आखिर गुजर गए 32, बड़ा बाज़ार, मल्लीताल के हमारे ठुलदा
वर्ष 2013 में एक महत्त्वाकांक्षी योजना के रूप में मैंने अपनी नैनीताल की स्मृतियों पर केन्द्रित आत्मकथात्मक आख्यान ‘गर्भगृह में नैनीताल’ लिखा. जैसा कि होना ही था, यह किताब उसके अपने ‘गर्भगृह’ नैनीताल में ही अचर्चित और अंततः अतीत बनकर रह गयी, सिर्फ़ आठ सालों में. और यह किसी एक किताब की कहानी नहीं है, समूचे हिंदी लेखन के ‘गर्भगृहों’ की यही कहानी है. यह कहानी अपनी जड़ों को खुद ही अपने हाथों से काटकर परायी बैसाखी के सहारे चलने में खुद को धन्य समझने वाली परजीवी मानसिकता की क्रूर बानगी है.
(Thulda Article by Batrohi)
मैं यहाँ अपना कोई स्पष्टीकरण देने के लिए हाजिर नहीं हुआ हूँ. जो समाज इतना बेगैरत हो कि उसे अपने पुरखों के स्मरण में शर्म महसूस होती हो, उसे सिर्फ एक लेख लिखकर बेहोशी से जगाया नहीं जा सकता. तुरंत सवाल उठेंगे, महज पांच संसदीय सीटों वाले राज्य के छोटे-से टुकड़े में रहने वाले इस दंत्य ‘स’ वाले साह समाज के बारे में जानकर कोई करेगा भी क्या? वोट कमाने के लिए उसकी कोई जातिगत अस्मिता भी नहीं है; जो थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे लोग हैं, वे भी हमेशा परम्परागत खांचों में खुद को फिट करने की जुगत में रहते हैं. ऐसे में देवभूमि के ‘देव-भीरु’ इन्सान के दिमाग में यह बात आ ही कैसे सकती है कि ‘गर्भगृह’ का अर्थ मंदिर के देवता से जुड़े स्थान के अलावा किसी प्रेरक इन्सान का रहवास भी हो सकता है.
‘गर्भगृह में नैनीताल’ नैनीताल के उस घर की कहानी है जहाँ मैंने गाँव से आकर 1956 में शरण पाई थी और उस घर से ही अनेक छलांगें लांघता अपने वर्तमान मुकाम पर पहुंचा. वह मेरी बुआ का घर था जिसके अन्दर एक भरा-पूरा परिवार रहता था. इस परिवार की कोई शैक्षिक या व्यावसायिक उपलब्धि नहीं थी. परिवार में बुआजी के जेठ थे, जिन्हें लोग ‘बड़ेबाबजी’ के संबोधन से पुकारते थे. बुआ के देवर नाथसाह जी का परिवार वह केन्द्रीय परिवार था जिनके बड़े बेटे थे ‘ठुलदा’ यानी सुन्दर लाल साह, जिनका कल 11 जुलाई को 93 वर्ष की उम्र में देहांत हो गया.
(Thulda Article by Batrohi)
बुआ निःसंतान थी, मगर मल्लीताल के बड़ा बाज़ार का पूरा मुहल्ला उन्हें ‘चाची’ पुकारता था. उसमें अनेक धर्मों, जातियों, उम्र और वर्गों के लोग शामिल थे. आसपास के हम कई हम-उम्र बच्चे इस घर में सुबह का नाश्ता और बुआ का बनाया दोपहर का नाश्ता खाते थे, जिसमें कई बार चार बजे वाले कलेवा में सूखी रोटी और नमक शामिल रहता था. मगर तब वह भोजन हमें अमृत से बढ़कर लगता था.
बुआजी के स्वामित्व में 31 और 32 नंबर के दो सेट थे, जिनकी भूतल स्थित दुकानों से बहुत मामूली किराया आता था, शायद पाँचवे दशक में सौ रूपए सालाना के आसपास. बाद में बहुत खुशामद-आवेदनों के बाद यह राशि एक दुकान का हजार-डेढ़ हजार सालाना तक बढ़ा दी गयी जिसमें आज तक अधिक बढ़ोत्तरी नहीं हुई है, सिवा दस प्रतिशत सालाना की बढ़ोत्तरी के. बुआजी की मृत्यु के बाद किराया उगाही का काम ठुलदा ही करते थे. मल्लीताल के मुख्य बाज़ार के लगभग बीचों-बीच स्थित इन दुकानों को खाली करवाने के लिए उन्होंने कोर्ट की भी शरण ली ताकि वो खुद अपना कोई कारोबार कर सकें मगर मुकदमा उनके पक्ष में नहीं जा सका. किरायेदारों के साथ इस तरह के घरेलू रिश्ते-से बन गए थे कि कभी उन्होंने सम्बन्ध नहीं बिगाड़े, इसी उधेड़बुन में एक दिन वो खुद भी इस दुनिया से चल बसे.
ठुलदा हमारे पूरे मोहल्ले के ठुलदा थे, इस रूप में अभिभावक भी. उनके व्यक्तित्व को लेकर मैंने एक कहानी बुनी थी, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुलदा’ जिसे कथा-रूप देने के लिए उसमें अनेक काल्पनिक चरित्र गढ़े. इस कहानी का मेरे वास्तविक ठुलदा से कोई लेना-देना नहीं था, मगर जब मैंने अपनी आत्मकथा ‘गर्भगृह में नैनीताल’ के चौथे अध्याय ‘बत्तीस बड़ा बाज़ार, मल्लीताल: नैनीताल का गर्भगृह’ के परिशिष्ट के रूप में इस कहानी को संकलित किया तो खुद ठुलदा को भ्रम हो गया कि मैंने यह कहानी उन्हीं पर लिखी है और कहानी के सारे पात्र उनके जीवन से जुड़े हैं. यह भ्रम किसी को भी हो सकता है, क्योंकि कहानी और वास्तविकता के बारीक विवरणों के अंतर को समझ पाना हिंदी के पाठकों में ही नहीं है, ठुलदा में कैसे संभव था! अंततः ठुलदा तो इस फर्क को समझ गए, मगर हिंदी समाज की समझ को क्या कहेंगे जो आज भी गर्भगृह का अर्थ इन्सान का नहीं, देवता का रहवास मानता है.
93 वर्षों तक दंत्य ‘स’ वाले एक छोटे-से साह समाज को गरिमा के साथ जीने का हौसला देने वाले अपने प्यारे ठुलदा को क्या मैं कभी भूल सकता हूँ? मैं ही क्यों, कोई भी नैनीताल वासी बत्तीस, बड़ा बाज़ार, मल्लीताल में रहने वाले उस विचित्र महा-मानव को?
(Thulda Article by Batrohi)
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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