आजकल तो भाबर में अब शहर तो छोड़िए गांव-गांव बिजली की चमक पहुँच गयी है. चार दशक पहले ऐसा नहीं था. भाबर के अधिकतर गांव रात को अधेरे में डूबे रहते थे. रातों में गांव में एक अजीब तरह की नीरवता और शान्ति पसरी रहती थी. गांव में रात के सन्नाटे को कुत्तों के यदा-कदा भूँकने की आवाजें ही तोड़ती थी. रात के समय ढिपरी वाली लैम्प, लालटेन व चिमनी वाली लैम्प ही उजाले के एकमात्र सहारा होते थे. रात को इधर-उधर आने-जाने व खेतों में सिंचाई की देख-रेख के लिये टार्च बहुत ही मददगार होती थी. अधिकतर परिवारों में दो स्यल वाली टार्च ही होती थी तो कुछ परिवारों में तीन स्यल वाली टार्च भी होती थी. तीन स्यल वाली टार्च थोड़ा दूर तक रोशनी फेंकती थी.
(Torch Memoir by Jagmohan Rautela)
तीन स्यल वाली टार्च कम लोगों के पास इसलिये होती थी, क्योंकि उसमें एक स्यल ज्यादा लगता था अर्थात् खर्च अधिक होता था. और एक स्यल का अधिक खर्चा ही लोगों को तीन स्यल की टार्च लेने से रोकता था. जो लोग रात को जंगल जाकर शिकार करने का शौक रखते थे, वे लोग पांच स्यल वाली टार्च रखते थे. “जीत” कम्पनी की टार्च ही आमतौर पर उन दिनों मिलती थी. टार्च के खराब होने पर हल्द्वानी के बाजार में उसे ठीक करने वाले कारीगर भी होते थे. होली के बाद जब गर्मी के मौसम की शुरुआत होती थी तो टार्च की याद भी आने लगती थी. जिन लोगों की टार्च खराब होती थी, वे उन्हें करवाने के हल्द्वानी बाजार का रुख करते थे. बहुत ज्यादा खराब होने पर उसे कबाड़ी को बेच देना ही एक मात्र रास्ता होता था, क्योंकि वह टीन की बनी होती थी.
टार्च की देखभाल भी करनी पड़ती थी. यह बात कुछ अजीब लग सकती है, लेकिन ऐसा होता था. हर रोज सवेरे टार्च के स्यल निकाल लिये जाते थे या फिर उनमें से एक स्यल को उल्टा कर दिया जाता था ताकि उसके करंट का सर्किट टूट जाय. ऐसा इसलिये किया जाता था ताकि असावधानीवश कहीं टार्च का बटन ऑन न हो जाय. ऐसा होने पर स्यलों के असमय ही खत्म होने की सम्भावना रहती थी. इसके साथ ही लम्बे समय तक टार्च के अन्दर स्यलों के पड़े रहने से उनके लीक होने का खतरा भी रहता था. जिससे टार्च के सर्किट के खराब होने का डर रहता था. शाम होते ही स्यलों को टार्च में डाला जाता था या फिर उल्टे किये गये स्यलों को सीधा कर दिया जाता था.
(Torch Memoir by Jagmohan Rautela)
बरसात के दिनों में कई बार स्यलों को सीलन से बचाने के लिये दिन में धूप में भी रखा जाता था. कई बार स्यल और टार्च के ढक्कन के बीच में हल्का सा गैप बन जाता था. जिसके कारण करंट का सर्किट नहीं बनता था और टार्च नहीं जलती थी. ऐसे में सर्किट को पूरा बनाने के लिए स्यल और ढक्कन के बीच में दस पैसे का सिक्का लगाया जाता था. वह सिक्का सिल्वर का होता था, जो करंट का सर्किट पूरा कर देता था और टार्च जलने लगती थी.
जाड़ों में चूँकि सांप–कीड़ों का डर नहीं रहता था, इसलिए टार्च की आवश्यकता भी ज्यादा महसूस नहीं की जाती थी. लोग अँधेरे में ही बिना किसी डर के इधर–उधर चले जाते थे. पर जैसे ही होली के बाद गर्मी बढ़ने लगती थी तो वैसे ही घर के किसी कोने में पड़े टार्च की याद आ जाती थी और उसे हर तरह से चैक किया जाता था कि वह सही तरीके से जल रही है या नहीं? अगर वह किसी भी तरह से जलने में आना–कानी करती तो उसे तुरन्त बाजार टार्च ठीक करने वाले कारीगर के पास ले जाया जाता. और उससे हिदायत के साथ टार्च को ” अच्छी ” तरह से ठीक करने को कहा जाता, ताकि वह रात के समय किसी भी तरह से धोखा न दे. हल्की-फुल्की खराबी होने पर कारीगर थोड़ी देर में उसे ठीक कर देता. कुछ ज्यादा खराब होने या फिर तत्काल ठीक करने का समय न होने पर दो-चार दिन बाद ही टार्च मिलती थी. गर्मी और बरसात के मौसम में टार्च जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा रहती थी.
(Torch Memoir by Jagmohan Rautela)
पूरा लेख यहां पढ़ें: अथ टार्च, लालटेन, लम्फू और ग्यस कथा
जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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