीज. बनाने के लिए कोई न कोई विशेष उपकरण और न खास तजुर्बे की जरूरत. Traditional Fast Food of Uttarakhand
ब्राह्मणेतर परिवारों में बहू-बेटियों के ससुराल और मायके जाने में लगड़ (पूड़ी) आदि की छापरी ले जाने का रिवाज था, जब कि ब्राह्मण परिवारों से ताल्लुक रखने वाले, रिश्तेदारी में खजूरे पकवान के रूप में साथ ले जाते. बहू-बेटियों का मायके अथवा ससुराल आना-जाना हो, तो पहली शाम ही तोहफे के तौर पर ले जाने के लिए खजूरे बनाये जाते. पड़ोस से आने वाली पकवान की गन्ध यह बताने के लिए पर्याप्त थी कि अमुक परिवार का सदस्य कल कहीं रिश्तेदारी में जा रहा है. Traditional Fast Food of Uttarakhand
रेसिपी इतनी आसान – आग पर गुड़ अथवा शक्कर का पाक (गाढ़ा घोल) बनाइये , उसमें घोल में आटा गूंथ लीजिए. मुलायम करने के लिए गूंथने से पहले आटे को घी से मोइन कर लीजिए. चाहें तो गूंथते समय सौंफ भी डाल सकते हैं. आटा थोड़ा सख्त गूथना होता है , ताकि बिना तले वे आपस में चिपक न जायें. बड़ी बड़ी लोई बनाकर रोटी की तरह बेल दीजिए. ध्यान रहे कि बेली गयी रोटी की मोटाई कम से कम एक सेमी हो. चाकू से किनारे के हिस्से निकालकर इसे चैकोर आकार दीजिए. इस चैकोर टुकड़े को खड़े में ढेड़ या दो इंच की दूरी पर काट लीजिए, और इसी तरह इतनी ही दूरी पर आड़े काट लीजिए. यदि दूसरा आकार देना चाहें तो तिरछा भी काट सकते हैं. घी, रिफाइण्ड अथवा सरसों के तेल में हल्की आंच में ब्राउन होने तक तल लीजिए. निकाल कर ठण्डा होने छोड़ दीजिए. Traditional Fast Food of Uttarakhand
आपके खजूरे तैयार हो गये , जिनको आप कई हफ्तों तक इस्तेमाल कर सकते हैं. मायके अथवा ससुराल से भेजे गये ये पकवान ‘पैण’ के रूप में आस-पड़ोस तथा गांव में वितरित किये जाते. ‘पैण’ शब्द की व्युत्पत्ति भी शायद ‘पौण’ (मेहमान) के आने से जुड़ी हो सकती है. जब आज की तरह यातायात के साधन नहीं थे और कई कई दिनों की पैदल यात्रा के बाद रिश्तेदार के पास पहुंच पाते थे, उस परिस्थिति को ध्यान में रखकर कितनी नायाब सोच थी हमारे बुजुर्गों की. परिस्थितियां बदली, मिठाई ले जाने का चलन बढ़ा, लेकिन खजूर ले जाना परम्परा का हिस्सा तब भी लंबे समय तक बदस्तूर जारी रहा. आज के दौर में यह चलन लगभग अन्तिम सांसे गिन रहा है. Traditional Fast Food of Uttarakhand
उस दौर में गुड़ पापड़ी भी रिश्तेदारी में आदान-प्रदान का एक व्यंजन हुआ करती थी जिसे सत्तू का ही एक स्थानीय प्रकार कहा जा सकता है. गुड़ पापड़ी बनाने के लिए घी में आटे को ब्राउन होने तक हल्की आंच में भूना जाता और जब आटा भुन जाय तो उसमें गुड़ कुतरकर 2-3 मिनट तक साथ भूना जाता है, चाहें तो इसमें सौंफ भी डाल सकते हैं. यह भी काफी दिनों तक चलने वाला तथा यात्रा के दौरान वक्त-बेवक्त खाया जाने वाला आइटम था.
कई लोग जिनके घर में धिनाली (दूध) का अभाव होता, रिश्तेदार खिरखाजे भी ले जाते. खिरखाजे वैसे तो एक प्रकार से चावल की खीर ही होती, लेकिन उसका पानी इतना सुखाया जाता कि वह सख्त हो जाती, जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में भी सहूलियत होती और खीर से ज्यादा टिकाऊ भी. Traditional Fast Food of Uttarakhand
बच्चों के लिए आज की तरह न तो चाकलेट थी और न टॉफी-चिप्स जैसी चीजें. बच्चों के लिए ऑरेंज कैण्डी ही होती जिसे हम विलायती मिठाई बोलते थे. बल्कि अपने छुटपन में तो संक्षिप्त कर विलै मिठै ही बोलते. विलायत तो तब हमारे समझ के बाहर की बात थी, इसलिए सीधे जो मुंह में जाकर विलै (घुल) जाय, वही विलै मिठै हुई. नारंगी के फांकों के आकार में और नारंगी के फांकों के रंग और स्वाद में बिना रैपर के खुले हुए ही बिकती, ऑरेंज कैण्डी नाम से आज भी यदा कदा किसी दुकान पर दिख जाया करते हैं.
गट्टे अथवा मिश्री भी बच्चों को देने की वस्तु हुआ करती. गट्टे भी एक तरह की मिश्री का ही रूप था, जो मुलायम होते थे. उस दौर में बेसन व खण्डसारी से बनने वाले सेब भी प्रचलित थे. भुने हुए बेसन के पतले-लम्बे टुकड़ो को चाशनी में डुबा दिया जाता, जिससे ठण्डे होने पर उनके बाहर चाशनी का कवर चढ़ जाता. आज इस तरह के सेब ढूँढने पर भी नहीं मिलते. चना-गुड़ भी बच्चों की पसंदीदा चीजें हुआ करती. Traditional Fast Food of Uttarakhand
जिनके घरों में धान की खेती होती, वे खाजे अथवा च्यूड़े भी आदान-प्रदान करते. च्यूड़े बनाने के लिए धान को कुछ दिन भिगोने के बाद भूना जाता और फिर ओखल में कूटकर छिलका अलग किया जाता तथा इसमें अखरोट के टुकड़े अथवा भंगीरा मिलाकर लोग चाव से खाते.
कुल मिलाकर जो भी चीजें तब प्रचलित थी, वे टिकाऊ होने के साथ ही स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक नहीं थी. आज बदलते दौर में इनकी यादें ही अब शेष बची हैं.
– भुवन चन्द्र पन्त
लेखक की यह रचना भी पढ़ें: ऐसे बना था नीमकरौली महाराज का कैंची धाम मंदिर
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
View Comments
Amazing information I get through kafal tree regarding our state Uttarakhand. I am thankful to one of my friend who referred me about kafal tree.
Kindly let me know if I can help in any terms to spread our culture.