पहाड़ में मौसम के बारे में जानकारी किसम-किसम के लोक विश्वास के हिसाब से लगायी जाती. सूरज की गति के उत्तरायण होने दक्षिणायन होने, साल भर में नियत पैटोँ में मनाई गई संक्रांति के साथ धूप कब तेज होगी, कब काले बादल आ सतझड़ करेंगे, कब लगेंगे हाड़ कंपाने वाली ठंड के दिन? ऐसी कई बातों के देखे सुने भोगे अनुमान व संकेत होते. इन्हीं से बनते लोक विश्वास. जो बड़े बूढ़ों की जुबान पर होते. समय समय पर उनका मुहं खुलता और तब पता लगतीं वो बातें जिन्हें नानतिन कभी सुनी अनसुनी कर देते तो कई बार सुन याद भी कर लेते.
(Traditional Belief of Weather Information)
लम्बे समय से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती ये बातें आप्त वचन हो जातीं. आखिर बुबू ने बताया था. दादी ने सुनाया था. कका भी कहते रहे. यही बन जाता अनुभव सिद्ध अवलोकन. कुकड़ू या मुर्गे की बांग गहरी नींद के बीच सुन ली तो अंदाजा हो गया कि बस रात बीतने वाली है. यही होती उस समय की कुक्कू क्लॉक.अब बिस्वास न हो तो बाहर जा खुला आसमां देख लो वो जो तारा तेज चमक रहा झिल मिल दमक रहा शुक्र तारा है. ये दिखा तो बस सुबह होने ही वाली है.अँधेरे में अब चली घड़ियों में रेडियम सी दमक इसी को देख सूझी होगी.
अब आज की तरह की घड़ी तो थी नहीं कि टेबल पर रख लो हाथ पे बांध लो. पुराने लोग बताते कि पहले के बखत में होती जल घड़ी जो ताँबे से बना यन्त्र होता. इस जल घड़ी के अलावा तो समय बताने वाला, बारिश और हयूं कि जानकारी देने वाले किसी यँत्र औजार उपकरण की फाम न थी.
अपने आस पास के पेड़ पौंधों जीव जंतुओं की हरकतों पर लगातार नजर रखने और उसके बाद कुछ हो पड़ने की संभावना से मौसम के बारे में बड़े सटीक अनुमान लग पड़े. गौरैया जब कभी जमीन पर लोटने लगे या आस पास जमा पानी पर पँख फड़फड़ा नहाने लगे तो आमा तुरंत कहती अब द्यो पड़ोल.
(Traditional Belief of Weather Information)
कई बार ऐसा भी होता कि आसमां में एक भी बादल न होता तो आमा को उसके पकास पर चिढ़ाया भी जाता पर कुछ ही देर बाद न जाने कहाँ से उमड़ घुमड़ बादल आ बरस जाते. ऐसे ही किरमोले या चींटियां अपनी ठौर या जमीन दरार पर कहीं बनाए बिल से अंडे ले कर एक लाइन में उन्हें कहीं दूसरी ठौर ले जाने लगें. सब जमा माल-मत्ता सारें तो तुरंत अनुमान लगता कि बस थोड़ी देर में द्यो पड़ने वाला है यानी बारिश होगी और वो भी जबरदस्त. पांच दिन वाली भी हो सकती है और सात दिन वाली सतझड़ भी. बड़े बिस्वास से कका समझाते अब चीटियाँ कोई बेकूफ़ थोड़ी हैं जो इत्ती मेहनत खाली मूली करें. ये देख लो सारे सुफेद सुफेद अंडे दूसरी जाग कि ओर ले जा रहीं हैं.
ऐसे ही आकाश में उड़ता हुआ बाज अगर उड़ते उड़ते वहीं एक जगह पर रुक जाये तो ये भी रिमझिम बरसने का सूचक माना जाता .कहा जाता है कि अगर चील आकाश में डोलते उड़ते “सारुल दीदी पाणी -पाणी” बोले तो भी बादल आ जल बरसाते हैं. फिर एक लम्बी पूँछ वाली चिड़िया जिसे लंपुछड़िया कहते हैं वह भी कुछ “द्यो कका पाणी पाणी ” जैसा गाने लगे तो भी बरखा उसकी पुकार सुन लेती है.
पहाड़ों तक न जाने कहाँ कहाँ देश विदेश से उड- उड आ गौतार घर की छतों के इनारे किनारे दुकानों में अपने मिट्टी जैसे घोंसले बनाते हैं.इनको बड़ा शकुनिया भी माना जाता है. जानकार इनकी आवत जावत देख बताते हैं कि जब ये अपने घोंसले और बाहर की तरफ ज्यादा सर -फर करने लगें तो समझ लो कि अब बस बरखा होने ही वाली है.
(Traditional Belief of Weather Information)
जंगल की ओर जानवर ले जाये जाते हैं ताकि वो ताजी घास भरपेट चर सकें. गाँव के परिवारों के जानवर साथ -साथ ले जाये जाते हैं ताकि उनकी संगत भी बनी रहे बाघ -वाघ का खतरा भी न रहे और चराने वाले में एक आध से ही काम चल जाये.अब जंगल में चरते -चरते अचानक घरेलू पशु पूँछ उठा कर भागने लगें तो चरवाहा समझ जाता है कि कुछ देर में ही द्यो पड़ने वाला है सो जंगल छोड़ गाँव की तरफ फरक लेने में ही भलाई है.
बादल आते हैं घिरते हैं पर हमेशा बरसते नहीं. पर जब बादल घिरे हों और पूरब या उत्तर दिशा की ओर बिजली चमकने लगे तो संकेत जानिए कि अब तो ये बरसेंगे ही. बारिश के मौसम में अचानक ही धनौल यानी इंद्रधनुष दिख जाये तो यह बताता है कि अब बरखा थम जाएगी. आसमान में जब बादल छितर कर छोटे छोटे रुई के गोले जैसे हो जाएं, बिखर जाएं तो ये बारिश के रुकने के संकेत हैं. जब खतड़ुआ मना लेते हैं तब भी आमा का कहना होता था कि अब द्यो त नि पड़ोल ठंड शुरू है जालि.ऐसे ही रंग बिरंगा हो पड़े आकाश कभी गुलाबी कभी पीला कभी ढेरों रंग समेटे तो यह भी बरखा के रुक जाने की फाम होती.
कई ऐसे मंदिर भी हैं जहां विशेष पूजा कर बारिश हो जाने की पुकार लगायी जाती. तब जब खेतों में बांजा पड़ जाता. मौसम होने पर भी इन्द्र देव रूठे रहते. तो पंडित लोग पूरे अनुष्ठान के साथ उन्हें मनाते. इनमें सोर घाटी में देवदार के पेड़ों से भरे चँडाक से आगे मोस्टा देवता का मंदिर खूब प्रसिद्ध है . यह मोस्टमानु के नाम से जाना जाता है. यहाँ अर्ध गोलाई का मुकुट लिए शिलिंग के पेड़ भी हैं. कहते हैं कि अक्सर इनमें तड़ित गिरता है.
बरखा काल में जब घनपुतली खूब उड़ने लगें तो यह कहा जाता है कि अब धानों की पौंध तैयार करने का सही टैम आ गया.
(Traditional Belief of Weather Information)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
इसे भी पढ़ें : जाड़ इलाके की नमकीन चहा ‘ज्या’
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…